________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
६१२५, एबमधापवत्तकरणे वावारविसेसं परूविय संपहि तमुल्लंघियूणापुव्वकरणविसोहीए परिणदस्स पढमसमयप्पहुडि वावारविसेसपदुप्पायणट्ट मुवरिमसुत्तषबंधमाह* अपुव्वकरणपढमसमये ट्ठिदिखंडयं जहण्णगं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो, उक्कस्सगं सागरोवमपुधत्त ।
$ १२६. अणंतरपरूविदेण विधिणा अधापवत्तकरणद्ध वोलाविय पुणो अपुव्वकरणं पविट्टुस्स पढमसमए चैव द्विदि-अणुभागखंडयघादा दो वि कादुमाढत्ता, अपुव्वकरणविसोहिपरिणामस्स तदुभयघादणिबंधणत्तादो । तत्थ ताव पढमट्ठिदिखंडयमेत्तवियप्पमाहो अस्थि जहण्णु कस्सवियप्पसंभवो त्ति एवंविहाए पुच्छाए णिरारेगीकरणट्ठमिदं सुत्तमोइण्णं । तं जहा - जहणणेण ताव पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागायामं ट्ठिदिखंडय - मागाएदि, दंसणमोहोव सामगपाओग्गसव्वजहण्णंतोकोडा कोडिमेत्तट्ठिदिसंतकम्मेणागदम्मि तदुवलंभादो । उक्कस्सेण पुण सागरोवमपुधत्तमेत्तायामं पढमट्ठि दिखंडय माढवेह, पुव्विल्लजहण्णट्ठिदिसंतकम्मादो संखेज्जगुण ट्ठिदिसंतकम्मेण सहागंतूण अपुव्वकरणं विस्स पढमसमये तदुवलंभादो । किं पुण कारणं दोन्हं पि विसोहिपरिणामेसु समाणेसु संतेसु घादिदसेसाणं द्विदिसंतकम्माणं एवं विसरिसभावो त्तिणासंकणिज्जं, संसार
२६०
$ १२५. इसप्रकार अधः प्रवृत्तकरणमें व्यापारविशेषका कथनकर अब उसको उल्लंघनकर अपूर्वकरणकी विशुद्धिरूपसे परिणत हुए जीवके प्रथम समयसे लेकर व्यापारविशेषका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* अपूर्वकरणके प्रथम समय में जघन्य स्थितिकाण्डक पल्योपमका संख्यातवाँ भागप्रमाण होता है और उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण होता है ।
$ १२६. अनन्तर पूर्व कही गई विधिसे अधःप्रवृत्तकरणके कालको बिताकर अपूर्व - करणमें प्रविष्ट हुआ जीव प्रथम समयमें ही स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात इन दोनोंको करनेके लिये आरम्भ करता है, क्योंकि अपूर्वकरणके विशुद्धिसे युक्त परिणाम में इन दोनोंके घात करनेकी हेतुता है । वहाँ प्रथम स्थितिकाण्डक प्रमाण ही एक प्रकार है या उसमें जघन्य और उत्कृष्ट भेद भी सम्भव है ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेके लिये यह सूत्र आया है । यथा— जघन्यरूपसे तो पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण आयामवाले स्थितिsaat ग्रहण करता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी उपशामना के योग्य सबसे जघन्य अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिसत्कर्मके साथ आये हुए जीवमें स्थितिकाण्डकका आयाम उक्त प्रमाण पाया जाता है । परन्तु उत्कृष्टरूपसे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण आयामवाले प्रथम स्थितिकाण्डको आरम्भ करता है, क्योंकि पूर्वके जघन्य स्थितिसत्कर्म से संख्यातगुणे स्थितिसत्कर्म के साथ आकर अपूर्वकरण में प्रविष्ट हुए जीवके प्रथम समयमें उसकी उपलब्धि होती है।
शंका — दोनों जीवोंके ही विशुद्धिरूप परिणामोंके समान होनेपर घात करने से शेष रहे स्थितिसत्कर्मोंमें इस प्रकारकी विसदृशता होती है इसका क्या कारण है ?
समाधान — ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए. क्योंकि संसार अवस्थाके योग्य अध