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गाथा १०३ ] दसणमोहोवसामणा
३१५ वुत्ते सव्वेसि दंसणमोहणीयकम्माणमुवसमेणे त्ति घेत्तव्वं, मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं तिण्णं पि कम्माणं पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसविहत्ताणमेत्थुवसंतभावेणावट्ठाणदंसणादो । 'तत्तो परमुदयो खलु ततः परं दर्शनमोहभेदानां त्रयाणां कर्मणामन्यतमस्य नियमेनोदयपरिप्राप्तिरित्युक्तं भवति । तदो उवसंतद्धाए खीणाए तिण्हं कम्माणमण्णदरं जं वेदेदि तमोकड्डियणुदयावलियं पवेसेदि, असंखेजलोगपडिभागेण उदयावलियबाहिरे च एगगोवुच्छसेढीए णिक्खेवं करेइ । सेसाणं च दोण्हं कम्माणमुदयावलियबाहिरे एगगोवुच्छायारेण णिक्खेवं करेइ । एवं तिण्हमण्णदरस्स कम्मस्स उदयपरिणामेण मिच्छाइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी वेदयसम्माइट्टी वा होदि त्ति एसो गाहापच्छद्धे सुत्तत्थसमुच्चओ।
२०५. संपहि अणादियमिच्छाइट्ठी सम्मत्तमुप्पाएमाणो णियमा तिण्णि वि करणाणि कादूण सव्वोवसमेणेव परिणदो सम्मत्तमुप्पाएदि । सादियमिच्छाइट्ठी वि जो
समाधान-पूर्व में कहे गये अल्पबहुत्वसे जाना जाता है।
गाथासूत्रमें 'सव्वोवसमेण' ऐसा कहने पर सभी दर्शनमोहनीय कर्मोके उपशमसे ऐसा प्रहण करना चाहिए, क्योंकि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूपसे विभक्त मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीनों ही कमोंका यहाँ पर उपशान्तरूपसे अवस्थान देखा जाता है । 'तत्तो परभुदयो खलु' अर्थात् उसके बाद दर्शनमोहके भेदरूप तीनों कर्मोंमेंसे किसी एकके नियमसे उदयकी प्राप्ति होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उसके बाद उपशान्त कालके क्षीण होने पर तीनों कोंमेंसे अन्यतर जिस कर्मका वेदन करता है उसको अपकर्षण कर उदयावलिमें प्रविष्ट करता है तथा असंख्यात लोकके प्रतिभागरूपसे उदयावलिके बाहर एक गोपुच्छाकार पंक्तिरूपसे निक्षेप करता है। तथा शेष दोनों कर्मोंका उदयावलिके बाहर एक गोपुच्छाकाररूपसे निक्षेप करता है । इस प्रकार तीनोंमेंसे किसी एक कर्मका उदयपरिणाम होनेसे मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि या वेदकसम्यग्दृष्टि होता है इस प्रकार यह गाथाका उत्तरार्धसम्बन्धी सूत्रके अर्थका समुच्चय है।
- विशेषार्थ-इस गाथासूत्रमें दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियाँ कितने काल तक उपशान्त रहती हैं और उसके बाद इन तीनों प्रकृतियोंका क्या होता है इस बातका विचार करते हुए बतलाया गया है कि ये तीनों प्रकृतियाँ अन्तरायामके संख्यातवें भागप्रमाण अन्तर्मुहूर्त काल तक उपशम होनेसे उपशान्त रहती हैं । गाथामें सर्वोपशम पाठ आया है। उसका इतना ही तात्पर्य है कि उपशम सम्यग्दृष्टिके दर्शनमोहनीयकी सब प्रकृतियोंका उदयाभावरूप उपशम होता है। दर्शनमोहनीयकी सब प्रकृतियोंसम्बन्धी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश चारों ही अन्तर्मुहूर्त काल तक उदयके अयोग्य हो जाते हैं यही यहाँ सर्वोपशम है। उसके बाद तीनोंमेंसे किसी एक प्रकृतिका नियमसे उदय होता है। जिसका उदय होता है उसका उदय समयसे अपकर्षण होकर निक्षेप होता है और जिन दो प्रकृतियोंका उदय नहीं होता उनका उदयावलिके बाहर अपकर्षण होकर निक्षेप होता है।
$ २०५. अब अनादि मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वको उत्पन्न करता हुआ नियमसे तीनों ही करणोंको करके सर्वोपशमरूपसे ही परिणत होकर सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है तथा सादि