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जयधवलासाहदे कसायपाहुडे
[ सम्मत्ताणियोगद्दारं १०
मण्णदरस्स कम्मस्स उदयसंभवे सिया मिच्छत्तपच्चओ, सिया अण्णपच्चओ ति तत्थ भयणिजत्ते विरोहाणुवलंभादो ।
$ २०२. एवमुवसामगस्स पच्चयपरूवणं काढूण संपहि मिच्छत्तपच्चएणेव
कालके क्षीण होनेपर दर्शनमोहकी तीनों प्रकृतियोंमें से किसी एक कर्मका उदय सम्भव होनेपर कदाचित् मिध्यात्वनिमित्तक बन्ध होता है, कदाचित् अन्यनिमित्तक बन्ध होता है, इसलिये उस अवस्थामें भजनीय होनेमें विरोध नहीं उपलब्ध होता ।
विशेषार्थ कर्मबन्धके कारण चार हैं - मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग । तत्वार्थ सूत्र आदिमें बन्धके प्रमादसहित पाँच कारण बतलाये हैं । किन्तु यहाँ पर टीकामें प्रमादका कषायमें अन्तर्भाव करके चार कारण परिगणित किये गये हैं । इनमें से पूर्व - पूर्वके कारणके रहनेपर आगे-आगेके कारण होते ही हैं । जैसे मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध होनेपर वह अविरति, कषाय और योगनिमित्तक भी होता है ऐसा यहाँ जानना चाहिए । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही मिध्यात्वनिमित्तक बन्ध होता है, आगेके गुणस्थानोंमें नहीं । इसी प्रकार पाँचवें गुणस्थान तक अविरति निमित्तक बन्ध होनेपर वहाँ कषाय और योगकी निमित्तता है ही ऐसा समझना चाहिए । आगेके गुणस्थानों में अविरतिनिमित्तक बन्धका अभाव है । तथा दसवें गुणस्थान तक कषायनिमित्तक बन्ध होनेपर वहाँपर योगकी निमित्तता है ही, क्योंकि इससे आगेके गुणस्थानों में कषायनिमित्तक बन्धका अभाव है । आगे तेरहवें गुणस्थान तक एक मात्र योगनिमित्तक बन्ध होता है । वहाँ बन्धके अन्य कारणोंका अभाव है । इसप्रकार कर्मबन् धके कहाँ कितने कारण हैं इसे समझ कर मिथ्यात्व गुणस्थान में ही मिथ्यात्वनिमित्तक बन्धकी मुख्यता है यह बत - लानेके लिये उक्त गाथासूत्रकी रचना हुई है । वहाँ मिथ्यात्व और ज्ञानावरणादि जितने कर्मों का बन्ध होता है वह गाथासूत्र में मिथ्यात्वनिमित्तक इसी अभिप्राय से कहा है । इससे आगेके गुणस्थानोंमें मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध नहीं होता यह बतलाने के लिये गाथासूत्र में ‘उवसंते आसाणे' इस तृतीय चरणकी रचना हुई है । इसके दो अर्थ हैं, जिनका स्पष्टीकरण टीका में किया ही है। तथा उपशान्त अवस्थाके समाप्त होनेके बाद इस जीवके दर्शनमोहatest तीन प्रकृतियोंमेंसे जिस प्रकृतिका उदय होता है उसके अनुसार वहाँ यथासम्भव बन्धकारणकी मुख्यता होती है । यदि वह जीव मिथ्यात्वके उदयके साथ मिध्यादृष्टि हो जाता है तो मिथ्यात्व निमित्तक बन्धकी मुख्यता रहती है और यदि सम्यग्मिध्यात्वके उदयके साथ सम्यग्मिथ्यादृष्टि या सम्यक्त्वप्रकृतिके उदय के साथ वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है तो अविरतिनिमित्तक बन्धकी मुख्यता रहती है । यही कारण है कि उक्त गाथासूत्रके चौथे चरणमें उपशान्त अवस्था के समाप्त होनेके बाद मिध्यात्वनिमित्तक बन्धको भजनीय कहा है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए किवेदक सम्यक्त्व सातवें गुणस्थान तक होता है, अतः जहाँ जिस कारणकी मुख्यता बने उसके अनुसार वहाँ उसकी मुख्यतासे बन्ध समझना चाहिए । यथा - चौथे-पाँचवें गुण-स्थानमें अविरतिकी मुख्यतासे बन्ध होता है तथा छटे - सातवें गुणस्थान में अविरतिका अभाव होकर कषायकी मुख्यता से बन्ध होता है ।
$ २०२. इस प्रकार उपशामकके बन्धके कारणका कथन करके अब दर्शनमोहनीयका