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गाथा ६३ ]
पढमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
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* कोधधा माणदूधा मायद्धा लोहदूद्धा जहण्णियाओ वि उक्कस्सियाओ वितोमुहुत्तं ।
$ २१. कोह- माण- माया - लोभाणमुवजोगकालो जहण्णओ वि उक्कस्सओ वि अंतोमुहुत्तपरिमाणो त्ति भणिदं होइ | अंतोमुहुत्तादो अन्भहियपमाणो कोहादीणमुवजोगकालो किण्णोवलब्भदे ? ण, तत्तो परं कसायपरावत्तीए विणा अवट्ठाणासंभवादो । दो एदं णव्वदे ? एदम्हादो चैव सुत्तादो । कोहादिकसायोवजोगजुत्ताणं जहण्णकालो मरण - वाघादेहिं एगसमयमेत्तो चि जीवट्टाणादिसु परूविदो सो एत्थ किण्ण इच्छिज्जदे १ ण, चुण्णिसुताहिप्पाएण तहासंभवाणुवलंभादो । एवमोघेण कोहादिकसायोवजोगजुचाणं जहण्णुकस्सकालणिद्देसो कओ । संपहि आदेसगयविसेसपरूवणमुर सुत्रमाह
* क्रोधकषायका काल, मानकषायका काल, मायाकषायका काल और लोभ कषायका काल जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है ।
२१. क्रोध, मान, माया और लोभका उपयोगकाल जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका — क्रोधादि कषायका उपयोगकाल अन्तर्मुहूर्त से अधिक प्रमाणवाला क्यों उपलब्ध नहीं होता ? समाधान नहीं, क्योंकि कषायोंके परावर्तनके विना उससे अधिक कालतक उनका अवस्थान असम्भव है ।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान - इसी सूत्र से जाना जाता है ।
शंका - क्रोधादि कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंका मरण और व्याघातसे जघन्य काल एक समयमात्र जीवस्थान आदिमें कहा है वह यहाँ पर क्यों स्वीकार नही किया जाता है ? समाधान — नहीं, क्योंकि चूर्णिसूत्रोंके अभिप्रायानुसार उस प्रकार कालको स्वीकार करना सम्भव नहीं है ।
विशेषार्थ — खुद्दाबन्ध में एक जीवकी अपेक्षा क्रोघकषायका मरणसे तथा मान, माया और लोभ कषायका मरण और व्याघात दोनों प्रकारसे जघन्य काल एक समय बतलाया है । जीवस्थानमें भी यह प्ररूपणा इसी प्रकारसे की गई है । किन्तु चूर्णिसूत्रों में इसे स्वीकार नहीं किया गया है यह उक्त शंका-समाधानका तात्पर्य है ।
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इस प्रकार ओघसे क्रोधादि कषायोंमें उपयुक्त हुए जीवोंके जघन्य और उत्कृष्ट कालका निर्देश किया । अब आदेशगत विशेषका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
१. ता० प्रती अहियपमाणो इति पाठः । २. ता० प्रती अवट्ठाणसंभवो इति पाठः ।