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गाथा ९४ ]
दंसणमोहोवसामणा
$ १५२. आगालणमागालो, विदियट्ठिदिपदेसाणं पढमट्ठिदीए ओकडणावसेणागमणमिदि युतं' होइ । प्रत्यागलनं प्रत्यागालः, पढमंट्ठिदिपदेसाणं विदियट्ठिदीए उकड्डूणावसेण गमणमिदि भणिदं होइ । तदो पढम - विदियट्ठिदिपदेसाणमुक्कड्डुणोकडणावसेण परोप्परविसय संकमो आगाल-पडिआगालो त्ति घेत्तव्वो । एवंलक्खणो आगालपडिआगालो ताव ण पडिहम्मदे जाव पढमट्ठिदीए आवलिय-पडिआवलियाओ समयुत्तराओ सेसाओ ति आवलिय-पडिआवलियाणं तस्स मज्जादाभावेण सुत्ते णिद्दिट्ठत्तादो । तत्थावलिया त्ति वृत्ते उदयावलिया घेत्तव्वा । पडिआवलिया त्ति एदेण वि उदयावलियादो उवरिमविदियावलिया गहेयव्वा । किं पुण कारणमावलिय-पडिआवलियमेत्तसेसाए पढमट्ठिदीए आगाल - पडिआगालवोच्छेदणियमो १ ण, सहावदो चैव तदवत्थाए तप्पड - घादग्भुवगमादो । तदो चैव एत्तो पहुडि मिच्छत्तस्स गुणसेढिणिक्खेवो णत्थि ि जाणावणट्ठमिदमाह -
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* आवलिय-पडिआवलियासु सेसासु तदो पहुडि मिच्छत्तस्स गुणसेढी णत्थि ।
$ १५२. आगालकी व्युत्पत्ति है-आगालनं आगालः, अर्थात् द्वितीय स्थिति के कर्म परमाणुओं का प्रथम स्थिति में अपकर्षणवश आना आगाल है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । प्रत्यागालकी व्युत्पत्ति है - प्रत्यागालनं प्रत्यागालः । प्रथम स्थितिके कर्मपरमाणुओंका द्वितीय स्थितिमें उत्कर्षणवश जाना प्रत्यागाल है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अतः प्रथम और द्वितीय स्थिति के कर्म परमाणुओंका उत्कर्षण और अपकर्षणवश परस्पर विषयसंक्रमका नाम आगालप्रत्यागाल है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकारके लक्षणवाले आगाल- प्रत्यागाल त तक नहीं व्युच्छिन्न होते हैं जब तक प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक आवलि - प्रत्यावलि शेष रहती हैं, अतएव आवलि प्रत्यावलिको उसकी मर्यादारूपसे सूत्र में निर्दिष्ट किया है। उनमें से आवलि ऐसा कहने पर उदद्यावलिको ग्रहण करना चाहिए। प्रत्यावलि इससे भी उदयावलिसे उपरिम दूसरी आवलिको ग्रहण करना चाहिए ।
शंका - प्रथम स्थितिके आवलि-प्रत्यावलिमात्र शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागालके विच्छेदका नियम है इसका क्या कारण है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि स्वभावसे ही उस अवस्था में उनका विच्छेद स्वीकार किया
गया है ?
और इसीलिए यहाँसे लेकर मिथ्यात्वका गुणश्रणिनिक्षेप नहीं होता इस बातका ज्ञान करानेके लिये इस सूत्रको कहते हैं
* आवलि और प्रत्यावलिके शेष रहनेपर वहाँसे लेकर मिथ्यात्वकी गुणश्रेणि नहीं होती ।
१. ता. प्रतो भणिदं इति पाठः ।