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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
$ १५३. किं कारणं १ विदियट्ठिदीदो पढमट्ठिदीए तदवस्थाए पदेसागमणस्साणंतरमेव पडिसिद्धत्तादो | ण च पढमट्ठिदीए पडिआवलियपदेसग्गमोकड्डियूण गुणसेटिणिक्खेवो कीरदित्ति वोत्तु जुत्तं, उदयावलियन्तरे गुणसेढिणिक्खेवस्स एदम्मि विसए असंभवादो । ण च पडिआवलियादो ओकडिदपदेसग्गं तत्थेव गुणसेढीए णिक्खिवदि त्ति संभवो अस्थि, अप्पणो अइच्छावणाविसए णिक्खेवविरोहादो ।
$ १५३. क्योंकि दूसरी स्थितिसे प्रथम स्थितिमें उस अवस्थामें कर्म परमाणुओंके आनेका अनन्तर पूर्व ही निषेध कर आये हैं । यदि कहा जाय कि प्रत्यावलिके कर्मपरमाणुओंका प्रथम स्थिति में अपकर्षण करके गुणश्रेणिनिक्षेप किया जाता है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसी अवस्थामें उदद्यावलिके भीतर गुणश्रेणिनिक्षेपका होना असम्भव है । और प्रत्याबलिमेंसे अपकर्षित प्रदेशपुञ्जका वहीं गुणश्रेणिमें निक्षेप होता है यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि अपनी अतिस्थापनामें अपकर्षित द्रव्यके निक्षेपका निरोध है ।
विशेषार्थ —यहाँ यह बतलाया गया है कि अन्तरकरणके बाद जब मिथ्यात्वकी प्रथम स्थिति आवलि - प्रत्यावलिप्रमाण शेष रह जाती है तब वहाँसे लेकर द्वितीय स्थितिमेंसे अपकर्षित होकर मिथ्यात्वका द्रव्य प्रथम स्थिति में निक्षिप्त नहीं होता और प्रथम स्थितिके द्रव्यका उत्कर्षण होकर द्वितीय स्थितिमें निक्षेप नहीं होता और इसीलिए यहाँ से लेकर मिथ्यात्वके द्रव्यका गुणश्रेणिनिक्षेप भी रुक जाता है। इसपर शंकाकारका कहना है कि ऐसी स्थितिमें भले ही प्रथम स्थिति द्रव्यका द्वितीय स्थितिमें उत्कर्षण होकर निक्षेप मत होओ और द्वितीय स्थितिके द्रव्यका भले ही प्रथम स्थितिमें अपकर्षण होकर निक्षेप मत होओ, क्योंकि मिध्यात्वकी प्रथम स्थितिमें आवलि-प्रत्यावलिप्रमाण स्थितिके शेष रहनेपर आगाल - प्रत्यागालका सूत्रमें निषेध किया है । किन्तु जब तक प्रत्यावलिका द्रव्य सत्त्वरूपसे अवस्थित हैं तब तक प्रत्यावि द्रव्यका अपकर्षण होकर उसका गुणश्रेणिमें निक्षेप होना सम्भव है । यह एक शंका है। इसका समाधान यह है कि जब प्रथम स्थिति में आवलि और प्रत्यावलिमात्र स्थिति शेष रहती है तबसे लेकर उदद्यावलिमें गुणश्रेणिनिक्षेपका होना सम्भब नहीं है । कारण यह है कि जब द्वितीय स्थिति में से द्रव्यका अपकर्षण होकर प्रथम स्थितिमें निक्षेप ही नहीं होता ऐसी अवस्थामें केवल प्रत्यावलिके आधारसे मिध्यात्वके द्रव्यकी गुणश्रेणिरचनाका होते रहना सम्भव नहीं है । कदाचित् शंकाकार यह कहे कि प्रत्यावलिकी उपरितन स्थितियोंका अपकर्षण होकर अधस्तन स्थितियों में निक्षेप होना बन जायगा सो भी बात नहीं हैं, क्योंकि उपरितन स्थितियोंका अपकर्षण होकर अधस्तन स्थितियों में निक्षेप मध्य में अतिस्थापनाको छोड़कर ही होता है ऐसी व्यवस्था है । यतः प्रत्यावलिको उपरितन स्थितियोंके लिये उसीकी अधस्तन स्थितियाँ अतिस्थापना रूप हैं, अतः प्रत्यावलिकी उपरिवन स्थितियोंका भी वहीं गुणश्रेणिमें निक्षेप नहीं हो सकता। इसलिये यही निश्चित हुआ कि मिध्यात्वकी प्रथम स्थितिके आवलि - प्रत्यावलिप्रमाण शेष रहनेपर मिथ्यात्वकी द्वितीय स्थितिका प्रथम स्थिति में और प्रथम स्थितिका द्वितीय स्थिति में क्रमसे अपकर्षण- उत्कर्षण नहीं होता। साथ ही प्रत्यावलिके निषेकोंका उदद्यावलिमें और प्रत्याafont उपरितन स्थितियोंका उसीकी अधस्तन स्थितियों में अपकर्षण होकर निक्षेप नहीं होता । इसलिए यहाँसे लेकर मिध्यात्वके कर्मपुंजका गुणश्रेणिनिक्षेप भी नहीं होता ।