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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ उवजोगो७ * तस्सेव उक्कस्सिया कोधद्धा विसेसाहिया । * तस्सेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया। * तस्सेव उक्कस्सिया लोभद्धा विसेसाहिया । * सण्णिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया माणद्धा संखेजगुणा। * तस्सेव उक्कस्सिया कोघद्धा विसेसाहिया। * तस्सेव उक्कस्सिया मायद्धा विसेसाहिया । * तस्सेव उक्कसिया लोभद्धा विसेसाहिया।
$ ५४. सुगमो च एसो सव्वो वि अप्पाबहुअपबंधो। तदो पढमगाहाए पुव्वद्धस्स अत्थविहासा समत्ता।
* 'को वा कम्हि कसाये अभिक्खमुवजोगमुवजुत्तो' त्ति एत्थ अभिक्खमुवजोगपरूवणा कायव्वा।
५५. एत्तो गाहापच्छिमद्धस्स जहावसरपत्तस्स अत्थविहासा कायव्वा त्ति पदुप्पायणट्ठमेदं सुत्तमोइण्णं । एत्थ य गाहापच्छद्धे अभिक्खमुवजोगपरूवणा कायव्वा, अभीक्ष्णमुपयोगो मुहुर्मुहुरुपयोग इत्यर्थः । एकस्य जीवस्यैकस्मिन् कषाये पौनःपुन्येनोपयोग इति यावत् । तत्थोघेण ताव कसायाणमभिक्खमुवजोगपरिणामक्कमपदंसणट्ठमुवरिमं पबंधमाह
* उससे उन्हींमें क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे उन्हींमें मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे उन्हींमें लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे संज्ञी पर्याप्तकोंमें मानका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। * उससे उन्हींमें क्रोधका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे उन्हींमें मायाका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। * उससे उन्हींमें लोभका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है।
$ ५४. यह सब अल्पबहुत्वका प्रबन्ध सुगम है। इस प्रकार प्रथम गाथाके पूर्वाधके अर्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
* 'कौन जीव किस कषायमें निरन्तर उपयोगसे उपयुक्त रहता है' इस प्रकार इस विषयमें निरन्तर होनेवाले उपयोगकी प्ररूपणा करनी चाहिए।
५५. आगे यथावसरप्राप्त गाथाके उत्तरार्धका विशेष व्याख्यान करना चाहिए इस बातका कथन करनेके लिए यह सूत्र अवतीर्ण हुआ है । यहाँ गाथाके उत्तराधके अनुसार पुनः पुनः उपयोगकी प्ररूपणा करनी चाहिए। अभीक्ष्ण उपयोगका अर्थ है पुनः पुनः उपयोगका होना। एक जीवके एक कषायमें बार-बार उपयोगका होना यह इसका आशय है। उसमें सर्वप्रथम ओघसे कषायोंके पुनः पुनः उपयोग परिणामक्रमके दिखलानेके लिए आगेके प्रबन्धको कहते हैं