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तस्यैव चौपशमिकसम्यग्दृष्टेरष्टाविंशतिसत्कर्मणः आवलिकाया अभ्यन्तरे वर्तमानस्य सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वे न संक्रामति । -प्रकृति सं. पत्र १०
(४) पुरुषवेदकी पतद्ग्रहता कब नष्ट हो जाती है इस विषयमें कर्मप्रकृति चूर्णिकारका जो मत है उसी मतका निर्देश पंचसंग्रहणकी भलयगिरि टीकामें दृष्टिगोचर होता है। यथा
पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितौ द्वयावलिकाशेषायां प्रागुक्तस्वरूपं आगालो व्यवच्छिद्यते, उदीरणा तु भवति, तस्मादेव समयादरभ्य षण्णां नोकषायाणां सत्कं दलिकं पुरुषवेदे न संक्रमयति ।
-पंच. चा० मो० ड० पत्र १९१ श्वे. पंचसंग्रहके ये कतिपय उद्धरण है जो मात्र कर्मप्रकृत्तिचूर्णिका पूरी तरह अनुसरण करते हैं, किन्तु कषायप्राभृत और उसकी चूणिका अनुसरण नहीं करते । इससे स्पष्ट है कि कषायप्राभूत और उसकी चूर्णिको श्वेताम्बर आचार्योंने कभी भी अपनी परम्पराकी रचनारूपमें स्वीकार नहीं किया। यहां हमारे इस बातके निर्देश करनेका एक खास कारण यह भी है कि मलयगिरिके मतानुसार जिन पाँच ग्रन्थोंका पंचसंग्रहमें समावेश किया गया है उनमें एक कषायप्राभत भी है। यदि चन्द्रषिमहत्तरको पञ्चसंग्रह श्वेताम्बर आचार्यकी कृतिरूपमें स्वीकार होता तो उन्होंने जैसे कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिको अपनी रचनामें प्रमाणरूपसे स्वीकार किया है वैसे ही वे कषायप्राभूत और उसकी चूर्णिको भी प्रमाणरूपमें स्वीकार करते। और ऐसी अवस्थामें जिन-जिन स्थलोंपर उन्हें कषायप्राभूत और कर्मप्रकृतिमें पदार्थभेद दृष्टिगोचर होता उसका उल्लेख वे अवश्य करते। किन्तु उन्होंने ऐसा न कर मात्र कर्मप्रकृति और उसकी चूणिका अनुसरण किया है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि चन्द्रर्षि महत्तर कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिको श्वेताम्बर परम्पराका नहीं स्वीकार करते रहे।
__ यहाँ हमने मात्र उन्हीं पाठोंको ध्यानमें रखकर चर्चा की है जिनका निर्देश उक्त प्रस्तावनाकारने किया है। इनके सिवाय और भी ऐसे पाठ हैं जो कर्मप्रकृति और पंचग्रहमें एक ही प्रकारकी प्ररूपणा करते हैं। परन्तु कषायप्राभूत चूणिमें उनसे भिन्न प्रकारको प्ररूपणा दृष्टिगोचर होती है। इसके लिए हम एक उदाहरण उद्वेलना प्रकृतियोंका देना इष्ट मानेंगे। यथा
___ कषायप्राभृतचूर्णिमें मोहनीयकी मात्र दो प्रकृतियाँ उद्वेलना प्रकृतियां स्वीकार की गई हैं-सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति । किन्तु पंचसंग्रह और कर्मप्रकृतिमें मोहनीयको उद्वेलना प्रकृतियोंकी संख्या २७ है। यथा दर्शनमोहनीय की ३, लोभसंज्वलनको छोड़कर १५ कषाय और ९ नोकषाय । कषायप्राभूतचूर्णिका पाठ
५८ सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णद्विदिविहत्ती कस्स ? चरिमसमयउव्वेल्लमाणस्स । (पृ० १०१) ३६ एवं चेव सम्मत्तस्स वि । (पृ० १९०) __पंचसंग्रह-प्रदेशसंक्रमका पाठ
एवं उव्वलणासंकमेण नासेइ अविरओहारं ।
सम्मोऽणमिच्छमीसे सछत्तीसऽनियट्टि जा माया ॥ ७४॥ इसके सिवाय पञ्चसंग्रहके प्रदेशसंक्रमप्रकरणमें एक यह गाथा भी आई है जिससे भी उक्त विषयकी पुष्टि होती है
सम्म-मीसाइमिच्छो सुरदुगवेउन्विछक्कमेगिदी।
सुहुमतसुच्चमणुदुर्ग अंतमुहुत्तेण अणियट्टी ॥७५ ॥ इसमें बतलाया है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी मिथ्यादृष्टि जीव उद्वेलना करता है, पंचानवे प्रकृतियोंकी सत्तावाला एकेन्द्रिय जीव देवद्विकको उद्वेलना करता है, उसके बाद वही जीव वैक्रियषट्ककी उद्वेलना करता है, सूक्ष्म त्रस अग्निकायिक और वायुकायिक जीव क्रमसे उच्चगोत्र और मनुष्यद्विकको उद्वेलना करता है तथा अनिवृत्तिबादर जीव एक अन्तर्मुहूर्तमें पूर्वोक्त ३६ प्रकृतियोंकी उद्वेलना करता है ।