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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दार १० जादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वारिसह० संघडण - ओरालियअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास-मणुसगइपाओग्गाणुपुन्वि-अगुरुअलहुआदिचउक०-पसत्थविहायगदि-तसादि४ -थिरादि६ -णिमिण-उच्चागोद-पंचंतराइयाणमेदासिं पयडीणं बंधगो अण्णदरो देवो वा छप्पुढविणेरइओ वा । एसो विदिओ महादंडओ।
६ ३५. संपहि तदिओ महादंडओ वुच्चदे । तं जहा-पंचणाणावरण-णवदंसणावरण-सादावेदणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछ०-तिरिक्खगइपंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालियअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-अगुरुअलहुआदि४ -उज्जोवं सिया पसत्थविहायगइ-तसादिचउक्क-थिरादिछक्क-णिमिण-णीचागोद-पंचंतराइयाणमेदासिं पयडीणं बंधओ अण्णदरो अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइओ। एवमेसो पयडिबंधो परूविदो।
पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्षभनाराचसंहनन, औदारिकशरीर आंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदि चार, प्रशस्त विहायोगति, सादि चार, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र
और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंका अन्यतर देव तथा छह पृथिवियोंका नारकी जीव बन्धक होता है । यह दूसरा महादण्डक है।
विशेषार्थ-जिन विशेषताओंका प्रथम महादण्डकके समय निरूपण कर आये हैं वे सब यहाँ भी यथासम्भव जान लेनी चाहिए । इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए कि मनुष्यगति नामकर्मके बन्धके साथ संहनन नामकर्मका भी बन्ध होने लगता है, इसलिए प्रथम सम्यक्त्व के सन्मुख हुए किसी भी देव और छह पृथिवियोंके नारकीके प्रशस्त स्वरूप वर्ऋषभनाराचसंहननका भी बन्ध होता है।
३५. अब तीसरे महादण्डकका कथन करते हैं। यथा-पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान,
औदारिकशरीर आंगोपांग, वर्षमभनाराच संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदि चार, कदाचित् उद्योत ( का बन्धक होता है ), प्रशस्त विहायोगति, त्रसादि चार, स्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंका सातवीं पृथिवीका अन्यतर नारकी बन्धक होता है । इस प्रकार यह प्रकृतिबन्ध कहा गया है।
विशेषार्थ-प्रथम सम्यक्त्वके सन्मुख हुआ सातवीं पृथिवीका नारकी जीव नामकर्मको यद्यपि अन्य सब प्रशस्त प्रकृतियोंका ही बन्ध करता है। परन्तु वह एकान्तसे भवसम्बन्धी परिणामवश तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वो और नीच गोत्रका बन्धक होनेसे प्रथम सम्यक्त्वके सन्मुख होने पर भी मात्र इन्हींका बन्ध करता है । तथा तिर्यश्चगतिके साथ उद्योत प्रकृतिका भी बन्ध सम्भव होनेसे कदाचित् इसका भी बन्ध करता है। शेष कथन सुगम है।