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गीथा ६६]
चउत्थगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणो याए असंखेजदिभागमेत्ता हवंति । एदेण तसजीवा णियमा अणेगेसु कसायुदयहाणेसु अच्छंति ति जाणाविदं । किं कारणं ? आवलियाप असंखेजदिभागमेत्तजीवाणं जइ एगं कसायुदयट्ठाणमुवलब्भदे तो जगपदरासंखेजभागमेत्तस्स तसजीवरासिस्स केत्तियाणि कसायुदयट्ठाणाणि लहामो त्ति तेरासियं कादण जोइदे असंखेजसेढिमेत्ताणं कसायुदयहाणाणमागमणदंसणादो। जइ वि एत्थ सव्वेसु कसायुदयहाणेसु तसजीवाणं सरिसभावेणावट्ठाणसंभवो णत्थि तो वि समकरणं कादूण तेरासियविहाणमेदमणुगंतव्वं । जेणेवमेत्तियमेत्तेसु कसायुदयट्ठाणेसु एककालेण तसजीवरासी अच्छदि तेण पढमपुच्छाए संभवमोसारिय 'विसरिसमुवजुजदे का च' त्ति एदिस्से बिदियपुच्छाए चेव संभवो पदरिसिओ होइ । एवं णिरयादिगदीणं पि पादेक्कणिरंभणं कादूण पयदपरूवणा णिरवसेसमणुगंत्तव्वा, एक्के कम्मि कसायोदयट्ठाणे आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता जीवा होति ति एदेण भेदाभावादो। एवं कसायुदयट्ठाणेसु पयदणिद्देसं कादूण संपहि कसायुवजोगद्धहाणेसु पयदत्थपरूवणट्ठमाह
* कसायउवजोगद्धट्ठाणेसु पुण उक्कस्सेण असंखजाओ सेढीओ।
$ १६३. एकेक्कम्मि कसाए उवजोगद्धट्ठाणे तसजीवा उक्कस्सेणासंखेजदि. भागमेत्ता अच्छंति त्ति वुत्तं होदि । किं कारणं ? अंतोमुत्तमेत्तकसायोवजोगद्धट्ठाणेसु सव्यो तसजीवरासी जहापविभागमवचिट्ठदि त्ति कादूण तेरासियकमेण जोइदे असंखेजअसंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंका यदि एक कषाय-उदयस्थान प्राप्त होता है तो जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण त्रसजीवराशिके कितने कषाय-उदयस्थान प्राप्त होंगे इस प्रकार त्रैराशिक करके देखनेपर असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण कषाय-उदयस्थानोंका आगमन देखा जाता है । यद्यपि यहाँपर समस्त कषाय-उदयस्थानोंमें त्रसजीवोंका सदृशरूपसे अवस्थान सम्भव नहीं है तो भी समीकरण करके यह त्रैराशिकविधान जानना चाहिए । यतः इस प्रकार इतनेमात्र कषाय-उदयस्थानों में एक कालमें त्रस जीवराशि रहती है, इसलिए प्रथम पृच्छा यहाँ सम्भव नहीं, इसलिये उसका अपसरण कर 'विसरिसमुवजुज्जदे का च' इस प्रकार इस दूसरी पृच्छाकी ही यहाँ सम्भावना दिखलाई है। इसी प्रकार नरकादि गतियोंमेंसे प्रत्येक गतिको विवक्षित कर प्रकृत प्ररूपणा पूरी जाननी चाहिए, क्योंकि एक-एक कषाय-उदयस्थानमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव होते हैं इस प्रकार इस कथनकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है । इस प्रकार कषाय-उदयस्थानोंमें प्रकृत विषयका निर्देश करके सब कषायोगयोगाद्धास्थानोंमें प्रकृत अर्थका कथन करनेके लिए कहते हैं_* किन्तु कषायोपयोगकालस्थानोंमें उत्कृष्टरूपसे असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण होते हैं।
$ १६३. एक-एक कषाय-उपयोगाद्धास्थानमें त्रस जीव उत्कृष्टरूपसे असंख्यातवें भागमात्र होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कषाय-उपयोगाद्धास्थानोंमें समस्त त्रसजीवराशि यया प्रविभागके अनुसार रहती है यह विधि करके त्रैराशिक