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गाथा ८५ ]
सोलसमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
कोहादिकसायाणं एगट्ठाण - विट्ठाण - तिट्ठाण चउट्ठाणाणि वेदयमाणो निरुद्धद्वाणोदएण काणि द्वाणाणि बंध, काणि वा ण बंधइ ? अवेदयमाणो वा केसि ठाणाणमबंधगो होदि ति एसो अत्थविसेसो वंधोदयाणं सण्णियाससरूवो एहि परूवेयव्वोत्ति एदस्स विसेसणिण्णय मुवरिमगाहासुत्तसंबंधेण कस्सामो-
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(३२) असण्णी खलु बंधइ लदासमाणं च दारुयसमगं च ।
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सण्णी चदुसु विभज्जो एवं सव्वत्थ कायव्वं ॥ (१६) ८५ ॥ ३०. एसा सोलसमी गाहा । संपहि एदं गाहासुत्तमस्सियूण पुव्वणिद्दिट्ठाणं सव्वासिमेव पुच्छाणं णिरागीकरणमत्थमग्गणा कीरदे । तत्थ ताव सण्णिमग्गणाए पयदत्थमग्गणं सुत्ताणुसारेण कस्सामो। तं जहा- -' असण्णी खलु बंधई' एवं भणिदे जो असण्णी जीवो सो बंधइति पदसंबंधो कायव्वो । किं बंधदित्ति भणिदे लदासमाणं च दारुसमगं च दाणि दोसु विद्वाणाणि बंधदित्ति वृत्तं होइ । एदेण सेसाणं दोन्हं द्वाणाणं तत्थ सव्वत्थ बंधाभावो पदुप्पाइदो, तत्थ तत्र्यंधकारणसव्वसंकिलेसाभावादो । तदभावो वि कुदो ? जादिविसेसादो । तदो लदासमाण- दारुअस माणसण्णिदाणं दोन्हमेवाणुभाग
अबन्धक है इस प्रकार यह भी पृच्छा निर्देश है । इसका भावार्थ - क्रोधादि कषायोंके एक स्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभागका वेदन करनेवाला जीव विवक्षित स्थानके उदय के साथ किन स्थानोंका बन्ध करता है और किन स्थानोंका बन्ध नहीं करता । अथवा किस स्थानको वेदन नहीं करनेवाला जोव किन स्थानोंका बन्ध नहीं करता इस प्रकार बन्ध और उदयके सन्निकर्षस्वरूप इस अर्थ विशेषका यहाँ कथन करना चाहिए इस विशेषका निर्णय आगेके गाथासूत्र के सम्बन्ध से करेंगे
असंज्ञी जीव नियमसे लतासमान और दारुसमान इन दो अनुभागस्थानोंको बाँधता है । बन्धकी अपेक्षा संज्ञी जीव चारों स्थानोंमें भजनीय है । इसी प्रकार शेष मार्गणाओं में स्थानोंका अनुगम करना चाहिए || (१६) ८५ ॥
३०. यह सोलहवीं गाथा है । अब इस गाथासूत्रका अवलम्बन लेकर पूर्व में निर्दिष्ट की गई सभी पृच्छाओंका निराकरण करनेके लिये अर्थविषयक मार्गणा करते हैं । उसमें सर्वप्रथम संज्ञी मार्गणामें प्रकृत अर्थकी मार्गणा सूत्रके अनुसार करेंगे । यथा - ' असण्णी खलु बंधइ' ऐसा कहने पर जो असंज्ञी जीव है वह बाँधता है इन पदोंका परस्पर सम्बन्ध करना चाहिए । 'किं बंधदि' ऐसा कहने पर लतासमान और दारुसमान इन दोनों ही स्थानोंको बाँधता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इससे शेष दो स्थानोंका उन सबमें बन्धका अभाव है यह कहा गया है, क्योंकि उनमें उन दो स्थानोंके बन्धके कारणरूप सब प्रकारके संक्लेशपरिणामोंका अभाव है ।
शंका- उनका अभाव किस कारणसे है ?
समाधान-जातिविशेषके कारण उनका अभाव है । अर्थात् असंज्ञी जीवोंके स्वभावसे ही ऐसे संक्लेश परिणाम नहीं होते जिनको निमित्तकर अस्थिसमान और शैलसमान स्थानोंका उनके बन्ध होवे ।
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