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गाथा ९४] - दसणमोहोवसामणा
२२५ तब्बंधपाओग्गसंकिलेसविसयमुल्लंघियूण तप्पडिवक्खपयडिबंधणिबंधणविसोहीए वड्डमाणस्स तब्बंधवोच्छेदे विरोहाणुवलंभादो। एवमोघेण पयडीणं बंधवोच्छेदो सुत्ताणुसारेण परूविदो।
६५. संपहि आदेसमुहेण पयडिबंधझीणाझीणत्तविसयं किंचि परूवणं कस्सामो । तं जहा—आदेसेण चदुसु वि गदीसु णाणावरणीयस्स णत्थि पयडिबंधझीणदा। एवं दसणावरणीयस्स वि वत्तव्वं । वेदणीयस्स असादं बंधेण झीणं, णो सादं । मोहणीयस्स इत्थि-णqसय-अरदि-सोगा बंधेण झीणा, सेसाओ मोहपयडीओ बंधेण णो झीणाओ। आउअस्स चत्तारि वि पयडीओ बंधेण झीणाओ। णामस्स जइ णेरइयो पढमाए जाव छट्टि पुढवि त्ति तस्स णिरयगइ-तिरिक्खगइ-देवगइ-एइंदियबेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियजादि-वेउव्विय-आहारसरीर-पंचसंठाण -दोण्णिअंगोवंग-पंचसंघडण-णिरय-तिरिक्ख-देवाणुपुग्वि-आदावुजोव-अप्पसत्थविहायगदि-थावर-सुहुम-अपज्ज०साहारण-अथिर-असुभ-दूभग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजसगित्ति-तित्थयरणामा त्ति एदाओयोग्य संक्लेशका उल्लंघन कर उनकी प्रतिपक्षभूत प्रकृतियोंके बन्धके निमित्तरूप विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुए सर्वविशुद्ध इस जीवके उन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होनेमें कोई विरोध नहीं पाया जाता । इस प्रकार ओघसे सूत्रके अनुसार प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति कही।
विशेषार्थ—यहाँ सामान्यरूपसे चारों गतियोंमें घटित हों इस अपेक्षाको मुख्यकर ये चोंतीस बन्धापसरण कहे गये हैं । जिन प्रकृतियोंके विषयमें कुछ अपवाद है उनका निर्देश यथास्थान टीकामें किया ही है । उदाहरणार्थ सातवें नरकका नारकी जीव प्रथम सम्यक्त्वके प्राप्त करनेके सन्मुख होनेके पूर्व भी तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वो और नीचगोत्रका ही नियमसे बन्ध करता रहता है तथा ऐसी भूमिकामें भी उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। इसलिये इन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति करनेवाले दो बन्धापसरण सातवें नरकमें नहीं बनते । इसी प्रकार प्रथम सम्यक्त्वके सन्मुख होनेके पूर्व ही तिर्यञ्चों और मनुष्योंके मनुष्यगति आदि पाँच प्रकृतियोंकी यथास्थान नियमसे बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है, इसलिये यह बन्धापररण केवल तिर्यञ्चों और मनुष्योंकी अपेक्षा कहा है। शेष कथन सुगम है।
६५. अब आदेशद्वारा प्रकृतिबन्धसम्बन्धी क्षीण अक्षीणपनेविषयक कुछ प्ररूपणा करते हैं । यथा-आदेशसे चारों ही गतियोंमें ज्ञानावरणीयके प्रकृतिबन्धका विच्छेद नहीं है। इसी प्रकार दर्शनावरणकी अपेक्षा भी कहना चाहिए। वेदनीयकी असाताप्रकृति बन्धसे विच्छिन्न है, सातावेदनीय नहीं। मोहनीयकर्मकी स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति और शोक बन्धसे विच्छिन्न हैं, शेष मोह प्रकृतियाँ बन्धसे विच्छिन्न नहीं होती। आयुकर्मकी चारों ही प्रकृतियाँ बन्धसे विच्छिन्न हैं। नामकर्मकी यदि प्रथम पृथिवीसे लेकर छटी पृथिवी तकका नारको है तो उसके नरकगति, तिर्यञ्चगति, देवगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, पाँच संस्थान, दो आंगोपांग, पाँच संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश कीर्ति और तीर्थंकर ये प्रकृतियाँ बन्धसे विच्चिन्न हैं, शेष नहीं। गोत्रकर्मकी नीचगोत्र
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