________________
गाथा ६९] सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१३१ समखंडं कादूण जोइजइ तो एगेगरूवस्स एगजीवद्धपमाणं होदूण पावइ । ण चेदमिच्छिञ्जदे, तहाविहवड्डीए अच्चंतासंभवेण पडिसिद्धत्तादो। एवं तरिहि एदं चेव उक्कस्सट्ठाणजीवपमाणमिदि गेण्हामो त्ति भणिदे ण एवं पि घेत्तुं सकिञ्जदे, जवमज्झस्स हेडिमगाणागुणहाणिसलागाहिंतो उवरिमणाणागुणहाणिसलागाणमसंखेजगुणत्तोवएसस्स उवरिमसुत्तसिद्धस्स एत्थाणुववत्तीदो हेडिमोवरिमणाणागुणहाणिसलागाणमेदम्मि पक्खे सरिसत्तदंसणादो त्ति । .
२८८. पुणो संपहियविरलणाए अद्धं विरलेयण जहण्णट्ठाणजीवपमाणं समखंडं कादण दिण्णे तत्थ विरलणरूवं पडि एगेगजीवपमाणं पावइ । पुणो एदिस्से विरलणाए अद्धमेत्तजीवेसु समयाविरोहेण परिहाविदेसु तत्तो अण्णं दुगणहाणिट्ठाणमुप्पजइ । पुणो इमं विरलणमद्धं करिय जहण्णट्ठाणजीवेहितो अद्धमेत्तणिरुद्धट्ठाणजीवेसु समखंडं करिय दिण्णेसु विरलणरूवं पडि एगेगजीवपमाणं पावइ । एत्थ वि समयाविरोहेण असंखेजलोगमेत्तद्धाणं गंतूणेगेगजीवपरिहाणि कादूण आणिजमाणे संपहियविरलणाए अद्धमेत्तजीवेसु परिहीणेसु अण्णं दुगुणहाणिट्ठाणमुप्पजइ । एवमेदीए दिसाए गुणहाणिं पडि विरलणमद्धं कादूण णेदव्वं जाव जवमज्झछेदणयाणमसंखेजभागमेत्तगुणहाणीओ उवरि गंतूणुकस्सट्टाणजीवपमाणमवढिदं त्ति । णवरि उकस्सट्टाणे वि आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता जीवा जहा होति तहा कायव्वं, अण्णहा विरलनकर और विरलित राशिके प्रत्येक एकपर समान खण्ड करके देयरूपसे देकर यदि देखते हैं तो एक-एकका एक जीवसम्बन्धी कालका प्रमाण होकर प्राप्त होता है। किन्तु यह प्रकृतमें विवक्षित नहीं है, क्योंकि उस प्रकारकी वृद्धि अत्यन्त असम्भव होनेसे प्रतिषिद्ध यदि ऐसा है तो उत्कृष्ट स्थानके जीवोंके इस प्रमाणको ही ग्रहण करते हैं ऐसा कथन करनेपर ऐसा ग्रहण करना भी शक्य नहीं है, क्योंकि यवमध्यकी अधस्तन ( पूर्ववर्ती ) नाना गुणहानिशलाकाओंसे उपरिम नाना गुणहानिशलाकाओंके असंख्यातगुणेरूप उपदेशकी यहाँ अनुवृत्ति है, जो उपदेश आगे कहे जानेवाले सूत्रसे सिद्ध है तथा अधस्तन और उपरिम नाना गुणहानिशलाकार स पक्ष में सदृश देखी जाती हैं।
$२८८. पुनः साम्प्रतिक विरलनसे आधेका विरलनकर विरलित राशिके प्रत्येक एकपर जघन्य स्थानके जीवोंके प्रमाणको समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर वहाँ प्रत्येक विरलनके प्रति एक-एक जीवका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः इस विरलनके अर्धभाणप्रमाण जीवोंके आगमके अनुसार घटानेपर वहाँसे अन्य द्विगुणहानिस्थान उत्पन्न होता है। पुनः इस विरलनको आधा करके जघन्य स्थानके जीवोंसे अर्धभागमात्र रुके हुए स्थानके जीवोंको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक विरलनके प्रति एक-एक जीवका प्रमाण प्राप्त होता है। यहाँपर भी आगमानुसार असंख्यात लोकप्रमाण अध्वान जाकर एक-एक जीवकी परिहानि करके लानेपर साम्प्रतिक विरलनसे अर्धमात्र जीवोंके हीन होनेपर अन्य द्विगुणवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार इस विधिसे प्रत्येक गुणहानिके प्रति विरलनको आधा करके यवमध्यके अर्धच्छेदोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण गुणहानि ऊपर जाकर उत्कृष्ट स्थानके जीवोंका प्रमाण अवस्थित होनेतक ले जाना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थानमें भी जिस प्रकार