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गया है कि तीनों वेदों से कोई एक वेद होता है सो इस उत्तर द्वारा भाववेदका ही ग्रहण करना चाहिए । चूँकि प्रारम्भके पाँचवें गुणस्थानतककी प्राप्ति द्रव्यसे पुरुष, स्त्री और नपुंसक संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों को भी हो सकती है, अतः जयधवलाकारने वेदके द्रव्य और भाव ऐसे भेद करके दोनों प्रकार के तीनों वेदवाले जीव प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करते हैं उसमें कोई विरोध नहीं है यह निर्देश किया है। परमागम चार अनुयोगों में विभक्त है । उनमेंसे चरणानुयोगमें बाह्य आचारकी अपेक्षा विचार किया गया है, इसलिए उसमें द्रव्यवेद विवक्षित है और करणानुयोगमें नोआगम भावरूप जीवोंकी अर्थ- व्यंजन पर्यायें ली गई हैं, इसलिए उसमें भाववेद विवक्षित है इतना यहाँ विशेष समझना चाहिए ।
दूसरी सूत्रगाथा 'काणि वा पुव्वबद्धाणि' इत्यादि है । इसमें आठों कर्मोक प्रकृति आदिके भेदसे चारों प्रकारके सत्त्व, बन्ध, उदय और उदीरणा विषयक पृच्छाका चूर्णिसूत्रों और जयधवला टीका द्वारा विचार " किया गया है। इनमें से प्रकृति सत्त्वका विचार करते हुए जो निर्देश किया है उसके अनुसार मोहनीय कर्मकी २६-२७ या २८ प्रकृतियों की सत्ता होती है । अनादि मिथ्यादृष्टिके २६ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है, सादि मिथ्यादृष्टि के यथासम्भव २६, २७ या २८ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है । कारण स्पष्ट है । आयु कर्मकी एक भुज्यमान आयुकी अपेक्षा एककी और यदि परभव सम्बन्धी आयुका वन्ध किया हो तो दोकी सत्ता होती है । नामकर्मकी अपेक्षा आहारकचतुष्क और तीर्थंकर प्रकृतिको छोड़कर ८८ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है । ज्ञानावरणादिप पांच कर्मोंके जितने अवान्तर भेद हैं उन सबकी सत्ता होती हैं ।
यहाँ यह प्रश्न किया गया है कि सादि मिथ्यादृष्टिके आहारक चतुष्कका सत्त्व सम्भव है, इसलिए अन्य प्रकृतियों के साथ उनकी सत्ता भी कहनी चाहिए। इस प्रश्नका समाधान करते हुए बतलाया है कि वेदक सम्यक्त्वके कालसे आहारक शरीरको उद्वेलनाका काल अल्प है, इसलिए प्रथमोपशम सम्यक्त्व के सन्मुख हुए सादि मिथ्यादृष्टिके आहारक चतुष्कका सत्त्व नहीं पाया जाता ।
ऐसे जीवोंके आयुकर्मका स्थितिसत्त्व तत्प्रायोग्य होता है । तथा शेप कर्मोका स्थितिसत्त्व अन्तःकोड़ाकोड़ी के भीतर होता 4
ऐसे जीवोंके अप्रशस्त कमका अनुभाग द्विस्थानीय होता है और प्रशस्त कर्मोंका चतुःस्थानीय होता है । वर्णादिचतुष्क अपने उत्तर भेदोंके साथ प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी होते हैं । तथा प्रदेशसत्कर्म अजधन्य अनुत्कृष्ट होता है ।
उसी दूसरी गाथाका दूसरा चरण है- 'के वा अंसे णिबंधदि तदनुसार उक्त जीव किन प्रकृतियों के बन्धक होते हैं इसका विचार तीन दण्डकोंके द्वारा किया गया है। उन तीनों दण्डकों में समानरूपसे पाई जानेवाली प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, पुरुषवेद, हास्थ, रति, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय, जाति, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णादि चतुष्क, अगुरुलघु आदि चार, प्रशस्त विहायोगति, त्रसादि चतुष्क, स्थिरादि छह, निर्माण और पाँच अन्तराय । अब यदि अधः प्रवृत्तकरणके प्रथम समय में स्थित जीव मनुष्य और तिर्यञ्च हैं तो वे उक्त ६६ प्रकृतियोंके साथ देवगति वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आंगोपांग, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र इन पाँच प्रकृतियोंका भी बन्ध करते हैं ।
यदि देव और छह पृथिवियोंके नारकी जीव हैं तो वे उक्त ६६ प्रकृतियोंके साथ मनुष्यगति, औदारिक शरीर, वज्रर्षभनाराच संहनन, औदारिक शरीर आंगोपांग, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र इन छह प्रकृतियोंका भी बन्ध करते हैं ।
यदि सातवीं पृथिवीके नारकी हैं तो वे उक्त ६६ प्रकृतियोंके साथ तिर्यञ्चगति, औदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, कदाचित् उद्योत और नीचगोत्र इन ७ या ६ प्रकृतियोंका भी बन्ध करते हैं ।