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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[सम्मत्ताणियोगद्दारं १० णाणावरणपंचपयडीओ, दंसणावरणणवपयडीओ, वेदणीयस्स दुवे पयडीओ, मोहणी - यस मिच्छत्त- सोलसकसाय णवणोकसाया त्ति छन्वीसं पयडीओ संतकम्मं, अणादियमिच्छादिट्ठिस्स सादिमिच्छादिट्ठिस्स छव्वीस संतकम्मियस्स वा तदुवलंभादो | अहवा सम्मत्तेण विणा मोहणीयस्स सत्तावीसं पयडीओ संतकम्मं होइ, सम्मत्तमुव्वेलिय उवसमसम्मत्ता हिमुहम्मि तदविरोहादो । अथवा सम्मत्तेण सह अट्ठवीससंतकम्मं हो, वेदगपाओग्गकालं वोलिय सम्मत्तमणिल्लेवियूंण उवसमसम्मत्ताहि - हम्म तहाविहसंभवदंसणादो । आउअस्स एक्का वा दो वा पयडीओ संतकम्मं । तं कधं १ जह बद्धपरभवियाउओ उवसमसम्मत्तं पडिवजह तदो दो पयडीओ । अध अबद्धपरभवियाओ तदा एया पयडी अण्णदरा जा भुंजमाणिया ति । णामस्स चदु दि-पंचजादि - ओरालिय- वेडव्विय- तेजाकम्मइयसरीर - तेसिं चेव, बंधण-संघाद छसंठाणाहारवज-दोणिअंगोवंग - छसंघडण - वण्ण-गंध-रस - फास - चदुआणु पुव्वि - अगुरुअलहुअउवघाद- परघादुस्सास- आदावुज्जोव - दोविहायगइ-तस - थावरादिदसजुअल - णिमिणं चेदि एदासि पयडीणं संतकम्ममत्थि । गोदस्स दुवे पयडीओ णीचुच्चाग़ोदमिदि । अंतरा - इस पंच पयडीओ । एदासि पयडीणं पयडिसंतकम्ममत्थि, सेसाणं णत्थि । पुव्वु
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पाँच प्रकृतियाँ, दर्शनावरणकी नौ प्रकृतियाँ, वेदनीयकी दो प्रकृतियाँ तथा मोहनीयकी मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषाय ये छव्वीस प्रकृतियाँ सत्कर्मरूपसे होती हैं, क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि तथा छवीस प्रकृतियाँ सत्कर्मवाले सादि मिथ्यादृष्टिके इनका सद्भाव पाया जाता है । अथवा सादि मिध्यादृष्टिके सम्यक्प्रकृतिके विना मोहनीयकी सत्ताईस प्रकृतियाँ सत्कर्मरूपसे होती हैं, क्योंकि सम्यक्त्वकी उद्वेलना कर उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके उनके होनेमें कोई विरोध नहीं है । अथवा सम्यक्त्वके साथ अट्ठाईस प्रकृतियाँ सत्कर्मरूपसे होती हैं, क्योंकि वेदकसम्यक्त्वके योग्य कालको ' उल्लंघन कर जिसने सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना नहीं की है ऐसे उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके उक्त प्रकार से अट्ठाईस प्रकृतियोंका सद्भाव देखा जाता है । उक्त जीवके आयुकर्मकी एक या दो प्रकृतियाँ सत्कर्मरूपसे होती हैं।
शंका- वह कैसे ?
समाधान-यदि जिसने परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध किया है ऐसा जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो दो प्रकृतियाँ होती हैं। और जिसने परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध नहीं किया है ऐसा वह जीव है तो मुज्यमान अन्यतर एक प्रकृति होती है ।
नामकर्मको चार गति, पाँच जाति, औदारिक- वै क्रियिक-तैजस-कार्मण शरीर, उन्हींके बन्धन और संघात, छह संस्थान, आहारक अंगोपांगको छोड़कर दो आंगोपांग, छह संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, चार आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायगति, त्रस-स्थावर आदि दश युगल और निर्माण ये प्रकृतियाँ सत्कर्मरूप हैं। गोत्रकर्म की दो प्रकृतियाँ नोचगोत्र और उच्चगोत्र सत्कर्मरूप हैं। तथा अन्तराय कर्मकी पाँच प्रकृतियाँ सत्कर्मरूप हैं । इन प्रकृतियोंका प्रकृतिसत्कर्म है, शेष प्रकृतियोंका नहीं है ।