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गाथा ६९]
सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा विदियगुणवड्डिअद्धाणं सरिसं होइ । णवरि एवमेत्थ वडावेतुं ण सकिजदे, एक्केको चेव जीवो वड्ढदि ति चुण्णिसुत्ते मुत्तकंठमुवइट्टत्तादो । तदो एगेगो चेव जीवो वड्डावेयलो । तहा वड्डाविज्जमाणे वि गुणहाणिअद्धाणमणवद्विदं होइ, पढमगुणवडिअद्धाणादो दुगुणमद्धाणं गंतूण बिदियदुगुणवड्डिसमुप्पत्तिदंसणादो। एवं सेसगुणवड्डीणं पि अणंतराणंतरादो दुगुण-दुगुणमद्धाणं गंतूण समुप्पत्ती वत्तव्वा । ण चेदमिच्छिज्जदे, जवमज्झादो हेट्ठा उवरिं च गुणवड्डि-हाणिअद्धाणाणं सरिसत्तब्भुवगमेण सह विरोहादो। तदो पयारंतरमस्सियूण एगेगजीववड्डीए वि जहा गुणवड्डिअद्धाणाणमवहिदत्तं ण विरुज्झदे तहा वत्तइस्सामो । तं जहा
$ २८५. जहण्णट्ठाणजीवपमाणविरलणाए पढमदुगुणवडिट्ठाणजीवे समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि दो दो जीवा पावंति त्ति तत्थ पढमरूवोवरि द्विददोजीवेसु एगो जीवो पढमगुणहाणिम्हि एगजीववड्डिअद्धाणस्स अद्धं गंतूण वड्ढावेयव्यो । पुणो विदियजीवो वि एत्तियमेत्तमद्धाणमुवरि गंतूण वड्डावेयव्यो । एवं पुणो पुणो कीरमाणे विरलणरूवमेत्तसव्वरूवधरिदेसु परिवाडीए पविद्वेसु तदो विदियदुगुणवड्डिहाणं पढमदुगुणवडिट्ठाणेण समाणमद्धाणं होदूण समुप्पज्जइ । पुणो एवं दुगुणवड्डिहाणमवहिदविरलणाए समखंडं कादूण दिण्णे एकेकस्स रुवस्स चत्तारि चत्तारि जीवा होदण
यदि बढ़ाते हैं तो द्वितीय गुणवृद्धिस्थान प्रथम गुणवृद्धिस्थानके समान होता है। इस प्रकार यहाँपर बढ़ाना शक्य नहीं है, क्योंकि एक-एक ही जीव बढ़ता है ऐसा चूर्णिसूत्र में मुक्तकण्ठ उपदेश दिया गया है । इसलिये एक-एक जीव ही बढ़ाना चाहिए । किन्तु इस प्रकार बढ़ानेपर भी गुणहानिअध्वान अनवस्थित हो जाता है, क्योंकि प्रथम गुणवृद्धिस्थानसे द्विगुण अध्वान जाकर द्वितीय गुणवृद्धिकी उत्पत्ति देखी जाती है। इसीप्रकार शेष गुणवृद्धियोंकी भी समनन्तर पूर्व समनन्तर पूर्व द्विगुणवृद्धिसे द्विगुण द्विगुण अध्वान जाकर उत्पत्ति कहनी चाहिए। परन्तु यह इष्ट नहीं है, क्योंकि यवमध्यसे पूर्वके और आगेके गुणवृद्धि और गुणहानि स्थानों सदृश स्वीकार करनेसे उक्त कथनका इस कथनके साथ विरोध आता है। इसलिये दूसरे प्रकारका अवलम्बन लेकर एक-एक जीवकी वृद्धि करते हुए भी जिस प्रकार गुणवृद्धिस्थानोंका अवस्थितपना विरोधको प्राप्त नहीं होता है उस प्रकारसे बतलाते हैं । यथा
६२८५. जघन्य स्थानके जीवोंके प्रमाणका विरलन करनेपर प्रत्येक विरलनके प्रति द्विगुणवृद्धिस्थानके जीवोंके समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर प्रत्येक विरलनके प्रति दो-दो जीव प्राप्त होते हैं, इसलिवे वहाँ प्रथम अंकके ऊपर स्थित दो जीवोंमेंसे एक जीवको प्रथम गुणहानिमें एक जीवसम्बन्धी वृद्धिका जो अध्वान है उसका अर्धभाग जानेपर बढ़ाना चाहिए। पुनः दूसरे जीवको भी इतना अध्वान आगे जानेपर बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार पुनः पुनः करनेपर विरलन अंकप्रमाण सब अंकोंपर स्थापित जीवोंके क्रमसे प्रविष्ट होनेपर द्वितीय द्विगुणवृद्धिस्थान प्रथम द्विगुणवृद्धिस्थानके समान आयामवाला होकर उत्पन्न होता है । पुनः इस द्विगुणवृद्धिस्थानको अवस्थित विरलनके ऊपर समान खण्ड करके देयम्पसे देनेपर एक-एक अंकके प्रति चार-चार जीव होकर प्राप्त होते हैं। पुनः इनके बढ़ानेपर प्रथम