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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगहारं १० रोवमाणं संखेज्जे भागे अपुव्वकरणविसोहिणिबंधणट्ठिदिखंडयसहस्सेहिं घादिय संखेजदिभागमेत्तस्सेव हिदिसंतकम्मस्स परिसेसिदत्तादो। संपहि अपुव्वकरणपढमसमयप्पहुडि जाव चरिमसमयो त्ति ताव एदम्मि अंतरे घादिदासेससागरोवमाणमागमणमिच्छामो ति तेरासियं कादण जोइजदे । तं कथं ? तप्पाओग्गसंखेजरूवमेत्ताणं ठिदिखंडयाणं जइ एगं पलिदोवमं लब्भइ तो एत्तो संखेज्जसहस्सकोडिगुणट्ठिदिकंडएसु केत्तियाणि पलिदोवमाणि लहामो त्ति तेरासियं कादूण डिदिखंडयस्स डिदिखंडयं सरिसमवणिय हेडिमसंखेज्जरवेहि उवरिमसंखेज्जरूवाणि ओवट्टिय लखेण पलिदोवमे गुणिदे संखेज्जकोडाकोडिमेत्तपलिदोवमाणि आगच्छंति द्विदिखंडयगुणगारमाहप्पादो। पुणो एदाणि संखेज्जकोडाकोडिमेत्तपलिदोवमाणि तेरासियकमेण सागरोवमपमाणेण कीरमाणाणि संखेज्जकोडिमेत्तसारोवमाणि होति त्ति । होंताणि वि पव्वणिरुद्धंतोकोडाकोडीए संखेज्जाभागमेत्ताणि त्ति घेत्तव्वाणि। अण्णहा अपुव्वकरणपढमसमयढिदिसंतकम्मादो चरिमसमयहिदिसंतकम्मस्स संखेज्जगुणहीणत्ताणुववत्तीदो । ठिदिबंधोसरणस्स वि एसो चेव अत्थो जोजेयव्यो ।
प्रमाण स्थिति है उसके संख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिका अपूर्वकरणसम्बन्धी विशुद्धिनिमित्तक हजारों स्थितिकाण्डकोंके द्वारा घातकर उसके अन्तिम समयमें संख्यातवें भागमात्र ही स्थितिसत्कर्म शेष रहता है । अब अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक इस कालके भीतर जितने सागरोपमप्रमाण स्थितियोंका घात हुआ है उन सबको प्राप्त करना चाहते हैं इसलिये त्रैराशिक करके योजना करते हैं।
शंका-वह कैसे ?
समाधान-तत्प्रायोग्य संख्यात संख्याप्रमाण स्थितिकाण्डकोंका यदि एक पल्योपम प्राप्त होता है तो इनसे संख्यात हजार कोटिगुणे स्थितिकाण्डकोंमें कितने पल्योपम प्राप्त होंगे इस प्रकार त्रैराशिककर स्थितिकाण्डक स्थितिकाण्डकके सदृश है अतः उनका अपनयनकर तथा अधस्तान संख्यात संख्यासे उपरिम संख्यात संख्याको भाजितकर जो लब्ध आवे उससे पल्योपमके गुणित करनेपर स्थितिकाण्डकसम्बन्धी गुणकारके माहात्म्यसे संख्यात कोड़ाकोड़ीप्रमाण पल्योपम प्राप्त होते हैं। पुनः इन संख्यात कोड़ाकोड़ीप्रमाण पल्योपमोंको त्रैराशिकविधिसे सागरोपमके प्रमाणसे करनेपर संख्यात कोटिप्रमाण सागरोपम होते हैं। इतने होते हुए भी अपूर्वकरणके प्रथम समयमें विवक्षित अन्तःकोड़ाकोड़ीके संख्यात बहुभागप्रमाण होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा अपूर्वकरणके प्रथम समयके स्थितिसत्कर्मसे अन्तिम समयका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन नहीं बन सकता। स्थितिबन्धापसरणके विषयमें भी इसी अर्थकी योजना करनी चाहिए।
विशेषार्थ-अपूर्वकरणके प्रथम समयमें विवक्षित कर्मोंका जितना स्थितिसत्त्व रहता है उसके अन्तिम समयमें वह संख्यातगुणा हीन कैसे हो जाता है इसी बातको यहाँ राशिक विधिसे स्पष्ट किया गया है। कारण यह है कि चूर्णिसूत्र में एक स्थितिकाण्डकका आयाम
१. ता. प्रतौ संखेज्जभागमेत्ताणि इति पाठः ।