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कि जाति आदिको निमित्तकर स्वयंमें बड़प्पनका परिणाम होना यह मानकषायकी विशेषता है और परके प्रति तिरस्कार या अनादरके भावपूर्वक उसके प्रति संघर्षका भाव होना यह क्रोधकषायकी विशेषता है ।
मायाकषायके पर्यायनाम हैं--माया, सातिप्रयोग, निकृति, वञ्चना, अनृजुता, ग्रहण, मनोज्ञमार्गण, कल्क, कुहक, निगृहन और छन्न । मायामें मन, वचन और कायकी प्रवृतिमें सरलता नहीं रहती है। अभिप्राय कुछ रखता है, कहता कुछ है और करता कुछ अन्य ही है। इसलिए मायाकषायमें कपटाचारकी मुख्यता है । कुटिल व्यवहार करना, वञ्चना-ठगाईका परिणाम रखना, दूसरेके ठीक अभिप्रायको जानकर उसका अपलाप करना, झूठे मन्त्र-तन्त्र आदि द्वारा अपनी आजीविका करना आदि सब मायाकषायरूप परिणाम है। इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर यहाँ मायाके ये पर्यायवाची नाम दिये गये हैं। उक्त पर्यायवाची नामोंकी टीका करते हुए ऐसे और भी नाम आये हैं जिनका प्रयोग मायाके अर्थमें होता है। जैसे कपट कूटव्यवहार, विप्रलम्भन, योगवक्रता, निन्हवन, दम्भ, अतिसन्धान, विश्रम्भघात । वैसे 'लोकमें दम्भ मानकषायका पर्यायवाची माना जाता है, किन्तु यहाँ उसका मायाकषायमें अन्तर्भाव किया है। मानकषायपूर्वक जो ठगनेका परिणाम होता है उसका नाम दम्भ है इस अभिप्रायसे दम्भको मायारूप स्वीकार कर लिया गया है। टीकामें इसे कल्कका पर्यायवाची नाम बतलाया है। मायामें कुटिल व्यवहारकी मुख्यता है। यही कारण है कि मायाको तीन शल्योंमें परिगणित किया गया है।
लोभकषायके पर्यायवाची नाम है-काम, राग, निदान, छन्द सुत, प्रेय, दोष, स्नेह, अनुराग, आशा, इच्छा, मूर्छा, गृद्धि, साशता या शाश्वत, प्रार्थना, लालसा, अविरति, तृष्णा, विद्या और जिह्वा । काममें इष्ट स्त्री, पुत्र और परिग्रह आदिकी अभिलाषा मुख्य है, इसलिए कामको लोभका पर्यायवाची कहा है। राग माया और लोभ आदिरूप होते हुए भी यहाँ मनोज्ञ विषयमें अतिष्वंगविशेषको ध्यानमें रखकर रागको लोभका पर्यायवाची कहा है । जो मैं पुण्य कृत्य करता हूं उसके फलस्वरूप मुझे इष्ट भोगोपभोगकी प्राप्ति हो ऐसे भावका नाम निदान है । इसमें इष्ट विषयको प्राप्तिको अभिलाषा बनी रहनेके कारण निदानको लोभका पर्यायवाची बतलाया है। जिसके चित्तमें मिथ्यात्व और मायापरिणामके समान निदानरूप लोभपरिणाम बना रहता है वह व्रती नहीं हो सकता। इसलिए आगममें निदानको भी एक शल्य कहा है। मूल सूत्रगाथाओंमें लोभके पर्यायवाची नामोंमें एक नाम 'सुद' है। उसका अनुवाद जयधवला टीकामें 'सुत' और 'स्वत' किया है। 'सूयतेऽभिषिच्यते' इस व्युत्पत्तिके अनुसार विविध प्रकारकी अभिलाषाओंसे स्वयंको परिसिंचित करना अर्थात् पुष्ट करना सुत है इस भावको ध्यानमें रखकर सुतको लोभका पर्यायवाची कहा है तथा मूल सूत्रगाथामें आये हुए 'सुद' पदका 'स्वत' अर्थ करनेपर 'स्वस्य भावः स्वता ममता' ऐसा करके जो लोभपरिणाम ऐसी ममतारूप हो उसे लोभका पर्यायवाची 'स्वत' कहा है । प्रियका अर्थ प्रेय है। प्रेयरूप जो दोष, उसका नाम प्रयदोष है। इस प्रकार प्रेयदोषको लोभका पर्यायवाची कहा है । यद्यपि मूल सूत्रगाथामें लोभ के पर्यायवाची नाम बीस हैं ऐसा स्पष्ट कहा है, परन्तु जरधवला टीकामें इन दोनोंको समसितरूपसे प्रेय और दोषको लोभका पर्यायवाची कहा गया है। टीकामें प्रेयको दोषरूप क्यों कहा इस प्रश्नका जो समाधान किया है वह हृदयंगम करने लायक है। समाधान करते हुए वहाँ बतलाया है कि यद्यपि परिग्रह आदिकी अभिलाषा आह्लादका हेतु है, परन्तु वह संसारको बढ़ानेवाली है, इसलिये यहाँ प्रेयको दोषरूप कहा है। स्पष्ट है कि राग या अभिलाषा किसी भी प्रकारकी क्यों न हो वह एकमात्र संसारका ही हेतु होता है। आशाके दो अर्थ है-एक तो अविद्यमान अर्थकी इच्छा करना और दूसरे 'आश्यतीति आशा' व्युत्पत्तिके अनुसार स्क्यंको कृश करना । ये दोनों लोभरूप होनेसे यहाँ आशाको लोभका पर्यायवाची कहा है।
मल सत्रगाथामें लोभका पर्यायवाची नाम 'सासद' भी आया है। इसके टीकाकारने दो अर्थ किये हैं-एक साशता और दूसरा शाश्वत । आशा, स्पृहा और तृष्णा इन तीनों पदोंका अर्थ एक है। जो आशा सहित परिणाम है उसका नाम साशता है । यतः यह परिणाम लोभको अवस्थाविशेषरूप है, अतः इसे लोभका