________________
गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
२०९
पाइदेण सम्मत्तेण आहारसरीरं बंधिय पुणो मिच्छत्तं गंतूण तप्पाओग्गेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेण कालेणुवसमसम्मत्तं पडिवज्जमाणस्साहारदुगसंतकम्ममेत्थ किण्ण लब्भदे ? ण, आहारसरीरमणुव्वेल्लिय तस्स उवसमसम्मत्तपाओग्गत्ताणुवभादो । कुदो एवं १ वेदगपाओग्गकालादो आहारसरीरुव्वेन्लणकालस्स थोवभावोव एसादो । एदासिं चैव पयडीणमाउअवजाणं द्विदिसंतकम्ममंतोकोडाकोडीए, आउआणं च तप्पा ओग्गमणुगंतव्वं ।
$ २९. अणुभागसंतकम्मं पि अप्पसत्थाणं कम्माणं पंचणाणावरणीय णवदंसणावरणीय - असादवेदणीय - मिच्छत्त- सोलसकसाय - णवणोकसाय - सम्मत-सम्मामिच्छत्त- णिरयगइ - तिरिक्खगइ एइंदियादिचदुजादि- पंचसंठाण - पंचसंघडण - अप्पसत्थवण्ण-गंध-रस-फास- णिरयगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वि उवघाद - अप्पसत्थविहायगहथावर-सुडुम-अपजत्त-साहारण सरीर - अथिर-असुभ - दुर्भाग- दुस्सर- अणादेज्ज - अजसगित्तिणीचा गोद - पंचतराइयाणं विट्ठाणियाणुभागसंतकम्मिओ ।
शंका – पहले उत्पन्न किये गये सम्यक्त्वके साथ आहारकशरीरका बन्धकर पुनः मिथ्यात्वमें जाकर तत्प्रायोग्य असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके आहारकद्विक सत्कर्म यहाँ क्यों उपलब्ध नहीं होता ?
समाधान नहीं, क्योंकि आहारकशरीरकी उद्वेलना किये विना उसके उपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिकी योग्यता नहीं बनती ।
शंका- ऐसा किस कारण से है ?
समाधान —क्योंकि वेदकसम्यक्त्वके योग्य कालसे आहारकशरीर के उद्वेलनाका काल स्तोक है ऐसा परमागमका उपदेश पाया जाता है। आयुकर्मके अतिरिक्त इन्हीं प्रकृतियोंका स्थितिसत्कर्म अन्तःकोड़ाकाड़ीके भीतर होता है । आयुकमका तत्प्रायोग्य स्थितिसत्कर्म जानना चाहिए ।
विशेषार्थ- - प्रथम उपशमसम्यक्त्वके सन्मुख हुए जीवके आहारकचतुष्क और तीर्थकर इं प्रकृतियोंका सत्त्व सम्भव नहीं है । आहारकचतुष्कका सत्व क्यों नहीं पाया जाता इसका स्पष्टीकरण तो टीकामें किया ही है। ऐसे जीव के तीर्थंकर प्रकृतिका इसके पूर्व बन्ध ही नहीं होता, इसलिये उसका सत्त्व भी सम्भव नहीं है । शेष सब कथन सुगम है ।
$ २९. अब अनुभागसत्कर्मको बतलाते हैं - जो अप्रशस्त कर्म पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय आदि चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्ण - गन्ध-रस-स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्जगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, 'अयश:कीर्ति, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका द्विस्थानीय अनुभागसत्कर्मवाला होता है ।
♡
विशेषार्थ – पहले प्रायोग्यलब्धि के काल में ही अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग द्विस्थानीय हो जाता है यह स्पष्ट कर आये हैं और उपशम सम्यक्त्वके सन्मुख हुआ जीव प्रायोग्यलब्धि सम्पन्न होता ही है, अतः इसके भी सत्ता में स्थित अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग द्विस्थानीय
२७