Book Title: Bhagvati Sutra Part 06
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सत्र षष्ठ भाग शतक १८-२४ CENTE Pranamamarteen meSeemendmERIONSurpriorses प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शारवा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर-305901 20 (01462) 251216, 2576919, 250328 manenomenaameray For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्न माला का ४४ वा रत्न गणधर भगवान् सुधर्मस्वामि प्रणीत भगवती सूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र) षष्ठभाग (शतक १८ से १४) -सम्पादक पं. श्री घेवरचन्दजी बांठिया “वीरपुत्र" (स्वर्गीय पंडित श्री वीरपुत्र जी महाराज) न्याय व्याकरणतीर्थ, जैन सिद्धांत शास्त्री -प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर-305901 20 (01462) 251216, 257699 Fax No. 250328 For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य सहायक उदारमना श्रीमान् सेठ जशवंतलाल भाई शाह, बम्बई प्राप्ति स्थान १. श्री अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, सिटी पुलिस, जोधपुर - 2626145 २. शाखा-अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, नेहरू गेट बाहर, ब्यावर , 251216 ३. महाराष्ट्र शाखा-माणके कंपाउंड, दूसरी मंजिल आंबेडकर पुतले के बाजू में, मनमाड़ ४. श्री जशवन्तभाई शाह एदुन बिल्डिंग पहली धोबी तलावलेन पो० बॉ० नं० 2217, बम्बई-2 ५. श्रीमान् हस्तीमल जी किशनलालजी जैन प्रीतम हाऊ० कॉ० सोसा० ब्लॉक नं० १० . स्टेट बैंक के सामने, मालेगांव (नासिक) 252097 ६. श्री एच. आर. डोशी जी-३६ बस्ती नारनौल अजमेरी गेट, दिल्ली-६३ 23233521 ७. श्री अशोकजी एस. छाजेड़, १२१ महावीर क्लॉथ मार्केट, अहमदाबाद 5461234 ८. श्री सुधर्म सेवा समिति भगवान् महावीर मार्ग, बुलडाणा ६. श्री श्रुतज्ञान स्वाध्याय समिति सांगानेरी गेट, भीलवाड़ा , 236108 १०. श्री सुधर्म जैन आराधना भवन २४ ग्रीन पार्क कॉलोनी साउथ तुकोगंज, इन्दौर ११. श्री विद्या प्रकाशन मन्दिर, ट्रांसपोर्ट नगर, मेरठ (उ. प्र.) | १२. श्री अमरचन्दजी छाजेड़, १०३ वाल टेक्स रोड़, चैन्नई 8025357775 १३. श्री संतोषकुमार बोथरा वर्द्धमान स्वर्ण अलंकार ३६४, शांपिग सेन्टर, कोटा2-2360950 य: ३००-०० चतुर्थ आवृत्ति वीर संवत् २५३२ १००० विक्रम संवत् २०६३ अप्रेल २००६ मुद्रक - स्वास्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर / 2423295 For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन - सम्पूर्ण जैन आगम साहित्य में भगवती सूत्र विशाल रत्नाकर है, जिसमें विविध रत्न समाये हुए हैं। जिनकी चर्चा प्रश्नोत्तर के माध्यम से इसमें की गई है। प्रस्तुत षष्ठ भाग में अठारह, उन्नीस, बीस, इक्कीस, बाईस, तेईस और चौबीस शतक का निरूपण हुआ है। प्रत्येक शतक के कितने उद्देशक हैं और उनकी विषय सामग्री क्या है? इसका संक्षेप में यहाँ वर्णन किया गया है - शतक १८ - अठारहवें शतक में १० उद्देशक हैं - जीवादि के विषय में प्रथम-अप्रथम आदि भावों का प्रतिपादक प्रथम उद्देशक है। विशाखा नगरी में श्रवण भगवान् महावीर पधारे, इस विषयक दूसरा उद्देशक है। माकन्दी पुत्र अनगार की पृच्छा रूप तीसरा उद्देशक है। प्राणातिपातादि पाप और इनकी विरति विषयक चौथा उद्देशक है। असुरकुमार देव की वक्तव्यता का पाँचवाँ उद्देशक है। गुड़ आदि के वर्णादि विषयक छठा उद्देशक है। केवलज्ञानी के विषय में अन्यतीर्थियों के मन्तव्य विषयक सातवाँ उद्देशक है। अनगार-क्रिया सम्बन्धी पृच्छा का आठवाँ उद्देशक है। भविक द्रव्य नैरयिक आदि विषयक नौवां उद्देशक है और सोमिल ब्राह्मण के प्रश्न युक्त दसवाँ उद्देशक है। शतक १६ - उन्नीसवें शतक में १० उद्देशक इस प्रकार हैं - १. लेश्या विषयक प्रथम उद्देशक है। २. गर्भ विषयक दूसरा उद्देशक है। ३. पृथ्वीकायिकादि विषय तीसरा ४. 'महा आस्रव, महाक्रिया' आदि पृच्छा विषयक चौथा ५ चरम (अल्प स्थितिक) विषयक पांचवां ६. द्वीप आदि विषयक छठा ७. भवनादि विषयक सातवां ८. एकेन्द्रिय आदि जीवों की उत्पत्ति विषयक आठवाँ ६. द्रव्यादि करण विषयक नौवाँ और १०. वाणव्यंतरदेव विषयक दसवाँ उद्देशक है। शतक २० - बीसवें शतक में १० उद्देशक हैं - १. बेइन्द्रियादि की वक्तव्यता विषयक प्रथम उद्देशक २. आकाशादि अर्थ विषयक ३. प्राणातिपातादि अर्थ को प्रतिपादन करने वाला For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * 0000000******#00000000000000000+ ४. इन्द्रियोपचय विषयक ५. परमाणु से ले कर अनन्त प्रदेशीस्कन्ध विषयक ६. रत्नप्रभा आदि के अन्तराल विषयक ७. जीव प्रयोगादि बन्ध विषयक ८. कर्मभूमि अकर्मभूमि विषयक ६. विद्याचारणादि विषयक और १०. सोपक्रम निरुपक्रम आयुष्य वाले जीवों का प्रतिपादन करने विषयक दसवां उद्देशक है। ___ शतक २१ - इक्कीसवें शतक में ८ वर्ग हैं। प्रत्येक वर्ग में १० उद्देशक हैं। आठ वर्ग इस प्रकार हैं - शालि आदि धान्य के विषय में दस उद्देशात्मक प्रथम वर्ग है। कलाय (मटर) आदि धान्य के विषय में दूसरा वर्ग है। अलसी आदि धान्य के विषय में तीसरा वर्ग है। बांस आदि पर्व वाली वनस्पति के लिये चौथा वर्ग है। इक्षु आदि पर्व वाली वनस्पति से सम्बन्धित पाँचवां वर्ग है। दर्भ (डाभ) आदि तृण के विषय में छठा वर्ग है। अभ्र आदि वनस्पति का प्रतिपादक सातवां वर्ग है और तुलसी आदि वनस्पति का प्रतिपादक आठवां वर्ग है।। ___ शतक २२ - बाईसवें शतक में ६ वर्ग हैं। प्रत्येक वर्ग में १०-१० उद्देशक हैं। छह वर्ग इस प्रकार हैं - १. ताल, तमाल आदि वृक्षों के विषय में दस उद्देशात्मक प्रथम वर्ग है। एक बीज वाले वृक्षों के विषय में दूसरा वर्ग है। बहुबीज फल वाले वृक्षों के सम्बन्ध में तीसरा वर्ग है। रींगंणी आदि गुच्छ वनस्पति के विषय में चौथा वर्ग है। सिरिय नवमालिका आदि गुल्म वनस्पति के विषय में पांचवां वर्ग है। वल्लि आदि बेल के विषय में छठा वर्ग है। प्रत्येक वर्ग में दस-दस उद्देशक हैं। ये सब मिला कर ६० उद्देशक हैं। शतक २३ - तेईसवें शतक में ५ वर्ग हैं। प्रत्येक वर्ग में १०-१० उद्देशक हैं। सब मिलाकर ५० उद्देशक हैं। ५ वर्ग इस प्रकार हैं - आलू आदि साधारण वनस्पति विषयक दस उद्देशात्मक प्रथम वर्ग है। लोही आदि अनन्तकायिक विषयक दूसरा, अवकादि वनस्पति विषयक तीसरा, पाठा मृगलालुंकी आदि वनस्पति विषयक चौथा और माषपर्णी आदि वनस्पति विषयक पाँचवां वर्ग है। शतक २४ - चौबीसवें शतक में २४ उद्देशक हैं। वे इस प्रकार हैं - १. उपपात २. परिमाण ३. संहनन ४. ऊंचाई ५. संस्थान ६. लेश्या ७. दृष्टि ८. ज्ञान, अज्ञान, ६. योग For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * *** * * ** *-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-* -* -*-*-*-*-*- * *-*-*-*-* H H HHHHHHH H HH H १०. उपयोग ११. संज्ञा १२. कषाय १३. इन्द्रिय १४. समुद्घात १५. वेदना १६. वेद १७. आयुष्य १८. अध्यवसाय १६. अनुबंध और २० कायसंवेध। यह सब विषय चौबीस दण्डक से प्रत्येक जीव पद में कहे गये हैं अर्थात् प्रत्येक दण्डक पर ये बीस द्वारा कहे गये हैं। इन बीस द्वारों में से पहला-दूसरा द्वार तो जीव जहाँ उत्पन्न होता है, उस स्थान की अपेक्षा से हैं। तीसरे से उन्नीसवें तक सतरह द्वार, उत्पन्न होने वाले जीव के दस भव सम्बन्धी हैं और बीसवां द्वार दोनों भव सम्बन्धी सम्मिलित है। इस प्रकार चौबीसवें शतक में चौबीस दण्डक सम्बन्धी चौबीस उद्देशक कहे गये हैं। उक्त सात शतक एवं उद्देशकों की विशेष जानकारी के लिए पाठक बंधुओं को इस पुस्तक का पूर्ण रूपेण पारायण करना चाहिये। संघ की आगम बत्तीसी प्रकाशन में आदरणीय श्री जशवंतभाई शाह, मुम्बई निवासी का मुख्य सहयोग रहा है। आप एवं आपकी धर्म सहायिका श्रीमती मंगलाबेनशाह की सम्यग्ज्ञान के प्रचार-प्रसार में गहरी रुचि हैं। आपकी भावना है कि संघ द्वारा प्रकाशित सभी आगम अर्द्ध मूल्य में पाठकों को उपलब्ध हो तदनुसार आप इस योजना के अंतर्गत सहयोग प्रदान करते रहे हैं। अतः संघ आपका आभारी है। आदरणीय शाह साहब तत्त्वज्ञ एवं आगमों के अच्छे ज्ञाता हैं। आप का अधिकांश समय धर्म साधना, आराधना में बीतता है। प्रसन्नता एवं गर्व तो इस बात का है कि आप स्वयं तो आगमों का पठन-पाठन करते ही हैं, साथ ही आपके सम्पर्क में आने वाले चतुर्विध संघ के सदस्यों को भी आगम की वाचनादि देकर जिनशासन की खूब प्रभावना करते हैं। आज़ के इस हीयमान युग में आप जैसे तत्त्वज्ञ श्रावक रत्न का मिलना जिनशासन के लिए गौरव की बात है। आपके पुत्र रत्न मयंकभाई शाह एवं श्रेयांसभाई शाह भी आपके पद चिह्नों पर चलने वाले हैं। आप सभी को आगमों एवं थोकड़ों का गहन अभ्यास है। आपके धार्मिक जीवन को देख कर प्रमोद होता है। आप चिरायु हों एवं शासन की प्रभावना करते रहें, इसी शुभ भावना के साथ। For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** *-*-*-*-*-*-*-*-*-*****-*-*-*-*-*-*--*-*-*-*-* -****** ****************** इसके प्रकाशन में जो कागज काम में लिया गया है वह उच्च कोटि का मेफलिथो है साथ ही पक्की सेक्शन बाईडिंग है बावजूद आदरणीय शाह साहब के आर्थिक सहयोग के कारण अर्द्ध मूल्य ही रखा गया है। जो अन्य संस्थानों के प्रकाशनों की अपेक्षा अल्प है। संघ की आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अन्तर्गत भगवती सूत्र भाग ६ की यह चतुर्थ आवृत्ति श्रीमान् जशवंतलाल भाई शाह, मुम्बई निवासी के अर्थ सहयोग से ही प्रकाशित हो रही है। आपके अर्थ सहयोग के कारण इस आवृत्ति के मूल्य में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं की गयी है। संघ आपका आभारी है। पाठक बन्धुओं से निवेदन है कि वे इस चतुर्थ आवृत्ति का अधिक से अधिक लाभ उठावें। ब्यावर (राज.) दिनांकः ४-४-२००६ संघ सेवक नेमीचन्द बांठिया अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र oto पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध सद २६६९ २६७० २६८३ २६८८ २६९८ णेगमटुसहस्स दुरुहइ वमानिक द्रव्यवन्ध तिरिक्खजाणियइत्थीओ अवक्रिय बिकुवणा वक्रिय व्यावहरिकनय सद्धि अरकुमाराणं बाससयसहस्सेणं बह णेगमट्ठसहस्सं दुरुहह वैमानिक द्रव्यबन्ध तिरिक्खजोणिय इत्थीओ अवै क्रिय विकुर्वणा वैक्रिय व्यावहारिकनय सद्धि संगामं असुरकुमाराणं वाससयसहस्सेणं १२ वह २७०७ २७०७ २७१० २७२८ २७३३ २७३४ २७३५ २७४६ २७७० २८१४ २८१९ २८२० २८२२ २८३४ २८६३ २८६६ लश्या सच्चाभासाणिवत्ती १६ ती लेश्या सच्चभासाणिवत्ती तीन अणागारोव........ ओरा अंतिम अणगारोव...... आरालायं लोयं .१३ चर्ण वर्ण यगा य यगा For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध " अव्यववछेद बिमलनाथ गायमा वैमनिक उन्वटुंति शुद्ध अव्यवच्छेद विमलनाथ गोयमा वैमानिक उव्वद॒ति २६०५ १७ २९०६ २९०७ २९२० २९२० अंतिम २९२८ २९३६ २६४९ २६७० २६७१ ३०७१ .... ३०७७ ३०८१ ३१२५ ३१३१ ३१४८ ८ ३१६०२ .. ३१६२ : २ ३१७६ ३१८९ अंतिम ३१८९ ण हिं . -अलिसंदग-पयलइउत्कृत्ट कालदेसेणं अंतमुहुत्तमन्महियाई वक्तव्कयता भाणियब्वा णेगेहि -आलिसंदग-पोवलइउत्कृष्ट कालादेसेणं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई वक्तव्यता भाणियव्वा २१ ओगाहणासंठाणे ग्रेवेयक सम्मदिट्ठी सम्बन्धी विजयको १९ ओगाहणसंठाणे ग्रबेयक समदिट्ठी सम्वन्धी विजत कआ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका~ शतक १८ : क्रमांक विषय पृष्ठ | क्रमांक विषय पृष्ठ उद्देशक १ ६०८ महाकर्म अल्पकर्म . २७०२ । ५९४ जीव प्रथम है या अप्रथम ? २६४८ ६०६ किस आयु का वेदन करते हैं ? २७०४ ५९५ सलेशीपनादि प्रथम है या अप्रथम? ६५२ | ६१० विकुर्वणा सरल होती है या बक्र ? २७०५ ५९६ योग उपयोगादिप्रथम है या अप्रथम? २६५६ । उद्देशक ६ ५९७ चरम अचरम २६५८ | ६११ निश्चय व्यवहार से गुड़ आदि का वर्ण २७०८ उद्देशक २ ६१२ परमाणु और स्कन्ध में वर्णादि २७१० ५६८ कार्तिक श्रेष्ठी (सेठ)-शक्रेन्द्र का उद्देशक ७ पूर्वभव २६६५ ६१३ केवली यक्षावेष्टित नहीं होते २७१४ उद्देशक ३ ६१४ उपधि के भेद २७१५ ५९९ पृथिव्यादि से...मुक्त हो सकते हैं २६७४ | ६१५ परिग्रह के भेद २७१६ ६०० निर्जरा के पुद्गल की सूक्ष्मता २६७६ / ६१६ प्रणिधान २७१७ . ६०१ निर्जरा के पुद्गलों का ज्ञान २६८० | ६१७ मद्रुक श्रावक का अन्य तीथियों .६०२ संज्ञीभूत-असंज्ञीभूत - २६८१ से वाद २७२० ६०३ द्रव्य और भाव-बन्ध के भेद २६८५ | ६१८ मद्रुक की मुक्ति का निर्णय २७२७ ६०४ पाप-कर्म में भेद २६८८ ६१९ वैक्रिय कृत हजारों शरीर में एक आत्मा २७२८ । उद्देशक ४ ६२० देवासुर संग्राम और उनके शस्त्र २७२९ ६०५ पाप की प्रवृत्ति-निवृत्ति और ६२१ देवों के कर्मक्षय का काल २७३१ . जीव-भोग ___ २६९२ उद्देशक ८ ६०६ कृतादि युग्म चतुष्क | ६२२ माधु के पांव से कुकुंटादि मरे तो ? २७३६ उद्देशक ५ ६२३ अन्यतीथियों से गौतमस्वामी ६०७ देव की सुन्दरता-असुन्दरता २७०० का वाद २७३७ For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. (8) .... २७५९ क्रमांक विषय पृष्ठ | क्रमांक विषय पृष्ठ ६२४ भ. महावीर द्वारा गौतम की प्रशंसा २७४१ | ६३० सोमिल ब्राह्मण का भगवद् वंदन २७५४ ६२५ परमाणु आदि जानने की भजना २७४२ ६३१ यात्रा कसी करते हैं ? २७५६ उद्देशक ९ : .. ६३२ यापनीय २७५७ ६३३ बव्याबाध २७५८ ६२६ भव्य-द्रव्य नरयिकादि : २७४६ | ६३४ प्रासुक विहार २७५८ उद्देशक १० ६३५ सरिसंव भक्ष्य है या अभक्ष्य ६३६ मास भक्ष्य है या अभक्ष्य २७६२ ६२७ भावितात्मा अनगार की वैक्रियशक्ति २७५० ६३७ कुलत्था भक्ष्य है ? २७६३ २७५१ ६२८ वायु से परमाणु स्पृष्ट है ? | ६३८ आप एक हैं या अनेक ? २७६४ २७५२ / ६२९ मशक वायु से स्पृष्ट है ? ।। ६३९ सोमिल प्रतिबोधित हुआ २७६६ शतक १६ उद्देशक १ | ६४९ पृथ्वीकायिक शरीर की विशालता २७८८ .| ६५० चक्रवर्ती की दासी का दृष्टान्त २७९० ६४० लेश्या | ६५१ स्थावर जीवों की पीड़ा का उदाहरण २७६१ उद्देशक २ : उद्देशक ४ . ६४१ गर्भ और लेश्या : २७७० . ६५२ नैरयिक के महास्रवादि चतुष्क २७९४ उद्देशक ३ उद्देशक ५ ६४२ स्थावर जीव साधारण शरीरी हैं ? २७७१ ६४३ पृथ्वीकाय में लेश्या, दृष्टि, ज्ञान २७७२ | ६५३ चरम-परम नैरयिक के कर्म ६४४ पृथ्वीकाय के जीव पापी हैं ? २७७५ | क्रियादि २८०१ ६४५ अपकायादि के साधारण शरीरादि २७७९ उद्देशक ६ ६४६ स्थावर जीवों की अवगाहना २७८१ | ६५४ द्वीप-समुद्र २८०५ ६४७ स्यावर शरीर की सूक्ष्म-सूक्ष्मतरता २७८५ | ६४८ स्थावरक,य की बादर-बादरतरता उद्देशक ७ को अल्पबहुत्व २७८६ । ६५५ देवावास रलमय हैं २८०७ . २७६९ ६५० चक्रवर्ती की For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ мммммммммммммммммммммммммммм क्रमांक विषय . पृष्ठ | क्रमांक विषय पृष्ठ .. उद्देशक ८ ६५६ जीव-निवृत्ति आदि २८१० उद्देशक १० उद्देशक ९ ६५८ देवों का आहार : २८२६ ६५७ करण के भेद . .. २८२१ / शतक २० उद्देशक. १ उद्देशक ८ ६५६ विकलेन्द्रिय के साधारण शरीरादि २८२८ | ६६० पंचेन्द्रिय जीवों के शरीरादि २८३० ६६६ कर्मभूमि-अकर्म भूमि में उत्सर्पिणी काल २९.१ उद्देशक २ ६७० महाविदेह के तीर्थंकरों का धर्म २९०३ ६६१ लोकाकाश-अलोकाकाश २८३४ ६७१ भरत-क्षेत्र में २४ तीर्थकर २९०४ ६६२ पंचास्तिकाय के अभिवचन २८३६ ६७२ जिनान्तरों में श्रुत व्यवच्छेद २९०५ उद्देशक ३ ६७३ भरत-क्षेत्र में पूर्वगत श्रुत्त कब तक?२९०६ .६६३ आत्म-परिणत पाप-धम बुद्धि आदि २८५१ ६७४ भरत-क्षेत्र में जिन-धर्म कब तक? २९०७ उद्देशक ४ ६७५ तीर्थ और तीर्थकर २९०८ ६६४ इन्द्रियोपचय उद्देशक ९, उद्देशक ५ ६७६ चारण-मुनियों की तीव्र-गति २९११ ६६५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि २८४५ उद्देशक १० ६६६ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव परमाणु २८८६ ६७७ सोपक्रम-निरुपक्रम आयुष्य २९१८ उद्देशक ६ ६७८ उत्पत्ति उद्वर्तन आत्म-ऋद्धि से २९२० ६६७ आहार ग्रहण उत्पति के पूर्व या ६७६ कति-अकति संचित २९२२ पश्चात् २८८९ ६८० षट्क-समर्जित नो षट्क-समजित २९२६ उद्देशक ७ ६८१ द्वादश-समजित २९३२ ६६८ अनन्तर-परम्पर बंध २८६६ / ६८२ चौरासी-समर्जित २९३६ २८४४ For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २१ क्रमांक विषय पृष्ठ | क्रपांक विषय . पृष्ठ वर्ग ४ उद्देशक १-१० . वर्ग १ उद्देशक १ | ६८७ बांस आदि के मूल को उत्पत्ति २९५६ ६८३ शालि आदि के मूल की उत्पत्ति २९४२ | वर्ग ५ उद्देशक १-१० वर्ग १ उद्देशक २-१० | ६८८ इक्षु आदि के मूल की उत्पत्ति २९५२ ६८४.शालि आदि के कन्द की उत्पत्ति २९४७ | हरदेठाक १-१० वर्ग २ उद्देशक १-१० . ६८९ सेडिय आदि के मूल की उत्पत्ति २९५३ ६८५ कलाय, मसूर आदि के मूल की वर्ग ७ उद्देशक १-१० उत्पत्ति .. . २९४६ । ६९० अभ्ररुह आदि के मूल की उत्पत्ति २९५४ वर्ग ३ उद्देशक १-१०: वर्ग ८ उद्देशक १-१० ६८६ अलसी आदि के मूल की उत्पत्ति २९५० । ६९१ तुलसी आदि के मूल की उत्पत्ति २९५५ शतक १२ वर्ग १ उद्देशक १-१० वर्ग ४ उद्देशक १-१० । ६९२ ताल-तमालादि की उत्पत्ति २६५८ | ६९५ बंगनादि के मुल की उत्पत्ति २९६५ वर्ग २ उद्देशक १-१० वर्ग ५ उद्देशक १-१० ६९३ नीम-आम्रादि के मूल की उत्पत्ति २९६२ : ६६६ सिरियकादि के मूल को उत्पत्ति २९६६ वर्ग ३ उद्देशक १-१० . वर्ग ६ उद्देशक १-१० ६६४ अगस्तिक आदि के मूल की उत्पत्ति २९६३ । ६९७ पूसफलिकादि के मूल की उत्पत्ति २९६५ ...शतक१३:::........ ........ वर्ग:१ उद्देशक १-१० वर्ग ३.उद्देशक १-१० ६९८ आलू आदि के मूल की उत्पत्ति २९७० , ७०० आय आदि के मूल की उत्पत्ति २९७२ वर्ग २ उद्देशक १-१० वर्ग ४ उद्देशक १-१० ६९९ लोही आदि के मूल की उत्पत्ति २९७१७०१ पाठा आदि के मूल की उत्पत्ति २०७३ For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक विषय वर्ग ५ उद्देशक १-१० ७०२ माषपर्णी आदि के मूल की उत्पत्ति २९७४ शतक २४ उद्देशक १ ७०३ नैरयिकादि का उपपातादि ७०४ संज्ञी तिथंच का नरकोपपात ७०५ मनुष्यों का नरकोपपात उद्देशक २ ७०६ असुरकुमारों का उपपात उद्देशक ३ ७०७ नागकुमारों में उपपात ७०८ सुवर्णकुमारादि का उपपात उद्देशक १२ ७११ उद्देशक ४-११ पृष्ठ उद्देशक १४ कायिक जीवों की उत्पत्ति """"" २६७८ ३००२ ३०२३ ७०९ पृथ्वी कायिक जीवों की उत्पत्ति ३०६५ उद्देशक १३ १४ ७१० अप्कायिक जीवों की उत्पत्ति ३०३६ ३०५५ ३०६४. ३१०६ ३१०७ विषय उद्देशक १६ ७१३ वनस्पतिकायिक जीवों की उत्पत्ति ३१०९ उद्देशक १७ ७: ४ इन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति क्रमांक उद्देशक १८ ७ १५ तेइन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति उद्देशक १९ ७१६ चौरिन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति उद्देशक २० ७१७ पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति उद्देशक २१ ७१८ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति उद्देशक १५ उद्देशक २४ ७१२. वायुकायिक जीवों की उत्पत्ति ३१०८ ७२१ वैमानिक देवों का उपपात १२. उद्देशक २२. १६ वाणव्यंतर देवों का उपपात उद्देशक २३ ७२० ज्योतिषी देवों का उपपात For Personal & Private Use Only -- पृष्ठ ३१११ ३११३ ३११५ ३११६ ३१५० ३१६६ ३१७० ३१७८ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्वाध्याय निम्नलिखित बत्तीस कारण टालकर स्वाध्याय करना चाहिये। आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्याय काल मर्यादा १. बड़ा तारा टूटे तो एक प्रहर २. दिशा-दाह * जब त ३. अकाल में मेघ गर्जना हो तो दो प्रहर ४. अकाल में बिजली चमके तो एक प्रहर ५. बिजली कड़के तो आठ प्रहर ६. शुक्ल पक्ष की १, २, ३ की रात प्रहर रात्रि तक ७. आकाश में यक्ष का चिह्न हो जब तक दिखाई दे ८-६. काली और सफेद धूअर जब तक रहे १०. आकाश मंडल धूलि से आच्छादित हो जब तक रहे औदारिक सम्बन्धी १० अस्वाध्याय ११-१३. हड्डी, रक्त और मांस, ये तिर्यंच के ६० हाथ के भीतर हो। मनुष्य के हो, तो १०० हाथ के भीतर हो। मनुष्य की हड्डी यदि जली या धुली न हो, तो १२ वर्ष तक। १४. अशुचि की दुर्गंध आवे या दिखाई दे तब तक १५. श्मशान भूमि सौ हाथ से कम दूर हो, तो। * आकाश में किसी दिशा में नगर जलने या अग्नि की लपटें उठने जैसा दिखाई दे और प्रकाश हो तथा नीचे अंधकार हो, वह दिशा-दाह है। For Personal & Private Use Only Page #16 --------------------------------------------------------------------------  Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अ० भा० सुधर्म जैन सं० रक्षक संघ, जोधपुर आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अन्तर्गत प्रकाशित आगम अंग सूत्र क्रं. नाम आगम मूल्य १. आचारांग सूत्र भाग-१-२ ५५-०० २. सूयगडांग सूत्र भाग-१,२ ६०-०० ३. स्थानांग सूत्र भाग-१, २ ६०-०० ४. समवायांग सूत्र २५-०० ५. भगवती सूत्र भाग १-७ ३००-०० ६. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र भाग-१, २ ७. उपासकदशांग सूत्र ८. अन्तकृतदशा सूत्र ६. अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र १०. प्रश्नव्याकरण सूत्र ३५-०० ११. विपाक सूत्र ३०-०० २५-०० २५-०० ८०-०० १६०-०० ५०-०० २०-०० २०-०० उपांग सूत्र १. उववाइय सुत्त २. राजप्रश्नीय सूत्र ३. जीवाजीवाभिगम सूत्र भाग-१,२ ४. प्रज्ञापना सूत्र भाग-१,२,३,४ ५. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ६-७. चन्द्रप्रज्ञप्ति-सूर्यप्रज्ञप्ति ८-१२. निरयावलिका (कल्पिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा) मूल सूत्र १. दशवकालिक सूत्र २. उत्तराध्ययन सूत्र भाग-१, २ ३. नंदी सूत्र ४. अनुयोगद्वार सूत्र छेद सूत्र १-३. त्रीणिछेदसुत्ताणि सूत्र (दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार) ४. निशीथ सूत्र १. आवश्यक सूत्र ३०-०० ८०-०० २५-०० ५०-०० ५०-०० ५०-०० - ३०-०० For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोत्थूणं समणस्स भगवओ महावीरस्स गणधर भगवत्सुधर्मस्वामि प्रणीत भगवती सूत्र शतक १८ गाहा - १ १ पढमे २ विसाह ३ मायंदिए य ४ पाणाइवाय ५ असुरे य । ६ गुल ७ केवलि ८ अणगारे ९ भविए तह १० सोमिलद्वारसे ॥ भावार्थ - जीवादि के विषय में प्रथम अप्रथम आदि भावों का प्रतिपादक प्रथम उद्देशक है । विशाखा नगरी में श्रमण भगवान् महावीर पधारे, इस विष क दूसरा उद्देशक है | माकन्दी पुत्र अनगार की पृच्छारूप तीसरा उद्देशक है । प्राणातिपातादि पाप और इनकी विरति विषयक चौथा उद्देशक है। असुरकुमार देव की वक्तव्यता का पांचवां उद्देशक है। गुड़ आदि के वर्णादि विषयक छठा उद्देशक है । केवलज्ञानी के विषय में अन्यतीर्थियों के मन्तव्य विषयक सातवां उद्देशक है । अनगार-क्रिया सम्बन्धी पृच्छा का आठवाँ उद्देशक है । भविक द्रव्य नैरयिक आदि विषयक नौवाँ उद्देशक है और सोमिल ब्राह्मण के प्रश्न युक्त दसवाँ उद्देशक है । इस प्रकार इस अठारहवें शतक में बस उद्देशक हैं । 1 For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव प्रथम है या अप्रथम ? १ प्रश्न - तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासीजीवे णं भंते! जीवभावेणं किं पढमे अपढमे ? १ उत्तर - गोयमा ! णो पढमे, अपढमे । एवं रइए जाव माणिए । २ प्रश्न - सिदधे णं भंते! सिद्धभावेणं किं पढमे अपढमे ? २ उत्तर - गोयमा ! पढमे, णो अपढमे । ३ प्रश्न - जीवा णं भंते! जीवभावेणं किं पढमा अपदमा ? ३ उत्तर - गोयमा ! णो पढमा, अपढमा । एवं जाव वेमाणिया | १ | ४ प्रश्न - सिद्धा णं पुच्छा । ४ उत्तर - गोयमा ! पढमा, णो अपढमा । . शतक १५ उद्देशक १ भावार्थ - १ प्रश्न - उस काल उस समय में राजगृह नगर में गौतम स्वामी यावत् इस प्रकार पूछा - हे भगवन् ! जीव, जीवभाव से ( जीवत्व की अपेक्षा) प्रथम है या अप्रथम ? १ उत्तर - हे गौतम! जीव, जीवभाव की अपेक्षा प्रथम नहीं, अप्रथम है । इस प्रकार नैरयिक यावत् वैमानिक तक जानना चाहिये । २ प्रश्न - हे भगवन् ! सिद्ध जीव, सिद्धत्व की अपेक्षा प्रथम है या अप्रथम ? For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १० उ. १ जीव प्रथम है या अप्रथम ? २६४९ २ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम है, अप्रथम नहीं। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! समी जीव, जीवभाव की अपेक्षा प्रथम हैं या अप्रथम ? ३ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम नहीं, अप्रथम है । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिये। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! सभी सिद्ध जीव, सिद्धभाव की अपेक्षा प्रथम हैं या अप्रथम ? ४ उत्तर-हे गौतम वे प्रथम हैं, अप्रथम नहीं। ५ प्रश्न-आहारए णं भंते ! जीवे आहारभावेणं किं पढमे अपढमे ? ५ उत्तर-गोयमा ! णो पदमे, अपदमे । एवं जाव वेमाणिए, पोहत्तिए एवं चेव । ६ प्रश्न-अणाहारए णं भंते ! जीवे अणाहारभावेणं पुच्छा। ६ उत्तर-गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे । प्रश्न-णेरइए णं भंते ! उत्तर-एवं णेरइए, जाव वेमाणिए णो पढमे, अपढमे । सिद्धे पढमे णो अपढमे । . ७ प्रश्न-अणाहारगा णं भंते ! जीवा अणाहारभावेणं पुच्छा। “७ उत्तर-गोयमा ! पढमा वि अपढमा वि । णेरइया जाव वेमाणिया णो पढमा, अपढमा। सिद्धा पढमा, णो अपढमा । एक्केक्के पुच्छ भाणियव्वा । २। ८-भवसिद्धीए एगत्तपुहुत्तेणं जहा आहारए, एवं अभवसिद्धीए वि। For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५. भगवती सूत्र-स. १८ उ. १ जीव प्रथम है, या अप्रथम ? प्रश्न-णोभवसिद्धीय-णोअभवसिद्धीए णं भंते ! जीवे णोभव० पुच्छ। उत्तर-गोयमा ! पढमे, णो अपढमे । प्रश्न-णोभवसिद्धीय-णोअभवसिद्धीएणं भंते ! सिदधे णोभव० । उत्तर-एवं पुहुत्तेण वि दोण्ह वि । ९ प्रश्न-सण्णी णं भंते ! जीवे सण्णीभावेणं किं पढमे-पुच्छा । ९ उत्तर-गोयमा ! णो पढमे, अपढमे । एवं विगलिंदियवज्ज जाव वेमाणिए । एवं पुहुत्तेण वि । ३ । असण्णी एवं चेव एगत्तपुहुत्तेणं, णवरं जाव वाणमंतरा । णोसण्णी-णोअसण्णी जीवे मणुस्से सिद्धे पढमे, णो अपढमे । एवं पुहुत्तेण वि । ४ । कठिन शब्दार्थ-भवसिद्धिए-मवान्त कर के सिद्धत्व प्राप्त करने के स्वभाव वाला । भाभार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! आहारक जीव, आहारक भाव से प्रथम है या अप्रथम? ५ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम नहीं, अप्रथम है। इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिये । बहुवचन में भी इसी प्रकार है। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! अनाहारक जीव, अनाहारक भाव की अपेक्षा प्रथम है या अप्रथम ? ६ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् प्रथम होता है और कदाचित् अप्रथम। प्रश्न-नरयिक जीव, अनाहारक भाव से प्रथम है या अप्रथम ? उत्तर-प्रथम नहीं, अप्रथम है। इसी प्रकार नरयिक से ले कर वैमानिक तक जानना चाहिये । सिद्धजीव, अनाहारक भाव की अपेक्षा प्रथम है, अप्रथम ७ प्रश्न-हे भगवन् ! अनाहारक जीव, अनाहारक भाव से प्रथम हैं या अप्रथम ? नहीं। For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. १ जीव प्रथम है या अप्रथम ? २६५१ ७ उत्तर-हे गौतम ! वे प्रथम भी हैं और अप्रथम भी। इसी प्रकार नरयिक से ले कर वैमानिक तक सभी प्रथम नहीं, अप्रथम हैं । सिद्ध प्रथम हैं, अप्रथम नहीं । इस प्रकार प्रत्येक दण्डक के विषय में प्रश्न करना चाहिये। ८ प्रश्न-आहारक जीव के समान भवसिद्धिक जीव, भवसिद्धिकपने प्रथम नहीं, अप्रथम है, इत्यादि वक्तव्यता एक वचन और बहुवचन से कहनी चाहिये । इसी प्रकार अभवसिद्धिक प्रश्न के उत्तर में भी जानना चाहिये । (प्रश्न) नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक जीव, नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक भाव की अपेक्षा प्रथम है या अप्रथम है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम है, अप्रथम नहीं। प्रश्न-नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव, नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक भाव से प्रथम हैं या अप्रथम ? उत्तर-पूर्ववत् । इसी प्रकार जीव और सिद्ध दोनों के बहुवचन सम्बन्धी प्रश्नोत्तर भी जानना चाहिये । ९प्रश्न-हे भगवन् ! संज्ञी जीव, संज्ञी भाव की अपेक्षा प्रथम है या अप्रथम? . ९ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम नहीं, अप्रथम है। इस प्रकार विकलेन्द्रिय (एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, और चौरिन्द्रिय) को छोड़ कर यावत् वैमानिकता जानना चाहिये। इसी प्रकार बहुवचन सम्बन्धी वक्तव्यता भी जाननी चाहिये। असंज्ञी जीवों के विषय में भी एकवचन और बहुवचन पृच्छा इसी प्रकार जाननी चाहिये। विशेषता यह है कि यह वाणव्यन्तरों तक ही जाननी चाहिये । नोसंज्ञी नो असंज्ञी जीव, मनुष्य और सिद्ध, नो संज्ञी नो असंज्ञी भाव की अपेक्षा प्रथम है, अप्रथम नहीं । इस प्रकार बहुवचन सम्बन्धी प्रश्नोत्तर भी जान लेने चाहिये । . विवेचन-इस उद्देशक में जीवादि चौदह द्वारों में प्रथम, अप्रथम आदि भाव का विचार, चौवीस दण्डक और सिद्ध जीव के विषय में किया गया है । उन चौदह द्वारों को सूचित करने वाली संग्रह-गाथा इस प्रकार है .जोवाहारग-भव-सण्णी, लेस्सा विट्ठी य संजय-कसाए । गाणे जोगुवओगे, वेए य सरीर-पज्जती ॥ For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १८ उ. १ सलेशीपनादि प्रथम है या अप्रथम ? अर्थात्-१ जीव द्वार २ आहारक द्वार ३ भवसिद्धिक ४ संज्ञी ५ लेश्या ६ दृष्टि ७ संयत ८ कषाय ९ ज्ञान १० योग ११ उपयोग १२ वेद १३ शरीर और १४ पर्याप्ति द्वार । इन चौदह द्वारों में से संज्ञी द्वार तक चार द्वारों का भावार्थ ऊपर दिया गया है । प्रथम, अप्रथम की व्याख्या इस प्रकार है २६५२ जो जेण पत्तपुव्वो भावो, सो तेण अफ्ढमो होइ । सेसेसु होइ पढमो, अपत्तपुव्वेसु भावेसु ॥ अर्थात् - जिस जीव ने जो भाव पूर्व ( पहले ) भी प्राप्त किया है. उसकी अपेक्षा वह 'अप्रथम' कहलाता है । जैसे-जीव को जीवत्व अनादि काल से प्राप्त है । इसलिये जीवत्व की अपेक्षा जीव अप्रथम है । जो भाव जीव को पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ, उसे प्राप्त करना, उस भाव की अपेक्षा 'प्रथम' कहलाता है । जैसे - सिद्धत्व की अपेक्षा जीव प्रथम है । क्योंकि सिद्धत्व जीव को पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था । सिद्ध जीव और विग्रहगति प्राप्त संसारी जीव अनाहारक होते हैं । अनाहारक भाव की अपेक्षा सिद्ध प्रथम हैं, क्योंकि उन्हें अनाहारकत्व पहले प्राप्त नहीं हुआ था । संसारी ta प्रथम हैं, क्योंकि विग्रहगति में उसने अनाहारकपना अनन्त बार प्राप्त किया है। इस प्रकार दण्डक के क्रम से नैरयिक से ले कर वैमानिक तक के सभी जीव पूर्वोक्त हेतु से अनाहारक भाव की अपेक्षा अप्रथम है ।' संज्ञी जीव, संज्ञी भाव से अप्रथम है, क्योंकि संज्ञीपना अनन्त बार प्राप्त हो चुका है । असंज्ञी द्वार में जीव और नैरयिक से ले कर दण्डक के क्रम से व्यन्तर तक के जीव असंज्ञी भाव से अप्रथम हैं, क्योंकि उनमें असंज्ञीपन भूतपूर्व गति की अपेक्षा तथा वहाँ आने पर भी कुछ देर तक नरक, भवनपति और वाणव्यन्तरों में पाया जाता है । असंज्ञी जीवों का उत्पाद वाणव्यन्तर तक होता है। पृथ्वीकायिकादि असंज्ञी जीव तो असंज्ञी भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं । सशीपनादि प्रथम है या अप्रथम ? १० प्रश्न - सलेसे णं भंते ! पुच्छा । १० उत्तर - गोयमा ! जहा आहारए, एवं पुहुत्तेण वि । कण्ह For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. १ सलेशीपनादि प्रथम है या अप्रथम ? २६५३ लेस्सा जाव सुकलेस्सा एवं चेव, णवरं जस्स जा लेसा अस्थि । अलेसे णं जीव-मणुस्स सिद्धे जहा णोसण्णीणोअसण्णी ।५। ११ प्रश्न-सम्मदिट्टीए णं भंते ! जोवे सम्मदिट्ठिभावेणं किं 'पढमे-पुच्छा । ११. उत्तर-गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपदमे । एवं एगिदियः वजं जाव वेमाणिए । सिधे पढमे, णो अपढमे । पुहुत्तिया जीवा पढमा वि अपढमा वि, एवं जाव वेमाणिया । सिद्धा पढमा, णो अपढमा । मिच्छादिट्ठीए एगत्तपुहुत्तेणं जहा आहारगा। सम्मामिच्छा. दिट्ठी एगत्तपुहुत्तेणं जहा सम्मदिट्ठी,णवरं जस्स अस्थि सम्मामिच्छत्तं ।६। - १२-संजए जीवे मणुस्से य एगत्तपुहुत्तेणं जहा सम्मदिट्टी, असं. जए जहा आहारए, संजयासंजए जीवे पंचिंदियतिरिक्खजोणिय. मणुस्सा एगत्तपुहुत्तेणं जहा सम्मदिट्ठी णोसंजए णोअसंजए णोसंजया. संजए जीवे सिधे य एगत्तपुहुत्तेणं पढमे, णो अपढमे ।। १३-सकसायी कोहकसायी जाव लोभकसायी एए एगत्तपुहुत्तेणं जहा आहारए, अकसायी जीवे सिय पढमे सिय अपढमे, एवं मणुस्से वि । सिद्धे पढमे, णो अपढमे; पुहुत्तेणं जीवा मणुस्सा वि पढमा वि अपढमा वि । सिद्धा पढमा, णो अपढमा । ८ । १४-णाणी एगत्तपुहुत्तेणं जहा सम्मदिट्टी, आभिणिवोहियणाणी For Personal & Private Use Only Page #25 --------------------------------------------------------------------------  Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १८ उ १ सलेगीपनादि प्रथम है या अप्रथम ? २६५५ अपेक्षा सम्यग्दृष्टि जीव की वक्तव्यता के समान जानना चाहिये । असंयत का कथन आहारक जीव के समान समझना चाहिये । संयतासंयत जीव, पञ्चिन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य, इन तीन पदों में एकवचन और बहुवचन से सम्यग्दृष्टि के समान कदाचित् प्रथम और कदाचित् अप्रथम होता है। नोसंयत नोअसंयतसंयतासंयत जीव और सिद्ध एकवचन और बहुवचन से प्रथम हैं, अप्रथम नहीं । १३ - सकषायी, क्रोधकषायी, यावत् लोभकषायी - ये सब एकवचन और बहुवचन से आहारक जीव के समान हैं। अकषायी जीव कदाचित् प्रथम । और कदाचित् अप्रथम होता है, इसी प्रकार अकषायी मनुष्य भी । सिद्ध प्रथम हैं, अप्रथम नहीं । बहुवचन से अकषायी जीव और मनुष्य प्रथम भी होते हैं और अप्रथम भी । सिद्ध जीव, बहुवचन से प्रथम है, अप्रथम नहीं । १४ - ज्ञानी जीव, एकवचन और बहुवचन से सम्यग्दृष्टि जीव के समान कदाचित् प्रथम और कदाचित् अप्रथम होते हैं । आभिनिबोधिक ज्ञानी यावत् मन:पर्ययज्ञानी, एकवचन और बहुवचन से इसी प्रकार हैं, जिस जीव के जो ज्ञान हो, वही कहना चाहिये । केवलज्ञानी जीव मनुष्य और सिद्ध-ये सब एकवचन और बहुवचन से प्रथम हैं, अप्रथम नहीं । अज्ञानी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी ये सभी एकवचन और बहुवचन से आहारक जीव के समान हैं। विवेचन-कोई सम्यग्दृष्टि जीव. प्रथम बार सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है, इस अपेक्षा वह प्रथम है और कोई सम्यग्दर्शन से गिर कर दूसरी-तीसरी बार पुनः सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है, इस अपेक्षा वह अप्रथम है । एकेन्द्रिय जीवों को सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता। इसलिये एकेन्द्रियों के पाँच दण्डक छोड़ कर शेप १९ दंडकों का कथन किया गया है। सिद्ध सम्यग्दृष्टि भाव की अपेक्षा प्रथम हैं, क्योंकि सिद्धत्वसहचरित सम्यग्दर्शन मोक्ष गमन के समय प्रथम ही प्राप्त होता है । मिथ्यादृष्टि जीव, आहारक के समान एकवचन और बहुवचन से अप्रथम हैं, क्योंकि मिथ्यादर्शन अनादि है । For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५६ भगवती सूत्र-श. १८ उ. १ योग उपयोगादि प्रथम है या अप्रथम ? संयत द्वार में मात्र जीव और मनुष्य-ये दो पद होते हैं । इनमें संयतपन सम्यगदृष्टि के समान प्रथम और अप्रथम होता है । अकषायी जीव, यथाख्यात चारित्र की प्रथम प्राप्ति के समय 'प्रथम' होते हैं और पुनः प्राप्ति के समय अप्रथम होते हैं । इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी जानना चाहिये । अकषायी सिद्ध प्रथम होते हैं, क्योंकि सिद्ध, सिद्धत्व सहित अकषाय भाव की अपेक्षा प्रथम हैं। ज्ञान द्वार में ज्ञानी, सम्यग्दृष्टि के समान प्रथम और अप्रथम होता हैं। इनमें केवलज्ञानी, केवलज्ञान की अपेक्षा प्रथम हैं और अकेवली, केवलज्ञान के अतिरिक्त गेप ज्ञानों की प्रथम प्राप्ति में 'प्रथम' होते हैं और पुनः प्राप्ति में 'अप्रथम' होते हैं। योग उपयोगादि प्रथम है या अप्रथम ? १५-सजोगी, मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी एगत्तपत्तेणं जहा आहारए, णवरं जस्स जो जोगो अस्थि । अजोगी जीव-मणुस्ससिद्धा एगत्तपुहुत्तेणं पढमा, णो अपढमा ।१०। १६-सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता एगत्तपुहत्तेणं जहा अणाहारए ।११। . १७-सवेदगो जाव णपुंसगवेदगो एगत्तपुहुत्तेणं जहा आहारए, णवरं जस्स जो वेदो अस्थि । अवेदओ एगत्तपुहत्तेणं तिसु वि पदेसु जहा अकसायी ॥१२॥ १८-ससरीरी जहा आहारए, एवं जाव कम्मगसरीरी, जस्स जं अस्थि सरीरं, णवरं आहारगसरीरी एगत्तपुहुत्तेणं जहा सम्मदिट्ठी । असरीरी जीवो सिद्धो एगत्तपुहुत्तेणं पढमो णो अपढमो ॥१३॥ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १८ उ. १ योग उपयोगादि प्रथम है या अप्रथम ? २६५७ १९-पंचहिं पजत्तीहिं पंचहिं अपज्जत्तीहिं एगत्तपत्तेणं जहा आहारए, णवरं जस्स जा अस्थि, जाव वेमाणिया णो पढमा, अप. ढमा ।१४। इमा लक्खण-गाहा "जो जेणं पत्तपुव्वो भावो सो तेण अपढमओ होइ । सेसेसु होई पढमो अपत्तपुब्वेसु भावेसु ॥" कठिन शब्दार्थ-सागरोवउत्त-ज्ञानोपयोग युक्त, अणागारोवउत्त-दर्शनोपयोगी। भावार्थ-१५-सयोगी, मनयोगी, वचनयोगी और काययोगी, ये सभी एकवचन और बहुवचन से आहारक जीवों के समान अप्रथम होते हैं। जिन जीवों के जो योग हो, वह उसी प्रकार जानना चाहिये । अयोगी जीव, मनुष्य और सिद्ध-ये सभी एकवचन और बहुवचन से प्रथम हैं, अप्रथम नहीं। १६-साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी एकवचन और बहुवचन से ' आहारक जीवों के समान हैं। १७-सवेदक यावत् नपुंसक वेद वाले एकवचन और बहुवचन से आहारक जीव के समान हैं। जिस जीव के जो वेद हो, वही जानना चाहिए । एकवचन और बहुवचन से अवेदक जीव; मनुष्य और सिद्ध, अकषायी जीव के समान है। १८-सशरीर जीव, आहारक के समान हैं। इसी प्रकार यावत् कार्मणशरीरी जीव के विषय में भी समझना चाहिये । जिस जीव के जो शरीर हो, वही कहना चाहिये, किन्तु आहारक शरीरी के विषय में एकवचन और बहुवचन से सम्यग्दष्टि जीव के समान कहना चाहिये । अशरीरी जीव और सिद्ध, एकवचन और बहुवचन से प्रथम हैं, अप्रथम नहीं। १९-पाँच पर्याप्ति से पर्याप्त और पांच अपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव, एकवचन और बहुवचन से आहारक के समान हैं। जिसके जो पर्याप्ति हो, वह कहनी चाहिये । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिये । अर्थात् ये सब प्रथम नहीं, अप्रथम हैं। For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५८ भगवती सूत्र-श. १८ उ. १ चरम अचरम प्रथम और अप्रथम के स्वरूप को बतलाने वालो गाथा का अर्थ इस प्रकार है-जिन जीवों को जो भाव (अवस्था) पूर्व से प्राप्त है, तथा जो अनादि काल से हैं, उस भाव की अपेक्षा वह जीव, अप्रथम कहलाता है और जो भाव प्रथम बार ही प्राप्त हुआ है, उससे पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ, उसकी अपेक्षा वह जीव प्रथम कहलाता है। विवेचन-साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी, अनाहारक के समान जानना चाहिये । वह जीव पद में सिद्ध की अपेक्षा प्रथम और संसारी की अपेक्षा अप्रथम है । नैरयिक से लेकर वैमानिक तक सभी दण्डकों में प्रथम नहीं, अप्रथम है । सिद्धत्व के विषय में प्रथम हैं, अप्रथम नहीं, क्योंकि साकारोपयोग और अनाकारोपयोग विशिष्ट सिद्धत्व की प्राप्ति प्रथम ही होती है। चरम अचरम चा or २० प्रश्न-जीवे णं भंते ! जीवभावेणं किं चरिमे अचरिमे ? २० उत्तर-गोयमा ! णो चरिमे, अचरिमे । २१ प्रश्न-णेरइए णं भंते ! गेरइयभावेणं-पुच्छा। २१ उत्तर-गोयमा ! सिय चरिमे, सिय अचरिमे । एवं जाव वेमाणिए । सिद्धे जहा जीवे । २२ प्रश्न-जीवा णं-पुच्छा। २२ उत्तर-गोयमो ! णो चरिमा, अचरिमा । णेरइया चरिमा वि अचरिमा वि, एवं जाव वेमाणिया । सिद्धा जहा जीवा ॥१॥ २३-आहारए सव्वत्थ एगत्तेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे, For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. १ चरम अचरम २६५९ पुहुत्तेणं चरिमा वि अचरिमा वि । अणाहारओ जीवो सिद्धो य एगतेण वि पुहुत्तेण वि णो चरिमे, अचरिमे । सेसट्टाणेसु एगत्तपुहुत्तेणं जहा आहारओ ।२। कठिन शब्दार्थ-चरिमे-चरम-(अन्तिम) सिय-स्यात् (कदाचित्) । भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, जीवत्व (जीवभाव) की अपेक्षा चरम है या अचरम ? २० उत्तर-हे गौतम ! चरम नहीं, अचरम है। २१ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक, नैरयिकभाव की अपेक्षा चरम है या अचरम ? २१ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् चरम है और कदाचित् अचरम है। इस प्रकार वैमानिक तक जानना चाहिए । सिद्ध का कथन जीव के समान है। २२ प्रश्न-जीवों के विषय में चरम, अचरम सम्बन्धी प्रश्न ? . २२ उत्तर-हे गौतम ! जीव चरम नहीं, अचरम हैं। नैरयिक जीव, नैरयिकभाव से चरम भी हैं और अचरम भी। इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक समझना चाहिए । सिद्धों का कथन जीवों के समान है। २३-आहारक सर्वत्र एक वचन से कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम होता है । बहुवचन से आहारक चरम भी होते हैं और अचरम भी। अनाहारक जीव और सिद्ध एकवचन और बहुवचन से चरम नहीं होते, अचरम होते हैं। शेष नैरपिकादि स्थानों में अनाहारक, एकवचन और बहुवचन से अनाहारक जीव के समान (कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम) है। २४-भवसिद्धीओ जीवपए एगत्तपुहुत्तेणं चरिमे, णो अचरिमे, सेसट्ठाणेसु जहा आहारओ। अभवसिद्धीओ सव्वस्थ एगत्तपत्तेणं णो For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६० भगवती सूत्र-श. १८ उ. १ चरम अचरम चरिमे, अचरिमे । णोभवसिद्धीय-णोअभवसिद्धीय जीवा सिद्धा य एगत्तपुहुत्तेणं जहा अभवसिद्धीओ।३। । ___ २५-सण्णी जहा आहारओ, एवं असण्णी वि । णोसण्णी. णोअसण्णी जीवपए सिद्धपए य अचरिमे, मणुस्सपए चरिमे एगत्त पुहुत्तेणं । ४। ___ २६-सलेस्सो जाव सुक्कलेस्सो जहा आहारओ, णवरं जस्स जा अत्थि । अलेस्तो जहा णोसण्णी-णोअसण्णी । ५ । ____२७-सम्मदिट्ठी जहा अणाहारओ, मिच्छादिट्ठी जहा आहारओ, सम्मामिच्छादिट्ठी एगिंदिय विगलिंदियवज्जं सिय चरिमे, सिय अचरिमे, पुहुत्तेणं चरिमा वि अचरिमा वि । ६। भावार्थ २४-मवसिद्धिकजीव, एकवचन और बहवचन से चरम हैं, अचरम नहीं। शेष स्थानों में आहारक के समान हैं । अभवसिद्धिक सर्वत्र एकवचन और बहवचन से चरम नहीं, अचरम हैं। नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव और सिद्ध, एकवचन और बहुवचन से अमवसिद्धिक के समान हैं। २५-संज्ञी और असंज्ञी आहारक के समान हैं, . नोसंज्ञो नोअसंज्ञी जीव और सिद्ध अचरम हैं। मनुष्य एकवचन और बहुवचन से चरम हैं। २६-सलेशी यावत् शुक्ल लेशी का कथन आहारक के समान हैं। जिस के जो लेश्या हो, वही कहनी चाहिये । अलेशी, नोसंज्ञी नोअसंज्ञी के समान हैं। - २७-सम्यग्दृष्टि, अनाहारक के समान हैं। मिथ्यादृष्टि आहारक के समान हैं। सम्यगमिथ्यादृष्टि, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय छोड़ कर कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम हैं। बहुवचन से वे चरम भी हैं और अचरम भी। विवेचन-जिंसका कभी अन्त होता है, वह 'चरम' कहलाता है और जिसका कभी For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १८ उ. १ चरम अचरम भी अन्त नहीं होता, वह 'अचरम' कहलाता है । जीवत्व की अपेक्षा जीव का कभी अन्त नहीं होता, इसलिये वह चरम नहीं अचरम है । २६६१ जो नैरयिक, नरक गति से निकल कर फिर नरक में न जावे और मोक्ष चला जाय, तो वह नैरयिक भाव का सदा के लिये अन्त कर देता है, इसलिये चरम कहलाता है । इससे भिन्न नैरयिक अचरम कहलाता है। इस प्रकार वैमानिक तक जानना चाहिये। सिद्धत्व का कभी अन्त नहीं होता, इसलिये वह अचरम है । आहारक आदि सभी पदों में जीव कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम होता है अर्थात् जो मोक्ष चला जायगा वह चरम है, उससे भिन्न अचरम आहारक है। मोक्ष प्राप्त होने पर भव्यत्व का अन्त हो जाता है, इसलिये भवसिद्धिक चरम है । अभवसिद्धिक का अन्त नहीं होने से वह अचरम है। नो भवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक, सिद्ध होते हैं, वे अभवसिद्धि के समान अचरम होते हैं । सम्यग्दृष्टि, अनाहारक के समान चरम और अचरम होते हैं । अनाहारकपना जाव और सिद्ध दोनों स्थानों में होता है । इसमें से जीव अचरम है, क्योंकि वह सम्यग्दर्शन से गिर कर पुनः सम्यग्दर्शन को अवश्य प्राप्त करता है, किंतु सिद्ध चरम है, क्योंकि वे सम्यग्दर्शन से कभी गिरते ही नहीं । सम्यग्दृष्टि नेरक आदि जो सम्यग्दर्शन को पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम हैं, उनसे भिन्न अचरम हैं। मिथ्यादृष्टि जीव, आहारक की तरह कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम होते हैं । जो मोक्ष में चले जायेंगे वे मिथ्यादृष्टिपन की अपेक्षा चरम हैं और उनसे भिन्न अचरम हैं । मिथ्यादृष्टि नैरयिक आदि जो मिथ्यात्व सहित नैरयिकादिपना पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम हैं और उनसे भिन्न अचरम हैं । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय, मिश्रदृष्टि नहीं होते, इसलिये मिश्रदृष्टि के विषय में नैरयिक आदि दण्डक में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय नहीं कहने चाहिये । सम्यग्दृष्टि के विषय में एकेन्द्रिय नहीं कहने चाहिये । क्योंकि सिद्धान्त के मतानुसार उनमें सास्वादन सम्यक्त्व नहीं होता। इसी प्रकार जिसका जिस विषय में सम्भव नहीं हो, उसका वहां कथन नहीं करना चाहिये। जैसे संज्ञी पद में एकेन्द्रिय आदि का, असंज्ञी पद में ज्योतिषी आदि का कथन नहीं करना चाहिये । २८ - संजय जीवो मणुस्सो य जहा आहारओ, असंजओ वि For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६२ भगवती सूत्र-श. १८ उ. १ चरम अचरम तहेव, संजयासंजए वि तहेव, णवरं जस्स जं अस्थि । णोसंजय-णो. असंजय-गोसंजयासंजओ जहा णोभवसिद्धीय-णोअभवसिद्धीओ।७। ' २९-संकसायी जाव लोभकसायी सव्वट्ठाणेसु जहा आहारओ, अकसायी जीवपए सिधे य णो चरिमो, अचरिमो, मणुस्सपए सिय चरिमो, सिय अचरिमो। ८। ३०-णाणी जहा सम्मदिट्ठी सव्वत्थ, आभिणिबोहियणाणी, जाव मणपज्जवणाणी जहा आहारओ, णवरं जस्स जं अस्थि । केवलणाणी जहा णोसण्णी-णोअसण्णी, अण्णाणी जाव विभंगणाणी जहा आहारओ।९। ___३१-सजोगी जाव कायजोगी जहा आहारओ, जस्स जो जोगो अत्थि । अजोगी जहा णोसण्णी-णोअसण्णी । १० । ३२-सागारोवउत्तो अणागारोवउत्तो य जहा अणाहारओ।११॥ ३३-सवेदओ जोव णपुंसगवेदओ जहा आहारओ, अवेदओ जहा अकसायो । १२ । .. ३४-ससरीरी जाव कम्मगसरीरी जहा आहारओ, णवरं जस्स जं अस्थि । असरीरी जहा णोभवसिद्धीय-णोअभवसिद्धीओ।१३। ३५-पंचहिं पजत्तीहिं पंचहिं अपजत्तीहिं जहा आहारओ, सव्वत्थ पगत्तपुहुत्तेणं दंडगा भाणियत्वा ।१४। इमा लक्खणगाहा For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. १८ उ. १ चरम अचरम "जो जं पाविहिर पुणो भावं सो तेण अचरिमो होइ । अच्चतविओगो जस्स जेण भावेण सो चरिमो ॥" * सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरड || अठारसमे स पढमो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ - पाविहिइ प्राप्त करेगा । भावार्थ - २८ - संयत जीव और मनुष्य, आहारक के समान है । असंयत और संयतासंयत भी इसी प्रकार है। जिसके जो भाव हो, वह जानना चाहिये । नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत, नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक की तरह है । २९-सकषायी यावत् लोभकषायी, इन सभी स्थानों में आहारक के समान है । अकषायी जीव और सिद्ध चरम नहीं, अचरम हैं। मनुष्य पद में कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम कहना चाहिये । ३० - ज्ञानी सर्वत्र सम्यग्दृष्टि के समान है । आभिनिबोधिक ज्ञानी याक्त मन:पर्ययज्ञानी, आहारक के समान है। जिसके जो ज्ञान हो, वह कहना चाहिये । केवलज्ञानी का कथन नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जैसा है । अज्ञानी यावत् विभंगज्ञानी, आहारक के समान है । ३१ - सयोगी यावत् काययोगी, आहारक के समान हैं। जिसके जो योग हो, वही लेना चाहिये । अयोगी, नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के समान हैं । ३२ - साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी जीव, अनाहारक जैसे हैं । ३३- सवेदी यावत् नपुंसकवेदी, आहारकवत् है और अवेदक अकषायी के समान हैं । २६६३ ३४ - सशरीरी यावत् कार्मणशरीरी का कथन आहारक का सा है । जिसके जो शरीर हो, वह कहना चाहिये । अशरीरी का कथन नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिक जैसा है । ३५ - पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त और पांच अपर्याप्तियों से अपर्याप्त का For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६४ भगवती सूत्र - श. १८ उ. १ चरम अचरम कथन आहारक के समान है । सर्वत्र ये चौदह ही दण्डक, एकवचन और बहुवचन से जानना चाहिये । चरम और अचरम के स्वरूप को बतलाने वाली गाथा का अर्थ इस प्रकार है- जो जीव जिस भाव को पुनः प्राप्त करेगा, वह जीव उस भाव की अपेक्षा 'अचरम' कहलाता है और जिस भाव का जिस जीव के साथ सर्वथा वियोग हो जाता है, वह जीव, उस भाव की अपेक्षा 'चरम' कहलाता है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - संयत जीव चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं । जिसको पुनः संयतपन प्राप्त नहीं होता, वह चरम है और उससे भिन्न अचरम है । मनुष्य भी इसी तरह है | असंयत का कथन आहारक के समान चरम और अचरम दोनों प्रकार का है और संयतासंयत ( देश विरत) का कथन भी इसी प्रकार है, परन्तु देशविरति, जीव पंचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्य - इन तीनों में ही होता है । नोसयत-नोअसंयत-नो संयतासंयत ( सिद्ध ) अचरम हैं, क्योंकि सिद्धत्व नित्य होता है । इसलिये वह चरम नहीं होता । सकषायी जीवादि कदाचित् चरम होते हैं और कदाचित् अचरम होते हैं । जो मोक्ष प्राप्त करेंगे, वे चरम हैं और अन्य अचरम हैं । सम्यग्दृष्टि के समान ज्ञानी जीव और सिद्ध अचरम है । क्योंकि यदि जीव ज्ञानावस्था से गिर भी जाय तो वह उसे पुनः अवश्य प्राप्त करता है, अत: अचरम हैं और सिद्ध सदा ज्ञानावस्था में ही रहते हैं, इसलिये अचरम । शेष जिन जीवों को ज्ञान सहित नारकत्वादि की प्राप्ति पुनः असम्भव है, वे चरम है, शेष अचरम है। आभिनिबोधिक ज्ञानी आहारक के समान चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं। जो जीव, आभिनिबोधिक आदि ज्ञान को केवलज्ञान हो जाने के कारण पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम हैं, शेष :: अचरम हैं । केवलज्ञानी अचरम होते हैं । जहाँ-जहाँ आहारक का अतिदेश किया गया है, वहाँ वहाँ 'कदाचित् चरम और कदाचित् अवरम ' - ऐसा कहना चाहिए । ॥ इति अठारहवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८ उद्देशक २ कार्तिक श्रेष्ठी (सेठ)-शक्रेन्द्र का पूर्वभव १-तेणं कालेणं तेणं समएणं विसाहा णामं णयरी होत्था । वण्णओ । बहुपुत्तिए चेइए । वण्णओ। सामी समोसढे जाव पज्जु वासड् । तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविंदे देवराया वजपाणी पुरंदरे-एवं जहा सोलसमसए विइयउद्देसए तहेव दिव्वेणं जाणविमाणेणं आगओ । णवरं एत्थ आभियोगा वि अत्थि, जाव बत्तीसइविहं णट्टविहिं उवदंसेइ, उवदंसेत्ता जाव पडिगए । ___ भावार्थ-१-उस काल उस समय में विशाखा नाम की नगरी थी। वर्णन । वहाँ बहुपुत्रिक नामक उद्यान था। वर्णन । एक समय वहां श्रमण . भगवान् महावीर स्वामी पधारे यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। उस काल . उस समय में शक्र देवेन्द्र देवराज, वज्रपाणि, पुरन्दर इत्यादि सोलहवें शतक के दूसरे उद्देशक के अनुसार यावत् वह दिव्य यान में बैठ कर आया । अन्तर यह कि यहाँ आभियोगिक देव भी साथ थे यावत् इन्द्र ने बत्तीस प्रकार की नाट्य विधि दिखलाई और जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। २ प्रश्न-'भंते ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव एवं वयासी-जहा तईयसए ईसाणस्स तहेव कूडागारदिळंतो, तहेव For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६६ भगवती सूत्र-श. १८ उ. २ कार्तिक श्रेष्ठी (सेठ)-शवेन्द्र का पूर्वभव पुवभवपुच्छा, जाव अभिसमण्णागया ? २ उत्तर-'गोयमा' दि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी-'एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुदीवे दीवे भारहे वासे हथिणापुरे णामं णयरे होत्था । वण्णओ। सहस्संबवणे उजाणे । वण्णओ । तत्थ णं हथिणापुरे णयरे कत्तिए णामं सेट्टी परिवसइ, अड्ढे जाव अपरिभूए, णेगमपढमा. सहिए, णेगमट्ठसहस्सस्स बहुसु कज्जेसु य कारणेसु य कोडंवेसु यएवं जहा रायप्पसेणइज्जे चित्ते जाव चक्खुभूए, णेगमट्ठसहस्सस्स सयस्स य कुटुंबस्स आहेवच्चं जाव कारेमाणे पालेमाणे, समणोवासए, अभिगयजीवाजीवे जाव विहग्इ ।। ___ कठिन शब्दार्थ--णेगमपढमासणिए--व्यापारियों में प्रथम स्थान रखने वाला, कज्जेसु-घर सम्बन्धी कार्यों में, कारणेसु-कृषि, पशुपालन, वाणिज्यादि कारणों में । भावाथ-२ प्रश्न-'हे भगवन् !'-गौतम स्वामी ने श्रमण भगवन् महावीर स्वामी से पूछा-जिस प्रकार तीसरे शतक के प्रथम उद्देशक में ईशानेन्द्र के वर्णन में कूटागार शाला का दृष्टान्त और पूर्व-भव सम्बन्धी प्रश्न किया है, उसी प्रकार यहां भी यावत् 'ऋद्धि सम्मुख हुई है'-तक कहना चाहिये। २ उत्तर-हे गौतम !'-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी को सम्बोधन कर कहा-'हे गौतम ! इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में हस्तिनापुर नामक नगर था। वहां सहस्राम्र वन उदयान था, उस हस्तिनापुर नगर में 'कातिक' नामक श्रेष्ठी (सेठ) रहता था, जो धनिक यावत् किसी से पराभव न पाने वाला, वणिकों में अग्र-स्थान प्राप्त करने वाला था। वह उन एक हजार आठ व्यापारियों के लिये बहुत कार्यों में, कारणों में और कुटुम्बों में पूछने For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. २ कातिक श्रेष्ठी (सेठ)-श केन्द्र का पूर्वभव २६६७ योग्य यावत् चक्षुरूप था। जिस प्रकार राजप्रश्नीय सूत्र में चित्त सारथि का वर्णन है, उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिये । वह कार्तिक सेठ एक हजार आठ व्यापारियों का और अपने कुटुम्ब का अधिपति पद भोगता हुआ यावत् पालन करता हुआ रहता था। वह जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक था। ३-तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुव्वए अरहा आइगरे जहा सोलसमसए तहेव जाव समोसढे, जाव परिसा पज्जुवासह । तर से कत्तिए सेट्ठी इमीसे कहाए लढे समाणे हट्टतुट्ठ• एवं जहा एकारसमसए सुदंसणे तहेव णिग्गओ, जाव पज्जुवासइ । तएणं मुणिसुब्बए अरहा कत्तियस्स सेट्ठिरस धम्मकहा जाव परिसा पडिगया । ३-उस काल उस समय में धर्म की आदि करने वाले इत्यादि सोलहवें शतक के पांचवें उद्देशक के वर्णनानुसार श्री मुनिसुव्रत तीर्थकर वहां पधारे यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। कातिक सेठ भगवान् का पधारना सुन कर बहुत प्रसन्न हुआ इत्यादि, ग्यारहवें शतक के ग्यारहवें उद्देशक में कथित सुदर्शन सेठ के समान वन्दन करने के लिये निकला यावत् पर्युपासना करने लगा। भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी ने उस महति परिषद् और कार्तिक सेठ को धर्मकथा कही यावत् परिषद् लौट गई। विवेचन-कार्तिक सेठ आढय यावत् अपराभूत था। वह एक हजार आठ व्यापारियों के लिये तथा अपने कुटुम्ब के लिये 'मेढ़ी' प्रमाण, आधार, आलम्बन और चक्षुरूप था। जिस प्रकार भूसे में से धान निकालने के लिये खलिहान के बीच में एक स्तम्भ गाड़ा जाता है, जिसके साथ बन्धी हुई बैलों की पंक्ति, धान्य को गाहती है, उसी प्रकार जिसका अवलम्बन ले कर सभी व्यापारी और कुटुम्बीजन, करने योग्य कार्यों के विषय में विचारविमर्श करते हैं, उस आधार को 'मेढ़ी' कहते हैं । प्रत्यक्ष आदि को 'प्रमाण' कहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६८ भगवती सूत्र-श. १८ उ २ कार्तिक श्रेष्ठी (सेठ)-शवेन्द्र का पूर्वभव जिसके परामर्श से किये हुए कार्यों में कहीं विरोध न आवे, जो उचित कार्यों में प्रवृत्ति और अनुचित से निवृत्ति करवाने वाला है, ऐसा वह कार्तिक सेठ उन व्यापारियों और कुटुम्बीजनों के लिये 'प्रमाणभूत' था। . जिस प्रकार आधेय वस्तु के लिये आधार होता है, उसी प्रकार जो सभी लोगों के लिये सभी कार्यों में उपकारी हो, वह आधार' कहलाता है। जिस प्रकार खड्डे आदि में पड़े हुए पुरुष को निकालने में रस्सी आलम्बन होती है। उसी प्रकार आपत्ति रूप खड्डे में पड़े हुए पुरुषों की आपत्ति को दूर करने वाला आलम्बन' कहलाता है। जिस प्रकार आँख से सब दिखाई देता है, उसी प्रकार जो लोगों के लिये विविध प्रकार के कार्यों में प्रवृत्ति निवृत्ति रूप पथ-प्रदर्शक हो, वह 'चक्षु' कहलाता है । कार्तिक सेठ उपर्युक्त गुणों से युक्त था। . ४-तएणं से कत्तिए सेट्ठी मुणिसुव्वए० जाव णिसम्म हट्टतुट्ठ० उट्ठाए उठेइ, उठाए उठेता मुणिसुव्वयं जाव एवं वयासी-'एवमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुम्भे वदह जं, णवरं देवाणुप्पिया ! णेगमट्ट. सहस्सं आपुच्छामि, जेट्टपुत्तं च कुटुंबे ठावेमि, तएणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं पन्वयामि । अहासुहं जाव मा पडिबंधं । भावार्थ-४-कार्तिक सेठ भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सुन कर यावत् अवधारण कर के प्रसन्न और सन्तुष्ट हो कर खड़ा हुआ और विनयपूर्वक बोला-'हे भगवन् ! आपका प्रवचन यथार्थ है। मैं अपने एक हजार आठ मित्रों से पूछ कर और ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप कर, आपके पास प्रवजित होना चाहता हूँ।' “देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा करो, धर्म साधना में विलम्ब मत करो।" तए णं से कत्तिए सेट्टी, जाव पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. २ कार्तिक श्रेष्ठी (मेठ)-शकेन्द्र का mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm जेणेव हत्थिणापुरे णयरे जेणेव सए गेहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता णेगमट्ठसहस्सं सदावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए मुणिसुव्वयस्म अरहओ अंतियं धम्मे णिसंते, से वि य मे धम्मे इन्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए । तएणं अहं देवाणुप्पिया ! संसारभयुव्विग्गे जाव पव्वयामि, तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! किं करेह, किं ववसह, किं भे हियइन्छिए, किं भे सामत्थे ?' तएणं तं गमट्ठसहस्स पि त कत्तियं सेटुिं एवं वयासो-'जइ णं देवाणुप्पिया ! संसारभयुविग्गा जाव पब्वइस्संति, अम्हं देवाणुप्पिया! किं अण्णे आलंबणे वा, आहारे वा, पडिबंधे वा ? अम्हे वि णं देवाणु. प्पिया! संसारभयुब्विग्गा भीया जम्मणमरणाणं देवाणुप्पिएहिं सद्धि मुणिसुब्बयस्स अरहओ अंतियं मुंडा भवित्ता अगाराओ जाव पव्व यामो।' भावार्थ-कातिक सेठ उस धर्म-परिषद् से निकल कर अपने घर आया और अपने एक हजार आठ व्यापारी मित्रों को बुला कर कहा कि "हे देवानुप्रियो ! मैंने मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सुना है । वह धर्म मुझे इष्ट, विशेष इष्ट और प्रिय लगा है । हे देवानुप्रियो ! मैं उस धर्म को सुन कर संसार के भय से उद्विग्न हुआ हूँ, यावत् प्रव्रज्या लेना चाहता हूं। तुम क्या करना चाहते हो, क्या प्रवृत्ति करना चाहते हो? तुम्हें क्या इष्ट है और तुम्हारा क्या सामर्थ्य है।" उन एक हजार आठ व्यापारियों ने कातिक सेठ से कहा-“हे देवानुप्रिय! यदि आप संसार त्याग कर प्रवज्या लेंगे, तो हमारे लिए यहां दूसरा कौनसा For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७० भगवती सूत्र - श. १८ उ. २ कार्तिकं श्रेष्ठी ( सेठ) - शक्रेन्द्र का पूर्वभव आलम्बन है, कौनसा आधार है और कौनसा बन्धन रह जायेगा ? अतएव हे देवानुप्रिय ! हम भी संसार के भय से उद्विग्न हैं तथा जन्म और मरण से भयभीत हुए है। हम भी आपके साथ अगारवास का त्याग करके मुनिसुव्रतस्वामी के पास मुण्डित हो कर अनगार प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे । ५ - तणं से कत्तिए सेट्ठी तं णेगमट्टसहस्सं एवं वयासी - 'जइ णं देवाणुप्पिया ! संसार भयुब्विग्गा भीया जम्मणमरणाणं मए सधि मुणिसुव्वय० जाव पव्वयह, तं गच्छ्ह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! ससु गिहेसु, विपुलं असणं जाव उवक्खडावेह, मित्तणाई० जाव जेट्ठपुत्तं कुटुंबे ठावेह, जेट्टं० २ ठावेत्ता तं मित्तणाइ० जाव जेट्टपुत्ते आपुच्छह, आपुच्छेत्ता पुरिससहस्तवाहिणीओ सीयाओ दुरूहइ, दुरूहित्ता मित्तगाई• जाव परिजणेणं जेट्ठपुत्तेहि य समणुगम्ममाणमग्गा सव्वड्ढीए जाव खेणं अकालपरिहीणं चेव मम अंतियं पाउन्भवह ।' ० कठिन शब्दार्थ - पाउन्भवह- प्रकट होओ, अकालपरिहीणं विलम्ब नहीं करते । • भावार्थ - ५ - मित्रों का अभिप्राय जान कर कार्तिक सेठ ने उनसे कहा'हे देवानुप्रियो ! यदि तुम भी मेरे साथ ही श्री मुनिसुव्रत स्वामी से प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहते हो तो अपने-अपने घर जाओ यावत् ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप कर तथा उन मित्रादि और ज्येष्ठ को पुत्र फिर पूछ कर, एक हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिविका में बैठ कर और मार्ग में उन मित्रादि द्वारा तथा ज्येष्ठ पुत्र द्वारा अनुसरण किये जाते हुए, सर्व ऋद्धि से युक्त यावत् वाद्यों के घोषपूर्वक विलम्ब रहित मेरे पास आओ ?' तणं ते गमट्टसहस्सं पि कत्तियस्स सेट्ठिस्स "यमट्ठं विणएणं For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १८ उ. २ कार्तिक श्रेष्ठी (सेठ)-गवेन्द्र का पूर्व भव २६७१ पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता जेणेव साइं साइं गिहाई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता विपुलं अमण० जाव उवक्खडावेंति, उवक्खडावेत्ता मित्तणाइ० जाव तस्सेव मित्तणाइ० जाव पुरओ जेट्टपुत्ते कुडुवे ठावेंति, जेट्ट० २ ठावेत्ता तं मित्तणाइ० जाव जेट्टपुत्ते य आपुच्छंति, जेट्ट० २ आपुच्छेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूहंति, दुरूहित्ता मित्तणाइ० जाव परिजणेणं जेट्टपुत्तेहि य समणुगम्ममाणमग्गा सव्वड्डीए जाव रखेणं अकालपरिहीणं चेव कत्तियस्स सेहिस्स अंतियं पाउभवंति। भावार्थ-कार्तिक सेठ के कथन को विनयपूर्वक स्वीकार कर के वे सभी वणिक अपने-अपने घर गये और विपुल अशनादि तैयार करवा कर, अपने भित्र ज्ञाति स्वजनों को बुला कर, यावत् उनके समक्ष ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपा और उन मित्रादि एवं ज्येष्ठ पुत्र को पूछ कर, हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिविका में बैठ कर, मार्ग में मित्र ज्ञाति यावत् परिजनादि और ज्येष्ठ पुत्र द्वारा अनुसरण किये जाते हुए यावत् सब ऋद्धि से युक्त, वादयों के घोषपूर्वक वे शीघ्र ही कार्तिक सेठ के पास उपस्थित हुए। ६-तएणं से कत्तिए सेट्ठी विपुलं असणं ४ जहा गंगदत्तो जाव मित्त-गाइ० जाव परिजणेणं जेट्टपुत्तेणं णेगमट्ठसहस्सेण य समणुगम्ममाणमग्गे सव्वड्डीए जाव रवेणं हथिणापुरं णयरं मन्झं. मझेणं जहा गंगदत्तो जाव आलित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, आलित्तपलित्ते णं भंते ! लोए, जाव आणुगामियत्ताए भविस्सइ, तं इच्छामि णं भंत ! णेगमट्ठसहस्सेण सद्धि सयमेव पब्बा For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १८ उ. २ कार्तिक ( सेठ) श्रेष्ठी - शक्रेन्द्र का पूर्वभव वियं, जाव धम्ममा इक्खियं । तपणं मुनिसुव्वए अरहा कत्तियं सेट्ठि सहस्सेणं सर्दिध सयमेव पव्वावेइ, जाव धम्ममाइक्खइ - ' एवं देवाशुप्पिया ! गंतव्वं, एवं चिट्टियव्वं, जाव संजमियव्वं ।' २६७२ भावार्थ - ६ - कार्तिक सेठ ने गंगदत्त के समान विपुल अशनादि तैयार करवाये यावत् मित्र ज्ञाति परिवार एवं ज्येष्ठ पुत्र तथा एक हजार आठ afrat द्वारा अनुसरण किया जाता हुआ सर्व ऋद्धि से युक्त कार्तिक सेठ यावत् वाद्यों के घोषपूर्वक, गंगदत्त के समान निकला और भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के समीप आ कर इस प्रकार बोला - "हे भगवन् ! यह संसार चारों ओर से जल रहा है । भगवन् ! यह संसार अत्यन्त प्रज्वलित हो रहा है, चारों ओर से अत्यन्त प्रज्वलित हो रहा है। मैं ऐसे प्रज्वलित संसार को त्याग कर इन एक हजार आठ वणिक मित्रों सहित आपसे प्रव्रज्या लेना चाहता हूं और आप से धर्म सुनना चाहता हूं ।" श्री मुनिसुव्रतस्वामी ने कार्तिक सेठ और एक हजार आठ वणिकों को "प्रवज्या दी यावत् धर्म सुनाया - "हे देवानुप्रियो ! इस प्रकार चलना चाहिये, इस प्रकार खड़ा रहना चाहिये यावत् इस प्रकार संयम का पालन करना चाहिये ।" ७-तणं से कत्तिए सेट्ठी णेगमट्टसहस्सेण सधि मुणिसुव्वयस अरहओ इमं एयारूवं धम्मियं वदेसं सम्मं पडिवज्जइ, तमाणाए तहा गच्छइ, जाव संजमेह, तरणं से कत्तिए सेट्ठी णेगमट्टस हस्सेणं सधि अणगारे जाए, ईरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी । तएणं से कत्तिए अणगारे मुणिसुव्वयस्स अरहओ तहारूवाणं थेराणं अंतियं सामाइयमाइयाई चोद्दस पुव्वाई अहिज्जर, सा० २ अहिज्जित्ता बहहिं For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १८ उ. २ कार्तिक श्रेष्ठी (सेट) - केन्द्र का पूर्वभव २६७३ चउत्थ छट्ट-ट्रुम० जाव अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई दुवालस वासाई सामाण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसे, मा० २ झोसित्ता सट्टि भत्ताई अणसणाए छेदेड़, स० २ छेदेत्ता आलोइय० जाव कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंसर विमाणे उववायमभाए देवस्यणिज्जंसि जाव सक्के देविंदत्ताए उववण्णे । तए णं से सक्के देविंदे देवराया अहुणोववण्णमित्तए से सं जहा गंगदत्तस्स जाव अंत काहिह, णवरं टिई दो सागरोवमाई, सेसं तं चैव । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति || अट्टारसमे सए बीओ उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ- पाउणइ - पालन करता है । भावार्थ - ७ - कार्तिक सेठ और एक हजार आठ वणिकों ने भ. श्री मुनिसुव्रतस्वामी द्वारा उपदिष्ट धर्मोपदेश को सम्यक् रूप से स्वीकार किया और भगवान् की आज्ञा के अनुसार आचरण करने लगा यावत् संयम का पालन करने लगा । वह कार्तिक सेठ एक हजार आठ वणिकों के साथ अनगार बन कर, ईर्यासमिति युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारी बना । कार्तिक अनगार ने मुनिसुव्रतस्वामी के तथारूप के स्थविरों के समीप सामायिक से प्रारम्भ कर चौदह पूर्वो तक का अध्ययन किया और बहुत-से उपवास, बेला, तेला आदि तपस्या से आत्मा को भावित करता हुआ सम्पूर्ण बारह वर्ष तक श्रमण-पर्याय का पालन किया । तत्पश्चात् कार्तिक अनगार ने एक मास की संलेखना द्वारा अपने शरीर को झूषित कर, सांठ भक्त अनशन का छेदन कर और आलोचना प्रतिक्रमण For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १८ उ. ३ पृथिव्यादि से मनुष्य हो, मुक्त हो सकते हैं कर के यावत् काल के समय काल कर के सौधर्मकल्प में सौधर्मावतंसक विमान में रही हुई उपपात सभा के देवशयनीय में यावत् शक्र देवेन्द्र देवराजपने उत्पन्न हुआ | उत्पन्न हुआ शक्र देवेन्द्र देवराज इत्यादि सब वक्तव्यता गंगदत्त के समान कहनी चाहिये यावत् वह सभी दुःखों का अन्त करेगा । शक्र की स्थिति वो सागरोपम की है । शेष सब गंगदत्त के समान है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है - ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - हस्तिनापुर में कार्तिक सेठ तो बाद में सेठ हुए, परन्तु गंगदत्त पहले से श्रेष्ठी बने हुए थे । इनमें परस्पर प्रायः ईर्षाभाव रहता था। दोनों ने भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के पास दीक्षा ली थी। वहाँ से काल कर के कार्तिक सेठ का जीव शक्रेद्र बना और गंगदत्त का जीव सातवें महाशुक्र देवलोक में देव हुआ । ॥ इति अठारहवें शतक का द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण ॥ २६७४ शतक १५ उद्देशक ३ पृथिव्यादि से मनुष्य हो, मुक्त हो सकते हैं Deeeffeex तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे होत्था । वण्णओ । गुगसिलए चेहए | वण्णओ । जाव परिसा पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समरणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव अंतेवासी मार्गदिय For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १८ उ. ३ पृथिव्यादि से मनुष्य हो, मुक्त हो सकते हैं पु णामं अणगारे पगइभद्दए जहा मंडियपुत्ते जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी - १ प्रश्न - से णूणं भंते! काउलेस्से पुढविकाइए काउलेस्से हिंतो पुढविकाइए हिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता माणुसं विग्गहं लभइ, मा० २ भित्ता केवलं बोहिं बुझइ, के० २ बुज्झित्ता तओ पच्छा सिज्झइ, जाव अंतं करेइ ? २६७५ १ उत्तर - हंता मागंदियपुत्ता ! काउलेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करे | २ प्रश्न-से पूर्ण भंते! काउलेसे आउकाइए काउलेसे हिंतो आउ काइए हिंतो अनंतरं उब्वट्टित्ता माणुसं विग्गहं लभइ, मा० २ लभित्ता केवलं बोहिं बुज्झइ, जाव अंतं करेइ ? २ उत्तर - हंता मागंदियपुत्ता ! जाव अंतं करेइ । .. ३- से णूणं भंते! काउलेस्से वणस्सइकाइए एवं चैव जाव अंतं करेइ | 'सेवं भंते ! सेवं भंते!' त्ति मागंदियपुत्ते अणगारे समणं भगवं महावीरं जाव णमंसित्ता जेणेव समणे णिग्गंथे तेणेव उवागच्छ्छ, उवागच्छित्ता समणे णिग्गंथे एवं वयासी - एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से पुढविकाइए तहेव जाव अंत करेइ, एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से आउ काइए जाव अंतं करेइ, एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से वणस्सइकाइए जाव अंतं करेइ ।' तएणं ते समणा णिग्गंथा मागंदियपुत्तस्स अणगाररस For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७६ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ पृथिव्यादि से मनुष्य हो, मुक्त हो सकते हैं एवमाइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयळं णो सद्दहंति ३, एयमढें असदहमाणा ३ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति, वंदित्ता শব্দৰবৰ বৰৰে भावार्थ-उस काल उस समय में राजगृह नाम का नगर था। वर्णन । गुणशील नामक उद्यान था। वर्णन । यावत् परिषद् वन्दना कर के चली गई। उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के अन्तेवासी यावत् प्रकृति के भद्र, माकन्दीपुत्र अनगार, तीसरे शतक के तीसरे उद्देशक में कथित मण्डितपुत्र अनगार के समान पर्युपासना करते हुए, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से पूछा १ प्रश्न-हे भगवन् ! कापोतलेशी पृथ्वीकायिक जीव, कापोतलेशी पृथ्वीकायिक जीवों में से मर कर अन्तर रहित मनुष्य शरीर प्राप्त कर केवलज्ञान उपार्जन कर सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? १ उत्तर-हाँ, माकन्दीपुत्र ! कापोतलेशी पृथ्वीकायिक यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। २ प्रश्न-हे भगवन् ! कापोतलेशी अपकायिक जीव, कापोतलेशी अपकायिक जीवों में से मर कर अन्तर रहित मनुष्य शरीर को प्राप्त कर एवं केवलज्ञान उपार्जन कर सिद्ध होता है यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है ? २ उत्तर-हां, माकादीपुत्र ! यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! कापोतलेशी वनस्पतिकायिक जीव, वनस्पतिकायिक जीवों में से मर कर इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? ३ उत्तर-हाँ, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है। For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. २ पृथिव्यादि से मनुष्य हो, मुक्त हो सकते है २६७७ यों कह कर माकन्दीपुत्र अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर के श्रमण-निर्ग्रन्थों के समीप आये और श्रमण-निर्ग्रन्थों से इस प्रकार बोले-'हे आर्यो ! कापोतलेशी पृथ्वीकायिक जीव यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है, इसी प्रकार हे आर्यों ! कापोतलेशो अप्कायिक और कापोतलेशी वनस्पतिकायिक जीव, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है।' माकन्दीपुत्र अनगार की इस प्ररूपणा को श्रमण-निर्ग्रन्थों ने मान्य नहीं की और श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समीप आये । भगवान् को वन्दना नमस्कार कर के इस प्रकार पूछा प्रश्न-एवं खलु भंते ! मागंदियपुत्ते अणगारे अम्हं एवमाइक्खइ, जाव परूवेइ-'एवं खलु अजो ! काउलेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेइ, एवं खलु अजो! काउलेस्से आउकाइए जाव अंतं करेइ, एवं वणस्सइकाइए वि जाव अंतं करेइ, से कहभेयं भंते ! एवं ?' उत्तर-'अजो' त्ति समणे भगवं महावीरे ते समणे णिग्गंथे आमंतित्ता एवं क्यासी-जण्णं अजो ! मागंदियपुत्ते अणगारे तुम्भे एवं आइक्खइ, जाव परूवेइ-एवं खलु अजो ! काउलेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेइ, एवं खलु अजो ! काउलेस्से आउकाइए जाव अंतं करेइ, एवं खलु अजो! काउलेस्मे वणस्सइकाइए वि जाव अंतं करेइ, सच्चे णं एसमठे, अहं पि णं अजो ! एवमाइक्खामि ४-एवं खलु अजो ! कण्हलेसे पुढविकाइए कण्हलेसेहितो पुढविकाइएहिंतो जाव अंतं करेइ, एवं खलु अजो! णीललेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेइ, For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७८ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ पृथिव्यादि से मनुष्य हो, मुक्त हो सकते हैं एवं काउलेस्से वि, जहा पुढविकाइए एवं आउकाइए वि, एवं वणस्सइकाइए वि, सच्चे णं एसमठे । प्रश्न-'हे भगवन् ! माकन्दीपुत्र अनगार ने हमसे कहा यावत् प्ररूपित किया कि कापोतलेशी पृथ्वीकायिक, कापोतलेशी अपकायिक और कापोतलेशी वनस्पतिकायिक जीव यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है । हे भगवन् ! यह कथन सत्य कैसे हो सकता है ?' .. उत्तर-'हे आर्यों !' इस प्रकार सम्बोधित कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने उन श्रमण-निर्ग्रन्थों से कहा-'माकन्दिक पुत्र अनगार ने तुमसे जो इस प्रकार कहा यावत् प्ररूपित किया कि कापोतलेशी पृथ्वीकायिक, कापोतलेशी अपकायिक और कापोतलेशी वनस्पतिकायिक यावत सभी दुःखों का अन्त करता है-यह सत्य है । हे आर्यो ! मैं भी इसी प्रकार कहता हूं यावत् प्ररूपित करता हूं कि कृष्णलेशी पृथ्वीकायिक, कृष्णलेशी पृथ्वीकायिकों में से मर कर यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। इसी प्रकार हे आर्थो ! नीललेशी और कापोतलेशी पृथ्वीकायिक भी यावत् समस्त दुःखों का अन्त करता है । इसी प्रकार अप्कायिक और वनस्पतिकायिक भी अन्त करता है-यह सत्य है।' _ 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति समणा णिग्गंथा समणं भगवं महा. वीरं वंदति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव मागंदियपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छंति,उवागच्छित्ता मागंदियपुत्तं अणगारं वंदंति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता एयमझें सम्मं विणएणं भुजो भुजो खामेति । कठिन शब्दार्थ-मुज्जो भुज्जो-बारंबार, खाति-खमाते हैं। - 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर उन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ निर्जरा के पुद्गल को सूक्ष्मता २६७९ नमस्कार किया और माकन्दिक-पुत्र अनगार के समीप आकर उन्हें वन्दना नमस्कार कर के उनके कयन पर सन्देह करने के कारण उन्हें सम्यक् प्रकार से विनयपूर्वक बारंबार खमाया। - विवेचन-पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय से निकल कर जीव, मनुष्य-भव प्राप्त कर के उसी भव में मोक्ष जा सकता है । तेउकाय और वायुकाय से निकला हुआ जीव मनुष्य-भव भी प्राप्त नहीं कर सकता । अत: यहां उसकी पृच्छा नहीं की है। निर्जरा के पुद्गल की सूक्ष्मता ४-तएणं से मागंदियपुत्ते अणगारे उट्ठाए उढेइ, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, ते० २ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी प्रश्न-अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो सव्वं कम्मं वेएमाणस्स, सव्वं कम्मं णिजरेमाणस्स, सव्वं मारं मरमाणस्स, सव्वं सरीरं विप्पजह. माणस्स, चरिमं कम्मं वेएमाणस्स, चरिमं कम्मं णिजरेमाणस्स, चरिमं मारं मरमाणस्स, चरिमं सरीरं विप्पजहमाणस्स, मारणंतियं कम्मं वेए. माणस्स, मारणंतियं कम्मं णिजरेमाणस्स, मारणंतियं मारं मरमाणस्स, मारणंतियं सरीरं विपजहमाणस्स जे चरिमा णिजरापोग्गला सुहमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो! सव्वं लोगं पि णं ते ओगाहित्ता णं चिट्ठति ? . उत्तर-हंता, मागंदियपुत्ता ! अणगारस्स णं भावियप्पणो जाव ओगाहित्ता णं चिट्ठति । For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८. भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ निर्जरा के पुद्गलों का ज्ञान कठिन शब्दार्थ-विप्पजहमाणस्स-छोड़ता हुआ, मारं-मरण, ओगाहित्ता-अवगाहन कर के। भावार्थ-४-माकन्दिक-पुत्र अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आये और वन्दना नमस्कार कर के इस प्रकार पूछा प्रश्न-हे भगवन् ! सभी को वेदते हुए, सभी कर्मों को निर्जरते हुए सर्व मरण से मरते हुए और समस्त शरीर को छोड़ते हुए तथा चरमकर्म वेदते हुए, चरम कर्म निर्जरते हुए, चरम मरण मरते हुए, चरम शरीर छोड़ते हुए, एवं मारणान्तिक कर्म को वेदते हुए, मारणान्तिक कर्म निर्जरते हुए, मारणान्तिक मरण मरते हुए और मारणान्तिक शरीर छोड़ते हुए भावितात्मा अनगार के जो चरम निर्जरा के पुद्गल हैं, क्या वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गये हैं ? और क्या वे पुद्गल समग्र लोग को अवगाहन कर के रहे हुए हैं ? . उत्तर-हाँ, माकन्दिक-पुत्र! भावितात्मा अनगार के वे चरम निर्जरा के पुद्गल यावत् समग्रलोक को अवगाहन कर रहे हुए हैं। निर्जरा के पुद्गलों का ज्ञान ५ प्रश्न-छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से तेसिं णिजरापोग्गलाणं किंचि आणतं वा णाणतं वा ? ५ उत्तर-एवं जहा इंदिय उद्देसए पढमे जाव वेमाणिया, जाव तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते जाणंति, पासंति, आहारेंति, से तेगटेणं णिक्खेवो भाणियब्वो ति ण पासंति, आहारंति । ६ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! गिजरापोग्गला ण जाणंति, ण पासंति, आहारंति ? For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ संज्ञीभूत असंजीभूत २६८१ ६ उत्तर-एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं । कठिन शब्दार्थ-आणत्तं-अन्यत्व, णाणतं-भिन्नता, विविधता। भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्य उन निर्जरा पुद्गलों के पारस्परिक पृथक् भाव और अपृथक् भाव (वर्णादि कृत नाना भाव) को जानता-देखता है ? ५ उत्तर-हे माकन्दिक पुत्र ! प्रज्ञापना सूत्र के पन्द्रहवें पद के प्रथम इन्द्रियोद्देशक के अनुसार यावत् इसी प्रकार वैमानिक तक जानना चाहिये । इनमें जो उपयोग युक्त हैं, वे उन पुद्गलों को जानते-देखते हैं और आहार के रूप में प्रहण करते हैं। इस प्रकार समग्र निक्षेप (पाठ) कहना चाहिये यावत् जो उपयोग रहित हैं, वे उन पुद्गलों को जानते-देखते नहीं, परन्तु आहार रूप से ग्रहण करते हैं। .६ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिकों के विषय में पूर्वोक्त प्रश्न ? ६ उत्तर--वे उन निर्जरा पुद्गलों को जानते-देखते नहीं, परन्तु आहार रूप में ग्रहण करते हैं । इस प्रकार यावत् पञ्चेन्द्रिय तिर्यच योनि तक जानना चाहिये। संज्ञीभूत असंज्ञीभूत ७ प्रश्न-मणुस्सा णं भंते ! णिजरापोग्गले किं जाणंति पासंति आहारेंति, उदाहु ण जाणंति ण पासंति णाहारेंति ? ___७ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइया जाणंति ३, अत्यंगइया ण जाणंति ण पासंति, आहारेति । . प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं बुन्नइ-'अत्यंगइयो जाणंति For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८२ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ संज्ञीभूत असंज्ञीभूत पासंति आहारेंति? उत्तर-गोयमा ! मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सण्णीभूया य असण्णीभूया य । तत्थ णं जे ते असण्णीभूया ते ण जाणंति ण पासंति, आहारेति । तत्थ णं जे ते सण्णीभूया ते दुविहा पण्णत्ता तं जहा-उवउत्ता अणुवउत्ता य । तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते ण जाणंति ण पासंति, आहारेति । तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते जाणंति ३, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-अत्थेगइया ण जाणंति, ण पासंति, 'आहारेंति, अत्थेगइया जाणंति ३। वाणमंतरजोइसिया जहा णेरइया। भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! मनुष्य, निर्जरा के पुद्गलों को जानते-देखते हैं और आहार रूप से ग्रहण करते हैं ? या जानते नहीं, देखते नहीं और आहार रूप से ग्रहण भी नहीं करते ? . ७ उत्तर-हे गौतम ! कुछ मनुष्य जानते हैं, देखते है और आहार रूप से ग्रहण करते हैं और कुछ नहीं जानते, नहीं देखते परन्तु आहार रूप से ग्रहण करते हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! आपके इस कथन का क्या कारण है कि कुछ मनुष्य जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं, तया कुछ नहीं जानते, नहीं देखते परन्तु आहार रूप से ग्रहण करते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के कहे गये हैं। संज्ञीभूत और असंजीभूत । जो असंज्ञीभूत हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, किन्तु आहार रूप से ग्रहण करते हैं । जो संजीभूत हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा--उपयुक्त और अनुपयुक्त । जो अनुपयुक्त हैं वे नहीं जानते, नहीं देखते, किन्तु आहार रूप से ग्रहण करते हैं । और जो उपयुक्त हैं, वे जानते हैं, देखते हैं और आहार रूप से प्रहण करते हैं। इसलिये हे गौतम ! ऐसा कहा गया है For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ मंज्ञीभूत असज्ञीभूत २६८३ कि कुछ मनुष्य नहीं जानते, नहीं देखते और आहार रूप से ग्रहण करते हैं तथा कुछ जानते हैं, देखते हैं और आहार रूप से ग्रहण करते हैं। व्यन्तर और ज्योतिषी देवों का कथन नरयिकों के समान जानना चाहिये। प्रश्न-वेमाणिया णं भंते ! ते णिज्जरापोग्गले किं जाणंति ६? . ८ उत्तर-गोयमा ! जहा मणुस्सा, गवरं वेमाणियादुविहा पण्णत्ता, तं जहा-माइमिच्छदिट्ठीउववण्णगा य अमाइसम्मंदिट्ठीउववण्णगा य । तत्थ णं जे ते माइमिच्छदिट्ठीउववण्णगा ते णं ण जाणंति ण पासंति आहारैति । तत्थ णं जे ते अमाइसम्मदिट्ठीउववण्णगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-अणंतरोववण्णगा य परंपरोक्वण्णगा य । तत्थ णं जे ते अणंतरोववण्णगा ते णं ण जाणंति ण पासंति आहारैति । तत्थ णं जे ते परंपरोववण्णगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पन्जत्तगा य अपजत्तगा य । तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते णं ण जाणंति, ण पासंति, आहारोंति । तत्थ णं जे ते पजत्तगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-उवउत्ता य अणुवउत्ता य । तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते णं ण जाणंति ण पासंति आहारेति । तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते णं जाणंति, पासंति आहारेंति। भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! वैमानिक देव उन निर्जरा पुद्गलों को जानते-देखते हैं और आहार रूप से ग्रहण करते है ? उत्तर-हे गौतम ! मनुष्यों के समान वैमानिक देव के विषय में भी जानना चाहिए । विशेष यह कि वमानिक देव दो प्रकार के हैं-१मायो-मिथ्यादृष्टि और २ अमायी-सम्यग्दृष्टि । जो मायो-मिथ्यादृष्टि देव हैं, वे निर्जरा के पुद्गलों को For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८४ भगवती सूत्र-श. १८ उ ३ संज्ञीभूत असंशीभूत नहीं जानते, नहीं देखते, किन्तु आहार रूप से ग्रहण करते हैं और जो अमायो सम्यग्दृष्टि हैं, वे भी दो प्रकार के है। यथा-अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक । अनन्तरोपपन्नक (प्रथम समयोत्पन्न) नहीं जानते, नहीं देखते, किन्तु आहार रूप से ग्रहण करते हैं। परम्परोपपन्नक भी दो प्रकार के हैं। यथापर्याप्तक और अपर्याप्तक । अपर्याप्तक नहीं जानते, नहीं देखते, किन्तु आहार रूप से ग्रहण करते हैं । पर्याप्तक दो प्रकार के हैं। यथा-उपयुक्त और अनुपयुक्त । जो अनुपयुक्त हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, परन्तु आहार रूप से ग्रहण करते हैं और जो उपयुक्त हैं, वे जानते-देखते हैं और आहार रूप से ग्रहण करते हैं। विवेचन-चौथे प्रश्न का भावितात्मा अनगार 'केवली' है, भवोपग्राही चार कर्मों का वेदन, निर्जरा, आदि करते हुए एवं औदारिक आदि शरीर को छोड़ते हुए और आयुकर्म के समस्त पुद्गलों की अपेक्षा अन्तिम मरण मरते हुए, केवली के सर्वान्तिम निर्जरा पुद्गल सूक्ष्म कहे गये हैं। वे सम्पूर्ण लोक को व्याप्त कर रहते हैं । इसलिये केवली तो उनको जानते ही हैं । अतः छद्मस्थ के जानने आदि विषयक प्रश्न पूछा गया है । जिसके लिये प्रज्ञापना सूत्र के पन्द्रहवें पद के प्रथम उद्देशक का अतिदेश किया गया है। ___जो विशिष्ट अवधिज्ञानादि उपयोग युक्त हैं, वे सूक्ष्म कार्मण पुद्गलों को जानते देखते हैं, परन्तु जो विशिष्ट अवधिज्ञानादि उपयोग रहित हैं, वे सूक्ष्म कार्मण पुद्गलों को नहीं जानते-नहीं देखते हैं। ओज आहार, लोम आहार और प्रक्षेप आहार, इन तीन प्रकार के आहारों में से यहां ओज आहार का ग्रहण समझना चाहिये। क्योंकि कार्मण शरीर द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करना ओज आहार कहलाता है। यही आहार यहाँ सम्भावित है। त्वचा के स्पर्श से लोम आहार होता है और मुख में डालने से प्रक्षेप आहार होता है। मनुष्य सूत्र में 'संज्ञीभूत' शब्द से विशिष्ट अवधिज्ञानी आदि समझना चाहिये, जिन्हें वे निर्जरा के पुद्गल ज्ञानगोचर होते हैं । वैमानिक सूत्र में विशिष्ट' अवधिज्ञानी उपयुक्त अमायी-सम्यग्दृष्टि का ग्रहण है । क्योंकि मायीमिथ्यादृष्टि विपरीत दृष्टा होने से उन पुद्गलों को जानते-देखते नहीं हैं। प्रश्नकार माकन्दिकपुत्र हैं। इसलिये 'गौतम' शब्द से 'माकन्दिक' पुत्र का ही ग्रहण हुआ समझना चाहिये । अथवा यह पाठ प्रज्ञापना सूत्र से उद्धृत किया हुआ है और For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ द्रव्य और भाव-बन्ध के भेद २६८५ प्रज्ञापना सूत्र की रचनाशैली प्रायः गौतमस्वामी के प्रदन और भगवान् द्वारा उत्तर रूप होने से यहाँ प्रश्नकर्ता 'माकन्दिक पुत्र' होने पर भी 'गौतम स्वामी' को सम्बोधित कर उत्तर दिया है । अतः यहाँ प्रज्ञापना के उस संलग्न पाठ का ग्रहण किया हुआ समझना चाहिये। द्रव्य और भाव-बन्ध के भेद ... ९ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! बंधे पण्णत्ते ? ९ उत्तर-मागंदियपुत्ता ! दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वबंधे य भावबंधे य। १० प्रश्न-दव्वबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? १० उत्तर-मागंदियपुत्ता ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पओगबंधे य वीससाबंधे य । भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? ९ उत्तर-हे माकन्दिकपुत्र ! बन्ध दो प्रकार का कहा गया है । यथाद्रव्यबन्ध और भावबन्ध । १० प्रश्न-हे भगवन् ! द्रव्यबंध कितने प्रकार का कहा गया है ? १० उत्तर-हे माकन्दिकपुत्र ! दो प्रकार का कहा गया है। यथाप्रयोगबन्ध और विस्रसाबन्ध (स्वाभाविक बन्ध)। ११ प्रश्न-वीससाबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ११ उत्तर-मागंदियपुत्ता !दुविहे पण्णत्ते, तं अहा-साइयवीससा. बंधे य अणाईयवीससाबंधे य । For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८६ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ द्रव्य और भाव वन्ध के भेद भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! विस्रसाबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? ११ उत्तर-हे माकन्दिक पुत्र ! दो प्रकार का कहा गया है । यथासादि विस्रसाबन्ध और अनादि विस्रसाबन्ध । १२ प्रश्न-पयोगबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ... १२ उत्तर-मागंदियपुत्ता ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सिढिल. बंधणबंधे य धणियबंधणबंधे य । कठिन शब्दार्थ-सिढिल-शिथिल । भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रयोग बन्ध कितने प्रकार का कहा गया हैं ? १२ उत्तर-हे माकन्दिक पुत्र ! दो प्रकार का कहा गया है। यथाशिथिल बन्धन बन्ध और गाढ़ बंधन बंध । १३ प्रश्न-भावबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णते ? १३ उत्तर-मागंदियपुत्ता ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-मूलपगडिबंधे य उत्तरपगडिबंधे य । १४ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! कइविहे भावबंधे पण्णत्ते ? १४ उत्तर-मागंदियपुत्ता ! दुविहे भावबंधे पण्णत्ते, तं जहामूलपगडिबंधे य उत्तरपगडिबंधे य । एवं जाव वेमाणियाणं । भावार्थ-१३-प्रश्न-हे भगवन् ! भाव बंध कितने प्रकार का कहा गया है ? For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ द्रव्य और भाव-बन्ध के भेद २६८७ १३ उत्तर-हे माकन्दिक पुत्र ! दो प्रकार का कहा गया है । यथामूल प्रकृतिबन्ध और उत्तर प्रकृतिबन्ध । १४ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक जीवों के कितने प्रकार का भाव-बन्ध कहा गया है ? १४ उत्तर-हे माकन्दिक पुत्र ! दो प्रकार का भाव-बन्ध कहा गया है । यथा मूल प्रकृतिबन्ध और उत्तर प्रकृतिबंध । इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिये। १५ प्रश्न-णाणावरणिजस्स णं भंते ! कम्मरस कइविहे भावबंधे पण्णते ? १५ उत्तर-मागंदियपुत्ता ! दुविहे भाव बंधे पण्णत्ते, तं जहामूलपगडिबंधे य उत्तरपगडिबंधे य । . १६ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! णाणावरणिजस्स कम्मस्स कहविहे भावबंधे पण्णत्ते ? १६ उत्तर-मागंदियपुत्ता ! दुविहे भावबंधे पण्णत्ते, तं जहामूलपगडिबंधे य उत्तरपगडि०, एवं जाव नेमाणियाणं, जहा णाणावरणिज्जेणं दंडओ भणिओ एवं जाब अंतराइएणं भाणियब्यो । भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म का भाव-बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? १५ उत्तर-हे माकन्दिक पुत्र ! दो प्रकार का कहा गया है । यथामूल प्रकृति बन्ध और उत्तर प्रकृतिबन्ध । १६ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीवों के ज्ञानावरणीय कर्म का माव For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८८ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ पाप-कर्म में भेद बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? १६ उत्तर-हे माकन्दिकपुत्र ! दो प्रकार का कहा गया है। यथामूल प्रकृतिबन्ध और उत्तर प्रकृतिबन्ध । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक कहना चाहिये । जिस प्रकार ज्ञानावरणीय का दण्डक कहा गया है, उसी प्रकार यावत् अन्तराय कर्म तक दण्डक कहना चाहिये। विवेचन-द्रव्यबन्ध के आगम, नोआगम आदि के भेद से अनेक प्रकार हैं, किन्तु यहां केवल उभय व्यतिरिक्त द्रव्यवन्ध का ग्रहण है । रस्सी आदि के द्वारा बांधना अथवा द्रग्य का परस्पर बन्ध होना-द्रग्य-बन्ध कहलाता है । भाव-बन्ध के आगमत: और नो आगमतः ये दो भेद हैं। उनमें से यहाँ नोआगमत: भावबन्ध का ग्रहण किया गया है । भाव के द्वारा अर्थात् मिथ्यात्वादि के द्वारा अथवा उपयोग भाव से अतिरिक्त भाव का जीव के साथ बन्ध होना, भावबन्ध कहलाता है। .. जीव के प्रयोग से द्रव्यों का बन्ध होना 'प्रयोगबन्ध' कहलाता है और स्वाभाविक रूप से बन्ध होना 'विस्रसा बन्ध' कहलाता है । इसके दो भेद हैं । बादलों आदि का बन्ध 'सादि विस्रसा बन्ध' कहलाता है । धर्मास्तिकाय आदि का परस्पर बन्ध, 'अनादि विस्रसा बंध' कहलाता है । प्रयोग बन्ध के दो भेद हैं । घास के पुले आदि का बन्ध 'शिथिल' बन्ध है और रथ-चक्रादि का बन्ध 'गाढ' बन्ध है। भाव-बन्ध के दो भेद है- मूल प्रकृति बन्ध और उत्तर प्रकृति बन्ध । मूल प्रकृति बन्ध के ज्ञानावरणीयादि आठ भेद हैं । उत्तर प्रकृति बन्ध के १४८ भेद हैं । .. पाप-कर्म में भेद १७ प्रश्न-जीवाणं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे, जाव जे य कजिस्सइ, अत्थि याइ तस्स केइ णाणते ? १७ उत्तर-हंता अस्थि । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'जीवाणं पावे कम्मे जे यकडे, For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ पाप-कर्म में भेद २६८९ जाव जे य कजिस्सइ, अस्थि याइ तस्स णाणते ?' ___ उत्तर-मागंदियपुत्ता ! से जहाणामए-केइ पुरिसे धणुं परामुसइ, धणुं परामुसित्ता उसुं परामुसइ, उसुं परामुसित्ता ठाणं ठाइ, ठाणं ठाएत्ता आययकण्णाययं उमुं करेइ, आ०२ करेत्ता उड्ढं वेहासं उद्विहइ, से णूणं मागंदियपुत्ता! तस्स उसुस्स उड्ढं वेहासं उव्वीढस्स समाणस्स एयह वि णाणतं, जाव तं तं भावं परिणमइ वि णाणत्तं ? उत्तर-हंता भगवं ! एयइ वि णाणत्तं, जाव परिणमइ वि दुणाणत्तं, से तेणटेणं मागंदियपुत्ता ! एवं वुच्चइ-जाव तं तं भावं परिणमइ वि णाणत्तं । १८ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे० ? १८ उत्तर-एवं चेव, णवरं जाव वेमाणियाणं। कठिन शब्दार्थ-उसुं-बाण को, परामुसइ-ग्रहण करता है, उव्विहइ-फेंकना, एयइकम्पन होना। भावार्थ--१७ प्रश्न हे भगवन् ! जीव ने जो पापकर्म किया है, यावत् करेगा, उसमें परस्पर कुछ भेद है क्या ? १७ उत्तर-हां, माकन्दिक पुत्र ! उसमें परस्पर भेद है। प्रश्न-हे भगवन् ! किस प्रकार के भेद हैं ? . उत्सर-हे माकन्दिक पुत्र ! जैसे कोई पुरुष, धनुष और बाण ले कर अमुक प्रकार के आकार से खड़ा रहे, फिर बाण को कान तक खींचे और ऊपर आकाश में फेंके, तो हे माकन्दिक पुत्र ! आकाश में ऊंचा फेंके हुए उस बाण के कम्पन यावत् परिणाम में भेद है। . . For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९० भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ पाप-कर्म में भेद ___उत्तर-हां, भगवन् ! उसके कम्पन में यावत् उस-उस प्रकार के परिणाम में भेद है । तो हे माकन्दिक पुत्र ! इस कारण कहा जा सकता है कि यावत् उस कर्म के उस-उस रूपादि परिणाम में भी भेद है। ... १८ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिकों ने जो पाप-कर्म किया है, यावत् करेंगे, उस पाप-कर्म में कुछ भेद है ? १८ उत्तर-हाँ, माकन्दिक पुत्र ! भेद है । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक कहना चाहिये। १९ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेहंति, तेसि णं भंते ! पोग्गलाणं सेयकालंसि कहभागं आहारति, कइभागं गिजरेंति ? १९ उत्तर-मागंदियपुत्ता ! असंखेजहभागं आहारेंति, अणंतभागं णिजाति। २० प्रश्न-चक्किया णं भंते ! केइ तेसु णिज्जरापोग्गलेसु आसइत्तए वो जाव तुयट्टित्तए ना ? २० उत्तर-णो इणटे समटे, अणाहारणमेयं बुइयं समणाउसो ! एवं जाव वेमाणियाणं। * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ अट्ठारसमे सप तईओ उद्देसो समतो ॥ कठिन शबाप-तपट्टितए -सोने, सेयकालंसि-भविष्य काल में, भासइत्तए-बैठने । For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ पाप-कर्म में भेद भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक, जिन पुद्गलों को आहारपने ग्रहण करते हैं, तो भविष्यत्काल में उन पुदगलों का कितना भाग आहार रूप से गृहीत होता है और कितना भाग निर्जरता है। १९ उत्तर-हे माकन्दिक पुत्र ! आहारपने ग्रहण किये हुए पुद्गलों का असंख्यातवां भाग आहार रूप से गृहीत होता है और अनन्तवां भाग निर्जरता है। २० प्रश्न-हे भगवन् ! कोई पुरुष इन निर्जरा के पुद्गलों पर बैठने यावत् सोने में समर्थ है ? २० उत्तर-हे माकन्दिक-पुत्र ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । हे आयुष्यमन् श्रमण ! निर्जरा के ये पुद्गल अनाधार रूप कहे गये है। वे कुछ भी धारण करने में समर्थ नहीं हैं । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते है। विवेचन-जैसे किसी पुरुष द्वारा आकाश में ऊँचे फेंके हुए बाण के कम्पन में उसके प्रयत्न की विशेषता से भेद होता है, उसी प्रकार पुरुष द्वारा किये हुए भूत, वर्तमान और भविष्यत्काल के कर्मों में भी तीव्र-मन्दादि परिणाम के भेद से भिन्नता होती है। निर्जरा किये हुए पुद्गल आधार रूप नहीं होते । इसलिये वे किसी भी वस्तु को धारण करने में समर्थ नहीं हैं। ॥ इति अठारहवें शतक का तृतीय उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८ उद्देशक ४ पाप की प्रवृत्ति-निवृत्ति और जीव-भोग १ प्रश्न-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव भगवं गोयमे एवं वयासी-अह भंते ! पाणाइवाए, मुसावाए, जाव मिच्छदंसणसल्ले, पाणाइवायवेरमणे, मुसावाय. जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणे, पुढविकाइप, जाव वणस्सइकाइए, धम्मस्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवे असरीरपडिबधे, परमाणुपोग्गले, सेलेसिं पडिवण्णए अणगारे, सब्वे य बायरवोंदिधरा कलेवरा एए णं दुविहा जीवदव्वा य अजीवदव्वा य जीवाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? १ उत्तर-गोयमा ! पाणाइवाए जाव एए णं दुविहा जीवदव्वा य अजीवदव्वा य अत्थेगइया जीवाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति अत्थेगइया जीवाणं जाव णो हव्वमागच्छति । प्रश्न-से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ-पाणाइवाए जाव णो हब्बमागच्छंति ? उत्तर-गोयमा ! पाणाइवाए जाव मिच्छादंसणसल्ले, पुढविकाइए जाव वणस्सइकाइए, सब्वे य बायरवोंदिधा कलेवरा एए णं दुविहा For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १८ उ. ४ पाप की प्रवृत्ति-निवृत्ति और जीव-भोग २६९३ जीवदव्वा य अजीवदव्या य जीवाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति । पाणाइवायवेरमणे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे, धम्मस्थिकाए, अधम्मत्थिकाए जाव परमाणुपोग्गले सेलेसिं पडिवण्णए अणगारे एए णं दुविहा जीवदव्वा य अजीवदव्या य जीवाणं परिभोगत्ताए णो हव्वमागच्छंति, से तेणट्टेणं जाव णो हव्वमागच्छंति । २ प्रश्न-कइ णं भंते ! कसाया पण्णत्ता ? ।। २ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तं जहा-कसायपयं णिरवसेसं भाणियव्वं जाव 'णिजरिस्संति लोभेणं ।' कठिन शब्दार्थ-बायर बोंदिधरा-स्थूल शरीरधारी, कलेवरा-शरीर, अत्थेगइयाकुछ। भावार्थ-१ प्रश्न-उस काल उस समय राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने पूछा हे भगवन् ! प्राणातिपात, मृषावाद, यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य और प्राणातिपात विरमण, मषावाद विरमग यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य विवेक (त्याग) तथा पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, शरीर रहित जीव, परमाणु-पुद्गल शैलेशी अवस्था प्राप्त अनगार, और स्थूलाकार वाले सभी कलेवर, ये सब मिल कर दो प्रकार के हैं। इनमें से कुछ जीव-द्रव्य रूप हैं और कुछ अजीव-द्रव्य रूप हैं, तो हे भगवन् ! ये सभी जीव के परिभोग में आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! प्राणातिपातादि जीव-द्रव्य रूप और अजीव द्रव्य रूप हैं। इनमें से कुछ तो जीव के परिभोग में आते हैं और कुछ नहीं आते। प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण ऐसा कहा गया कि प्राणातिपातादि यावत् कुछ तो जीव के परिभोग में आते हैं और कुछ नहीं आते ? For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९४ भगवती सूत्र - श. १० उ. ४ पाप की प्रवृत्ति निवृत्ति और जोब - भोग उत्तर - हे गौतम! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक और सभी स्थूलाकार कलेवरधारी बेइन्द्रियादि जीव, ये सब मिल कर जीव द्रव्य रूप और अजीव द्रव्य रूप- दो प्रकार के हैं । ये सब जीव के परिभोग में आते हैं । प्राणातिपात विरमण यावत् मिथ्यादर्शन- शल्य विवेक धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय यावत् परमाणु- पुद्गल तथा शैलेशी अवस्था प्राप्त अनगार, ये सब मिलकर जीव द्रव्य रूप और अजीवद्रव्य रूप- दो प्रकार के हैं । ये सब जीव के परिभोग में नहीं आते। इस कारण ऐसा कहा गया है कि 'कोई द्रव्य परिभोग में आते हैं और कोई द्रव्य परिभोग में नहीं आते।' २ प्रश्न - हे भगवन् ! कषाय कितने प्रकार का कहा गया है ? २ उत्तर - हे गौतम! कषाय के चार प्रकार कहे गये हैं । यहाँ प्रज्ञापना सूत्र का चौदहवाँ कषायपद समग्र यावत् लोभ के वेदन द्वारा आठ कर्म प्रकृतियों की निर्जरा करेंगे - तक कहना चाहिये । विवेचन - प्राणातिपात आदि अठारह पाप और इन अठारह पापों का त्याग, पृथ्वीकाय आदि पाँच स्थावर, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अशरीरी जीव, परमाणु पुद्गल, शैलेशी अवस्था को प्राप्त अनगार, स्थूल आकार वाले त्रस कलेवर (बेइंद्रियादि) । ये ४८ द्रव्य सामान्य रूप से दो प्रकार के कहे गये हैं। इनमें से कितने ही जीव रूप हैं और कितने ही अजीव रूप हैं, किन्तु प्रत्येक के दो भेद नहीं हैं। इनमें से पृथ्वीकायिकादि जीव द्रव्य हैं और धर्मास्तिकायादि अजीव द्रव्य हैं । प्राणातिपातादि अशुद्ध स्वभावरूप और प्राणातिपात विरमणादि शुद्ध स्वभावरूप जीव के धर्म हैं। इसलिए ये जीव रूप कहे जा सकते हैं । जब जीव प्राणातिपातादि का सेवन करता है, तब चारित्रमोहनीय कर्म उदय में आता है । उसके द्वारा प्राणातिपातादि जीव के परिभोग में आते हैं। पृथ्वी कांयिकादि का परिभोग तो गमन-शौचादि द्वारा स्पष्ट ही है । प्राणातिपात विरमणादि जीव के शुद्ध स्वभाव रूप होने से चारित्रमोहनीय कर्म के उदय के हेतु भूत नहीं होते । इसलिए बे जीव के परिभोग में नहीं आते । धर्मास्तिकायादि चार द्रव्य अमूर्त हैं और परमाणु सूक्ष्म हैं, तथा शैलेशी प्राप्त अनगार उपदेशादि द्वारा प्रेरणादि नहीं करते । इसलिए ये जीव के परिभोग में नहीं आते । तात्पर्य यह है कि इन ४८ में से २४ ( अठारह पाप, पाँच स्थावर और For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १८ उ. ४ कृतादि युग्म चतुष्क बादर कलेवर) तो जीव के परिभोग में आते हैं और शेष २४ जीव के परिभोग में नहीं आते । क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार कषाय हैं । इनके लिए यहां प्रज्ञापना सूत्र के चौदह वें कषाय पद का अतिदेश किया गया है। नैरयिकादि जीवों के आठों कर्म उदय में रहते हैं । उदय में आये हुए कर्मों की निर्जरा अवश्य होती है । नैरयिकादि कषाय के उदय वाले हैं । कषाय का उदय होने पर कर्मों की निर्जरा होती हैं। इसलिए क्रोधादि के द्वारा नरकादि के आठों कर्मों की निर्जरा होती है । कृतादि युग्म चतुष्क ३ प्रश्न - कइ णं भंते ! जुम्मा पण्णत्ता ? ३ उत्तर - गोयमा ! चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता, तं जहा - १ कडजुम्मे, २ तेओगे, ३ दावरजुम्मे, ४ कलिओगे । प्रश्न - से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ - जाव कलिओगे ? उत्तर - गोयमा ! जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए सेत्तं कडजुम्मे । जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपन्घवसिए सेत्तं तेयोए । जेणं रासी चउकएणं अव हारेणं अवहौरमाणे दुपज्जवसिए सेत्तं दावरजुम्मे । जेणं रासी चक्कणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए सेत्तं कलिओगे । से तेणणं गोयमा ! एवं बुचड़ - जाव कलिओगे | २६९५ कठिन शब्दार्थ - जुम्मा-युग्म (राशि), कडजुम्मे - कृतयुग्म तेयोगे-त्रयोज, बाबरजुम्मे - द्वापरयुग्म, कलिओगे- कल्योज, अवहारेणं-निकालते । For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९६ भगवती मूत्र-श. १८ उ. ४ कृतादि युग्म चतुष्क भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! कितने युग्म (राशि) कहे गये हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! चार युग्म कहे गये हैं। यथा-कृतयुग्म, त्र्योज, द्वापरयुग्म, कल्योज। प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण से इनको इन नामों से कहा गया है ? उत्तर--हे गौतम ! जिस राशि में से चार-चार निकालते हुए अन्त में चार शेष रहें, वह राशि 'कृतयुग्म' कहलाती है। जिस राशि में से चार-चार निकालते हुए अन्त में तीन शेष रहें, वह राशि 'योज' कहलाती है । जिस राशि में से चार-चार निकालते हुए अन्त में दो शेष रहें, वह राशि द्वापरयुग्म' कहलाती है और जिस राशि में से चार-चार निकालते हुए अन्त में एक शेष रहे, . वह राशि 'कल्योज' कहलाती है । इसलिए है गौतम ! यावत् 'कल्योज' राशि ... कहलाती है। ४ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! किं कडजुम्मा, तेयोगा, दावरजुम्मा, कलियोगा ४? ४ उत्तर-गोयमा ! जहण्णपए कडजुम्मा, उपकोसपए तेयोगा, अजहण्णुक्कोसपए सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा । एवं जाव थणियकुमारा। ___५ प्रश्न-वणस्सइकाइयाणं पुच्छ । ५ उत्तर-गोयमा ! जहण्णपए अपया, उक्कोसपए य अपया, अजहण्णुक्कोसपए सियकडजुम्मा जाव सिय कलियोगा। ६ प्रश्न-वेईदिया णे पुच्छ । ६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णपए कडजुम्मा, उसकोसपए दावरजुम्मा, For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवनी मूत्र-श. १८ उ. ४ कृतादि युग्म चतुष्क २६९७ अजहण्णमणुक्कोसपए सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा। एवं जाव चतुरिंदिया। सेसा एगिदिया जहा बेंदिया। पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जाव वेमाणिया जहा णेरइया । सिद्धा जहा वणस्सइकाइया। भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक कृतयुग्म हैं, व्योज हैं, द्वापरयुग्म हैं, या कल्योज हैं ? . ४ उत्तर-हे गौतम ! वे जघन्य पद में कृतयुग्म हैं और उत्कृष्ट पद में व्योज हैं तथा अजयन्योत्कृष्ट (मध्यम) पद में कदाचित् कृतयुग्म यावत् कदाचित् कल्योज रूप होते हैं । इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक कहना चाहिये। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! वनस्पतिकायिक कृतयुग्म यावत् कल्योज रूप हैं? ५ उत्तर-हे गौतम ! वे जघन्य और उत्कृष्ट पद की अपेक्षा अपद है, अर्थात् उनमें जघन्यपद और उत्कृष्ट पद सम्भव नहीं है। अजघन्योत्कृष्ट पद की अपेक्षा कदाचित् कृतयुग्म यावत् कदाचित् कल्योज रूप होते हैं। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! बेइन्द्रियों के विषय में प्रश्न ? ६ उत्तर-हे गौतम ! वे जघन्य पद में कृतयुग्म हैं और उत्कृष्ट पद में द्वापरयुग्म हैं । अजघन्यानुत्कृष्ट पद में कदाचित् कृतयुग्म यावत् कदाचित् कल्योन होते हैं। इस प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय तक कहना चाहिए । शेष एकेन्द्रियों का कथन बेइन्द्रियों के समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक यावत् वैमानिक तक का कथन नरयिक के समान है। सिद्धों का कथन वनस्पतिकायिक के समान है। ७ प्रश्न-इत्थीओ णं भंते ! किं कडजुम्मा० ? ७ उत्तर-गोयमा ! जहण्णपए कडजुम्माओ, उक्कोसपए कड. जुम्माओ, अजहण्णमणुकोसपए सिय कडजुम्माओ जाव सिय कलि For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १८ उ. ४ कृतादि युग्म चतुष्क योगाओ, एवं असुरकुमारित्थीओ विजाव थणियकुमारइत्थीओ। एवं तिरिक्ख जोणियइत्थीओ, एवं मणुसित्थीओ, एवं वाणमंतर - जोड़सिय-वेमाणियदेवित्थओ | २६९८ ८ प्रश्न - जावइया णं भंते ! वरा अंधगवहिणो जीवा तावइया परा अधगवहिणो जीवा ? ८ उत्तर - हंता गोयमा ! जावइया वरा अंधगवहिणो जीवा तावइया परा अंधगवहिणो जीवा । * सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति || अट्टारसमे सए चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ - जावइया - जितने, तावइया - उतने वरा- अल्पायु, परा- उत्कृष्टायु भावार्थ - ७ प्रश्न - हे भगवन् ! स्त्रियाँ कृतयुग्म हैं, इत्यादि प्रश्न ? ७ उत्तर - हे गौतम! बे जघन्य पद में कृतयुग्म है और उत्कृष्ट पद में भी कृतयुग्म हैं । अजघन्यानुत्कृष्ट पद में कदाचित् कृतयुग्म हैं यावत् कदाचित् कल्योज हैं । इस प्रकार असुरकुमार से ले कर यावत् स्तनितकुमार तक की स्त्रियाँ (देवियां ) तिर्यञ्चयोनिक स्त्रियाँ, मनुष्य स्त्रियां, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों की स्त्रियां तक कहना चाहिए । ८ प्रश्न - हे भगवन् ! जितने अल्प आयुष्य वाले अन्धकवन्हि जीव हैं, उतने उत्कृष्ट आयुष्य वाले अन्धकवन्हि जीव हैं ? ८ उत्तर - हां, गौतम ! जितने अल्प आयुष्य वाले अन्धकवन्हि जीव हैं उतने ही उत्कृष्ट आयुष्य वाले अन्धकवन्हि जीव हैं । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है - ऐसा For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ४ कृतादि युग्म चतुष्क २६९९ कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-गणित परिभाषा से सम राशि युग्म कही जाती है और विषम राशि 'ओज' कही जाती है । यहाँ जो राशि के चार भेद किये गये हैं, उनमें से दो युग्म-राशि है और दो ओज-राशि है तथापि यहां युग्म शब्द से सभी प्रकार की राशि का ग्रहण है। इसलिये चार युग्म अर्थात् रागियां कही गई हैं। नैरयिक आदि की राशि का परिमाण इनसे किया गया है । जब वे अत्यन्त अल्प होते है, तब कृतयुग्म होते है । जब उत्कृष्ट होते हैं, तब त्र्योज होते हैं । मध्यम पद में वे चारों राशि वाले होते है । जघन्य पद और उत्कृष्ट पद निश्चित् संख्या रूप है। किसी समय नैरयिक आदि में यह पद घटित हो सकता है, परन्तु वनस्पतिकाय के विषय में घटित नहीं हो सकता, क्योंकि वनस्पति के जीव अनन्त हैं, फिर भी जितने जीव मोक्ष जाते हैं, उतने जीव उनमें से घटते ही हैं। उसका अनन्तपन कायम रहते हुए भी वह राशि अनियत (अनिश्चित) स्वरूप वाली है। वनस्पतिकाय के समान सिद्ध जीवों में भी जघन्य पद और उत्कृष्ट पद सम्भव नहीं होता, क्योंकि सिद्ध जीवों की संख्या बढ़ती जाती है । इसलिये उनका परिमाण अनियत है। टीकाकार कहते हैं कि अन्धक (अंहिप) नाम वृक्ष का है। वृक्ष को आश्रित कर रहने वाली अग्नि अर्थात् बादर अग्निकायिक जीव । दूसरे आचार्य तो 'अन्धक' शब्द का अर्थ करते हैं-सूक्ष्म नामकर्म के उदय से अप्रकाशक अर्थात् प्रकाश नहीं करने वाली अग्नि, यानि सूक्ष्म अग्निकायिक जीव । ये जितने अल्पायुष्य वाले हैं, उतने ही जीव दीर्घायुष्य वाले • भी हैं। For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १५ उद्देशक ५ देव की सुन्दरता असुन्दरता १ प्रश्न - दो भंते! असुरकुमारा एगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उववण्णा, तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे पासाईए, दरिसणिजे, अभिरू, पडिरूवे; एगे असुरकुमारे देवे से णं णो पासाईएणो दरिसणिजे, णो अभिरू, णो पडिरूवे, से कहमेयं भंते! एवं ? १ उत्तर - गोयमा ! असुरकुमारा देवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहावेव्वियसरी य अवेव्वियसरीरा य, तत्थ णं जे से वेउब्वियसरी रे असुरकुमारे देवे से णं पासाईए जाव पडिरूवे; तत्थ णं जे से अवेउब्वियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं णो पासाईए जाव णो पडिरूवे । प्रश्न - सेकेणणं भंते ! एवं बुचड़ - तत्थ णं जे से वेउच्चियसरीरे तं चैव जाव पडिरूवे ? उत्तर - गोयमा ! से जहाणामए - इह मणुयलोगंसि दुबे पुरिसा भवंति पुगे पुरिसे अलंकिय- विभूसिए, पुगे पुरिसे अणलंकियविभूसिए, एएसि णं गोयमा ! दोन्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे पासाईए जाव पडिरूबे, कयरे पुरिसे णो पासाईए जाव णो पडिरूवे, जे वा For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १८ उ. ५ देव की सुन्दरता-अगन्दरता २७०१ से पुरिसे अलंकियविभूसिए, जे वा से पुरिसे अणलंकियविभूसिए ? भगवं ! तत्थ णंजे से पुरिसे अलंकियविभूसिए से णं पुरिसे पासाईए, जाव पडिरूवे, तत्थ णं जे से पुरिसे अणलंकियविभसिए से णं पुरिसे णो पासाईए जाव णो पडिरूवे, से तेणटेणं जाव णो पडिरूवे । २ प्रश्न-दो भंते ! णागकुमारा देवा एगंसि णागकुमारावासंसि०? २ उत्तर-एवं चेव जाव थणियकुमारा । वाणमंतरजोइसिय वेमाणिया एवं चेव । कठिन शब्दार्थ-अलंकिय-अलंकृत । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! एक असुरकुमारावास में दो असुरकुमार, असुरकुमार देवपने उत्पन्न हुए । उनमें से एक असुरकुमार देव प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला, दर्शनीय, सुन्दर और मनोहर होता है और दूसरा प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला, दर्शनीय, सुन्दर और मनोहर नहीं होता । तो हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? . १ उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमार देव दो प्रकार के कहे गये हैं। यथावक्रिय शरीर वाले (विभूषित शरीर वाले) और अवैक्रिय शरीर वाले (अविभषित शरीर वाले) । जो असुरकुमार देव, वैक्रिय शरीर वाले हैं, वे प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले यावत् मनोहर होते हैं और जो अवक्रिय शरीर वाले हैं, वे प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले यावत् मनोहर नहीं होते। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! जैसे इस मनुष्य लोक में दो पुरुष हों, उनमें से एक For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०२ - भगवती सूत्र-ग. १८ उ. ५ महाकर्म-अल्पकर्म पुरुष आभूषणों से अलंकृत और विभूषित हो और एक अलंकृत और विभूषित न हो, तो हे गौतम ! इन दोनों पुरुषों में कौनसा पुरुष प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत् मनोहर होता है और कौनसा नहीं होता ? क्या अलंकृत और विमूषित है वह, या जो अलंकृत और विभूषित नहीं है वह ? ' हे भगवन् ! उन दोनों पुरुषों में जो अलंकृत और विभूषित है, वह प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत् मनोहर है और जो पुरुष अलंकृत और विभूषित नहीं है, वह प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला और मनोहर नहीं है। इसलिये हे गौसम ! वह असुरकुमार यावत् मनोहर नहीं है, ऐसा कहा गया है। २ प्रश्न-हे भगवन् ! दो नागकुमार देव एक नागकुमारावास में नागकुमार देवपने उत्पन्न हुए इत्यादि प्रश्न ? । २ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त रूप से समझना चाहिये । इसी प्रकार . यावत् स्तनितकुमार तक जानना चाहिये और वाणव्यस्तर, ज्योतिषी और .. बैमानिक के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिये। विवेचन-देव शय्या में जब देव उत्पन्न होता है, उस समय प्रथम ही प्रथम वह देव अलंकार आदि विभूषा से रहित होता हैं । इसके पश्चात् अनुक्रम से अलंकार आदि धारण कर वह विभूषित होता है । अतः यहां वैक्रिय शरीर का अर्थ 'विभूषित शरीर' है और अवैक्रिय शरीर का अर्थ 'अविभूषित शरीर' है । महाकर्म अल्पकर्म ३ प्रश्न-दो भंते ! णेरइया एगंसि णेरड्यावासंसि गेरइयत्ताए उववण्णा, तत्थ णं एगे गेरइए महाकम्मतराए चेव जाव महावेयणतराए चेच; एगे गेरइए अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेयणतराए चेव; से कहमेयं भंते ! एवं ? ३ उत्तर-गोयमा ! गेरइया दुविहा पण्णत्तातं जहा-मायिमिच्छ For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ५ महाकर्म अल्पकर्म २७०३ दिविउववण्णगा य अमायिसम्मदिहिउववण्णगा य । तत्थ णं जे से मायिमिच्छदिदिउववण्णए णेरइए से णं महाकम्मतराए चेव जाव महावेयणतराए चेव; तत्थ णं जे से अमायिसम्मदिट्ठिउववष्णए णेरइए से णं अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेयणतराए चेव । ४ प्रश्न-दो भंते ! असुरकुमारा ? ४ उत्तर-एवं चेव । एवं एगिंदिय-विगलिंदियवजं जाव वेमाणिया। भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन ! दो नैरयिक एक नरकावास में नरयिकपने ..उत्पन्न हुए। उनमें से एक ने रयिक महाकर्म वाला यावत् महावेदना वाला होता है और एक नैरयिक अल्पकर्म वाला यावत् अल्पवेदना वाला होता है, तो हे भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-मायीमिथ्यादृष्टि उत्पन्न और अमायीसमदृष्टि रूप से उत्पन्न । इनमें से जो मायोमिथ्यादृष्टि उपपन्नक नैरयिक है, वे महाकर्म वाले यावत् महावेदना वाले हैं और जो अमायोसमदृष्टि उपपन्नक नैरयिक हैं, वे अल्पकर्म वाले यावत् अल्पवेदना वाले हैं। .४ प्रश्न-दो असुरकुमारों के विषय महाकर्म आदि विषयक प्रश्न ? ४ उतर-हे गौतम ! पूर्वोक्त भेद से समझना चाहिये । इस प्रकार एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़ कर यावत् वैमानिक तक जानना चाहिये। विवेचन-महाकर्म आदि चार पद हैं । यथा-महाकर्म, महाक्रिया, महाआश्रव और महावेदना । इन चारों की व्याख्या पहले की जा चुकी है । यहाँ एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय के सिवाय' कहने का कारण यह है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में मिथ्यादष्टि ही होते हैं, सम्यग्दृष्टि नहीं होते । इसलिये उनमें से एक में सम्यग्दर्शन सापेक्ष अल्पकर्मता आदि तथा दूसरे में मिथ्यादर्शन सापेक्ष महाकर्मता आदि घटित नहीं होती, अपितु उन सभी में महाकर्मता आदि ही है। मिथ्यात्वाभिमुख होने से सास्वादन सम्यग्दृष्टि वाले विकलेन्द्रियों के भी मिथ्यात्व की क्रिया नियमतः मानी है। इस दृष्टि से यहां विकलेन्द्रियों को सम्यग्दृष्टि नहीं बतलाया है। For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०४ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ५ किस आयु का वेदन करते हैं ? - किस आयु का वेदन करते है ? ५ प्रश्न-णेरइए णं भंते ! अणंतरं उब्वट्टित्ता जे भविए पंचिं. दियतिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए से णं भंते ! कयरं आउयं पडिसंवेदेइ ? ५ उत्तर-गोयमा ! णेरइयोउयं पडिसंवेदेइ, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाउए से पुरओ कडे चिट्टइ, एवं मणुस्सेसु वि, णवरं मणुस्साउए.से पुरओ कडे चिट्ठइ। ६ प्रश्न-असुरकुमारा णं भंते ! अणंतरं उबट्टित्ता जे भविए पुढविकाइएसु उववजित्तए-पुच्छा। ६ उत्तर-असुरकुमाराउयं पडिसंवेदेइ, पुढविकाइयाउए से पुरओ कडे चिंटइ, एवं जो जहिं भविओ उववजित्तए तस्स तं पुरओ कडं चिट्ठइ, जत्थ ठिओ तं पडिसंवेदेइ जाव वेमाणिए, णवरं पुढविकाइए पुढविकाइएसु उववजइ, पुढविकाइयाउयं पडिसंवेदेइ, अण्णे य से पुढविकाइयाउए पुरओ कडे चिटुइ, एवं जाव मणुस्सो सट्टाणे उववाएयव्यो, परहाणे तहेव । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! जो नैरयिक मर कर अन्तर रहित पंचेन्द्रिय तिर्यच-योनिक में उत्पन्न होने के योग्य है, वह किस आयुष्य का अनुभव करता है ? For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ५ विकुर्वणा सरल होती है या वक्र ? २७०५ ५ उत्तर-हे गौतम ! वह नैरयिक आयुष्य का अनुभव करता है और पंचेन्द्रिय तियंच-योनिक के आयुष्य को उदयाभिमुख करता है । इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी समझना चाहिये । विशेष यह है कि वह मनुष्य के आयुष्य को उदयाभिमुख करता है । ६ प्रश्न-हे भगवन् ! जो असुरकुमार मर कर अन्तर रहित पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य हैं, इत्यादि प्रश्न । ६ उत्तर-हे गौतम ! वह असुरकुमार के आयुष्य का अनुभव करता है और पृथ्वीकायिक आयुष्य को उदयाभिमुख करता है। इस प्रकार जो जीव जहाँ उत्पन्न होने के योग्य हैं, वह उसके आयुष्य को उदयाभिमुख करता है और जहाँ रहा हुआ है, वहाँ के आयुष्य को वेदता है । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिये। विशेष यह है कि जो पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक में ही उत्पन्न होने के योग्य है, वह पृथ्वीकायिक अपने आयुष्य को वेदता है और अन्य पृथ्वीकायिक आयुष्य को उदयाभिमुख करता है । इस प्रकार यावत् मनुष्य तक स्वस्थान में उत्पाद के विषय में जानना चाहिये। परस्थान में उत्पाद के विषय में पूर्ववत् जानना चाहिये। विवेचन--जब तक जीव नैरयिक का शरीर धारण किया हुआ है, तब तक वह नरक के आयुष्य को वेदता है और नैरयिक का शरीर छोड़ देने के बाद मनुष्य या तिर्यंच के आयुष्य को वेदता है। विकुर्वणा सरल होती है या वक्र ? ७ प्रश्न-दो भंते ! असुरकुमारा एगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उववण्णा, तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे उज्जुयं विउब्बिस्सामीइ उज्जुयं विउब्वइ, वंकं विउव्विस्सामीइ वकं विउव्वइ, जं जहा इच्छइ तंतहा विउब्वइ, एगे असुरकुमारे देवे उज्जुयं For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०६ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ५ विकुर्थणा सरल होती है या वक्र ? विउव्विस्सामीइ वकं विउव्वइ, बंक विउव्विस्सामीइ उज्जुयं विउव्वइ, जं जहा इच्छइ णो तं तहा विउव्वइ, से कहमेयं भंते ! एवं ? __७ उत्तर-गोयमा ! असुरकुमारा देवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहामायिमिच्छदिट्ठीउववण्णगा य अमायिसम्मदिट्ठीउववण्णगा य । तत्थ णं जे से मायिमिच्छदिट्ठीउववण्णए असुरकुमारे देवे से णं उज्जुयं विउब्बिस्सामीइ वकं विउबइ, जाव णो तं तहा विउब्वइ । तत्थ णं जे से अमायिसम्मदिट्ठिउववण्णए असुरकुमारे देवे से उज्जुयं विउविस्सामीइ.जोव तं तहा विउव्वइ । ८ प्रश्न-दो भंते ! तहा णागकुमारा ? ८ उत्तर-एवं जाव थणियकुमारा । वाणमंतर-जोइसिय वेमाणिया एवं चेव । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ अट्ठारसमे सए पंचमो उद्देसो समत्तो । कठिन शब्दार्थ-उज्जयं-ऋजुक-सरल, बंक-वक्र-टेढ़ा । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! एक असुरकुमारावास में दो असुरकुमार, असुरकुमार देवपने उत्पन्न हुए। उनमें से एक असुरकुमार देव ऋजु (सरल) रूप से विकुर्वणा करने की इच्छा करे तो ऋजु विकुर्वणा कर सकता है और वक्र (टेढ़ा)रूप से विकुर्वणा करने की इच्छा करे, तो वक्र विकुर्वणा कर सकता है। वह जिस प्रकार और जिस रूप की विकुर्वणा करने की इच्छा करता है, तो उसी प्रकार की और उसी रूप की विकुर्वणा करता है और एक असुर For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ५ विकुर्वगा सरल होती है या वक्र ? २७०७ कुमार देव ऋजु विकुर्वणा करने की इच्छा करे तो वक्र रूप की विकुर्वणा हो जाती है और वक्र रूप को विकुर्वणा करना चाहे तो ऋजु रूप की विकुर्वणा हो जाती है । अर्थात् वह जिस प्रकार और जिस रूप को विकुर्वणा करना चाहता है, वह उस प्रकार और उस रूप की विकुर्वणा नहीं कर सकता। ७ प्रश्न-'हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ?' ७ उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमार दो प्रकार के कहे गये हैं। यथामायोमिथ्यादृष्टि उपपन्नक और अमायीसमदृष्टि उपपन्नक । इनमें से जो मायोमिथ्यादृष्टि उपपन्नक असुरकुमार देव हैं, वे ऋजु रूप की विकुर्वणा करना चाहे, तो वक्र रूप को विकुर्वणा हो जाती है, यावत् जिस प्रकार के रूप को विकुर्वणा करना चाहते हैं, उस प्रकार के रूप की विकुर्वणा नहीं कर सकते और जो अमायीसम्यग्दृष्टि उपपन्नक असुरकुमार देव हैं, वे ऋजु रूप की विकुर्वणा करना चाहे तो उसी प्रकार के रूप की यावत् विकुर्वणा कर सकते हैं। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! दो नागकुमार इत्यादि प्रश्न ? ८ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् जानना चाहिये । इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक और इसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक के विषय में भी जानना चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। __ विवेचन-कितने ही देव, अपनी इच्छानुसार सीधी या टेढ़ी बिकुवणा कर सकते हैं इसका कारण यह है कि उन्होंने ऋजुता (सरलता) और सम्यग्दर्शन निमित्तक तीव्र रस वाले वैक्रिय नाम कर्म का बन्ध किया हैं और कितने ही देव टेढ़ी अपनी इच्छानुसार विकुर्वणा नहीं कर सकते, इसका कारण यह है कि उन्होंने मायामिथ्यादर्शन निमित्तक मन्द रस वाले वंक्रिय नामकर्म का बन्ध किया है । इसलिये ऐसा कहा गया है कि अमायीसमदृष्टि देव अपनी इच्छानुसार रूपों की विकुर्वणा कर सकते हैं और मायोमिथ्यादृष्टि देव अपनी इच्छानुसार रूपों की विकुर्वणा नहीं कर सकते। ॥ इति अठारहवें शतक का पाँचवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८ उद्देशक निश्चय-व्यवहार से गुड़ आदि का वर्ण १ प्रश्न-फाणियगुले णं भंते ! कइवण्णे, कइगंधे, कइरसे, कइफासे पण्णत्ते ? ... १ उत्तर-गोयमा ! एत्थ णं दो णया भवंति, तं जहा-णिच्छड्यणए य वावहारियणए य । वावहारियणयस्स गोड्डे फाणियगुले, णेच्छइयणयस्त पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे अटफासे पण्णत्ते। २ प्रश्न-भमरे णं भंते ! कइवण्णे०-पुच्छा। - २. उत्तर-गोयमा ! एस्थ णं दो णया भवंति, तं जहा-णिच्छहयणए य वावहारियणए य । वावहारियणयस्स कालए भमरे, णेच्छइयणयस्त पंचवण्णे जाव अट्ठफासे पण्णत्ते । ३ प्रश्न-सुयपिच्छे णं भंते ! कइवण्णे ? ३ उत्तर-एवं चेव, गवरं वावहारियणयस्स णीलए सुयपिच्छे, णेच्छइयणयस्स पंचवण्ण्णे, सेसं तं चेव । एवं एएणं अभिलावेणं लोहिया मंजिट्ठिया, पीतिया हालिद्दा, सुकिल्लए संखे, सुन्भिगंधे कोटे, दुन्भिगंधे मयगसरीरे, तित्ते णिवे, कडुया सुंठी, कसाए कविटे, For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ६ निश्चय-व्यवहार से गुड़ आदि का वर्ण २७०९ अंबा अंविलिया, महुरे खण्डे, कक्खडे वहरे, मउए णवणीए, गरूए अए, लहुए उलुयपत्ते, सीए हिमे, उसिणे अगणिकाए, णिधे तेल्ले । ४ प्रश्न-चरिया णं भंते !-पुच्छा । ४ उत्तर-गोयमा ! एत्थ दो णया भवंति, तं जहा-णिच्छइयणए य वावहारियणए य, वावहारियणयस्स लुक्खा छारिया, णेच्छइयणयस्स पंचवण्णा० जाव अट्ठफासा पण्णत्ता । ___ कठिन शब्दार्थ-फाणियगुले-गीला गुड़, णिच्छइयणए-निश्चय नय, वावहारियणएव्यावहारिक नय, सुयपिच्छे-तोते की पांख, छारिया-राख । .. भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! फाणित (गीला) गुड़ कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श वाला कहा गया है ? १ उत्तर-हे गौतम ! इस संबंध में नय (अपेक्षा) दो है । यथा-नैश्च. यिक नय और व्यावहारिक नय । व्यावहारिक नय की अपेक्षा फाणित-गड़ मधुर रस वाला कहा गया है और नैश्चयिक नय की अपेक्षा पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श वाला कहा गया है। . २ प्रश्न-हे भगवन् ! भ्रमर कितने वर्ण वाला है, इत्यादि प्रश्न ? २ उत्तर-हे गौतम ! व्यावहारिकनय से भ्रमर काला है और नैश्चयिक नय से भ्रमर पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श वाला है। - ३ प्रश्न-हे भगवन् ! तोते के पंख कितने वर्ण वाले हैं, इत्यादि प्रश्न ? .. ३ उत्तर-हे गौतम ! व्यावहारिक नय से तोते के पंख हरे हैं और नैश्चयिक नय से पांच वर्ण वाले इत्यादि पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिये । इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा मजीठ लाल है, हल्दी पोली है, शंख श्वेत है, कुष्ठ (पटवास-कपड़े में सुगन्ध देने की पती) सुगन्धित है, मुर्दा (मृतक शरीर) दुर्गन्धित है, नीम (निम्ब) तिक्त (कड़वा) है, झूठ कटुय (तीखा) है, कविठ कर्षला है, इमली For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१० भगवती सूत्र-श. १८ उ. ६ परमाणु और स्कन्ध में वर्णादि खट्टी है, खांड (शवकर) मधुर है, वज्र कर्कश (कठोर) है, नवनीत (मवखन) मृदु (कोमल) है, लोह भारी है, उलुकपत्र (उल्लू की पाँख) हल्का है, हिम (बर्फ) ठण्डा है, अग्निकाय उष्ण है और तेल स्निग्ध (चिकना) है । किन्तु नैश्चयिकनय से इन सब में पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श हैं। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! राख कितने वर्ण वाली है, इत्यादि प्रश्न ? ४ उत्तर-हे गौतम ! व्यावहारिक नय से राख रूक्ष स्पर्श वाली है और नैश्चयिक नय से राख पांच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श वाली है। विवेचन-व्यावहरिकनय लोक-व्यवहार का अनुसरण करता है। इसलिये जिस वस्तु का लोक-प्रसिद्ध जो वर्णादि होता है, वह उसी को मानता है। शेष वर्णादि की वह उपेक्षा करता है । नैश्चयिक नय वस्तु में जितने वर्णादि है उन सब को मानता है । परमाणु आदि में सब वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श विद्यमान है, इसलिये नैश्चयिक नय सब को मानता हैं । परमाणु और स्कन्ध में वर्णादि ५ प्रश्न-परमाणुपोग्गले णं भंते ! कइवण्णे जाव कइफासे पण्णत्ते ? ५ उत्तर-गोयमो ! एगवण्णे, एगगंधे, एगरसे, दुफासे पण्णत्ते । ६ प्रश्न-दुपएसिए णं भंते ! खधे कइवण्णे-पुच्छ । ६ उत्तर-गोयमा ! सिय एगवण्णे, सिय दुवण्णे, सिय एगगंधे, सिय दुगंधे, सिय एगरसे, सिय दुरसे, सिय दुफासे, सिय तिफासे, सिय चउफासे पण्णत्ते । एवं तिपएसिए वि, णवरं सिय एगवण्णे सिय दुवण्णे, सिय तिवण्णे । एवं रसेसु वि, सेसं जहा दुपएसियस्स। For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १८ उ ६ परमाणु और स्कन्ध में वर्णादि २७११ एवं उपसिए वि, णवरं सिय एगवण्णे जाव सिय उवण्णे । एवं रसेसु विसेसं तं चैव । एवं पंचपरसिए वि, णवरं सिय एगवणे, जाव सिय पंचवणे, एवं रसेसु वि, गंधफासा तहेव । जहा पंचपएसओ एवं जाव असंखेज्जपएसओ । ७ प्रश्न -सुहमपरिणए णं भंते ! अनंतपए सिए खंधे कहवण्णे ०? ७ उत्तर - जहा पंचपएसिए तहेव णिरवसेसं । ८ प्रश्न - वायरपरिणए णं भंते ! अनंतपएसिए खंधे कवणे - पुच्छा। ८ उत्तर - गोयमा ! सिय एगवण्णे जाव सिय पंचवणे, सिय एगगंधे सिय दुगंधे, सिय एगरसे जाव सिय पंचरसे, सिय चउफासे जाव सिय अट्ठफासे पण्णत्ते । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ अट्ठारसमे सए छट्ठओ उद्देस समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ - सुमपरिणए - सूक्ष्म परिणत | भावार्थ-५ प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु-पुद्गल कितने वर्ण वाला यावत् स्पर्श वाला होता है ? ५ उत्तर - हे गौतम ! एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और दो स्पर्श बाला होता है । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! द्विप्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला, इत्यादि प्रश्न ? For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१२ भगवती मूत्र-श. १८ उ. ६ परमाणु और स्कन्ध में वर्णादि .६ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् एक वर्ण और कदाचित् दो वर्ण, कदाचित् एक गन्ध या दो गन्ध, कदाचित् एक रस या दो रस, कदाचित् दो स्पर्श, तीन स्पर्श और कदाचित् चार स्पर्श वाला होता है। इसी प्रकार त्रिप्रदेशी स्कन्ध के विषय में भी जानना चाहिये । विशेष यह है कि कदाचित् एकवर्ण, दो वर्ण और कदाचित् तीन वर्ण वाला होता है। इसी प्रकार रस के विषय में भी यावत् तीन रस वाला होता है। शेष सब द्विप्रदेशी स्कन्ध के समान जानना चाहिये । इसी प्रकार चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के विषय में भी जानना चाहिये । विशेष यह है कि कदाचित् एक र्ण यावर कदाचित् चार वर्ण वाला होता है । रस के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिये। शेष सब पूर्ववत् है । इसी प्रकार पंचप्रदेशी स्कन्ध के विषय में भी जानना चाहिये । विशेष यह है कि वह कदाचित् एक वर्ण यावत् पांच वर्ण वाला होता है । इसी प्रकार रस के विषय में भी जानना चाहिये। गन्ध और स्पर्श पूर्ववत् जानना चाहिये । जिस प्रकार पंचप्रदेशी स्कन्ध का कहा गया है, उसी प्रकार यावत् असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध तक जान लेना चाहिये। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! सूक्ष्म परिणाम वाला अनन्त प्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है, इत्यादि प्रश्न ? ७ उत्तर-हे गौतम ! पञ्चप्रदेशी स्कन्ध के समान सम्पूर्ण रूप से जानना चाहिये। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! बादर (स्थूल) परिणाम वाला अनन्त प्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है, इत्यादि प्रश्न ? ८ उत्तर-हे गौतम ! वह कदाचित् एक वर्ण यावत् कदाचित् पांच वर्ण वाला । कदाचित् एक गन्ध या दो गन्ध वाला, कदाचित् एक रस यावत् पांच रस वाला, चार स्पर्श यावत् कदाचित् आठ स्पर्श वाला होता है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती गूत्र-श. १८ उ. ६ परमाणु और स्कन्ध में वर्णादि २७१३ विवेचन -परमाणु पृद्गल में वर्ण विषयक पांच, गन्ध विषयक दो और रस विषयक पाँच विकल्प हैं और स्पर्श विषयक चार विकल्प हैं । स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण-इन चार स्पर्शों में से कोई भी दो अविरोधो स्पर्श पाये जाते हैं। यथा-शीत और स्निग्ध, शीत और रूक्ष, उष्ण और स्निग्ध या उष्ण और रूक्ष । द्विप्रदेशी स्कन्ध में यदि एक वर्ण हो, तो पांच विकल्प और यदि दो वर्ण हो, (प्रत्येक प्रदेश में पृथक्-पृथक् वर्ण हो) तो दस विकल्प होते हैं। इसी प्रकार गन्धादि के विषय में भी समझना चाहिये । द्विप्रदेशी स्कन्ध जब शोत, स्निग्ध आदि दो स्पर्श वाला होता है, तब पूर्वोक्त चार विकल्प पाये जाते हैं । जब तीन स्पर्शवाला होता है, तब भी चार विकल्प पाये जाते हैं क्योंकि जिसमें दो प्रदेश शीत हैं, उसमें एक स्निग्ध और दूसरा रूक्ष होता है । इसी प्रकार दो प्रदेश उप्ण हों, तब दूसरा विकल्प होता है । दोनों प्रदेश स्निग्ध हों, उनमें एक शीत हो और एक उष्ण हो, तब तीसरा विकल्प बनता है । इसी प्रकार दोनों प्रदेश रूक्ष हो, तो चौथा विकल्प बनता है। जब द्विप्रदेशी स्कन्ध चार स्पर्शवाला होता है, तब एक विकल्प बनता है। इसी प्रकार तीन प्रदेशी आदि स्कन्धों में स्वयं घटित कर लेना चाहिये। सूक्ष्म परिणाम वाले स्कन्ध में पूर्वोक्त शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष-ये चार स्पर्श पाये जाते हैं और बादर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध में मृदु, ककंश, गुरु और लघु-ये चार स्पर्श पाये जाते हैं-ऐसा टीकाकार ने लिखा है, किन्तु आगमानुसार यह कथन उचित नहीं है । बीसवें शतक के पांचवें उद्देशक के अनुसार-दादर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध में चार से लगा कर आठ तक स्पर्श पाये जाते हैं । चार हो, तो मृदु और कर्कश में से कोई एक, गुरु और लघु में से कोई एक, शीत और उष्ण में से कोई एक और स्निग्ध और रूक्ष में से एक, इस प्रकार चार स्पर्श पाये जाते हैं। पांच स्पर्श हो, तो चार युग्मों में से किसी भी युग्म के दो और शेष तीन युग्मों में से एक-एक, इस प्रकार पाँच स्पर्श पाये जाते हैं। छह स्पर्श हो, तो दो युग्म के दो-दो और दो युग्मों में से एक-एक, यों छह स्पर्श पाये जाते हैं । सात स्पर्श हो, तो तीन युग्मों के दो-दो और एक युग्म में से एक, ये सात स्पर्श पाये जाते हैं । आठ हो, तो चारों युग्मों के दो-दो, स्पर्श पाये जाते हैं। ॥ अठारहवें शतक का छठा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १८ उद्देशक ७ केवली यक्षावेष्टित नहीं होते १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेंति-'एवं खलु केवली जक्खाएसेणं आइट्ठे समाणे आहच्च दो भासाओ भासइ, तं जहा-मोसं वा सम्बामोसं वा से कहमेयं भंते ! एवं ? १ उत्तर-गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया जाब जे ते एव. माहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु; अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि ४-णो खलु केवली जक्खापसेणं आइस्सइ, णो खलु केवली जक्खाएसेणं आइठे समाणे आहच्च दो भासाओ भासइ, तं जहा-मोसं वा सच्चामोसं वा, केवली णं असावजाओ अपरोक्घाइयाओ आहच दो भासाओ भासइ, तं जहा-सच्चं वा असच्चामोसं वा। कठिन शब्दार्थ-जक्खाएसेणं-यक्ष के आवेश से, आइलैं-आवेसित-अधिष्टित । माहच्च-कदाचित्, असावज्ज-असावद्य-निरवद्य (पाप रहित) अपरोवघाइयाओ-जीवों को उपघात नहीं करने वाली। भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा हे भगवन् ! अन्यतोषिक इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपित करते हैं For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १८ उ. ७ उपधि के भेद कि केवली, यक्ष के आवेश से आविष्ट हो कर कदाचित् दो भाषा बोलते हैं । यथा - मृषा भाषा और सत्यमृषा (मिश्र) भाषा । तो हे भगवन् ! यह कैसे हो सकता है ? १ उत्तर - हे गौतम! अन्यतीथिकों ने जो इस प्रकार कहा है, वह मिथ्या है । हे गौतम ! इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपित करता हूँ कि केवली, यक्ष के आवेश से आविष्ट ही नहीं होते और न दो भाषा बोलते हैं । केवली असावद्य और दूसरों को उपघात नहीं करने वाली ऐसी दो भाषा बोलते हैं- सत्यभाषा और असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा । विवेचन - केवली अनन्तवीर्य सम्पन्न होने से यक्ष के आवेश से आविष्ट नहीं होते, अतएव असत्य और मृषाभाषा नहीं बोलते । उपधि के भेद २७१५ २ प्रश्न - कड़विहे णं भंते ! उवही पण्णत्ते ? २ उत्तर - गोयमा ! तिविहे उवही पण्णत्ते, तं जहा - कम्मोवही, सरीरोवही, बाहिर भण्डमत्तोवगरणोवही । ३ प्रश्न - रइयाणं भंते ! - पुच्छा । ३ उत्तर - गोयमा ! दुविहे उवही पण्णत्ते, तं जहा - कम्मोवही यसरीवही य, सेमाणं तिविहे उवही एगिंदियवज्जाणं जाव वेमाणियाणं । एगिंदियाणं दुविहे उवही पण्णत्ते, तं जहा - कम्मोवही य सरोवही य । ४ प्रश्न - कइ विहे णं भंते ! उवही पण्णत्ते ?.. For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१६ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ७ परिग्रह के भेद ४ उत्तर-गोयमा ! तिविहे उवही पण्णत्ते, तं जहा-सच्चित्ते, अचित्ते, मीसए, एवं णेरइयाण वि, एवं गिरवसेसं जाव वेमाणियाणं । कठिन शब्दार्थ-उवही-उपधि-उपकरण । भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! उपधि कितने प्रकार की कही गई है ? २ उत्तर-हे गौतम ! उपधि तीन प्रकार की कही गई है । यथा-कर्मो. पधि, शरीरोपधि और बाह्यभाण्डमात्रोपकरणोपधि ।। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिकों के उपधि कितने प्रकार की कही गई है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार की उपधि कही गई है । यथा-कर्मोपधि और शरीरोपधि । एकेन्द्रिय जीवों के सिवाय शेष सभी जीवों के यावत् वैमानिक तक तीन प्रकार की उपधि होती है । एकेन्द्रिय जीवों के दो प्रकार को उपधि होती है। यथा-कर्मोपधि और शरीरोपधि । - ४ प्रश्न-हे भगवन् ! उपधि कितने प्रकार की कही गई है ? - ४.उत्तर-हे गौतम ! उपधि तीन प्रकार की कही गई है। यथासचित्त, अचित्त और मिश्र । नरयिकों से ले कर यावत् वैमानिक तक तीनों प्रकार की उपधि होती है। विवेचन-जीवन निर्वाह में उपयोगी शरीर एवं वस्त्रादि को 'उपधि' कहते हैं । इसके दो भेद हैं। आभ्यन्तर और बाह्य । कर्म और शरीर आभ्यन्तर उपधि है । वस्त्र, पात्र, घर आदि बाह्य उपधि है। नैरयिक जीवों में सचित्त उपधि शरीर है, अचित्त उपधि उत्पत्ति स्थान है और श्वासोच्छ्वास आदि युक्त सचेतनाचेतन/रूप मिश्र उपधि है । परिग्रह के भेद ५ प्रश्न-कइविहे गं भंते ! परिग्गहे पण्णत्ते ? ५ उत्तर-गोयमा ! तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते, तं जहा-१ कम्म For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १८ उ. ७ प्रणिधान परिग्गहे, २ सरीरपरिग्गहे, ३ वाहिरगमंडमत्तोवगरणपरिग्गहे । " ६ प्रश्न - णेरइयाणं भंते ! • ६ उत्तर - एवं जहा बहिणा दो दंडगा भणिया तहा परिग्गहेणं वि दो दंडगा भाणियव्वा । भावार्थ -५ प्रश्न - हे भगवन् ! परिग्रहं कितने प्रकार का कहा गया है ? ५ उत्तर - हे गौतम! परिग्रह तीन प्रकार का कहा गया है । यथाकर्म परिग्रह, शरीर परिग्रह और बाह्य भाण्डमात्रोपकरण परिग्रह । २७१७ ६ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों के कितने प्रकार का परिग्रह कहा गया है ? ६ उत्तर - हे गौतम जिस प्रकार उपधि के विषय में दो दण्डक कहे गये हैं, उसी प्रकार परिग्रह के विषय में भी दो दण्डक कहना चाहिये । विवेचन - जो ग्रहण किया जाय उसे 'परिग्रह' कहते हैं । परिग्रह और उपधि में यह भेद हैं कि जीवन निर्वाह में उपयोगी कर्म, शरीर और वस्त्रादि ' उपधि कहलाते हैं । इन्हें ममत्व बुद्धि से ग्रहण किया जाय तो 'परिग्रह' कहलाता है । यही उपधि और परिग्रह में भेद है । प्रणिधान ७ प्रश्न - कवि णं भंते ! पणिहाणे पण्णत्ते ? ७ उत्तर - गोयमा ! तिविहे पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा-मणपणिहाणे, व पणिहाणे, कायपणिहाणे | ८ प्रश्न - रइयाणं भंते ! कइविहे पणिहाणे पण्णत्ते ? ८ उत्तर - एवं चेव, एवं जाव थणियकुमाराणं । For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१८ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ७ प्रणिधान ९ प्रश्न-पुढविकाइयाणं पुच्छा। ९ उत्तरं-गोयमा ! एगे कायपणिहाणे पण्णत्ते । एवं जाव वणस्सइकाइयाणं। १० प्रश्न-इंदियाणं पुच्छ । १० उत्तर-गोयमा ! दुविहे पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा-वइ. पणिहाणे य कायपणिहाणे य, एवं जाव चरिंदियाणं, सेसाणं तिविहे वि जाव वेमाणियाणं ।। - ११ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! दुप्पणिहाणे पण्णत्ते ? ११ उत्तर-गोयमा ! तिविहे दुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहामणदुप्पणिहाणे०, जहेव पणिहाणेणं दंडगो भणिओ तहेव दुप्पणिहाणेण वि भाणियव्यो। १२ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! सुप्पणिहाणे पण्णते ? १२ उत्तर-गोयमा ! तिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहामणसुप्पणिहाणे, वइसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे । १३ प्रश्न-मणुस्साणं भंते ! कइविहे सुप्पणिहाणे पण्णते ? १३ उत्तर-एवं चेव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' जाव विहरह। तए णं समणे भगवं महावीरे जाव बहिया जणवयविहारं विहरइ । कठिन शब्दार्थ-पणिहाणे-प्रणिधान (किसी निश्चित विषय में योग को स्थिर करना) । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रणिधान कितने प्रकार का कहा गया है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! प्रणिधान तीन प्रकार का कहा गया है । यथा For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १८ उ. ७ प्रणिधान २७१९ मन-प्रणिधान, वचन-प्रणिधान और काय-प्रणिधान । ८ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक के कितने प्रकार का प्रणिधान कहा गया है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! इसी प्रकार (तीनों) प्रणिधान होते हैं। इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमार तक जानना चाहिये। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में प्रश्न ? ९ उत्तर-हे गौतम ! एक काय-प्रणिधान ही होता है। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक जानना चाहिये। १० प्रश्न-हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीवों के विषय में प्रश्न ? १० उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार का प्रणिधान होता है । यथा-वचनप्रणिधान और काय-प्रणिधान । इस प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक समझना चाहिये । शेष सभी जीवों के यावत् वैमानिकों तक तीन प्रणिधान होते हैं। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! दुष्प्रणिधान कितने प्रकार का कहा गया है ? ११ उत्तर-हे गौतम ! दुष्प्रणिधान तीन प्रकार का कहा गया है । यथा-मन-दुष्प्रणिधान, वचन-दुष्प्रणिधान और काय-दुष्प्रणिधान । जिस प्रकार प्रणिधान के विषय में दण्डक कहा गया है, उसी प्रकार दुष्प्रणिधान के विषय में भी कहना चाहिये। .. १२ प्रश्न-हे भगवन् ! सुप्रणिधान कितने प्रकार का कहा गया है ? १२ उत्तर-हे गौतम ! सुप्रणिधान तीन प्रकार का कहा गया है। यया-मन-सुप्रणिधान, वचन-सुप्रणिधान और काय-सुप्रणिधान। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! मनुष्यों के कितने प्रकार का सुप्रणिधान होता है ? __ १३ उत्तर-हे गौतम ! तीनों प्रकार का सुप्रणिधान होता है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-' कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। तत् पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यावत् बाहर जनपद (देश) में विचरने लगे। For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२० भगवती सूत्र-श. १८ उ. ७ मद्रुक धावक का अन्य-तोथियों से वाद विवेचन-मन, वचन और काय योग को किसी एक पदार्थ में स्थिर करना-'प्रणिधान' कहलाता है। मन, वचन, काया को सुप्रवृत्ति को 'सुप्रणिधान' कहते हैं और दुष्ट प्रवृत्ति को दुष्प्रणिधान कहते हैं । दुप्प्रणिधान चौवीस ही दण्डक में पाया जाता है और सुप्रणिधान केवल मनुष्य (संयत-साधु) में ही होता है । मदुक श्रावक का अन्य-तार्थियों से वाद १४-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे । गुणसिलए चेहए । वण्णओ । जाव पुढविसिलापट्टओ । तस्स णं गुणसिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते वहवे अण्णउत्थिया परिवसंति, तं जहाकालोदायी, सेलोदायी, एवं जहा सत्तमसए अण्णउत्थिउद्देसए जाव से कहमेयं मण्णे एवं ? तत्थ णं रायगिहे णयरे मद्दुए णामं समणो. वासए परिवसइ, अड्ढे जाव अपरिभूए अभिगय० जाव विहरइ । तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे जाव समोसढे, परिसा जाव पज्जुवासइ। तए णं मद्दुए समणोवासए इमीसे कहाए लद्धठे समाणे हट्टतुट्ट० जाव हियए, पहाए जाव सरीरे, सयाओ गिहाओ पडिणिस्खमइ, स०२ पडिमिक्खमित्ता पादविहारचारेणं रायगिहं णयरं जाव णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता तेसिं अण्णउत्थियाणं अदूरसामंतेणं वीइवयइ । तए णं ते अण्णउत्थिया मददुयं समणोवासयं अदूरसामंतेणं वीइवयमाणं पासंति, पासित्ता अण्णमण्णं सदाति, अण्णमण्णं सद्दावेत्ता एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १८ उ. ७ मद्रुक थावक का अन्य-तीथियों से वाद २७२? अम्हं इमा कहा अविपकडा, इमं च णं मदुए ममणोवासए अम्हं अदरसामंतेणं वीइवयइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं मद्यं समणो. वासयं एयमढं पुन्छित्तए' त्ति कटु अण्णमण्णम्स अंतियं एयमझें पडिसुणेति, अण्णमण्णस्त० २ पडिसुणेत्ता जेणेव मद्दुए समणोवासए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता मदुयं समणोवासयं एवं वयासी कठिन शब्दार्थ-अविपकडा-विशेष तथा अप्रकट-अविदित, अथवा-विद्वत्ता से वञ्चित व्यक्ति द्वारा कथित । भावार्थ-१४ उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था, गुणशील नामक उद्यान था (वर्णन) यावत् पृथ्वीशिलापट्ट था । गुणशील उद्यान के समीप बहुत-से अन्यतीथि रहते थे। यथा-कालोदायी, शैलोदायी इत्यादि, सातवें शतक के अन्यतीथिक उद्देशक वत् यावत् 'यह कैसे माना जा सकता है'-तक । " उस राजगृह नगर में धनाढय यावत् किसी से भी पराभूत नहीं होने वाला जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता, मद्रुक नाम का श्रमणोपासक रहता था। अन्यदा किसी दिन श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे । परिषद यावत् पर्युपासना करने लगी। श्रमण भगवान महावीर स्वामी का आगमन जान कर मद्रक श्रमणोपासक संतुष्ट हुआ। उसने स्नान किया यावत् अलंकृत हो कर अपने घर से निकला और पैदल चलता हुआ उन अन्यतीथिकों के समीप हो कर जाने लगा। उन अन्यतीथिकों ने मद्रुक श्रमणोपासक को जाता हुआ देखा और परस्पर एक-दूसरे से कहा-'हे देवानुप्रियो ! वह मद्रुक श्रमणोपासक जा रहा है और हमें वह अविदित एवं असंभव तत्त्व पूछना है, तो हे देवानुप्रियो ! हमें मद्रुक श्रमणोपासक से पूछना उचित है'-ऐसा विचार कर तथा परस्पर एक मत हो कर वे अन्यतीथिक मद्रुक श्रमणोपासक के निकट आये और मद्रक श्रमणोपासक से इस प्रकार पूछा For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १८ उ ७ मद्रुक श्रावक का अन्य तीर्थियों से वाद १५-' एवं खलु मद्दुया ! तव धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे णायते पंच अस्थिकाये पण्णवेड़ जहा सत्तमे सए अण्णउत्थिय उद्देसए जाव से कहमेयं मदुया ! एवं ' तए णं से मदुए समणोवासए ते अण्णउत्थिए एवं वयासी - 'जड़ कर्ज कज्जइ जाणामो पासामो, अहे कजण कज्जण जाणामो ण पासामो ।' तए णं ते अण्णउत्थिया मदुयं समणोवासयं एवं वयासी- 'केस णं तुमं मददुया ! समणोवासगाणं भवसि जे गं तुमं एयमट्ठे ण जाणसि ण पाससि ? २७२२ कठिन शब्दार्थ - कज्जं कज्जइ - कार्य करते । भावार्थ - १५ - हे मद्रुक ! तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र, पाँच अस्तिकायों की प्ररूपणा करते हैं इत्यादि, सातवें शतक के अन्य - तीर्थिक (दसवें ) उद्देशक वत् यावत् हे मद्रुक ! यह कैसे माना जाय ? मद्रुक श्रमणोपासक ने उन अन्यतीर्थिकों से कहा- 'वस्तु के कार्य से उसका अस्तित्व जाना और देखा जा सकता है। बिना कार्य के कारण दिखाई नहीं देता ।' अन्यतfर्थकों ने मद्रुक श्रमणोपासक को आक्षेपपूर्वक कहा - 'हे मद्रुक ! तू कैसा श्रमणोपासक है कि जो तू पंचास्तिकाय को जानता देखता नहीं है, फिर भी मानता है ? ' तणं से मदुसमणोवासए ते अण्णउत्थिए एवं क्यासी'अत्थि णं आउसो ! वाउयाए वाइ ?' हंता अस्थि, तुब्भे णं आउसो ! 'वाउयायस्स वायमाणस्स रूवं पासह ?' णो इणट्ठे समट्ठे । 'अत्थि णं आउसो ! घाणसहगया पोग्गला ?' हंता अस्थि, For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो सूत्र-श. १८ उ. ७ मद्रुक श्रावक का अन्य तीथियों से वाद २७२३ 'तुम्भे णं आउसो ! घाणसहगयाणं पोग्गलाणं रूपं पासह ?' णो इणढे समढे। ___ 'अत्थि णं आउसो ! अणिमहगए अगणिकाये ?' 'हंता अस्थि ।' तुम्भे णं आउसो ! अरणिसहगयस्स अगणिकायस्स रूवं पासह ?' णो इणटे समढे। अत्थि णं आउसो! समुदस्स पारगयाइं रूवाई ?"हंता अत्थि।' 'तुब्भे णं आउसो ! समुदस्स पारगयाइं रूवाइं पासह ?' णो इण8 समझे। ___ 'अत्थि णं आउसो ! देवलोगगयाइं रूवाई ?' 'हंता अस्थि ।' 'तुम्भे णं आउसो ! देवलोगगयाइं रूवाइं पासह ?' णो समढे इणटे । ___'एवामेव आउसो ! अहं वा तुम्भे वा अण्णो वा छउमत्थो जइ जो जं ण जाणइ ण पासइ तं सव्वं ण भवइ, एवं भे सुवहुए लोए ण भविस्सई' त्ति कटु ते अण्णउत्थिए एवं पडिहणइ, एवं पडिहणित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागन्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं जाव पज्जुवासइ । कठिन शब्दार्य-घाणसहगया-घ्राण सहगत (गन्ध युक्त), पडिहणइ-प्रतिहतनिरुत्तर। भावार्थ-मद्क श्रमणोपासक ने अन्यतीथिकों से कहा-'हे आयुष्मन् ! वायु बहती (प्रवाहित होती) है, क्या यह ठीक है ?' For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२४ भगवती सूत्र - श. १८ उ. ७ मद्रुक श्रावक का अन्य-तीर्थियों से वाद उत्तर- 'हां, यह ठीक है ।' प्रश्न- 'हे आयुष्मन् ! बहती हुई वायु का रूप तुम देखते हो ?" उत्तर - त्रायु का रूप दिखाई नहीं देता । प्रश्न - ' हे आयुष्मन् ! गन्ध गुण वाले पुद्गल हैं ?" उत्तर- 'हां, हैं' । प्रश्न- 'हे आयुष्मन् ! तुम उन गन्ध-गुण वाले पुद्गलों के रूप को देखते हो ? उत्तर - यह अर्थ समर्थ नहीं । प्रश्न - 'हे आयुष्मन् ! क्या अरणी की लकड़ी में अग्नि है ?' उत्तर- 'हां, है ।' प्रश्न - ' हे आयुष्मन् ! क्या तुम उस अरणी को लकड़ी में रही हुई अग्नि का रूप देखते हो ?" उत्तर- 'यह अर्थ समर्थ नहीं ।' प्रश्न - ' हे आयुष्मन् ! समुद्र के उस पार पदार्थ हैं ? ". उत्तर- 'हाँ, हैं ।' प्रश्न न - 'हे आयुष्मन् ! तुम समुद्र के उस पार रहे हुए पदार्थों को देखते हो ?' उत्तर- 'यह अर्थ समर्थ नहीं ।' प्रश्न- ' - 'हे आयुष्मन् ! क्या देवलोकों में रहे हुए पदार्थ हैं ?" उत्तर- 'हां, हैं ।' प्रश्न - ' हे आयुष्मन् ! क्या तुम देवलोकों में रहे हुए पदार्थों को देखते हो ?' उत्तर- 'यह अर्थ समर्थ नहीं ।' 'हे आयुष्मन् ! में, तुम या कोई भी छद्मस्थ मनुष्य, जिन पदार्थो को नहीं जानते, नहीं देखते, उन सभी का अस्तित्व नहीं माना जाय, मान्यतानुसार तो लोक के बहुत से पदार्थों का अभाव हो जायगा ?' यों कह तो तुम्हारी For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १८ उ. ७ मद्रुक श्रावक का अन्य-तीथियों से वाद २७२५ कर मद्रुक श्रमणोपासक ने उन अन्यतीथियों का पराभव किया और निरुत्तर किया। उन्हें निरुत्तर कर के वह गुणशील उद्यान में श्रमग भगवान महावीर स्वामी की सेवा में आया और पांच प्रकार के अभिगम से श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समीप जा कर यावत् पर्युपासना करने लगा। १६-'मदुयाई' ! समणे भगवं महावीरे मदुयं समणो. वासगं एवं वयासी-मुठ्ठ णं मद्रुया ! तुमं ते अण्णउत्थिर एवं वयासी-माहू णं मददुया ! तुमं ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-जे णं मद्या ! अटुं वा हेरं वा पसिणं वा वागरणं वा अण्णायं अदिटुं अस्मुयं अमुयं अविण्णायं बहुजणमझे आघवेइ पण्णवेइ जाव उवदंमेड, से णं अरिहंताणं आसायणाए वट्टइ. अरिहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स आसायणाए वट्टइ, केवलीणं आसायणाए वट्टइ, केवलिपण्णत्तरस धम्मस्स आसायणाए वट्टइ, तं सुट्ठ णं तुम मद्या ! ते अण्णउत्थिप एवं वयासी, साहू णं तुमं मया ! जाव एवं वयासी।' तए णं मद्दुए समणोवासए समणेण भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठ-तुढे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता णचा. सणे जाव पज्जुवासइ । तए णं समणे भगवं महावीरे मदूदुयस्स समणोवासगस्स तीसे य जाव परिसा पडिगया । मदुए समणोवासए समणस्स भगवा महावीरस्स जाव णिसम्म हट-तुटे पसिणाई पुन्छइ, प० २ पुच्छित्ता अट्ठाई परियाइइ, अ० २ परियाइत्ता उठाए For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२६ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ७ मद्रुक श्रावक का अन्य तीथियों से वाद उठेइ, उ० २ उद्वेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता जाव पडिगए। कठिन शब्दार्थ-अण्णायं-अज्ञात, अमयं-अमान्य, अविस्मृत। भावार्थ-१६-'हे मद्रक ! इस प्रकार सम्बोधित कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने कहा-'हे मद्रुक ! तुमने उन अन्यतीर्थियों को ठीक उत्तर दिया है । हे मद्रुक ! तुमने उन अन्यतीथियों को यथार्थ उत्तर दिया है । हे मद्रक ! जो व्यक्ति बिना जाने, बिना देखे और बिना सुने किसी अदष्ट, अश्रुत, असम्मत, अविज्ञात अर्थ हेतु और प्रश्न का उत्तर बहुत-से मनुष्यों के बीच में कहता है, जतलाता है, यावत् दर्शाता है, वह अरिहन्तों की, अरिहन्त- कथित धर्म की, केवलज्ञानियों की और केवलिप्ररूपित धर्म की आशातना करता है । हे मद्रुक ! तुमने अन्यतीथियों को यथार्थ उत्तर दिया है।' - भगवान् के कथन को सुन कर मद्रुक श्रमणोपासक हृष्ट-तुष्ट हुआ और श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर के, न अति दूर एवं न अति निकट यावत् पर्युपासना करने लगा । श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने. मद्रुक श्रमणोपासक और उस परिषद् को धर्म-कथा, कही, यावत् परिषद् चली गई। उस मद्रुक श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से यावत् धर्मोपदेश सुना, प्रश्न पूछे, अर्थ जाने और खड़े हो कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार कर के लौट गया। विवेचन-राजगृह नगर के बाहर गुणशील उद्यान था । उसके समीप कालोदायी, शैलोदायी, शैवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्यपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती नामक अन्यतीथि रहते थे । एक दिन वे सब एक साथ हुए धर्म-चर्चा कर रहे थे कि-ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर, पांच अस्तिकाय की प्ररूपणा करते हैं । यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्ति काय, आकाशास्ति काय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय । इनमें से जीवास्तिकाय सचेतन है. शेष चार अचेतन हैं । इनमें से पुद्गलास्तिकाय रूपी है, शेष चार अरूपी हैं-यह श्रमण भगवान् महावीर का मत है । किन्तु यह अदृश्य एवं असम्भव है । इसे सचेतनाचेतन आदि रूप से कैसे माना जा सकता है ?' For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १८ उ ७ मद्रुक की मुक्ति का निर्णय २७२७ उसी नगर में मदुक नामक एक धनाढ्य श्रावक रहता था । भगवान् महावीर स्वामी का आगमन जान कर वह भगवान् के दर्शनार्थ जाने लगा। उसे उन अन्यतथियों ने देखा और उसके समीप आ कर अपनी चर्चा का विषय सुना कर पूछा- 'तुम्हारे धर्मोपदेशक, धर्माचार्य श्रमण ज्ञातपुत्र, धर्मास्तिकायादि पाँच अस्तिकाय की प्ररूपणा करते हैं, किन्तु यह अदृश्य एवं असम्भव मत कैसे माना जा सकता है ? क्या तुम धर्मास्तिकायादि को जानते-देखते हो ? मद्रुक ने उनको उत्तर दिया कि कोई पदार्थ, कुछ कार्य करे तो हम उसे उम कार्य के द्वारा जान सकते हैं । जो कुछ भी कार्य नहीं करे और निष्क्रिय हो, तो उसे नहीं जान सकते। मद्रुक की यह बात सुन कर अन्यतीर्थियों ने उपालम्भपूर्वक कहा - 'तुम श्रमणोपासक हुए और तुम्हें धर्मास्तिकायादि का भी ज्ञान नहीं है ?" मद्रुक ' ने उन अन्यतीर्थियों को उत्तर देते हुए कहा- 'वायु बहती है, यह बराबर है, परन्तु क्या तुम वायु को जान देख सकते हो ? गन्ध वाले पुद्गल हैं, अरणी में अग्नि है। समुद्र के उस पार अनेक पदार्थ हैं, देवलोक में अनेक पदार्थ हैं, क्या तुम उन सभी को जानते-देखते हो ?' अन्यतीर्थियों ने कहा कि - 'हे मद्रक ! हम इन्हें नहीं जानते ।' तब मद्रुक ने कहा- 'छद्मस्थ मनुष्य जिन पदार्थों को नहीं जानता, नहीं देखता है, यदि उनको नहीं माना जाय, तो संसार में बहुत से पदार्थों का अभाव हो जायगा । इसलिये छद्मस्थ धर्मास्तिकायादि को नहीं जानता, नहीं देखता है, इतने मात्र से उनका अभाव सिद्ध नहीं हो जाता ।' ऐसा कह कर मद्रुक ने उनको निरुत्तर कर दिया । अन्य-तीर्थियों को निरुत्तर कर के मद्रुक भगवान् की सेवा में गया, यावत् भगवान् ने कहा- ' 'हे मद्रुक " तुमने अन्यतीर्थियों को ठीक और यथार्थ उत्तर दिया है।' मदुक की मुक्ति का निर्णय १७ प्रश्न- 'भंते!' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदड़ णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - पभूणं भंते ! मद्दुए समणोवासर देवाणुप्पियाणं अतियं जाव पव्वत्तए ? For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२८ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ७ वैक्रिय कृत हजारों शरीर में एक आत्मा १७ उत्तर-णो इणट्टे समझे, एवं जहेव संखे तहेव अरूणाभे जाप अंतं काहिइ । ___ भावार्थ-१७ प्रश्न-'हे भगवन् !' ऐसा कह कर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-'हे भगवन् ! क्या मद्रुक श्रमणोपासक आप देवानुप्रिय के समीप यावत् प्रव्रज्या लेने में समर्थ है ?' १७ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है इत्यादि, बारहवें शतक । के प्रथम उद्देशक में शंख श्रमणोपासक के समान यावत् अरुणाभ विमान में देव पने उत्पन्न हो कर यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा। वैक्रिय कृत हजारों शरीर में एक आत्मा १८ प्रश्न-देवे णं भंते ! महड्ढिए जाव महेसक्खे रूवसहस्सं विउवित्ता पभू अण्णमण्णेणं सदिध संगामित्तए ? १८ उत्तर-हंता पभू। १९ प्रश्न-ताओ णं भंते ! बोंदीओ किं एगजीवफुडाओ अणेगजीवफुडाओ? __१९ उत्तर-गोयमा ! एगजीवफुडाओ, णो अणेगजीवफुडाओ। २० प्रश्न-ते णं भंते ! तासि णं बोंदीणं अंतरा किं एगजीवफुडा अणेगजीवफुडा ? २० उत्तर-गोयमा ! एगजीवफुडा, णो अणेगजीवफुडा । For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १८ उ. ७ देवासुर संग्राम और उनके शस्त्र २१ प्रश्न - पुरिसे णं भंते ! अंतरे णं हत्थेण वा० एवं जहा अट्टमस तइए उद्देस जाव णो खलु तत्थ सत्थं कमइ । कठिन शब्दार्थ - बोंदि-शरीर, एगजीवफुडाओ-एक जीव से सम्बन्धित । भावार्थ - १८ प्रश्न - हे भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव हजार रूपों की विकुर्वणा कर के परस्पर संग्राम करने में समर्थ है ? १८ उत्तर - हाँ, गौतम ! समर्थ है। १९ प्रश्न - हे भगवन् ! वैक्रिय किये हुए वे शरीर, क्या एक जीव के साथ सम्बन्धित होते है या अनेक जीवों के साथ सम्बन्धित होते हैं ? १९ उत्तर - हे गौतम ! वे सभी शरीर एक ही जीव के साथ सम्बन्धित होते हैं, अनेक जीवों के साथ नहीं । २० प्रश्न - हे भगवन् ! उन शरीरों के बीच का अन्तराल-भाग क्या एक जीव से सम्बन्धित है या अनेक जीवों से ? २७२९ २० उत्तर - हे गौतम ! उन शरीरों के बीच का अन्तराल- भाग एक 'जीव से सम्बन्धित है, अनेक जीवों से नहीं । २१ प्रश्न - हे भगवन् ! कोई पुरुष, उन शरीरों के अन्तरालों को अपने हाथ या पाँव से स्पर्श करता हुआ यावत् तीक्ष्ण शस्त्र से छेदता हुआ कुछ भी पीड़ा उत्पन्न कर सकता है ? २१ उत्तर - हे गौतम ! आठवें शतक के तीसरे उद्देशक वत्, यावत् उन पर शस्त्र नहीं लग सकता । देवासुर संग्राम और उनके शस्त्र २२ प्रश्न - अस्थि णं भंते ! देवासुराणं संगामे दे० २१ २२ उत्तर - हंता अस्थि । For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३० भगवती सूत्र-श. १८ उ. ७ देवासुर संग्राम और उनके शस्त्र २३ प्रश्न-देवासुरेसु णं भंते ! संगामेसु वट्टमाणेसु किणं तेसिं देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमइ ? २३ उत्तर-गोयमा ! जणं ते देवा तणं वा कटं वा पत्तं वा सस्करं वा परामुसति तं णं तेसिं देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमइ । २४ प्रश्न-जहेव देवाणं तहेव असुरकुमाराणं ? २४ उत्तर-णो इणठे समठे, असुरकुमाराणं देवाणं णिच्चं विउविया पहरणरयणा पण्णत्ता । कठिन शब्दार्थ-पहरणरयणत्ताए-प्रहरण-शस्त्र-रत्न के रूप में। भावार्थ-२२ प्रश्न-हे भगवन् ! देव और असुरों में संग्राम होता है ? २२ उत्तर-हाँ, गौतम ! होता है। २३ प्रश्न-हे भगवन् ! जब देव और असुरों में संग्राम होता है, तब उन देवों के कौनसी वस्तु शस्त्र रूप से परिणत होती है ? २३ उत्तर-हे गौतम ! तिनका, लकड़ी, पत्ता या कंकर आदि जिस वस्तु को वे स्पर्श करते हैं, वह उन देवों के शस्त्र रूप में परिणत हो जाती है। २४ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस प्रकार देवों के लिए कोई भी वस्तु स्पर्श मात्र से शस्त्र रूप में परिणत हो जाती है, उसी प्रकार असुरों के भी होती है ? ___ २४ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। असुरकुमार देवों के तो सदा बैंक्रिय किये हुए शस्त्र-रत्न होते हैं। विवेचन-यहाँ देव शब्द से ज्योतिषी और वैमानिक देवों का ग्रहण है और असुर शब्द से भवनपति और वाणव्यन्तर देवों का ग्रहण है । देव और असुरों के संग्राम में देवों के लिये तण आदि भी प्रहरण (शस्त्र) रूप हो जाते हैं । यह उनके अतिशय पुण्य का प्रभाव है । असुरकुमार उन देवों की अपेक्षा अल्प पुण्य वाले हैं । इसलिये उनके शस्त्र तो नित्य विकुक्ति ही होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १८ उ. ७ देवों के कर्मक्षय का काल २७३१ २५ प्रश्न-देवे णं भते ! महड्ढिए जाव महेमरखे पभू लवण. समुदं अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छित्तए ? २५ उत्तर-हंता पभू । २६ प्रश्न-देवे णं भंते ! महड्ढिए एवं पाइसंड दी जाव ? २६ उत्तर-हंता पभू, एवं जाव रुयगवरं दीवं जाव हंता पभू, ते णं परं वीइवएजा, णो चेव णं अणुपरियट्टेजा। भावार्थ-२५ प्रश्न-हे भगवन् ! महद्धिक यावत महासुखी देव, लवण समुद्र के चारों ओर चक्कर लगा कर शीघ्र आने में समर्थ है ? २५ उत्तर-हाँ, गौतम ! समर्थ है। २६ प्रश्न-हे भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुखी देव, धातकी खण्ड द्वीप के चारों ओर चक्कर लगा कर शीघ्र आने में समर्थ है ? २६ उत्तर-हां, गौतम ! समर्थ है। प्रश्न-हे भगवन् ! इसी प्रकार यावत् रूचकवर द्वीप तक चारों ओर चक्कर लगा कर शीघ्र आने में समर्थ है ? उत्तर-हां, गौतम ! समर्थ है । इसके आगे के द्वीप-समुद्रों तक देव जाता है, किन्तु उसके चारों ओर चक्कर नहीं लगाता। विवेचन-रुचकवर द्वीप तक देव, उन द्वाप-समुद्रों के चारों ओर चक्कर लगा सकते हैं, किन्तु इससे आगे के द्वीप-समद्रों में वे किसी एक ओर से जाते हैं, उनके चारों ओर चक्कर नहीं लगाते, क्योंकि तथाविध प्रयोजन का अभाव हैं। देवों के कर्मक्षय का काल २७ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! देवा जे अणंते कम्मसे जहण्णेणं For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३२ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ७ देवों के कर्मक्षय का काल एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा, उक्कोसेणं पंचहिं वाससएहिं खवयंति ? २७ उत्तर-हंता अस्थि । २८ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! ते देवा जे अणते कम्मसे जहण्णेणं एक्केण षा दोहिं वा तीहिं वा, उक्कोसेणं पंचहिं वाससहस्सेहि खवयंति ? - २८ उत्तर-हंता अस्थि । २९ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! ते देवा जे अणंते कम्मसे जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा, उक्कोसेणं पंचहिं वाससयसहस्सेहिं खवयंति ? २९ उत्तर-हंता अस्थि । कठिन शब्दार्थ-कम्मसे-कौश, खवयंति-क्षय करे। भावार्थ-२७ प्रश्न-हे भगवन् ! इस प्रकार के देव भी हैं, जो अनन्त (शुभ प्रकृति रूप) कर्माशों को जघन्य एक सौ वर्ष, दो सौ, तीन सौ और उत्कृष्ट पांच सौ वर्षों में क्षय करते हैं ? २७ उत्तर-हाँ, गौतम ! ऐसे देव हैं। २८ प्रश्न-हे भगवन ! ऐसे देव भी हैं कि जो अनन्त कर्माशों को जघन्य एक हजार, दो हजार, तीन हजार और उत्कृष्ट पांच हजार वर्षों में क्षय करते हैं ? २८ उत्तर-हां, गौतम ! ऐसे देव हैं। २९ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसे देव हैं, जो अन्त कर्माशों को जघन्य एक लाख, दो लाख, तीन लाख वर्षों में और उत्कृष्ट पांच लाख वर्षों में क्षय करते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १८ उ. ७ देवों के कर्मक्षय का काल २९ उत्तर - हाँ, गौतम ! ऐमे देव हैं । ३० प्रश्न- कयरे णं भंते! ते देवा जे अनंते कम्मंसे जहणेणं एक्केण वा जाव पंचहिं वाससरहिं खयंति ? कयरे णं भंते! ते देवा जाव पंचहिं वामहस्सेहिं खवयंति ? कयरे णं भंते ! ते देवा जाव पंचहिं वासस्य महस्सेहिं खवयंति ? २७३३ ३० उत्तर - गोयमा ! वाणमंतरा देवा अनंते कम्मंसे एगेणं वास सरणं खवयंति, असुरिंदधज्जिया भवणवासी देवा अणते कम्मं से दोहिं वासमपहिं खयंति, अरकुमाराणं देवा अनंते कम्मंसे तीहिं वाससाहिं खयंति, गहणक्खत्त-तारारूवा जोइसिया देवा अनंते कम्मंसे चउहिं वास० जाव खवयंति, चंदिम सूरिया जोइसिंदा जोइसरायाणो अनंते कम्मंसे पंचहिं वाससहिं खवयंति । भावार्थ - ३० प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसे कौन-से देव हैं जो अनन्त कर्माशों को जघन्य एक सौ वर्ष यावत् पाँच सौ वर्षों में खपाते हैं ? हे भगवन् ! ऐसे कौन-से देव हैं, जो यावत् पाँच हजार वर्षों में खपाते हैं ? हे भगवन् ! ऐसे कौन-से देव हैं, जो यावत् पाँच लाख वर्षों में क्षय करते हैं ? ३० उत्तर - हे गौतम! वाणव्यन्तर देव अनन्त कर्माशों को एक सौ वर्षों में क्षय करते हैं, असुरेन्द्र को छोड़ कर शेष भवनपति देव दो सौ वर्षों में, असुरकुमार देव तीन सौ वर्षों में, ग्रह, नक्षत्र और तारा रूप ज्योतिषी देव चार सौ वर्षों में, ज्योतिषी इन्द्र, ज्योतिषीराज चन्द्र ओर सूर्य पाँच सौ वर्षों में, खपाते हैं । For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३४ भगवती सूत्र - श. १८ उ. ७ देवों के कर्मक्षय का काल सोहम्मी-साणगा देवा अनंते कम्मंसे एगेणं वाससहरसेणं जाव खवयंति, सणकुमार- माहिंदगा देवा अनंते कम्मंसे दोहिं वासस हस्से हिं खवयंति, एवं एएणं अभिलावेणं बंभलोग लंतगा देवा अनंते कम्मं से तीहिं वासमहस्सेहिं खवयंति, महासुक्क सहस्सारगा देवा अनंते चउहिं वाससहस्सेहिं, आणय- पाणय- आरण-अच्चुयगा देवा अनंते पंचहिं वास सहस्ते हि खवयंति, हिट्टिमगेविज्जगा देवा अनंते कम्मंसे एगेणं वाससयस हस्सेणं ववयंति, मज्झिमगेवेजगा देवा अनंते दोहिं वासस्यसहस्सेहिं जाव खवयंति, उवरिमगेवेज्जगा देवा अनंते कम्मंसे तिहिं वास० जाव खवयंति, विजय वेजयंत- जयंत अपराजियगा देवा अनंते चउहिं वास० जाव खवयंति, सञ्वसिद्धगा देवा अनंते कम्मंसे पंचहिं वाससयसहस्सेहिं खवयंति, एएणणं गोयमा ते देवा जे अनंते कम्मंसे जहणेण एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं पंचहिं बाससर हिं खवयंति, एएणं गोयमा ! ते देवा जाव पंचहिं वाससहस्सेहिं खवयंति, एएणणं गोयमा ! ते देवा जाव पंचहिं वाससयसहस्सेहिं खवयंति । * सेवं भंते! सेवं भंते ! त्ति ॥ अट्ठारसमे स सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ- सौधर्म और ईशान कल्प के देव, अनन्त कर्माशों को एक हजार वर्षो में, सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के देव दो हजार वर्षों में, इस प्रकार इस For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १८. ७ देवों में कर्मक्षय का काल अभिलाप से ब्रह्मदेवलोक और लान्तक कल्प के देव, तीन हजार वर्षों में, महाशुक्र और सहस्रार कल्प के देव चार हजार वर्षों में, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्प के देव पाँच हजार वर्षों में, अधस्तन ग्रैवेयक के देव एक लाख वर्षों में, मध्यम ग्रैवेयक के देव दो लाख वर्षों में, उपरिम ग्रैवेयक के देव तीन लाख वर्षों में, विजय, वैजयंत, जयन्त और अपराजित के देव चार लाख वर्षो में और सर्वार्थसिद्ध के देव पाँच लाख वर्षों में अनन्त कर्माशों को क्षय करते हैं। इसलिये हे गौतम! ऐसे देव हैं जो अनन्त कर्माशों को जघन्य एक सौ, दो सौ या तीन सौ वर्षों में यावत् पाँच लाख वर्षों में अनन्त कर्माशों को क्षय करते हैं । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । २७३५ विवेचन-- देवों के पुण्य कर्म पुद्गल प्रकृष्ट, प्रकृष्टतर और प्रकृष्टतम रस वाले होते हैं । अतः यहाँ अनन्त कर्माशों को खपाने का जो क्रम बतलाया गया है, वह क्रमश प्रकृष्ट, प्रकृष्टतर और प्रकृष्टतम रस वाले समझने चाहिये । || अठारहवें शतक का सातवां उद्देशक सम्पूर्ण || For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु के पाँव से कुर्कुटादि मरे तो ? १ प्रश्न - रायगिहे जाव एवं वयासी - अणगारस्स णं भंते ! भावियपणो पुरओ दुहओ जुगमायाए पेहाए रीयं रीयमाणस्स पायस्स अहे कुक्कुडपोते वा वट्टापोते वा कुलिंगच्छाए वा परियाबज्जेज्जा, तस्स णं भंते । किं ईरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ ? १ उत्तर - गोयमा ! अणगारस्स णं भावियप्पणो जाव तस्स णं ईरियावहिया किरिया कज्जइ णो संपराइया किरिया कज्जइ । शतक १५ उद्देशक प्रश्न - से केणट्ठेनं भंते! एवं वुच्चइ - जहा सत्तमसए संबुडुद्देसए जाव अट्टो णिक्खित्तो | 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' जाव विहरइ । तए णं समणे भगवं महावीरे बहिया जाव विहरड़ । कठिन शब्दार्थ - पेहाए - देखते हुए, जुगमायाए - युग प्रमाण - यूपप्रमाण, रीयं रीयमाणस्स - गमन करते-चलते, कुक्कुडपोयए-मुर्गी का बच्चा, वट्टापोयए- बतख नामक पक्षी का बच्चा, कुलिंगच्छाए - चींटी जैसा सूक्ष्म जीव पायस्स अहे - पाँव के नीचे, परियावज्जेज्जा - मर जाय । भावार्थ - १ प्रश्न - राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा -- For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ८ अन्यतीथियों से गौतम स्वामी का वाद २७३७ 'हे भगवन् ! सामने और दोनों ओर युगमात्र (धूसरा प्रमाण) भूमि को देख कर गमन करते हुए भावितात्मा अनगार के पाँव के नीचे मुर्गो का बच्चा, बतख का बच्चा या कुलिंगच्छाय (चींटी जैसा सूक्ष्म जन्तु) आ कर मर जाय, तो हे भगवन् ! उस अनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है या साम्परायिकी क्रिया लगती है ? १ उत्तर-हे गौतम ! उस भावितात्मा अनगार कों यावत् ऐपिथिको क्रिया लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती। प्रश्न-हे भगवन् ! उसे यावत् साम्परायिकी क्रिया क्यों नहीं लगती ? उत्तर-हे गौतम ! सातवें शतक के प्रथम संवत उद्देशक के अनुसार जानना चाहिये, यावत् अर्थ का निक्षेप (निगमन) करना चाहिये। _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर यावत् विचरते हैं। तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी बाहर के जनपद में विचरते हैं। विवेचन-जिस भावितात्मा अनगार के क्रोधादि कषाय नष्ट हो गया है, उसे ऐर्यापथिको क्रिया ही लगती हैं, साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती । क्योंकि साम्परायिकी क्रिया सकषायी जीवों को ही लगती है अकषायी को नहीं । 'अन्यतीर्थियों से गौतम स्वामी का वाद २-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पुढविसिलापट्टए, तस्स णं गुणसिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते वहवे अण्णउत्थिया परिवसंति । तए णं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे, जाव परिसा पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे जाव उड्ढंजाणू जाव विहरइ। For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३८ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ८ अन्यतीथियों से गौतम स्वामी का वाद तए णं ते अण्णउत्थिया जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छंति, उवा. गच्छित्ता भगवं गोयमं एवं वयासी-'तुम्भे णं अजो ! तिविहं तिविहेणं असंजया जाव एगंतवाला यावि भवह ।' ३-तए णं भगवं गोयमे अण्णउत्थिए एवं वयासी-'से केणं कारणेणं अजो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं असंजया जाव एगंतबाला यावि भवामो ।' तए णं ते अण्णउत्थिया भगवं गोयमं एवं वयासी'तुम्भे णं अजो ! रीयं रीयमाणा पाणे पेच्चेह, अभिहणह, जाव उवदवेह, तए णं तुझे पाणे पेञ्चेमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहंतिविहेणं जाव एगंतवाला यावि भवह ।' कठिन शब्दार्थ-पेच्चेह-दबाते हुए, कुचलते हुए। भावार्थ-२-उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर, यावत् पृथ्वीशिलापट्ट था। उस गुणशील उद्यान के समीप बहुत-से अन्यतीथिक रहते थे। अन्यदा किसी समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे, यावत् परिषद् वन्दना कर चली गई । उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति अनगार यावत् ऊर्ध्व जानु (दोनों घुटने ऊंचे कर के)तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। उस समय वे अन्यतीथिक गौतम स्वामी के समीप आ कर कहने लगे कि-'हे आर्यों ! तुम त्रिविध-त्रिविध (तीन करण, तीन योग से) असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो।' ३-अन्य यूथिकों का आक्षेप सुन कर गौतम स्वामी ने कहा-'हे आर्यो ! किस कारण हम विविध-त्रिविध असंयत यावत् एकान्त बाल हैं ? तब अन्यतीथिकों ने कहा-'हे आर्य ! गमन करते हुए तुम जीवों को आक्रान्त For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवतौ सूत्र-श. १८ उ ८ अन्यनीथियों से गौतम स्वामी का वाद २७३९ करते हो (दबाते हो) मारते हो यावत् उपद्रव करते हो । इसलिये प्राणियों को आक्रान्त यावत् उपद्रव करते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत यान्त् एकान्त बाल हो। ४-तए णं भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-णो खलु अजो ! अम्हे रीयं रीयमाणा पाणे पेच्चेमो जाव उवद्दवेमो, अम्हे णं अजो ! रीयं रीयमाणा कायं च जोयं च रीयं च पडुच दिस्सा दिस्सा पदिस्सा पदिस्सा वयामो, तए णं अम्हे दिस्सा दिस्सा वयमाणा पदिस्मा पदिस्सा वयमाणा णो पाणे पेच्चेमो जाव णो उवद्दवेमो, तए णं अम्हे पाणे अपेच्चेमाणा जाव अणोडवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंतपंडिया यावि भवामो, तुम्भे णं अजो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवह ।' ___ कठिन शब्दार्थ-दिस्सा दिस्सा--देख-देख कर, पदिस्सा पदिस्सा-विशेष रूप से देख-देख कर। भावार्थ-४ इस पर से गौतम स्वामी ने उन अन्यतीथियों से कहा-'हे आर्यों ! हम गमन करते हुए प्राणियों को आक्रान्त नहीं करते यावत् पीड़ा नहीं पहुंचाते । हम गमन करते हुए काययोग (संयम योग) और सूक्ष्मतापूर्वक (चपलता आदि रहित) देख-देख कर चलते हैं। इस प्रकार चलते हुए हम प्राणियों को आक्रान्त नहीं करते यावत् पीड़ा नहीं पहुंचाते। इस प्रकार प्राणियों को आक्रान्त नहीं करते हुए यावत् पीड़ित नहीं करते हुए हम त्रिविधत्रिविध यावत् एकान्त पण्डित हैं। हे आर्यों ! तुम स्वयं ही त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो । For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४० भगवती सूत्र - श. १८ उ. ८ अन्यतीर्थियों से गोतम स्वामी का वाद ५- तर ते अण्णउत्थिया भगवं गोयमं एवं वयासी- 'केणं कारणेणं अजो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव भवामो ।' तप णं भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं वयासी तुब्भे णं अज्जो ! रीयं रीयमाणा पाणे पेच्चेह, जाव उद्दवेह, तए णं तुब्भे पाणे पेच्चमाणा जाव उद्यमाणा तिविहं जाव एगंतवाला यावि भवह ।' तए णं भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं पडिहणइ, पडिणित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंद णमंस, वंदित्ता णमंसित्ता पचास जाव पज्जुवासइ । भावार्थ - ५ - अन्यतीर्थियों ने गौतम स्वामी का कथन सुन कर इस प्रकार कहा - 'हे आर्यों! हम किस प्रकार त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हैं ?' तब गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थियों से कहा- 'हे आर्यों ! चलते हुए तुम प्राणियों को आक्रान्त करते हो यावत् पीड़ित करते हो । जीवों को आक्रान्त करते हुए यावत् पीड़ित करते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो ।' इस प्रकार गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थियों को निरुत्तर किया । इसके पश्चात् गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में आ कर उन्हें वन्दना नमस्कार कर के न अति दूर, न अति निकट यावत् पर्युपासना करने लगे । विवेचन - श्रमण निर्ग्रन्थ का शरीर चलने में समर्थ हो, तभी चलते हैं। क्योंकि वे नंगे पाँव विहार करते हैं, गाड़ी, घोड़ा आदि वाहन का वे उपयोग नहीं करते । वे योग के प्रयोजन से गमन करते हैं अर्थात् ज्ञान ग्रहण आदि कोई कारण हो या गोचरी आदि जाना हो, तभी चलते हैं, बिना कारण नहीं चलते। वे चपलता और शीघ्रता से रहित ईर्यापथ शोधनपूर्वक अर्थात् सूक्ष्मतापूर्वक देख कर चलते हैं । For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ८ भ. महावीर द्वारा गौतम स्वामी की प्रशंसा २७४१ भ. महावीर द्वारा गौतम स्वामी की प्रशंसा ६-गोयमाई !' समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी-'मुठु णं तुमं गोयमा ! ते अण्णउत्थिय एवं वयासी, साहु णं तुमं गोयमा ! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी, अस्थि णं गोयमा ! ममं वहवे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्था, जे णं णो पभू एयं वागरणं वागरेत्तए, जहा णं तुमं, तं सुठ्ठ णं तुम गोयमा ! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी, साहु णं तुमं गोयमा ! ते अण्ण. उथिए एवं वयासी । तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समागे हत्तुढे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी भावार्थ-६-'हे गौतम !' इस प्रकार सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी से कहा-'हे गौतम ! तुमने उन अन्यतीथियों को ठीक कहा, हे गौतम ! तुमने उन अन्यतीथियों को यथार्थ कहा । हे गौतम! मेरे बहुत-से शिष्य श्रमण-निर्ग्रन्थ छद्मस्थ हैं । जो तुम्हारे समान उत्तर देने में समर्थ नहीं है। इसलिये हे गौतम ! तुमने उन अन्यतीर्थियों को ठीक कहा । हे गौतम ! तुमने उन अन्यतीथियों को बहुत ठीक कहा ।' जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने ऐसा कहा, तब हृष्ट-तुष्ट हो कर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार पूछा For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४२ भगवती मूत्र-श. १८ उ ८ परमाणु आदि जानने की भजना परमाणु आदि जानने की भजना ७ प्रश्न-छउमत्थे णं भंते ! मणूसे परमाणुपोग्गलं किं जाणइ पासइ, उदाहु ण जाणइ ण पासइ ? ___७ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए जाणइ ण पासइ, अस्थेगइए ण जाणइ ण पासइ। ८ प्रश्न-उमत्थे णं भंते ! मणूसे दुपएसियं खधं किं जाणइ पासइ ? ८ उत्तर-एवं चेव । एवं जाव असंखेजपएसियं । ९ प्रश्न-छउमत्थे णं भंते ! मणूसे अणंतपएसियं खंध किं-पुच्छा। ९ उत्तर-गोयमा ! १ अत्थेगइए जाणइ पासइ, २ अत्थेगइए जाणइ ण पासइ, ३ अत्थेगइए ण जाणइ पासइ, ४ अत्थेगइए ण जाणइ ण पासड़। १० प्रश्न-आहोहिए णं भंते ! मणुस्से परमाणुपोग्गलं० ? १० उत्तर-जहा छउमत्थे एवं आहोहिए वि जाव अणंतपएसियं । ११ प्रश्न-परमाहोहिए णे भंते ! मणूसे परमाणुपोग्गले जे समयं जाणइ तं समयं पासइ, जं समयं पासइ तं समयं जाणइ ? ११ उत्तर-णो इणठे समठे । प्रश्न-से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'परमाहोहिए णं मणुसे For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ८ परमाणु आदि जानने की भजना २७४३ परमाणुपोग्गलं जं समयं जाणइ णो तं समयं पासई, जं समयं पासइ णो तं समयं जाणइ ?' उत्तर-गोयमा! सागारे से णाणे भवइ, अणगारे से दंसणे भवइ, से तेणट्टेणं जाव णो तं समयं जाणइ, एवं जाव अणंतपएसियं । १२ प्रश्न-केवली णं भंते ! मणुस्से परमाणुपोग्गलं० ? . १२ उत्तर-जहा-परमाहोहिए तहा केवली वि जाव अणंतपए. सियं । * सेवं भंते ! से भंते ! त्ति के ॥ अट्ठारसमे सए अट्ठमो उद्देसो समत्तो ।। भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्य परमाणु-पुद्गल को जानता और देखता है ? या नहीं जानता, नहीं देखता है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! कोई जानता है, किन्तु देखता नहीं और कोई जानता भी नहीं और देखता भी नहीं। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य द्विप्रदेशी स्कन्ध को जानतादेखता है ? या नहीं जानता नहीं देखता है ? उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध तक जानना चाहिये। . ९ प्रश्न-हे भगवन् ! छद्स्थ मनुष्य, अनन्त प्रदेशी स्कन्ध को जानता हैं, इत्यादि प्रश्न ? ९ उत्तर-हे गौतम ! १-कोई जानता है और देखता है। २-कोई जानता है परन्तु देखता नहीं। ३-कोई जानता नहीं, किन्तु देखता है और ४-कोई जानता भी नहीं और देखता भी नहीं। For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४४ भगवती सूत्र - श. १८ उ. ८ परमाणु आदि जानने की भजना १० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या आधोऽवधिक ( अवधिज्ञानी) मनुष्य, परमाणु- पुद्गल को जानता है, इत्यादि प्रश्न ? १० उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार छद्मस्थ मनुष्य का कथन किया है, उसी प्रकार आधोsवधिक का भी समझो। इस प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक कहना चाहिये । ११ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या परमावधिज्ञानी मनुष्य, परमाणु-पुद्गल को जिस समय जानता है, उसी समय देखता है ? और जिस समय देखता है, उस समय जानता है ? ११ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि परमावधिज्ञानी मनुष्य परमाणु- पुद्गल को जिस समय जानता है, उस समय देखता नहीं और जिस समय देखता है, उस समय जानता नहीं ? उत्तर - हे गौतम ! परमावधिज्ञानी का ज्ञान साकार ( विशेष ग्राहक ) होता है और दर्शन अनाकार ( सामान्य ग्राहक ) होता है । इसलिये ऐसा कहा गया है कि यावत् जिस समय देखता है, उस समय जानता नहीं। इस प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक जानना चाहिये । १२ प्रश्न - हे भगवन् ! केवलज्ञानी परमाणु- पुद्गल को जिस समय जानता है, उस समय देखता है, इत्यादि प्रश्न ? १२ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार परमावधिज्ञानी के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार केवलज्ञानी के लिए भी कहना चाहिये। इस प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक कहना चाहिये । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं । विवेचन - यहाँ 'छद्मस्थ' शब्द से 'निरतिशय ज्ञानी उद्मस्थ' लिया गया है। ऐसा श्रुतोपयुक्त श्रुतज्ञानी परमाणु पुद्गल को जानता है, किन्तु देखता नहीं । क्योंकि श्रुत में देखने का अभाव है । श्रुतानुपयुक्त श्रुतज्ञानी नहीं जानता और नहीं देखता है । अनन्त For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ९ भव्यद्रव्य नैयिकादि २७४५ प्रदेशी स्कन्ध के विषय में चार भंग हैं। यथा-१ स्पर्श आदि के द्वारा जानता है और आँख से देखता है। २ स्पर्शादि के द्वारा जानता है, किन्तु आँख का अभाव होने से नहीं देखता । ३ स्पर्शादि के अगोचर होने से कोई नहीं जानता है, किन्तु आँख से देखता है । ४ कोई न तो जानता है और न देखता है, इन्द्रियों का अविषय होने से। 'आधोऽवधिक'-सामान्य अवधिज्ञानी को कहते हैं । 'परमावधिक' उत्कृष्ट अवधिज्ञानी को कहते हैं । परमावधिज्ञानी को अन्तर्मुहूर्त में अवश्य केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। ॥ अठारहवें शतक का आठवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १८ उद्देशक भव्यद्रव्य नैरयिकादि १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-अस्थि णं भंते ! भवियदवणेरइया भवि० २ ? १ उत्तर-हंता अत्थि। प्रश्न-से केणठेणं भंते ! एवं वुबह-'भवियदवणेरड्या भ०२?' For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४६ . भगवती सूत्र-श. १८ उ. ९ भव्यद्रव्य नैरयिकादि उत्तर-गोयमा ! जे भषिए पंचिंदिए तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा णेरहपसु उववजित्तए से तेणठेणं० । एवं जाव थणियकुमाराणं । २ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! भवियदव्वपुढविकाइया भ० २ ? २ उत्तर-हंता अस्थि । प्रश्न-से केणठेणं० ? उत्तर-गोयमा ! जे भविए तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवे वा पुढविकाइएसु उववजित्तए से तेणठेणं० । आउक्काइय-वणस्सइ. काइयाणं एवं चेव । तेउ-वाऊ-वेइंदिय-तेइंदिय-चरिंदियाण य जे भविए तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जे भविए णेरइए वा तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवे वा पंचिंदियतिरिक्खजोणिए वा, एवं मणुस्सा वि । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा णेरइया। ___भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा हे भगवन ! भव्यद्रव्य नरयिक-'भव्यद्रव्य नैरयिक है' ? १ उत्तर-हाँ, गौतम है। प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण ह कि भव्यद्रव्य नरयिक-'भव्यद्रव्य नरयिक' है ? उत्तर-हे गौतम ! जो कोई पञ्चेन्द्रिय तिथंच या मनुष्य, नैरयिकों में उत्पन होने के योग्य है, वह 'भव्यद्रव्य नेरयिक' कहलाता है। इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमार तक जानना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ५ भव्यद्रव्य नैरयिकादि २७४७ २ प्रश्न-हे भगवन् ! भव्यद्रव्य पृथ्वीकायिक, 'भव्यद्रव्य पृथ्वीकायिक' है ? २ उत्तर-हाँ, गौतम है। प्रश्न-हे भगवन् ! वह भव्य द्रव्य पृथ्वीकायिक क्यों है ? उत्तर-हे गौतम ! जो कोई तिर्यंच मनुष्य या देव, पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने के योग्य है, वह 'भव्यद्रव्य पृथ्वीकायिक' कहलाता है । इस प्रकार अप्कायिक और वनस्पतिकायिक के विषय में भी समझना चाहिये । अग्निकाय, वायुकाय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के विषय में-जो कोई तियंच या मनुष्य, उत्पन्न होने के योग्य हो, वह 'भव्यद्रव्य अग्निकायिकादि' कहलाता है । यदि कोई नैरयिक, तियंच-योनिक, मनुष्य, देव या पञ्चेन्द्रिय तियंच-योनिक, पञ्चेन्द्रिय तिर्यच-योनिकों में उत्पन्न होने के योग्य होता है, वह 'भव्यद्रव्य पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक' कहलाता है । इस प्रकार मनुष्यों के विषय में भी जानना चाहिये । वाणव्यन्तर, ज्योतिषिक और वैमानिक के विषय में नरयिकों के समान जानना चाहिये। विवेचन-भूतकाल की पर्याय का अथवा भविष्यकाल की पर्याय का जो कारण है, वह 'द्रव्य' कहलाता है। इसलिये भावी नरक-पर्याय का कारण तिर्यच पंचेन्द्रिय अथवा मनुष्य, 'भव्यद्रव्य नैरयिक' कहलाता है। उसके तीन भेद है । एक मविक, बद्धायुष्क और अभिमुख नामगोत्र । १ इनमें जो एक विवक्षित अमुक भव के बाद तुरन्त ही अमुक दूसरे भव में उत्पन्न होंग, वे एकभविक' हैं । २ पूर्वभव की आयु का तीसरा भाग आदि शेष हो, उस समय जिन्होंने अमुक भव का आयुष्य बांधा है, वे 'बद्घायुष्क' हैं । ३ जो पूर्वभव का त्याग करने के बाद अमुक भव का आयुष्य नाम और गोत्र साक्षात् वेदते हैं, वे 'अभिमुख नाम गोत्र' कहलाते हैं। ३ प्रश्न-भवियदव्वणेरइयस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पणत्ता ? ३ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उस्कोसेणं पुव्वकोडी। For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १८ उ. ९ भव्यद्रव्य नैरयिकादि ४ प्रश्न - भवियदव्वअसुरकुमारस्स णं भते । केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? ४ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उनकोसेणं तिष्णि पलिओ माई | एवं जाव थणियकुमारस्स । ५- भवियदव्यपुढविकाइयस्स णं पुच्छा । उत्तर - गोयमा ! जहणणं अतोमुहुत्तं, उनकोसेणं साइरेगाई दो सागरोवमाई | एवं आउकाइयस्स वि । ते वाऊ जहा रइयस्स । वणस्स इकाइयस्स जहा पुढविकाइयरस । वेइंदियस्स तेइंदियरस चउरिंदियस्स जहा रहयस्स । पंचिंदियतिखिखजोणियरस जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई | एवं मणुस्सरस वि । वाणमंतर जोइसिय· वेमाणियस्स जहा असुरकुमारस्स । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति २७४८ || अट्टारसमे स णवमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! भव्य द्रव्य नैरयिक की स्थिति कितने काल की कही गई है ? ३ उत्तर - हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष ( करोड़ पूर्व वर्ष) की कही गई है । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! भव्य द्रव्य असुरकुमार की स्थिति कितने काल की कही गई है ? ४ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पत्योपम For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. भव्यद्रव्य नैरयिकादि २७४९ को कही गई है। इस प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना चाहिये । ५ प्रश्न-हे भगवन् ! भव्य-द्रव्य पृथ्वीकायिक को स्थिति कितनी कही गई है ? __ ५ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्महर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक हो सागरोपम की कही गई है। इस प्रकार अपकायिक के विषय में भी कहना चाहिये । भव्य-द्रव्य अग्निकायिक और भव्य-द्रव्य वायकायिक का विषय नैरयिक के समान है। वनस्पतिकायिक का विषय पृथ्वी कायिक के समान है। भव्य-द्रव्य बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की स्थिति नैरयिक के समान है। भव्यद्रव्य पञ्चेन्द्रिय तिर्यच-योनिक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी जानना चाहिये । वाणव्यन्तर, ज्योतिषो और वैमानिकों का विषय असुरकुमारों के समान है। हे भगवन ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-जो संज्ञी या असंज्ञी अन्तर्मुहूर्त की आयुष्य वाला जीव मर कर नरकगति में जाने वाला है, उसकी अपेक्षा भव्य-द्रव्य नरयिक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की कही गई है और उत्कृष्ट करोड़ पूर्व वर्ष की आयुष्य वाला जीव मर कर नरक गति में जावे, उसकी अपेक्षा से उत्कृष्ट स्थिति करोड़ पूर्व वर्ष की कही गई है। जघन्य अन्तर्मुहूर्त की आयुष्य वाले मनुष्य अथवा तिथंच पचेन्द्रिय की अपेक्षा । भव्य-द्रव्य असुरंकुमारादि की जघन्य स्थिति जाननी चाहिये और देवकुरु उत्तरकुरु के . युगलिक मनुष्य की अपेक्षा तीन पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति जाननी चाहिये । ____ भव्य-द्रव्य पृथ्वीकायिक को उत्कृष्ट स्थिति ईशान देवलोक की अपेक्षा साधिक दो सागरोपम है। ____ भव्य-द्रव्य अग्निकायिक और वायुकायिक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट करोड़ पूर्व वर्ष की है, क्योंकि देव और युगलिक मनुष्य, अग्निकाय और वायुकाय में उत्पन्न नहीं होते है। भव्य-द्रव्य पंचेन्द्रिय तिर्यंच की तेतीस सागरोपम की स्थिति सातवीं नरक के नैर For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५० भगवती सूत्र-श. १८ उ. १० भावितात्मा अनगार को वैक्रियशक्ति यिकों की अपेक्षा समझनी चाहिये और भन्य-द्रव्य मनुष्य की तेतीस सागरोम की स्थिति सर्वार्थसिद्ध से च्यव कर आने वाले देवों की अपेक्षा समझनी चाहिये । ॥ अठारहवें शतक को नौवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १८ उद्देशक १० भावितात्मा अनगार की वैक्रियशक्ति १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा असिधारं खुरधारं वा ओगाहेजा ? १ उत्तर-हंता ओगाहेजा। प्रश्न-से णं तत्थ छिज्जेज वा भिज्जेज वा ? उत्तर-णो इणटे समटे, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ । एवं जहा पंचमसए परमाणुपोग्गलवत्तव्वया जाव अणगारे णं भंते ! भावि. यप्पा उदावत्तं जाव णो खलु तत्थ सत्थं कमइ । कठिन शब्दार्थ-खुरधार-क्षुरधार-उस्तरे की धार, असिधार-तलवार की धार, For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. १० वायु से परमाणु स्पृष्ट है ? ओगाहेज्जा-अवगाहे-रहे । भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार (वैक्रिय लब्धि के सामर्थ्य से) तलवार की धार पर या उस्तरे की धार पर रह सकता है ? १ उत्तर-हाँ, गौतम ! रह सकता है। प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह वहां छिन्न-भिन्न होता है ? उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि वहाँ शस्त्र नहीं संक्रमता (नहीं लगता) है, इत्यादि पांचवें शतक के सातवें उद्देशक में कथित परमाणु-पुदगल की वक्तव्यता यावत् हे भगवन ! भावितात्मा अनगार उदकावर्त में यावत् प्रवेश करता है ? इत्यादि, वहाँ शस्त्र संक्रमण नहीं करता, आदि जानना चाहिए। वायु से परमाणु स्पृष्ट है ? २ प्रश्न-परमाणुपोग्गले णं भंते ! वाउयाएणं फुडे, वाउयाए वा परमाणुपोग्गलेणं फुडे ? २ उत्तर-गोयमा ! परमाणुपोग्गले वाउयाएणं फुडे, णो वाउ. याए परमाणुपोग्गलेणं फुडे। ३ प्रश्न-दुप्पएसिए णं भंते ! खंधे वाउयाएणं० ? ३ उत्तर-एवं चेव, एवं जाव असंखेजपएसिए । ४ प्रश्न-अणंतपएसिए णं भते ! खंधे वाउ-पुच्छा। ४ उत्तर-गोयमा ! अणंतपपसिए खधे वाउयाएणं फुडे, वाउयाए For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५२ भगवती सूत्र - श. १० उ. १० मशक वायु से स्पृष्ट है ? अणतपएसिएणं घेणं सिय फुडे, सिय णो फुडे । भावार्थ - २ प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु - पुद्गल, वायुकाय से स्पृष्ट ( व्याप्त) है, या वायुकाय परमाणु-पुद्गल द्वारा स्पृष्ट है ? २ उत्तर - हे गौतम ! परमाणु- पुद्गल वायुकाय से स्पृष्ट है, किन्तु वायुकाय परमाणु- पुद्गल से स्पृष्ट नहीं है । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! द्विप्रदेशी-स्कन्ध वायुकाय से स्पृष्ट है, या वायुकाय द्विप्रदेशी स्कन्ध से स्पष्ट है ? ३ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध तक जानना चाहिये । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! अनन्त प्रदेशी स्कन्ध वायुकाय से स्पष्ट है, इत्यादि प्रश्न ? ४ उत्तर - हे गौतम ! अनन्त प्रदेशी स्कन्ध वायुकाय से स्पृष्ट है, किन्तु वायुकाय, अनन्त प्रदेशी स्कन्ध से कदाचित् स्पृष्ट होता है और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होता । विवेचन - वायु महान् ( बड़ी ) है और परमाणु- पुद्गल प्रदेश रहित है । इसलिये परमाणु में वायु क्षिप्त ( व्याप्त) नहीं होती, क्योंकि वह उसमें नहीं समा सकती । अनन्त प्रदेशी स्कन्ध वायु से व्याप्त होता है, क्योंकि वह वायु की अपेक्षा सूक्ष्म है । जब वायुस्कन्ध की अपेक्षा अनन्तप्रदेशी स्कन्ध महान् होता है, तब वायु अनन्त प्रदेशी स्कन्ध से व्याप्त होती है, अन्यथा नहीं । इसलिये ऐसा कहा गया कि अनन्त प्रदेशी स्कन्ध वायु से व्याप्त होता है और वायु अनन्त प्रदेशी स्कन्ध से कदाचित् व्याप्त होती है और कदाचित नहीं होती । मशक वायु से है ? स्पृष्ट ५ प्रश्न - वत्थी भंते! वाउयाएणं फुडे, वाउयाए वत्थिणा फुडे ? For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. १८ उ. १० मशक वायु ने स्पृष्ट है ? २७९३ ५ उत्तर-गोयमा ! वत्थी वाउयाएणं फुडे, णो वाउयाए वस्थिणा ६ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! इमीमे रयणप्पभाए पुढवीए अहे दबाई वणओ काल-णील-लोहिय हालिह-सुकिल्लाइं. गंधओ सुन्भिगंधाई, दुभिगंधाई, रसओ तित्त कडुय कसाय-अंबिल महुराई, फासओ कक्खड मउय-गरुय-लहुय-सीय-उसिण-णिद्ध लुक्खाई, अण मण्णबधाई. अण्णमण्णपुटाई जाव अण्णमण्णघडताए चिटंति ? ६ उत्तर-हंता अस्थि । एवं जाव अहेसत्तमाए । प्रश्न-अस्थि णं भंते ! सोहम्मस्स कप्पस्स अहे ? उत्तर-एवं चेव, एवं जोव ईसिप भाराए पुढवीए । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' जाव विहरइ । तएणं समणे भगवं महावीरे जाव बहिया जणघयविहारं विहरइ । कठिन शब्दार्थ-वत्थी-वस्ति-मशक । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! वस्ति (मशक) वायुकाय से स्पृष्ट है, या वायुकाय वस्ति से स्पृष्ट है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! वस्ति, वायुकाय से स्पृष्ट है, वायुकाय, वस्ति से स्पृष्ट नहीं है। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे वर्ण से काला, नीला, लाल, पीला और श्वेत, गन्ध से सुगन्धित और दुर्गन्धित, रस से तिक्त, कटक, कषला, अम्ल (खट्टा) और मधुर तथा स्पर्श से कर्कश (कठोर), मदु (कोमल), गुरु (भारी), लघु (हल्का), शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष-इन बोस बोलों से युक्त For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५४ भगवती सूत्र-श. १८ उ. १० सोमिल ब्राह्मण का भगवद् वंदन द्रव्य अन्योन्य बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट यावत् अन्योन्य संबद्ध है ? ६ उत्तर-हाँ, गौतम ! हैं । इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक जानना चाहिये। प्रश्न-हे भगवन् ! सौधर्मकल्प के नीचे इत्यादि, प्रश्न ? उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक जानना चाहिए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यावत् बाहर जनपद में विचरते हैं। विवेचन-मशक में जब हवा भरी जाती है, तब मशक, वायु से व्याप्त होती हैं, क्योंकि वह समस्त रूप से उसके भीतर समायी हुई है । किन्तु वायुकाय, मशक से व्याप्त नहीं है । वह वायुकाय के ऊपर चारों ओर परिवेष्टित है । सोमिल ब्राह्मण का भगवद् वंदन ७-तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे णामं णयरे होत्था । वण्णओ । दुइपलासए चेइए। वण्णओ। तत्थ णं वाणियगामे णयरे सोमिले णामं माहणे परिवसइ, अड्ढे जाव अपरिभूए, रिउव्वेद० जाव सुपरिणिट्ठिए, पंचण्डं खडियसयाणं, सयस्स कुटुंबस्स आहेबच्चं जाव विहरइ । तए णं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे । जाव परिसा पज्जुवासइ । तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीमे कहाए लट्ठस्स समाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पजित्था'एवं खलु समणे णायपुत्ते पुव्वाणुपुरि चरमाणे गामाणुगाम दूइज For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. १८ उ. १० मोमिल ब्राह्मण का भगववंदन २७५५ माणे सुहंसुहेणं जाव इहमागए जाव दूइपलासए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरइ । तं गच्छामि णं समणस्स णायपुत्तस्स अंतियं पाउब्भवामि, इमाइं च णं एयारूपाइं अट्ठाई जाव वागरणाइं पुच्छिस्सामि, तं जड़ मे से इमाइं एयारूवाइं अट्ठाई.जाव वागरणाई वागरेहिइ तओ 'णं वंदीहामि णमंसीहामि जाव पज्जुवासीहामि । अह मे से इमाई अट्ठाई जाव वागरणाई णो वागरेहिइ तो णं एएहिं चेव अटेहि य जाव वागरणेहि य णिप्पट्टपसिणवागरणं करेस्सामि' त्ति कटु एवं संपेहेह, संपेहेत्ता बहाए जाव सरीरे साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमिता पायविहारचारेणं एगेणं खंडियसएणं सदिध संपरिबुडे वाणियमामं णयरं मन्झमझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव दुइपलासए चेहए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिचा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी कठिन शब्दार्थ-णिप्पट्टपसिणवागरणं-प्रश्न का वैसा उत्तर कि जिम में पुनः पूछना नहीं पड़े। भावार्थ-७ उस काल उस समय में वाणिज्य ग्राम नामक नगर और युतिपलास नामक उद्यान था। (वर्णन) । वाणिज्य ग्राम नगर में सोमिल नामक ब्राह्मण रहता था। वह आढय यावत् अपरामत था और ऋग्वेद, यावत् ब्राह्मणों के शास्त्रों में कुशल था। उसके पांच सौ शिष्य थे। वह अपने कुटुम्ब पर अधिपतिपना करता हुआ यावत् रहता था। किसी दिन श्रमण भगवान महावीर स्वामी वाणिज्य प्राम के दयुतिपलास For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. २७५६ भगवती सूत्र-श. १८ उ. १० यात्रा कैसी करते हैं ? चैत्य में पधारे यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। श्रमण भगवान महावीर स्वामी का आगमन जान कर, सोमिल ब्राह्मण को विचार उत्पन्न हुआ-'पूर्वानुपूर्वी (अनुक्रम) से विचरते हुए, ग्रामानुग्राम सुखपूर्वक पधारते हुए श्रमण ज्ञातपुत्र यहाँ पधारे हैं, यावत् दयुतिपलास उद्यान में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण कर यावत् विचरते हैं। में श्रमण ज्ञातपुत्र के पास जाऊं और अर्थ यावत् व्याकरण (प्रश्नों के उत्तर) पूछू । यदि वे मेरे अर्थ यावत् प्रश्नों का उत्तर देंगे, तो मैं उन्हें वन्दना-नमस्कार करूंगा यावत् उनको पर्युपासना करूंगा। यदि वे मेरे अर्थ और प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकेंगे, तो मैं उन अर्थ और उत्तरों से उन्हें निरुत्तर करूंगा,'-ऐसा विचार कर, स्नान कर यावत् शरीर को अलंकृत कर के अपने एक सौ शिष्यों के साथ पैदल चलता हुआ वाणिज्य ग्राम नगर के मध्य हो कर दयुतिपलास उद्यान में, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निकट आया और इस प्रकार पूछने लगा यात्रा कैसी करते हैं ? ८ प्रश्न-'जत्ता ते भंते ! जवणिज,अव्वाबाह, फासुयविहारं ?' ८ उत्तर-सोमिला ! 'जत्ता वि मे, जवणिज पि मे, अव्वाबाहं पि मे, फासुयविहारं पि मे। ९ प्रश्न-किं ते भंते ! जत्ता ? ९ उत्तर-सोमिला ! जं मे तव-णियम-संजम-सज्झाय झाणावरसयमाइएसु जोगेसु जयणा, सेत्तं जत्ता । ___ कठिन शब्दार्थ-जवणिज्जं-यापनीय, जत्ता-यात्रा, अम्बाबाह-अव्याबाध-व्याधि रहित । For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. १८ : १० यापनीय २७५७ भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! आपके यात्रा, यापनीय, अव्याबाध और प्रासुक विहार है ? ८ उत्तर-हां, सोमिल ! मेरे यात्रा भी है, यापनीय भी है, अव्याबाध भी है और प्रासुक विहार भी है। ___९ प्रश्न-हे भगवन् ! आपके यात्रा कैसी है ? ९ उत्तर-हे सोमिल ! तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान और आवश्यक आदि योगों में जो मेरी यतना (प्रवृत्ति) है, वह मेरी यात्रा है। . यापनीय १० प्रश्न-किं ते भंते ! जवणिजं ? १० उत्तर-सोमिला ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-इंदियजवणिजे य णोइंदियजवणिज्जे य । ११ प्रश्न-से किं तं इंदियजवणिजे ? ११ उत्तर-इंदिय० २ ज मे सोइंदिय-चक्खिदिय-घाणिंदियजिभिदिय-कासिंदियाइं णिरूवहयाइं वसे वटुंति । सेत्तं इंदियजवणिजे। १२ प्रश्न-से किं तं णोइंदियजवणिजे ? १२ उत्तर-णोइंदियजवणिजे जं मे कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिण्णा णो उदीरेंति, सेत्तं णोइंदियजवणिजे, सेत्तं जवणिजे । भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! आपके यापनीय क्या है.? १० उत्तर-हे सोमिल ! यापनीय दो प्रकार का कहा गया है । यथा For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५८ भगवती सूत्र-श. १८ उ. १० अव्यावाध x प्रामुक विहार इन्द्रिय यापनीय और नोडन्द्रिय यापनीय । ११ प्रश्न-हे भगवन् ! इन्द्रिय यापनीय किसे कहते हैं ? ११ उत्तर-हे सोमिल ! श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिव्हेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय, ये पांचों इन्द्रियाँ निरुपहत ( उपघात रहित) मेरे अधीन वर्तती है। यह मेरे इन्द्रिय यापनीय है। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! नोइन्द्रिय यापनीय किसे कहते हैं ? १२ उत्तर-हे सोमिल ! क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चारों कषाय मेरे व्युच्छिन्न (नष्ट) हो गये हैं और उदय में नहीं हैं। यह मेरे नोइन्द्रिय यापनीय है । इस प्रकार मेरे ये यापनीय है । अव्याबाध १३ प्रश्न-किं ते भंते ! अब्वाबाहं ? .१३ उत्तर-सोमिला ! जं मे वाइय-पित्तिय सिंभिय-सणिवाइया विविहा रोगायंका सरीरगया दोसा उवसंता णोः उदीरेंति । सेतं अव्वाबाहं । भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! आपके अव्याबाध क्या है ? १३ उत्तर-हे सोमिल ! मेरे वात, पित्त, कफ और सन्निपातजन्य अनेक प्रकार के शरीर सम्बन्धी दोष और रोगातंक उपशान्त (नष्ट) हो गये हैं, उदय में नहीं आते हैं । यह मेरे अव्याबाध है । प्रासुक विहार १४ प्रश्न-किं ते भंते ! फासुयविहारं ? For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. १० मरिसव भक्ष्य है या अभक्ष्य २७५९ १४ उत्तर-सोमिला ! जणं आगमेसु उजाणेसु देवकुलेसु सभासु पवासु इत्थी-पसु-पंडग-विवजियासु क्सहीसु फासु-एसणिज्जं पीढ-फलग-सेन्जा-संथारगं उवसंपजित्ता णं विहरामि, सेत्तं फासुयविहारं । भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! आपके प्रासुक विहार कौन-सा है ? १४ उत्तर-हे सोमिल ! आराम (बगीचा), उद्यान, देवकुल, सभा, प्रपा (प्याऊ) आदि स्थान जो स्त्री, पशु, पण्डक (नपुंसक) रहित वसतियों में प्रासुक एषणीय पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि प्राप्त कर के में विचरता हूँ। यह मेरे प्रासुक विहार है। विवेचन-सोमिल ब्राह्मण ने यात्रा, यापनीय आदि के विषय में प्रश्न किया। वह जानता था कि ये शब्द गम्भीर अर्थ वाले हैं। भगवान का इनके अर्थों का ज्ञान नहीं होगा। इसलिए उसने भगवान की योग्यता जानने के लिये ये प्रश्न किये थे । भगवान ने उसके प्रश्नों का यथार्थ उत्तर दिया। संयम के विषय में प्रवृत्ति यात्रा' कहलाती है। मोक्ष साधना में संलग्न पुरुषों के इन्द्रियादि वश्यता रूप धर्म ‘यापनीय' कहलाता है। शरीर सम्बन्धी बाधा-पीड़ा न होना 'अव्याबाध' कहलाता है। निर्दोष एवं निर्जीव शयनासन स्थानादि का ग्रहण 'प्रासुक विहार' कहलाता है। सरिसव भक्ष्य है या अभक्ष्य १५ प्रश्न-सरिसवा ते भंते ! किं भक्खेया, अभक्खेया ? १५ उत्तर-सोमिला ! सरिसवा [मे] भक्खेया वि अभक्खेया वि । प्रश्न-से केण→णं भंते ! एवं वुच्चइ-'सरिसवा मे भक्खेया वि For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६० भगवती सूत्र-श. १८ उ. १० सरिसव भव्य है या अभक्ष्य अभक्खेया वि ?' ___ उत्तर-से णूणं ते सोमिला ! बंभण्णएसु णएसु दुविहा सरिसवा पण्णता, तं जहा-मित्तसरिसवा य धण्णसरिसवा य । तत्थ णं जे ते मित्तसरिसवा ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-सहजायया, सहवढियया, सहपंसुकीलियया, ते णं समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जे ते धण्णसरिसवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सत्थपरिणया य असत्थपरिणया य, तत्थ णं जे ते असत्थपरिणया ते णं समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-एसणिज्जा य अणेमणिज्जा य । तत्थ णं जे ते अणेसणिजा ते समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-जाइया य अजाइया य । तत्थ णं जे ते अजाइया ते णं समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते जाइया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-लद्धा य अलद्धा य । तत्थ णं जे ते अलद्धा ते णं समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जे ते लद्धा ते णं समणाणं णिग्गंथाणं भक्खया, से तेण. ठेणं सोमिला ! एवं वुच्चइ-जाव 'अभक्खेया वि । भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! आपके लिये 'सरिसव' भक्ष्य है या अभक्ष्य ? १५ उत्तर-हे सोमिल ! 'सरिसव' मेरे भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है। For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १८ उ. १० सरिसव भक्ष्य है या अभक्ष्य २७६१ प्रश्न-हे भगवन् ! यह कैसे कहते हैं कि 'सरिसव' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी ? उत्तर-हे सोमिल ! तुम्हारे ब्राह्मण नयों (शास्त्रों) में दो प्रकार के 'सरिसव' कहे गये हैं। यथा-मित्र-सरिसव (समान वय वाला मित्र) और धान्य-सरिसव । जो मित्र सरिसव है, वह तीन प्रकार का कहा गया है। यथासहजात (एक साथ जन्मे हुए), सहधित (एक साथ बड़े हुए) और सहपांशुक्रीडित (एक साथ धूल में खेले हुए)। ये तीनों प्रकार के सरिसव श्रमणनिग्रन्थों के लिये अभक्ष्य हैं। धान्य-सरिसव दो प्रकार का कहा गया है। यथा-शस्त्र-परिणत (अचित्त-अग्नि आदि शस्त्र से निर्जीव बने हुए) और अशस्त्र-परिणत (सचित्तअग्नि आदि शस्त्र से निर्जीव नहीं बने हुए)। जो अशस्त्रपरिणत हैं, वह श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य है। जो शस्त्रपरिणत है, वह भी दो प्रकार का है। यथा-एषणीय (निर्दोष) और अनेषणीय (सदोष) । अनेषणीय तो श्रमण-निग्रंथों के लिये अभक्ष्य है। एषणीय सरिसव दो प्रकार का है। यथा-याचित (माँग कर लिया हुआ) और अयाचित (बिना मांगा हुआ) । अयाचित तो श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिये अभक्ष्य है । याचित भी दो प्रकार का है । यया-लब्ध (मिला हुआ) और अलब्ध (नहीं मिला हुआ)। अलब्ध तो श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिये अभक्ष्य है और जो लब्ध है, वह श्रमग-निर्ग्रन्थों के लिये भक्ष्य है। इस कारण हे सोमिल ! ऐसा कहा गया है कि-'सरिसव' मेरे भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है। विवेचन-उपरोक्त यथार्थ उत्तर सुनने के बाद उसने छल-पूर्वक निग्रह कर के उपहास करने की दृष्टि से 'सरिसव' आदि विषयक प्रश्न पूछे । 'सरिसव' प्राकृत भाषा का श्लिष्ट शब्द है । जिसकी संस्कृत छाया होने पर दो अर्थ निकलते हैं । संस्कृत छाया इस प्रकार है-'सर्षप' और 'सदृशवया' । 'सर्षप' का अर्थ है 'सरसों' और 'सदृशवया' का अर्थ है-'समान उम्र वाला'-मित्र । . For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६२ भगवती सूत्र-श. १८ उ १० मास भक्ष्य है या अभक्ष्य मास भक्ष्य है या अभक्ष्य १६ प्रश्न-मासा ते भंते ! किं भक्खेया, अभक्खेया ? १६ उत्तर-सोमिला ! मासा मे भक्खेया वि अभवखेया वि । प्रश्न-से केणट्टेणं जाव अभक्खेया वि ? उत्तर-से पूर्ण ते सोमिला ! बंभण्णएसु णएसु दुविहा मासा पण्णता, तं जहा-दव्वमासा य कालमासा य। तत्थ णं जे ते काल. मासा ते णं सावणाईया आसाढपजवसाणा दुवालस पण्णत्ता, तं जहा-सावणे, भद्दवए, आसोए, कत्तिए, मग्गसिरे, पोसे, माहे, फागुणे, चित्ते, वइसाहे, जेट्ठामूले, आसाढे, ते णं समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जे ते दव्वमासा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-अत्थमासा य धण्णमासा य । तत्थ णं जे ते अत्थमासा ते दुविहा पण्णता, तं जहा-सुवण्णमासा यरूप्पमासा य, ते णं समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जे ते धण्णमासा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सत्थपरिणया य असत्थपरिणया य, एवं जहां धण्णसरिसवा जाव से तेणठेणं जाव अभक्खेया वि । भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! 'मास' आपके भक्ष्य है या अभक्ष्य है ? .१६ उत्तर-हे सोमिल ! 'मास' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि 'मास' मेरे भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी? For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १८ उ. १० कुलत्था भक्ष्य है ? उत्तर - हे सोमिल ! तुम्हारे ब्राह्मण शास्त्रों में 'मास' दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा - द्रव्यमास और कालमास । जो कालमास हैं, वे श्रावण से ले कर आषाढ़ मास पर्यंत बारह है । यथा-श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ । ये श्रमण-निर्ग्रथों के लिये अमक्ष्य हैं । द्रव्य-मास दो प्रकार का है । अर्थमाष और धान्यमाष । अर्थमा (सोना, चांदी तोलने का माषा) दो प्रकार का है । यथास्वर्णमाष और रौप्यमाष । ये श्रमण-निग्रंथों के लिये अभक्ष्य हैं । धान्यमाष दो प्रकार का है । यथा - शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत, इत्यादि सभी धान्यसरिसव के समान कहना चाहिये, यावत् इस कारण 'मास' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है। 1 विवेचन- 'मास' यह प्राकृत का श्लिष्ट शब्द है । इसकी संस्कृत छाया दो होती है । यथा- 'माष' और 'मास' | 'माप' का अर्थ है - 'उड़द ' नामक धान्य विशेष और 'मास' का अर्थ है - महीना ( श्रावण, भाद्रपद आदि) । कुलत्था भक्ष्य है ? १७ प्रश्न – कुलत्था ते भंते ! किं भक्खेया अभक्खेया ? १७ उत्तर - सोमिला ! कुलत्था भाखेया वि अभवखेया वि । प्रश्न-से केद्रेणं जाव अभक्खेया वि ? उत्तर- से णूणं सोमिला ! ते बंभण्णएसु णएसु दुविहा कुलत्था पण्णत्ता, तं जहा - इत्थिकुलत्थाय धण्णकुलत्था य । तत्थ णं जे ते इत्थिकुलत्था ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा कुलकण्णया इ वा कुलबहुया इ वा कुलमाउया इ वा, ते णं समणाणं णिग्गंथाणं २७६३ For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६४ भगवती सूत्र - शं. १८ उ. १० आप एक हैं या अनेक ? अभक्खेया । तत्थ णं जे ते धण्णकुलत्था एवं जहा धण्णसरिसवा, से तेणट्टेणं जाव अभक्खेया वि । भावार्थ - १७ प्रश्न - हे भगवन् ! आपके 'कुलत्था' भक्ष्य है या अभक्ष्य ? १७ उत्तर - हे सोमिल ! 'कुलत्था' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है । प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि यावत् अभक्ष्य है ? उत्तर - हे सोमिल ! तुम्हारे ब्राह्मण शास्त्रों में 'कुलत्था' दो प्रकार की कही गई है । यथा - स्त्रीकुलत्था ( कुलस्था - कुलांगना ) और धान्यकुलत्था ( एक प्रकार का धान्य ) । स्त्रीकुलत्था तीन प्रकार की कही गई है । यथाकुलकम्या, कुलवधू और कुलमाता । ये श्रमण-निर्ग्रथों के लिये अभक्ष्य हैं । धान्यकुलत्था के विषय में धान्यसरिसव के समान समझना चाहिये । इसलिये कुलत्था भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी । विवेचन - 'कुलत्था' प्राकृत का श्लिष्ट शब्द है ! जिसकी संस्कृत छाया दो होती है । यथा - 'कुलस्था' और 'कुलत्था' । 'कुलस्था' का अर्थ है - कुलांगना - कुलीन स्त्री । 'कुलत्था' का अर्थ है - कुलयी नामक धान्य विशेष, जो मेवाड़ में विशेष रूप से होता है । आप एक हैं या अनेक ? १० प्रश्न - एगे भवं, दुवे भवं, अक्खए भवं, अव्वए भवं, अवट्टिए भवं,' अगभूयभावभविए भवं ? १८ उत्तर - सोमिला ! एगे वि अहं जाव अणेगभूयभावभवि‍ वि अहं । प्रश्न - सेकेणणं भंते ! एवं वुबइ - जाव 'भविए वि अहं ?' For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-दा. १८ उ. १० आप एक हैं या अनेय ? २५६५ उत्तर-सोमिला ! दबट्टयाए एगे अहं, णाणदंसणट्टयाए दुविहे अहं, पएसट्टयाए अखिए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं, उवयोगट्टयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं, से तेणटेणं जाव भविए वि अहं । भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन ! आप एक हैं, दो हैं, अक्षय है, अव्यय हैं, अवस्थित हैं, या अनेक, भूत-भाव-भविक (भतकाल और भविष्यत्काल के अनेक परिणामों के योग्य) हैं ? १८ उत्तर-हे सोमिल ! में एक भी हूँ यावत् अनेक भूत-भाव-भविक भी हूं। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि मैं एक हूं यावत् अनेक भूत, वर्तमान और भावी परिणाम के योग्य भी हूं ? उत्तर-हे सोमिल ! मैं द्रव्य रूप से एक हं । ज्ञान और दर्शन भेद से में दो हूं। आत्म-प्रदेश से में अक्षय हूँ, अव्यय हूं और अवस्थित भी हूं । उपयोग की अपेक्षा में अनेक भत, वर्तमान और भावी परिणामों के योग्य हूं। इस कारण हे सोमिल ! पूर्वोक्त प्रकार से कहा गया है। विवेचन-इसके पश्चात् अपमान एवं उपहास आदि भाव छोड़ कर, सोमिल ने वस्तुतत्त्व के ज्ञान की जिज्ञासा से 'आप एक है या दो' इत्यादि प्रश्न पूछे हैं। उसके मन में यह था कि भगवान् इनमें से एक पक्ष ग्रहण कर उत्तर देंगे, तो में दूसरा पक्ष ले कर उनके कथन को दूषित कर दूंगा।' किन्तु भगवान् ने सभी प्रकार के दोषों से रहित स्याद्वाद शैली से उत्तर दिया कि 'मैं जीव द्रव्य की अपेक्षा एक हूँ, प्रदेशों की अपेक्षा नहीं। ज्ञान और दर्शन को अपेक्षा में दो हुँ । एक ही पदार्थ किसो एक स्वभाव की अपेक्षा एक हो सकता है और वही पदार्थ दूसरे दो स्वभावों की अपेक्षा दो हो सकता है । इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है। क्योंकि एक ही देवदत्तादि पुरुष. एक ही समय में उन-उन अपेक्षाओं से पिता, पुत्र, भ्राता, भातृव्य (भतीजा) आदि कहला सकता है । इसलिये भगवान् ने एक अपेक्षा से अपने-आप को एक और दूसरी अपेक्षा से दो कहा । प्रदेशों के सर्वथा क्षय न होने और For Personal & Private Use Only | Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १८ उ १० सोमिल प्रतिबोधित हुआ आत्मा असंख्य प्रदेशात्मक होने से भगवान् ने कहा-' में अक्षय अक्षत हूँ" कुछ भी प्रदेशों का व्यय न होने से मैं 'अव्यय' हूँ, अतएव में अवस्थित अर्थात् नित्य हूँ । आत्मा की असंख्येय प्रदेशिता कदापि नष्ट नहीं होती, अतः आत्मा नित्य है । विविध विषयों का उपयोग वाला होने से मैं 'अनेक भूत-भाव-भविक' भी हूँ अर्थात् भूतकाल और भविष्यत्काल के अनेक परिणामों के योग्य भी हूँ । सोमिल प्रतिबोधित हुआ २७६६ १९ - एत्थ णं से सोमिले माहणे संबुदुधे, समणं भगवं महावीरं ० जहा खंदओ जाव से जहेयं तुब्भे वदह, जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर एवं 'जहा रायप्पसेणइज्जे चित्तो जाव' दुवालसविहं सावगधम्मं पडिवज्जह, पडिवजित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ जाव पडिगए । तर णं से सोमिले माहणे समणोवासए जाएं, अभिगयजीवा० जाव विहरइ । 'भंते' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदह णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी प्रश्न - पभू णं भंते ! सोमिले माहणे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता० जव संखे तहेव णिरवसेसं जाव अंतं काहिह । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरह || अट्टारसमे सए दसमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ - १९ - भगवान् की वाणी सुन कर सोमिल ब्राह्मण ने प्रतिबोध पाया । उसने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया और For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सत्र-श. १८ उ. १० सोमिल प्रतिबोधित हआ २७६७ बोला-'हे भगवन् ! जैसा आप कहते हैं, वह वैसा ही है ।' सारा वर्णन दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक में कथित स्कन्दक के समान जानना चाहिये । 'हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार आपके समीप अनेक राजा-महाराजा आदि हिरण्यादि का त्याग कर के मुण्डित हो कर अनगार प्रवज्या स्वीकार करते हैं, उस प्रकार करने में में समर्थ नहीं हूँ, इत्यादि सब वर्गन राजप्रश्नीय सूत्रस्थ चित सारथि के समान यावत् बारह प्रकार का श्रावक-धर्म अंगीकार करता है । श्रावकधर्म को अंगीकार कर के श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर यावत् अपने घर गया। वह सोमिल ब्राह्मण, जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक बन कर यावत विचरने लगा। 'हे भगवन्'-गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार पूछा-'क्या सोमिल ब्राह्मण आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित हो कर अनगार प्रवज्या लेने में समर्थ है, इत्यादि सब वर्णन बारहवें शतक के प्रथम उद्देशक में कथित शंख श्रावक के समान है, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा।' ____ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। . .. ॥ अठारहवें शतक को दसवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ॥ अठारहवां शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६ गाहा- . १ लेस्सा य २ गम्भ ३ पुढवी ४ महासवा ५ चरम ६ दीव ७ भवणा य। ८ णिव्वत्ति ९ करण १० वणचरसुरा य एगूणवीसइमे ॥ इस शतक में दस उद्देशक इस प्रकार हैं। भावार्थ-१ लेश्या विषयक प्रथम उद्देशक है । २ गर्भ विषयक दूसरा उद्देशक है। ३ पृथ्वीकायिकादि विषयक तीसरा ४ 'महा आश्रव, महाक्रिया' आदि पच्छा विषयक चौथा ५ चरम (अल्प स्थितिक) विषयक पांचवां, ६ द्वीप आदि विषयक छठा, ७ भवनादि विषयक सातवाँ ८ निर्वत्ति (एकेन्द्रिय आदि जीवों की उत्पत्ति) विषयक आठवाँ, ९ द्रव्यादि करण विषयक नौवां और १० बनचरसुर (बाणव्यन्तरदेव) विषयक दसवां उद्देशक है। इस प्रकार उन्नीसवें शतक में दस उद्देशक हैं। For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६ उद्देशक १ लेश्या १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-कइ णं भंते ! लेस्साओ पण्णत्ताओ? १ उत्तर-गोयमा ! छल्लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-एवं जहा पण्णवणाए चउत्थो लेमुद्देसओ भाणियब्यो णिरवसेसो। * सेवं भंते ! मेवं भंते ! ति ॐ ॥ एग्णवीसइमे सए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-'हे भगवन ! लेश्याएं कितनी कही गई हैं ?' १ उत्तर-हे गौतम ! लेश्याएं छह कही गई हैं। प्रज्ञापना सूत्र के सतरहवें पद का चौथा लेश्या उद्देशक यहाँ सम्पूर्ण जानना चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-कृष्णादि द्रव्य के सम्बन्ध से आत्मा के परिणाम विशेष को 'लेश्या' कहते हैं । जब तक योग रहते हैं. तबतक लेश्या रहती है । योग के अभाव में चौदहवें गुणस्थान में लेश्या भी नहीं होती। लेश्या योगान्तर्गत द्रव्य रूप है. अर्थात् मन, वचन और काया के अन्तर्गत शुभाशुभ परिणाम के कारणभूत कृष्णादि वर्ण वाले पुद्गल ही द्रव्य-लेश्या है । योगान्तर्गत पुद्गल आत्मा में रही हुई कषायों को बढ़ाते हैं । जैसे -पित्त के प्रकोप से For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७० भगवती सूत्र - श. १९ उ २ गर्भ और लेश्या क्रोध की वृद्धि होती है । कृष्ण - लेश्यादि के द्रव्य जब नील लेश्यादि के साथ मिलते हैं, तब वे नील लेश्यादि के स्वभाव तथा वर्णादि में परिणत हो जाते हैं । जैसे- दूध में छाछ डालने से वह दहा रूप में परिणत हो जाता है, एवं वस्त्र को मजीठ में भिगोने से वह मजीठ के वर्ण का हो जाता है । किन्तु लेश्या का यह परिणाम केवल मनुष्य और तिर्यंच की लेश्या के सम्बन्ध में ही है। देव और नारकी में द्रव्य - लेश्या अवस्थित होती है । इसलिये वहाँ अन्य लेश्या - द्रव्यों का सम्बन्ध होने पर भी अवस्थित लेश्या, सम्बध्यमान लेश्या के रूप में परिणत नहीं होती । वे अपने स्वरूप को रखती हुई सम्बध्यमान लेश्या द्रव्यों की छाया मात्र धारण करती है । जैसे - वैडूर्यमणि में लाल धागा पिरोने पर वह अपने नील वर्ण को रखते हुए धागे की लाल छाया को धारण करती है । इसी प्रकार कृष्णादि द्रव्य, अन्य लेश्या द्रव्यों के सम्बन्ध में आने पर वे अपने मूल स्वभाव और वर्णादि को नहीं छोड़ते हुए उनकी छाया (आकार मात्र) को धारण करते हैं । इसका विशेष विस्तार प्रज्ञापना सूत्र के सतरहवें पद के चौथे उद्देशक में है । ॥ उन्नीसवें शतक का पहला उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १६ उद्देशक २ गर्भ और लश्या १ प्रश्न - क णं भंते ! लेस्साओ पण्णत्ताओ ? १ उत्तर - एवं जहा पण्णवणाए गब्भुद्देसो सो चेव णिरवसेसो For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ३ स्यावर जीव साधारण शरीरी हैं ? २७७१ भाणियव्वो। सेवं भंते ! सेवं भते ! ति ॐ ॥ एगृणवीसइमे सए बीओ उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! लेश्याएं कितनी कही गई हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के सतरहवें पद का छठा गर्भोद्देशक सम्पूर्ण जानना चाहिये ।। ___ हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-किस लेश्या वाला जीव, किस लेण्या वाले गर्भ का उत्पन्न करता है। इस प्रकार छह लेश्याओं के विषय में प्रश्नोत्तर किये गये हैं । इसका विस्तृत वर्णन प्रजापना मूत्र के मतरहवें पद के छठे उद्देशक में है। । उन्नीसवें शतक का दूमरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ... शतक १६ उद्देशक ३ स्थावर जीव साधारण शरीरी हैं ? १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच पुढविकाइया एगयओ साहारणसरीरं बंधति एग०२ बंधित्ता तओ For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७२ भगवती सूत्र-श. ५९ उ. ३ पृथ्वीकाय में लेट्या, दृष्टि, जान पच्छा आहारेंति वा परिणामेति वा सरीरं वा बंधति ? १ उत्तर-णो इणठे समठे । पुढविकाइयाणं पत्तेयाहारा पत्तेयपरिणामा पत्तेयं सरीरं बंधति, प० २ बंधित्ता तओ पच्छ आहारेंति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधति । १ । भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-'हे भगवन् ! कदाचित् दो यावत् चार-पाँच पृथ्वीकायिक मिल कर एक साधारण शरीर बांधते हैं, बांध कर पीछे आहार करते हैं, फिर उस आहार का परिणमन करते हैं और फिर इसके बाद शरीर का बंध करते हैं ?' १ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, क्योंकि पृथ्वीकायिक जीव पृथक्-पृथक् आहार करने वाले हैं और उस आहार को पृथक्-पृथक् परिणमन करते हैं, इसलिये वे पृथक-पृथक् शरीर बांधते हैं और इसके पश्चात् आहार करते हैं, उसे परिणमाते हैं और फिर शरीर बांधते हैं। पृथ्वीकाय में लेश्या, दृष्टि, ज्ञान २ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं कइ लेस्साओ पण्णत्ताओ? २ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहाकण्हलेस्सा, णीललेस्सा, काउलेस्सा, तेउलेरसा । २ । ३ प्रश्न ते णं भंते ! जीवा किं सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी ? .३ उत्तर-गोयमा ! णो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्टी, णो सम्मामिच्छा. दिट्टी।३। For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १९ उ. ३ पृवीकाय में देण्या, दृष्टि, ज्ञान २०७३ ४ प्रश्न-ते णं भंत ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? ४ उत्तर-गोयमा ! णो णाणी, अण्णाणी, णियमा दुअण्णाणी, तं जहा-मइअण्णाणी य सुयअण्णाणी य । ४ । भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों में कितनी लेश्याएँ कही गई हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! चार लेश्याएँ कही गई हैं। यथा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या और तेजोलेश्या। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, या सम्यग्मिथ्यादृष्टि है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! वे सम्यग्दष्टि नहीं हैं, मिथ्यादृष्टि हैं । वे सम्यगमिथ्यादष्टि भी नहीं है। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? ४ उत्तर-हे गौतम ! वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी हैं। उन्हें दो अज्ञान अवश्य होते हैं । यथा-मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान । .५ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी ? ५ उत्तर-गोयमा ! णो मणजोगी, णोवयजोगी, कायजोगी।५। ६ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं सागारोवउत्ता, अणागारोवउत्ता ? ६ उत्तर-गोयमा ! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि। ६ । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन ! पृथ्वीकायिक जीव क्या मनोयोगी हैं, वचनयोगी हैं, या काययोगी हैं ? For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७४ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ३ पृथ्वीकाय में योग उपयोग आहारादि ५ उत्तर-वे मनोयोगी नहीं, वचनयोगी भी नहीं है, एक काययोगी हैं। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव साकारोपयोगी हैं या अनाकारोपयोगी हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम ! वे साकारोपयोगी भी हैं और अनाकारोपयोगी भी। ७ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेंति ? ७ उत्तर-गोयमा ! दव्वओ णं अणंतपएसियाई दवाइं एवं जहा पण्णवणाए पढमे आहारुद्देसए जाव सव्वप्पणयाए आहारमाहारेति । ७ । . ८ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा जमाहाति तं चिज्जति, जं णो आहारोंति तं णो चिजंति, चिण्णे वा से उद्दाइ पलिसप्पइ वा ? ____८ उत्तर-हंता गोयमा ! ते णं जीवा जमाहाति तं चिजंति, जं णो जाव पलिसप्पइ वा। ९ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सण्णाइ वा पण्णाइ वा मणोइ वा वईइ वा 'अम्हे णं आहारमाहारेमो' ? ९ उत्तर-णो इणठे समढ़े, आहारेंति पुण ते । १० प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सण्णाइ वा जाव वईइ वा 'अम्हे णं इटाणिठे फासे य पडिसंवेएमो ? १० उत्तर-णो इणठे समठे, पडिसंवेएंति पुण ते । कठिन शब्दार्थ--चिन्जंति--चय करते हैं, सम्वप्पणयाए-सभी आत्मप्रदेशों से, सण्णाह-संज्ञा, पण्णाइ-प्रज्ञा। For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १९ उ. ३ पृथ्वीकाय के जीव पापी है ? भावार्थ-७ प्रश्न- हे भगवन् ! पृथ्वोकायिक जीव कैसा आहार करते हैं ? ७ उत्तर - हे गौतम! वे द्रव्य से अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का आहार करते है । यह विषय प्रज्ञापना सूत्र के अट्ठाईसवें पद के प्रथम आहारोद्देशक के अनुसार यावत् 'सर्व आत्म-प्रदेशों से आहार ग्रहण करते हैं' - तक जानना चाहिये । ८ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव जिसका आहार करते हैं, उसका चय होता है ? और जिसका आहार नहीं करते, उसका चय नहीं होता और जिसका चय हुआ है उस आहार का असार भाग बाहर निकलता है और सार भाग शरीर इन्द्रियादिपने परिणमता है ? ८ उत्तर - हाँ, गौतम ! वे जिसका आहार करते हैं, उसका चय होता है और जिसका आहार नहीं करते, उसका चय नहीं होता यावत् सारभाग रूप आहार शरीर इन्द्रियादिपने परिणमता है । २७७५ ९ प्रश्न - हे भगवन् ! उन जीवों को - 'हम आहार करते हैं' - ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन और वचन है ? ९ उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है, अर्थात् उन जीवों को 'हम आहार करते हैं' - ऐसी संज्ञादि नहीं है, तो भी वे आहार करते हैं । १० प्रश्न - हे भगवन् ! उन जीवों को 'हम इष्ट या अनिष्ट स्पर्श का अनुभव करते हैं' - ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन और वचन हैं ? १० उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, तथापि वे वेदन तो करते हैं । पृथ्वीकाय के जीव पापी हैं ? ११ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा किं पाणाइवाए उक्पखाइजंति, मुसावाए, अदिण्णा० जाव मिच्छादंसणसल्ले उवक्वाइजति ? For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७६ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ३ पृथ्वीकाय का उत्पाद स्थिति आदि ११ उत्तर-गोयमा ! पाणाइवाए वि उवक्खाइजति जाव मिच्छा. दसणसल्ले वि उवक्खाइज्जति । जेसि पि णं जीवाणं ते जीवा एवमाहिजंति तसि पि णं जीवाणं णो विण्णाए णाणत्ते ।८। १२ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववज्जंति, किं रइएहिंतो उववजंति ? १२ उत्तर-एवं जहा वक्कंतीए पुढविकाइयाणं उववाओ तहा भाणियवो ।९। __भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव प्राणातिपात, मषावाद, अदत्तादान यावत् मिथ्यादर्शन शल्प में रहे हुए हैं ? ११ उत्तर-हे गौतम ! वे प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य में रहे हुए हैं। जीव दूसरे जिन पृथ्वीकायिकादि जीवों की हिंसा करते हैं, उस जीवों को भी ऐसा ज्ञान नहीं है कि ये जीव हमारी हिंसा करने वाले हैं। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं ? क्या नरयिकों से आ कर उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न ? १२ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद में पृथ्वीकायिकों का उत्पाद कहा है, उसी प्रकार यहां कहना चाहिये । १३ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? १३ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई ।१०। १४ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं कह समुग्घाया पण्णत्ता ? १४ उत्तर-गोयमा ! तओ समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा-चेयणा For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ३ पृथ्वीकाय में समुद्घातादि २७७७ समुग्धाए, कसायसमुग्घाए, मारणंतियममुग्घाए । __ १५ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमुग्घाएणं किं समो. हया मरंति, असमोहया मरंति ? १५ उत्तर-गोयमा ! समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति ॥११॥ १६ प्रश्न ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उब्वट्टित्ता कहिं गच्छंति, कहिं उववजंति ? १६ उत्तर-एवं उव्वट्टणा जहा वक्कंतीए ॥१२॥ भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? १३ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की कही गई है। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! उन जीवों के कितनी समुद्घात कही गई हैं ? १४ उत्तर-हे गौतम ! तीन समुद्घात कही गई है। यथा-वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात और मारणान्तिक समुद्घात ।। .. १५ प्रश्न-हे भगवन् ! वे मारणान्तिक समुद्घात कर के मरते हैं, या मारणान्तिक समुद्घात किये बिना मरते हैं ? १५ उत्तर-हे गौतम ! वे मारणान्तिक समुद्घात कर के भी मरते हैं और समुद्घात किये बिना भी मरते हैं। . १६ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव मर कर अन्तर रहित कहां जाते हैं, कहां उत्पन्न होते हैं ? १६ उत्तर-हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद के अनुसार उनको उद्वर्तना कहनी चाहिये । विवेचन-यहाँ बारह द्वार कहे गये हैं । द्वार गाषा इस प्रकार है For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७८ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ३ पृथ्वीकाय में समुद्घातादि सिय-लेस-दिट्ठि-गाणे, जोगवओगे तहा किमाहारो। पाणाइवाय-उप्पाय-ठिई, समुग्घाय-उन्चट्टो ।। अर्थ-१ स्याद् द्वार, २ लेश्या, ३ दृष्टि, ४ ज्ञान, ५ योग, ६ उपयोग, ७ किमाहार, ८ प्राणातिपात, ९ उत्पाद, १० स्थिति, ११ समुद्घात और १२ उद्वर्तना द्वार।। ये बारह द्वार पृथ्वीकायिक से ले कर वनस्पतिकायिक जीवों तक कहे गये हैं। पहला प्रश्न स्याद् द्वार की अपेक्षा किया गया है कि क्या कदाचित् अनेक पृथ्वीकायिक जीव मिल कर साधारण शरीर बांधते हैं और बाद में आहार करते हैं, तथा उसका परिणमन करते हैं और फिर' शरीर का विशेष बन्ध करते हैं ? सामान्य रूप से सभी संसारी जीव प्रति समय निरन्तर आहार (पुद्गल) ग्रहण करते हैं । इसलिये प्रथम : सामान्य शरीर बन्ध के समय भी आहार तो चालू ही है तथापि पहले शरीर बांधने का और पीछे आहार करने का जो प्रश्न किया गया है, वह विशेष आहार की अपेक्षा से जानना चाहिये । जीव उत्पत्ति के समय में प्रथम 'ओज' आहार करता है, फिर शरीर स्पर्श द्वारा 'लोम' आहार करता है, तदुपरान्त उसे परिणमाता है और उसके बाद विशेषविशेष शरीर बन्ध करता है । यह प्रश्न है । ___उत्तर में कहा गया है कि पृथ्वीकायिक जीव, पृथक्-पृथक् आहार करते हैं और पृथक् परिणमाते हैं । इसलिये वे शरीर भी पृथक्-पृथक् ही बांधते हैं । वे साधारण शरीर नहीं बांधते । इसके बाद वे विशेष आहार, विशेष परिणाम और विशेष शरीर-बन्ध करते हैं। पृथ्वीकायिक जीवों में संज्ञा (व्यावहारिक अर्थ ग्रहण करने वाली अवग्रह रूप बुद्धि), प्रज्ञा (सूक्ष्म अर्थ को विषय करने बाली बुद्धि), मन और वचन नहीं होता । इसलिये वे परस्पर इस भेद को नहीं समझते हैं कि हम वध्य (मारे जाने वाले) हैं और ये वधिक (मारने वाले) हैं । परन्तु उनमें परस्पर प्राणातिपात क्रिया अवश्य होती है। पृथ्वीकायिक जीवों के आहार के विषय में प्रज्ञापना सूत्र के अट्ठाईसवें पद के प्रथम उद्देशक का अतिदेश किया गया है । क्षेत्र से वे असंख्यात प्रदेशों में रहे हुए, काल मे जघन्य मध्यम या उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले और भाव से वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्श वाले पुद्गल स्कन्धों का आहार करते हैं। पृथ्वीकायिक आदि जीवों में वचनादि का अभाव है, तथापि मषावाद आदि की अविरति के कारण वे मृषावाद आदि में रहे हुए हैं-ऐसा जानना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ३ अप्कायादि के साधारण शरीरादि २७७९ पृथ्वीकायिक जीव ने रयिकों से आ कर उत्पन्न नहीं होते, वे तियंच, मनुष्य और देवों से आ कर उत्पन्न होते हैं। अपकायादि के साधारण शरीरादि १७ प्रश्न-सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच आउकाइया एगयओ साहारणसरीरं बंधंति, एग० २ बंधित्ता तओ पच्छा आहारोंति ? १७ उत्तर-एवं जो पुढविकाइयाणं गमो सो चेव भाणियव्वो जाव उव्वटंति, णवरं ठिई सत्त वाससहस्साई उक्कोसेणं, सेमं तं चेव । १८ प्रश्न-सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच तेउकाइया० एवं चेव, णवरं उववाओ ठिई उव्वट्टणा य जहा पण्णवणाए, सेसं तं चेव । वाउकाइयाणं एवं चेव, णाणत्तं णवरं चत्तारि समुग्घाया । १९ प्रश्न-सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच वणस्सइकाइया०पुच्छा । १९ उत्तर-गोयमा ! णो इणठे समठे । अणंता वणस्सइकाइया एगयओ साहारणसरीरं बंधंति, एग० २ बंधिता तओ पच्छा आहा. रेति वा परि० २ । सेसं जहा तेउकाइयाणं जाव उव्वद्वृति, णवरं आहारो णियमं दिसिं, ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं, सेसं तं चेव । भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! कदाचित् दो, तीन, चार, या पांच For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८० भगवती सूत्र-श. १९ उ. ३ अपकायादि के साधारण शरीरादि अपकायिक जीव मिल कर एक साधारण शरीर बांधते हैं और इसके पश्चात् आहार करते हैं ? १७ उत्तर-हे गौतम ! पृथ्वीकायिकों के विषय में जैसा कहा गया है, वैसा ही यहां भी-उद्वर्तना द्वार तक जानना चाहिये । विशेष में अपकायिक जीवों की स्थिति उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की है। शेष सब पूर्ववत् । १८ प्रश्न-हे भगवन् ! कदाचित् दो, तीन, चार या पांच आदि अग्निकायिक जीव इकट्ठे हो कर एक साधारण शरीर बांधते हैं, इत्यादि ? .: १८ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । विशेष यह कि उनका उत्पाद, स्थिति और उद्वर्तना प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार जानना चाहिये । शेष सब पूर्ववत् । वायुकायिक जीवों का कथन भी इसी प्रकार है, परन्तु उनमें समुद्घात चार होती है। १९ प्रश्न-हे भगवन् ! कदाचित् दो, तीन, चार या पांच आदि वनस्पतिकायिक जीव इकट्ठे हो कर एक साधारण शरीर बांधते हैं, इत्यादि ? १९ उत्तर-हे गौतम.! यह अर्थ समर्थ नहीं है । अनन्त वनस्पतिकायिक जीव मिलकर एक साधारण शरीर बांधते हैं, फिर आहार करते हैं और परिणमाते हैं, इत्यादि सब अग्निकायिकों के समान यावत् - 'उद्वर्तते हैं-तक । विशेष यह कि उनका आहार नियमतः छह दिशा का होता है । उनको जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहर्त की है। शेष सब पूर्ववत् । विवेचन-अग्निकायिक जीव, तियंच और मनुष्य में से ही आ कर उत्पन्न होते हैं । उनकी स्थिति उत्कृष्ट तीन अहोरात्र की होती है । अग्निकाय से निकल कर जीव तिर्यचों में ही उत्पन्न होते हैं । लेश्या की अपेक्षा भी उनमें विशेषता है । पृथ्वीकायिक जावों में चार लेश्या होती हैं और अग्निकायिक तथा वायुकायिक जीवों में तीन लेश्या होती हैं। वायुकायिक जीवों में वैक्रिय समुद्घात अधिक होने से चार समुद्घात होती हैं। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव लोकान्त के निष्कूटों (कोणों) में भी होते हैं । उनके तीन, चार, गा पांच दिशाओं का आहार भी सम्भवित है, किन्तु यहाँ वनस्पतिकायिक For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ३ स्थावर जीवों की अवगाहना की अल्पाबहुत्व २७८१ है जीवों का आहार अवश्य ही छह दिशाओं का बतलाया गया है. इसका कारण यह ज्ञात होता है कि यह सूत्र वादर निगोद (साधारण) वनस्पतिकाय की अपेक्षा सम्भवित है । उनमें अवश्य छह दिशा का आहार घटित हो सकता है । क्योंकि वे लोक के मध्यभाग में ही होते हैं, वे लोकान्त के निष्कूटों में नहीं होते । " स्थावर जीवों की अवगाहना की अल्पाबहुत्व २० प्रश्न - एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं आउ-तेउ वाउ-वणएसइकाइयाणं सुहुमाणं वायराणं पजत्तगाणं अपजत्तगाणं जहष्णुकोसियाए ओगाहणार कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा, ? २० उत्तर - गोयमा ! सव्वत्योवा सुहुमणिओयम्स अपज्जत्तगस्स जहष्णिया ओगाहणा १, सुहुमवाउका इयस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा २,सुहुमते उकाइ यस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ३, सुहुम आउकाइयस्स अपजत्तगस्स जहष्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ४, सुहुमपुढविकाइ यस्स अपज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ५, बायरवाकाइयस्स अपज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ६, बायरते उक्काइयस्स अपज्ज - गस जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ७, बायरआउकाइयस्स अपजतगस्स जहणिया ओगाहणा अमंखे जगुणा ८, बायरपुढ विकाइयस्स अपज्जत्तगस्स ज़हणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ९, पत्तेयसरीर वायरवणस्सइकाइयरस वायरणिओयरस एएसि णं अपजत्तगाणं W For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८२ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ३ स्थावर जीवों की अवगाहना का अल्पाबहुत्व । जहणिया ओगाहणा दोण्ह वि तुल्ला असंखेजगुणा १०-११, सुहमणिगोयस्स पजत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा १२, तस्सेव अपजत्तगस्त उकोसिया ओगाहणा विसेसाहिया १३, तस्स चेव पजत्तगस्स उक्कोसिया आगाहणा विसेसाहिया १४, सुहमवाउकाइयस्स पजत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा १५, तस्स चेव अपजत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया १६, तस्स चेव पज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया १७, एवं सुहुमतेउकाइयस्स वि १८-१९-२०, एवं सुहुमआउक्काइयस्स वि २१-२२२३, एवं सुहुमपुढविकाइयस्स वि २४-२५-२६, एवं बायरवाउकाइयस्स वि २७-२८-२९, एवं वायरतेउकाइयस्स वि ३०-३१३२, एवं बायरआउकाइयस्स वि ३३-३४-३५, एवं बायरपुढवि. काइयस्स वि ३६-३७-३८, सव्वेसि तिविहेणं गमेणं भाणियव्वं, वायरणिगोयस्स पजत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा ३९, तस्स चेव अपजतगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया ४०, तस्स चेव पजत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया ४१, पत्तेयसरीरवायरवणस्सइकाइयस्स पजत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा ४२, तस्स चेव अपजत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा असंखेजगुणा ४३, तस्स चेव पजत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा असंखेजगुणा ४४ । For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १९ उ. ३ स्थावर जीवों की अवगाहना का अल्पाबहुत्व २७८३ भावार्थ-२० प्रश्न - हे भगवन् ! सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, पृथ्वीकाय, अकाय, ते काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय जीवों को जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना, किसकी अवगाहना से किसकी अवगाहना अल्प, बहुत्व, तुल्य और विशेषाधिक है ? ६ - उससे अपर्याप्त बादर । ७-उससे अपर्याप्त बादर ८ - उससे अपर्याप्त बादर ९ - उससे अपर्याप्त बादर २० उत्तर - हे गौतम ! १ अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद की जघन्य अवगाहना सबसे अल्प है । २ - उससे अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकायिक की जघन्य अवगाहना असंख्य गुण है । ३ - उससे अपर्याप्त सूक्ष्म अग्निकायिक की जधन्य अवगाहना असंख्य गुण है । ४- उससे अपर्याप्त सूक्ष्म अपकायिक की जघन्य अवगाहना असंख्य गुण है । ५ - उससे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक की जघन्य अवगाहना असंख्य गुण है । वायुकायिक की जघन्य अवगाहना असंख्य गुण अग्निकायिक को जघन्य अवगाहना असंख्य गुण है । अप्कायिक को जघन्य अवगाहना असंख्य गुण है । पृथ्वीकायिक की जघन्य अवगाहना असंख्य गुण है । १० से ११ - उससे अपर्याप्त प्रत्येक शरीरी बादर वनस्पतिकायिक की और बादर निगोद की जघन्य अवगाहना असंख्य गुण और परस्पर तुल्य है । १२ - उससे पर्याप्त सूक्ष्म निगोद की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुण है । १३ - उससे अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है । १४ - उससे पर्याप्त सूक्ष्म निगोद की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है । १५ - उससे पर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय की जघन्य अवगाह्ना असंख्यात गुण है । १६-उससे अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है । १७ - उससे पर्याप्त सूक्ष्म वायुकाय की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है । १८ - उससे पर्याप्त सूक्ष्म अग्निकायिक की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुण है । १९ - उससे अपर्याप्त सूक्ष्म अग्निकायिक की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है । २०-उससे पर्याप्त सूक्ष्म अग्निकायिक की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है । २१ - उससे पर्याप्त सूक्ष्म अपकायिक की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुण है । २२ - उससे अपर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक की उत्कृष्ट For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८४ भगवती मूत्र-ग. १९ उ. ३ स्थावर जीवों की अवगाहमा का अल्पाबहुत्व अवगाहना विशेषाधिक है । २३-उससे पर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक को उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है । २४-उससे पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुण है। २५-उससे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक को उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है । २६- उससे पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है। २७-उससे पर्याप्त बादर वायुकायिक को जघन्य अवगाहना असंख्यात गुण है । २८-उससे अपर्याप्त बादर वायुकायिक को उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है । २९-उससे पर्याप्त बादर वायुकायिक को उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है । ३०-उससे पर्याप्त बादर अग्निकायिक को जघन्य अवगाहना असंख्यात गुण है। ३१-उससे अपर्याप्त बादर अग्निकायिक की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है। ३२-उससे पर्याप्त बादर अग्निकायिक की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है। ३३-उससे पर्याप्त बावर अपकायिक की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुण है । ३४-उससे अपर्याप्त बादर अप्कायिक को उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है । ३५-उससे पर्याप्त बादर अप्कायिक को उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है। ३६-उससे पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक को जघन्य अवगाहना असंख्यात गुण है । ३७-उससे अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक को उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है । ३८-उससे पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है । ३९-उससे पर्याप्त बादर निगोद की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुण है । ४०-उससे अपर्याप्त बादर निगोद की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है। ४१-उससे पर्याप्त बाबर निगोद को उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है। ४२-उससे पर्याप्त प्रत्येक शरीरी बादर वनस्पतिकाय की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुण है । ४३--उससे अपर्याप्त प्रत्येक शरीरी बादर वनस्पतिकाय को उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यात गुण है । ४४-उससे पर्याप्त प्रत्येक शरीरी बादर वनस्पतिकायिक की उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यात गुण है । विवेचन-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय और निगोद, इनके सूक्ष्म और बादर भेद करने से दस भेद होते हैं । लोक बनस्पति को मिलाने से ग्यारह भेद होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १९ उ ३ स्थावर शरीर की मूक्ष्म-सूक्ष्मतरता २७८५ इनके प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद से बाईस भेद होते हैं। इनकी जघन्य अवगाहना और उत्कृष्ट अवगाहना के भेद से ४४ भेद होते हैं । इन ४४ जीवभेदों में अवगाहना की अल्प-बहुत्व बतलाई गई है। स्थावर शरीर की सूक्ष्म-सूक्ष्मतरता २१ प्रश्न-एयरस णं भंते ! पुढविकाइयस्स आउक्काइयस्स तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स वणस्सइकाइयस्स कयरे काए सव्वसुहुमे, कयरे काए सव्वसुहुमतराए ? ____ २१ उत्तर-गोयमा ! वणस्सइकाए सब्बसुहुमे, वणस्मइकाए सव्वसुहुमतराए ।१। २२ प्रश्न-एयस्स णं भंते ! पुढविकाइयस्स आउक्काइयस्स तेउकाइयरस वाउक्काइयस्स कयरे काए सव्वसुहुमे, कयरे काए सव्वसुहुमतराए ? ....२२ उत्तर-गोयमा ! वाउक्काए सव्वसुहुमे, वाउकाए सव्वसुट्ठमतराए ।२। २३ प्रश्न-एयस्स णं भंते ! पुढविक्काइयस्स आउक्काइयस्स तेउक्काइयस्स कयरे काए सव्वसुहुमे, कयरे काए सव्वसुहुमतराए ? २३ उत्तर-गोयमा ! तेउपकाए सव्वसुहमे, तेउकाए सव्वसुहुमतराए ।३। .. __ २४ प्रश्न-एयस्स णं भंते ! पुढविक्काइयस्स आउक्काइयस्स For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८६ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ३ स्थावरकाय की बादर-बादरतरता कयरे काए सव्वसुहुमे, कयरे काए सव्वसुहुमतराए ? २४ उत्तर-गोयमा ! आउक्काए सव्वसुहुमे, आउपकाए सव्वसुहुमतराए ।४। कठिन शब्दार्थ-सव्वसुहुमतराए-सब से अधिक अत्यन्त सूक्ष्म । भावार्थ-२१ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक, अपकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक-इन सब में कौन-सी काय सब से सूक्ष्म है और कौनसी सूक्ष्मतर है ? २१ उत्तर-हे गौतम ! वनस्पतिकायिक सब से सूक्ष्म और सब से सूक्ष्मतर है। २२ प्रश्न--हे भगवन् ! पृथ्वीकाय, अपकाय, अग्निकाय और वायुकाय में कौनसी काय सब से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर है ? २२ उत्तर--हे गौतम ! वायुकाय सब से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर है। २३ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकाय, अप्काय और अग्निकाय में कौन-सी काय सब से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर है ? २३ उत्तर-हे गौतम ! अग्निकाय सब से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर है। २४ प्रश्न--हे भगवन् ! पृथ्वीकाय और अपकाय में कौन-सी काय सब से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर है ? २४ उत्तर-हे गौतम ! अपकाय सब से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर है । विचचन-सूक्ष्म पृथिव्यादि चार काय की अपेक्षा वनस्पतिकाय सब से सूक्ष्म है और प्रत्येक वनस्पति की अपेक्षा सब से अधिक बादर है। स्थावरकाय की बादर-बादरतरता २५ प्रश्न-एयस्स णं भंते ! पुढविक्काइयस्स आउकाइयस्स For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श १९ उ. ३ स्थावरकाय की बादर-यादरतरता २७८७ तेउकाइयस्स वाउकाइयस्म वणस्सइकाइयरस कयरे काए सव्वबादरे, कयरे काए सव्ववादरतराए ? २५ उत्तर-गोयमा ! वणस्सइकाए सव्ववादरे, वणस्सइकाए सव्ववादरतराए । १ । ... २६ प्रश्न-एयस्त णं भंते ! पुढविकाइयस्स आउक्काइयस्स तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स कयरे काए सव्वबादरे, कयरे काप सव्ववादरतराए ? . २६ उत्तर-गोयमा ! पुढविक्काए सव्ववादरे, पुढविकाए सव्वबादरतगए । २। २७ प्रश्न-एयस्स णं भंते ! आउकाइयस्स तेउकाइयस्स वारकाइयस्स कयरे काए सव्वबादरे, कयरे काए सव्वबादरतराए ? २७ उत्तर-गोयमा ! आउकाए सव्वबादरे, आउकाए सव्वबादरतराए । ३। - २८ प्रश्न-एयस्स णं भंते ! तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स कयरे काए सव्वबादरे, कयरे काए सव्वबादरतराए ? . २८ उत्तर-गोयमा ! तेउकाए सब्ववादरे, तेउकाए सव्वबादर. तराए।४। कठिन शब्दार्थ-सव्ववादरतराए-सब से अधिका बादर । भावार्थ-२५ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकाय, अपकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय-इन में कौन-सी काय सब से बादर और बादरतर है ? For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८८ भगवती-सूत्र-श. १९ उ. ३ पृथ्वीकायिक शरीर की विशालता. . २५ उत्तर-हे गौतम ! वनस्पतिकाय सब से बादर और बादरतर है। २६ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय और वायुकाय में कौन-सी काय सब से वादर और बादरतर है ? २६ उत्तर-हे गौतम ! पृथ्वीकाय सब से बादर और बादरतर है । २७ प्रश्न-हे भगवन् ! अप्काय, अग्निकाय और वायकाय में कौन-सी काय सब से बादर और बादरतर है। २७ उत्तर-हे गौतम ! अप्काय सब से बादर और बादरतर है। २८ प्रश्न-हे भगवन् ! अग्निकाय और वायुकाय में कौन-सी काय संब से बादर और बादरतर है ? २८ उत्तर-हे गौतम ! अग्निकाय सबसे बादर और बादरतर है। विवेचन-सक्ष्म के कथन में वनस्पतिकाय को सूक्ष्म और सूक्ष्मतर बताया है। वह सूक्ष्म वनस्पतिकाय की अपेक्षा समझना चाहिये और यहाँ बादर के कथन में वनस्पतिकाय को सब से बादर और बादरतर बतलाया है, वह प्रत्येक बनस्पतिकाय की अपेक्षा समझना चाहिये। प्रथ्वीकायिक शरीर की विशालता २९ प्रश्न-केमहालए णं भंते ! पुढविसरीरे पण्णत्ते ? २९ उत्तर-गोयमा ! अणंताणं सुहुमवणस्सइकाइयाणं जावइया सरौरा से एगे सुहुमवाउसरीरे, असंखेजाणं सुहुमवाउसरीराणं जावइया सरीरा से एगे सुहुमतेउसरीरे, असंखेजाणं सुहमतेउकाइय. सरीराणं जावइया सरीरा से एगे सुहुमे आउसरीरे, असंखेजाणं सुहुमआउकाइयसरीराणं जावहया सरीरा से एगे सुहुमे पुढविसरीरे, For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १९ उ. ३ पृथ्वीकायिक गरीर की विशालता २७८९ असंखेजाणं मुहुमपुढविकाइयसरीराणं जावइया सरीरा से एगे बायरवाउसरीरे, असंखेजाणं बायरवाउकाइयाणं जावइया सरीग से एगे बायरतेउसरीरे, असंखेजाणं वायरतेउकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे बायरआउसरीरे, असंखेजाणं बायरआउकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे बायरपुढविसरीरे । एमहालए णं गोयमा ! पुढविसरौरे पण्णत्ते । भावार्थ-२९ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर कितना बड़ा कहा गया है ? २९ उत्तर-हे गौतम ! अनन्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों के जितने शरीर होते हैं, उतना एक सूक्ष्म वायुकाय का शरीर होता है । असंख्य सूक्ष्म वायुकायिक जीवों के जितने शरीर होते हैं, उतना एक सूक्ष्म अग्निकाय का शरीर होता है । असंख्य सूक्ष्म अग्निकाय के जितने शरीर होते हैं, उतना एक सूक्ष्म अप्काय का शरीर होता है। असंख्य सूक्ष्म अप्काय के जितने शरीर होते हैं, उतना एक सूक्ष्म पृथ्वीकाय का शरीर होता है । असंख्य सूक्ष्म पृथ्वीकाय के जितने शरीर होते हैं, उतना एक बादर वायुकाय का शरीर होता है । असंख्य बादर कायकाय के जितने शरीर होते हैं, उतना एक बादर अग्निकाय का शरीर होता है । असंख्य बादर अग्निकाय के जितने शरीर होते हैं, उतना एक गावर अप्काय का शरीर होता है। असंख्य बादर अप्काय के जितने शरीर होते हैं, उतना एक बादर पृथ्वीकाय का शरीर होता है । हे गौतम ! (अप्कायादि दूसरी कायों की अपेक्षा) इतना बड़ा पृथ्वीकाय का शरीर होता है। विवेचन-अनन्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव मिल कर एक औदारिक शरीर बांधते हैं, ऐसे असंख्य औदारिक शरीरों की जितनी अवगाहना होती है, उतनी एक सूक्ष्म वायुकायिक जीव के शरीर की अवगाहना होती है। क्योंकि पहले यह बतलाया जा चुका है कि सूक्ष्म वनस्पति की अवगाहना की अपेक्षा सूक्ष्म वायुकायिक जीवों को अवगाहना असंख्यात गुण होती है । इसी प्रकार आगे-आगे तेउकाय आदि के विषय में भी समझ लेना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०० भगवती सूत्र-श. १९ उ. ३ चयवर्ती की दासी का दृष्टांत चक्रवर्ती की दासी का दृष्टांत ३० प्रश्न-पुढविकाइयस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्तो ? ३० उत्तर-गोयमा ! से जहाणामए रण्णो चाउरंतचकवट्टिस्स वण्णगपेसिया तरुणी वलयं जुगवं जुवाणी अप्पायंका० वण्णओ जाव णिउणसिप्पोवगया, णवरं चम्मेढ़-दुहण-मुट्टियसमाहयणिचियगत्तकाया ण भण्णइ, सेसं तं चेव जाव णिउणसिप्पोवगया तिक्खाए वइरामईए सण्हकरणीए तिवखेणं वइरामएणं वट्टावरएणं एगं महं पुढविकाइयं जगोलोसमोणं गहाय पडिसाहरिय प० २ पडिसंखिविय पडि० २ जाव 'इणामेव' त्ति कटु तिसत्तक्खुत्तो उप्पीसेज्जा, तत्थ णं गोयमा ! अत्थेगइया पुढविकाइया आलिद्धा अत्थेगइया पुढविकाइया णो आलिद्धा, अत्थेगइया संघट्टि (ट्ठि) या अत्थेगइया णो संघट्टि (हि) या, अत्यंगइया परियाविया अत्थेगइया णो परियाविया, अत्थेगइया उद्दविया अत्यंगड्या णो उद्दविया, अत्थेगड्या पिट्ठा अत्यंगइया णो पिट्टा, पुढविकाइयस्स णं गोयमा ! पमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता। कठिन शब्दार्थ-वण्णगपेसिया-चन्दन घिसने वाली, तिक्खाए-तीक्ष्ण-कठोर, वइरामईए-वज्रमयी, णिउणसिप्पोवगया-कला में कुशल, चम्मेट-दुहण-मुट्टियसमाहयणिचियगत्तकाया-चर्मेष्ट दुघण और मुष्टिकादि व्यायाम से दृढ़ हुए शरीर युक्त । For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-१९ उ. ३ स्थावर जीवों की पीड़ा का उदाहरण २७९१ भावार्थ-३० प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव के शरीर को कितनी बड़ी अवगाहना कही गई है ? ३० उत्तर-हे गौतम ! जैसे चातुरन्त (चारों दिशा के स्वामी) चक्रवर्ती राजा को चन्दन घिसने वाली दासी हो, जो तरुणी, बलवती, युगवती (सुषम दुःषमा आदि तीसरे चौथे आरे में उत्पन्न हुई) वयप्राप्त, नीरोग इत्यादि वर्णन युक्त यावत् अत्यन्त कला-कुशल हो । (चर्मेष्ट, द्रुघण और मौष्टिक आदि व्यायाम के साधनों से मजबूत बने हुए शरीर वाली, इत्यादि विशेषण यहां नहीं कहने चाहिये । क्योंकि इन व्यायाम के साधनों की प्रवृत्ति स्त्री के लिये असम्भव एवं अयोग्य होने से इन विशेषणों के कथन का निषेध किया गया है) ऐसी दासी, चूर्ण पीसने की वज्रमयी कठोर शिला पर, वज्रमय कठोर शिलापुत्रक (लोढ़े) से लाख के गोले परिमाण एक बड़े पृथ्वीकाय का पिण्ड ले कर बारंबार इकट्ठा करती हुई और संक्षेप करती हुई पीसे यावत-'यह मैं अभी तुरन्त पीस देती हूँ'-ऐसा विचार कर इक्कीस बार पीसे, तो हे गौतम ! उनमें से कुछ पृथ्वीकायिक जीवों का उस शिला और शिलापुत्रक (पोसने का लोढ़ा) का मात्र स्पर्श होता है और कुछ का स्पर्श भी नहीं होता। कुछ का संघर्ष होता है और कुछ का संघर्ष भी नहीं होता, कुछ को पीड़ा होती है और कुछ को पीड़ा नहीं होती। कुछ मरते हैं और कुछ नहीं मरते तथा कुछ पोसे जाते हैं और कुछ पीसे भी नहीं जाते । हे गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव के शरीर को इतनी बड़ी (सूक्ष्म) अवगाहना होती है। स्थावर जीवों की पीड़ा का उदाहरण ३१ प्रश्न-पुढविकाइए णं भंते ! अकंते समाणे केरिसियं वेयणं पचणुन्भवमाणे विहरइ ? For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १९उ ३ स्थावर जीवों की पीड़ा का उदाहरण ३१ उत्तर - गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे तरुणे बलवं जाव णिउणसिप्पोवगए एगं पुरिसं जुष्णं जराजज्जरियदेहं जाव दुब्बलं किलतं जमलपाणिणा मुद्रासि अभिहणिज्जा, से णं गोयमा ! पुरिसे तेणं पुरिसेणं जमलपाणिणा मुद्धाणंसि अभिहए समा केरिसियं वैयणं पचणुव्भवमाणे विहरह ? अणिट्रं समणाउसो ! तस्स णं गोयमा ! पुरिसस्स वेयणाहिंतो पुढविकाइप अक्कते समाणे पत्तो अणितरियं चेव अकंततरियं जाव अमणामतरिय चेव 'वेयणं पञ्चणुभवमाणे विहरइ । २७९२ ३२ प्रश्न - आउयाए णं भंते ! संघट्टिए समाणे केरिसियं वेयणं पचणुभवमाणे विहरs | ३२ उत्तर-गोयमा ! जहा पुढविकाइए एवं चेव, एवं तेऊयाए वि एवं वाऊया वि, एवं वणस्सइकाए वि जाव विहरह । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति || गूणवीसइमे सए तईओ उद्देस समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ - अक्कते - आक्रान्त, जमलपाणिणा- दोनों हाथों से मुष्टि से, किलंतंक्लान्त, जराजज्जरियबेहं-जरा से जर्जरित शरीर वाला, मुद्धाणंसि मस्तक पर । भावार्थ - ३१ प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव को आक्रान्त किया जाने पर वह कैसी पीड़ा का अनुभव करता है ? ३१ उत्तर- 'हे गौतम! जैसे कोई पुरुष, युवक बलवान् यावत् अत्यन्त कला-कुशल हो, वह किसी बुढ़ापे से जीर्ण शरीरी पुरुष को जो जरा से जर्जरित For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ३ स्थावर जीवों की पीड़ा का उदाहरण २७९३ शरीर वाला हो यावत् दुर्बल और क्लान्त (रोग से पीड़ित) हो, उसके सिर पर दोनों मुष्टि से प्रहार करे, तो उस पुरुष द्वारा मुष्टि-प्रहार किया जाने पर वह वृद्ध पुरुष केसी पीड़ा का अनुभव करता है ?' 'हे भगवन् ! यह वृद्ध अत्यन्त अनिष्ट पीड़ा का अनुभव करता है।' हे गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव को आक्रान्त किया जाने पर वह उस वृद्ध पुरुष को वेदना की अपेक्षा अधिक अनिष्टतर, अकान्ततर (अप्रिय) यावत् अमनामतर (अत्यन्त अमनोज्ञ) पीड़ा का अनुभव करता है। ३२ प्रश्न-हे भगवन् ! जब अप्कायिक जीव का संघट्टा (संघर्ष-स्पर्श) होत है तब वह कैसी वेदना का अनुभव करता हैं ? ३२ उत्तर-हे गौतम ! पृथ्वीकाय के समान अप्काय का भी जानो। इसी प्रकार अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के लिए भी जानना चाहिये। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-पृथ्वीकायिकादि जीवों को किस प्रकार की पीड़ा होती है, यह छद्मस्थ पुरुषों के इन्द्रिय-गोचर नहीं हो सकती और न उनके ज्ञान का विषय हो सकती है । इसलिये भगवान् ने जरा-जीर्ण वृद्ध पुरुष का दृष्टान्त दे कर बतलाया है । परन्तु पृथ्वीकायिकादि के जीव उस वृद्ध पुरुष की अपेक्षा भी अन्यन्त अनिष्ट महावेदना को वेदते हैं। ॥ उन्नीसवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६ उद्देशक ४ नैरायक के महासवादि चतुष्क १ प्रश्न-सिय भंते ! णेरइया महासवा महाकिरिया महावेयणा महाणिजरा ? १ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समटे । ... २ प्रश्न-सिय भंते ! णेरइया महासवा महाकिरिया महावेयणा अप्पणिजरा ? २ उत्तर-हंता सिया। ३ प्रश्न-सिय अंते ! णेरइया महासवा महाकिरिया अप्पवेयणा महाणिजरा? ३ उत्तर-गोयमा ! णो इणढे समटे । ४ प्रश्न-सिय भंते ! गेरइया महासवा महाकिरिया अप्पवेयणा अप्पणिजरा ? ४ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समटे । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक जीव, महास्रव, महाक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १९ उ. ४ नरयिक के महायवादि चतुष्क २७९५ २ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक महासव, महाक्रिया, महावेदना और भल्पनिर्जरा वाले हैं ? २ उत्तर-हां, गौतम ! ऐसे हैं ? ३ प्रश्न-हे भगवन ! नैरयिक महास्रव, महाक्रिया, अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक महात्रव, महाक्रिया, अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ५ प्रश्न-सिय भंते ! णेरइया महासवा अप्पकिरिया महावेयणा महाणिजरा ? ५ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समझे। ६ प्रश्न-सिय भंते ! गेरइया महासवा अप्पकिरिया महावेयणा अप्पणिजरा ? ६ उत्तर-गोयमा ! णो इणद्वे समटे । ___७ प्रश्न-सिय भंते ! णेरइया महासवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा महाणिजरा ? ७ उत्तर-णो इणटे समढे। ८ प्रश्न-सिय भंते ! गेरइया महासवा अप्पफिरिया अप्पवेयणा अप्पणिजरा ? For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९६ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ४ नैरयिक के महावादि चतुष्क ८ उत्तर-णो इणठे समटे । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक महास्रव, अल्पक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । ६ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव महास्रव, अल्पक्रिया, महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव महास्रव, अल्पक्रिया, अल्पवेदना .. और महानिर्जरा वाले हैं ? ७ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव महास्रव, अल्पक्रिया, अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ९ प्रश्न-सिय भंते ! णेरइया अप्पासवा महाकिरिया महावेयणा महाणिजरा ? ९ उत्तर-णो इणठे समठे । १० प्रश्न-सिय भंते ! णेरइया अप्पासवा महाकिरिया महावे. यणा अप्पणिजरा ? १० उत्तर-णो इणढे समटे । ११ प्रश्न-सिय भंते ! णेरइया अप्पासवा महाकिरिया अप्पवेयणा महाणिजरा ? For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती मूत्र-श. १५ उ. ४ नेरयिक के महाववादि चतुष्क २७९७ ११ उत्तर-णो इणटे समटे । १२ प्रश्न-सिय भंते ! गेरइया अप्पासवा महाकिरिया अप्पवेयणा अप्पणिज्जरा ? १२ उत्तर-णो इणढे समढे। भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव अल्पाश्रव, महाक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं ? ९ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। १० प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव अल्पास्रव, महाक्रिया, महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं ? १० उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है ? ११ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव अल्पास्रव, महाक्रिया, अल्पवेदना महानिर्जरा वाले हैं ? ११ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव अल्पास्त्रव, महाक्रिया, अल्पवेदना भौर अल्पनिर्जरा वाले हैं ? १२ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। २३ प्रश्न-सिय भंते ! णेरइया अप्पासवा अप्पकिरिया महा. वेयणा महाणिजरा ? २३ उत्तर-णो इण? समटे । १४ प्रश्न-सिय भंते ! णेरइया अप्पासवा अप्पकिरिया महा. वेयणा अप्पणिजरा ? For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९८ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ४ नैरयिक के महास्रवादि चतुष्क १४ उत्तर - णो णट्टे समट्टे । १५ प्रश्न - सिय भंते ! णेरड्या अप्पासवा अप्पकिरिया अप्प वेणा महाणिज्जरा ? १५ उत्तर - णो इण समट्टे । १६ प्रश्न - सिय भंते ! णेरइया अप्पासवा अप्पकिरिया अप्प - वेणा अप्पणिजरा ? १६ उत्तर - णो इट्टे समट्ठे । एए सोलस भंगा । भावार्थ - १३ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीव अल्पास्रव, अल्पक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं ? १३ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । १४ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीव अल्पास्रव, अल्पक्रिया, महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं ? १४ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । १५ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीव अल्पास्रव, अल्पक्रिया, अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले हैं ? १५ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । १६ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीव अल्पास्रव, अल्पक्रिया, अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं ? १६ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । ये सोलह भंग हैं । विवेचन — जीवों के शुभाशुभ परिणामों के अनुसार आस्रव, क्रिया, बेदना और निर्जरा, ये चार बातें होती हैं । परिणामों की तीव्रता के कारण ये चार बातें 'महान् ' और परिणामों की मन्दता के कारण 'अल्प' रूप में परिणत होती हैं। किन जीवों में किसकी 'महत्ता' और किसकी 'अल्पता' पाई जाती है - यह बताने के लिए 'आस्रव, क्रिया, For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श १९ उ. ४ नैरयिक के महायवादि चतुष्क २७९९ वेदना और निर्जरा' इन चार के चतु:संयोगी सोलह भंग बनते हैं । वे इस प्रकार हैं १ महानव, महाक्रिया, महावेदना, महानिर्जरा। २ महासव, महाक्रिया. मद्रावेदना. अल्पनिर्जरा । ३ महास्रव, महाक्रिया, अल्पवेदना, महानिर्जरा। ४ महास्रव, महाक्रिया, अल्पवेदना, अल्पनिर्जरा। ५ महानव, अल्पक्रिया, महावेदना, महानिर्जरा । ६ महास्रव, अल्पक्रिया, महावेदना, अल्पनिर्जरा। ७ महास्रव, अल्पक्रिया, अल्पवेदना, महानिर्जरा । ८ महासव, अल्पक्रिया. अल्पवेदना. अल्पनिर्जरा। ५ अल्पाम्रव, महाक्रिया, महावेदना, महानिर्जरा । १० अल्पाम्रव, महाक्रिया, महावेदना, अल्पनिर्जरा। ११ अल्पाम्रव, महाक्रिया, अल्पवेदना, महानिर्जरा। १. अल्पाम्रव, महाक्रिया, अल्पवेदना, अल्पनिर्जरा। १३ अल्पास्रव, अल्पक्रिया, महावेदना, महानिर्जरा। १४ अल्पास्रव, अल्पक्रिया, महावेदना, अल्पनिर्जरा। १५ अल्पाम्रव, अल्पक्रिया, अल्पवेदना, महानिर्जरा। १६ अल्पास्रव, अल्पक्रिया, अल्पवेदना, अल्पनिर्जरा । नरयिक जीवों में 'महास्रव, महाक्रिया, महावेदना और अल्पनिर्जरा' यह दूसरा भंग ही पाया जाता है, क्योंकि नैरयिक जीवों के कर्मों का बन्ध होता है, इसलिए वे , 'महास्रवी' हैं। उनके कायिकी' आदि क्रिया बहुत होती.है, इसलिए वे 'महाक्रिया' वाले हैं। उनके असातावेदनीय का तीव उदय है, इसलिए वे महावेदना वाले होते हैं। उनमें 'अविरति परिणाम' होने से निर्जरा बहुत थोड़ी होती है, इसलिए वे 'अल्पनिर्जरा' वाले हैं । इस प्रकार यह दूसरा भंग पाया जाता है। शेष पन्द्रह भंग नैरयिकों में नहीं पाये जाते। १७ प्रश्न-सिय भंते ! असुरकुमारा महासवा महाकिरिया महा. वेयणा महाणिजरा ? For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०० भगबती सूत्र-श. १९ उ. ४ देवादि के महाप्रवादि चतुष्क १७ उत्तर-णो इणटे समझे । एवं चउत्थो भंगो भाणियव्वो, सेसा पण्णरस भंगा खोडेयव्वा, एवं जाव थणियकुमारा। ____१८ प्रश्न-सिय भंते ! पुढविकाइया महासवा महाकिरिया महावेयणा महाणिजरा ? १८ उत्तर-हंता सिया। प्रश्न-एवं जाव सिय भंते ! पुढविकाइया अप्पासवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा अप्पणिज्जरा ? उत्तर-हंता सिया, एवं जाव मणुस्सा, वाणमंतर-जोइसिय वेमा. णिया जहा असुरकुमारा। * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ * ॥ एगूणवीसइमे सए चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्वाई-खोडेयवा-निषेध करना चाहिये। __ भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार महास्रव, महाक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं ? . १७ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इस प्रकार यहां केवल चौथा भंग कहना चाहिये । शेष पन्द्रह मंगों का निषेध करना चाहिये । इस प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना चाहिये । १८ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव महास्रव, महाक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं ? १८ उत्तर-हाँ, गोतम ! है । इस प्रकार यावत् । प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव अल्पास्रव, अल्पक्रिया, अल्पवेदना For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १२. उ. ५ चरम-परम नरयिक के कर्म-त्रियादि २८०१ और अल्पनिर्जरा वाले हैं ? उत्तर-हाँ गौतम ! हैं। इस प्रकार यावत् मनुष्यों तक जानना चाहिये। वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक को असुरकुमार के समान जानना चाहिये। _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'-कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--भवनपति वाणव्यन्तर. ज्योतिषी और वैमानिक देवों में 'महाम्रव, महाक्रिया, अल्पवेदना, अल्पनिर्जरा'- यह चौथा भंग पाया जाता है । इनमें अमातावेदनीय का उदय प्रायः नहीं होने से वेदना भी अल्प है और निर्जरा भी अल्प है । इस प्रकार देवों में यह एक भंग पाया जाता है । शेष पन्द्रह भग इनमें नहीं पाये जाते । एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय तेइंद्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिथंच पचेन्द्रिय और मनुष्य, इन सभी में परिणामानुसार सोलह-सभी-भंग पाये जाते हैं । ॥ उन्नीसवें शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण । शतक १६ उद्देशक ५ चरम-परम नैरयिक के कर्म-क्रियादि १ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! चरिमा वि णेरइया परमा वि णेरड्या ? १ उत्तर-हंता अस्थि । For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 भगवती सूत्र - श. १९ उ. ५ चरम परम नैरयिक के कर्म क्रियादि २ प्रश्न-से णूणं भंते ! चरमेहिंतो णेरइएहिंतो परमा णेरइया महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चेव, महस्वतरा चेव, महावेयणतरा चैव परमेहिंतो वा णेरहएहिंतो चरमा णेरहया अप्पकम्मतरा चैव, अप्पकिरियतरा चैव अप्पासक्तरा चेव, अप्पवेयणतरा चेव ? २ उत्तर - हंता गोयमा ! चरमेहिंतो णेरइएहिंतो परमा जाव महावेयणतरा चेव, परमेहिंतो वा रहर हिंतो चरमा णेरइया जाव अपवेयणतरा चेव । २८०२ و प्रश्न-से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ - जाव 'अप्पवेयणतरा चेव' ? उत्तर - गोयमा ! ठितिं पडुच्च, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइजाव 'अप्पवेयणतरा चेव' । कठिन शब्दार्थ - - चरिमा-- अल्प स्थिति वाले, परमा - महास्थिति वाले । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक चरम ( अल्प आयुष्य वाले ) भी हैं और परम ( अधिक आयुष्य वाले ) भी हैं ?. १ उत्तर- हाँ, गौतम ! हैं । २ प्रश्न - हे भगवन् ! चरम नैरयिकों की अपेक्षा परम नैरयिक महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महास्रव वाले और महावेदना वाले हैं ? तथा परम नैरयिकों की अपेक्षा चरम नैरयिक अल्प कर्म, अल्पक्रिया, अल्पास्रव और अल्पवेदना वाले हैं ? २ उत्तर - हां, गौतम ! चरम नैरयिकों की अपेक्षा परम नैरयिक यावत् महावेदना वाले हैं और परम नैरयिकों को अपेक्षा चरम नैरयिक यावत् अल्पवेदना वाले हैं । For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ५ चरम-परम नैरयिक के कर्म-क्रियादि २८०३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि यावत् परम नैरयिकों की अपेक्षा चरम नैरयिक यावत् अल्पवेदना वाले हैं ? उत्तर-हे गौतम ! स्थिति (आयुष्य) की अपेक्षा यावत् अल्पवेदना वाले होते हैं। ३ प्रश्न-अत्थि णं भंते ! चरमा वि असुरकुमाग परमा वि असुरकुमारा ? ३-उत्तर-एवं चेव, णवरं विवरीयं भाणियव्वं, परमा अप्पकम्मा, चरमा महाकम्मा । सेसं तं चेव जाव थणियकुमारा ताव एवमेव । पुढविकाइया जांव मणुस्सा एए जहा गैरइया । वाणमंतर-जोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा। कठिन शब्दार्थ-विवरीयं-विपरीत। भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार चरम भी होते हैं और परम भी होते हैं ? ...... ३ उत्तर-हां, गौतम ! होते हैं, इसी प्रकार । किंतु यहां पूर्व कथन से विपरीत कहना चाहिये, क्योंकि परम असुरकुमार (अशुभ कर्म की अपेक्षा) अल्पकर्म वाले हैं और चरम असुरकुमार महाकर्म वाले है । शेष पूर्ववत्, यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त जानना चाहिए। जिस प्रकार नरयिक के लिए कहा गया है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिकादि यावत् मनुष्य तक वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक असुरकुमार के समान हैं। ४ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! वेयणा पण्णत्ता ? ४ उत्तर-गोयमा ! दुविहा वेयणा पण्णत्ता । तं जहा-णिदा य For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०४ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ५ चरम-परम ने रयिक के कर्म-क्रियादि . अणिदा य। ५ प्रश्न-णेरइया णं भंते !कि णिदायं वेयणं वेयंति, अणि दायं०? उत्तर-जहा पण्णवणाए जाव 'वेमाणिय' त्ति । ® 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' ॐ ॥ एगूणवीसहमे सए पंचमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? ४ उत्तर-हे गौतम ! वेदना दो प्रकार की कही गई है। यथा-निदा (ज्ञानपूर्वक-उपयोगपूर्वक वेदी जाने वाली) और अनिदा (अज्ञान-अनजानपूर्वक वेदी जाने वाली)। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक निदा वेदना वेदते हैं या अनिदा वेदना? ५ उत्तर-हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के पैंतीसवें पद के अनुसार । इसी । प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिये। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन-यहां 'चरम' का अर्थ है-अल्प स्थिति (आयुष्य) वाले और 'परम' का अर्थ है-दीर्घ स्थिति (लम्बी आयुष्य) वाले । - जिन नैरयिकों की स्थिति दीर्घ (लम्बी) होती है, उनके अल्प स्थिति वाले नरयिकों की अपेक्षा अशुभ कर्म अधिक होते हैं, इसलिए वे महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महास्रव वाले और महावेदना वाले होते हैं जिन नैरयिकों की स्थिति अल्प होती है, उनके दीर्घ स्थिति वाले नैरयिकों की अपेक्षा अशुभकर्मादि अल्प होने से वे अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्पास्रव और अल्पवेदना वाले होते हैं। ज्ञानपूर्वक अर्थात् उपयोगपूर्वक वेदी जाने वाली वेदना को शास्त्रीय भाषा में 'निदा' For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--१. १५. उ. ६ द्वीप-ममुद्र २८०५ वेदना कहते हैं और अज्ञानपूर्वक अर्थात् अनजानपने में वेदी जाने वाली वेदना को 'अनिदा' वेदना कहते हैं । नैरयिक जीवों को दोनों प्रकार की वेदना होती है। जो संज्ञी जीवों से आ कर उत्पन्न होते हैं, वे 'निदा' वेदना वेदते हैं और जो असंज्ञी से आ कर उत्पन्न होते हैं, वे 'अनिदा' वेदना वेदते हैं । इस प्रकार असुरकुमार आदि देवों के विषय में भी जानना चाहिये । पृथ्वी कायिक आदि से ले कर चतुरिन्द्रिय जीवों तक केवल 'अनिदा' वेदना वेदते हैं । पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य और वाणव्यन्तर-ये नरयिकों के समान दोनों प्रकार की वेदना वेदते हैं । ज्योतिषी और वैमानिक भी दोनों प्रकार की वेदना वेदते हैं, किन्तु दूसरों की अपेक्षा उनके कारण में अन्तर है । जो मायी-मिथ्यादृष्टि देव हैं, वे अनिदा' वेदना वेदते है और जो अमायी-समदृष्टि देव हैं, वे 'निदा' वेदना वेदते हैं। ॥ उन्नीसवें शतक का पाँचवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १६ उद्देशक द्वीप-समुद्र . १ प्रश्न-कहि णं भंते ! दीवसमुद्दा ? केवइया णं भंते ! दीवसमुद्दा ? किंसंठिया गंभंते ! दीवसमुद्दा ? १ उत्तर--एवं जहा जीवाभिगमे दीवसमुदुद्देसो सो चेव इह वि For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०६ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ६ द्वीप-समुद्र जोइसियमंडिउद्देसगवज्जो भाणियब्वो जाव परिणामो, जीवउववाओ, जाव अणंतखुत्तो। 3 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' ॥ एगणवीसइसे सए छ?ओ उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! द्वीप और समुद्र कहां और कितने हैं ? हे भगवन् ! द्वीप-समुद्रों का आकार कसा कहा गया है ? .. १ उत्तर-हे गौतम ! जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति में ज्योतिष्कमण्डित उद्देशक को छोड़ कर, द्वीप-समुद्रोद्देशक यावत् 'परिणाम,' 'जीवों का उत्पाद यावत् अनन्त बार, तक जानना चाहिये। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के द्वीप-समुद्रोद्देशक में ज्योतिषी मण्डल का भी वर्णन किया गया है, किन्तु उसे यहां नहीं कहना चाहिये । स्वयम्भूरमण समुद्र तक असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं । इनमें से जम्बूद्वीप का संस्थान चन्द्रमा या स्थाली के समान गोल हैं । शेष सब द्वीप समुद्रों का संस्थान चूड़ी के समान गोल है । क्योंकि ये एक-दूसरे को चारों ओर से घेरे हुए हैं । इनमें जीव पहले अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं। ॥ उन्नीसवें शतक का छठा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ VERY DIO For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गये हैं । शतक १९ उद्देशक ७ १ प्रश्न - केवइया णं भंते! असुरकुमार भवणावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? १ उत्तर - गोयमा ! चउसद्धिं असुरकुमार भवणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । २ प्रश्न - ते णं भंते! किंमया पण्णत्ता ? २ उत्तर - गोयमा ! सव्वरयणामया, अच्छा, सण्हा, जाव पडिरूवा । तत्थ णं बहवे जीवा य पोग्गला य वकमंति, विउक्कमंति चयंति, उववज्जंति । सासया णं ते भवणा दव्वट्टयाए; वण्णपज्जवेहिं, जाव फासपज्जवेहिं असासया, एवं जाव थणियकुमारावासा । कठिन शब्दार्थ - किमया - किससे बने | भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! असुरकुमारों के कितने लाख भवनावास कहे गये हैं ? १ उत्तर - हे गौतम! असुरकुमारों के चौसठ लाख भवनावास कहे देवावास रत्नमय हैं २ प्रश्न - हे भगवन् ! वे भवनावास किमय ( किससे बने हुए ) हैं ? २ उत्तर - हे गौतम! वे भवनावास सर्व रत्नमय, स्वच्छ, श्लक्ष्ण For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०८ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ७ देवावास रत्नमय हैं (कोमल) यावत् प्रतिरूप (सुन्दर) हैं। वहां बहुत से जीव और पुद्गल उत्पन्न होते हैं और विनष्ट होते हैं, चवते हैं, उत्पन्न होते हैं । वे भवन द्रव्याथिक रूप से शाश्वत हैं और वर्ण-पर्यायों यावत् स्पर्श-पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत हैं। इस प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना चाहिये । ३ प्रश्न-केवइया णं भंते ! वाणमंतरभोमेजणयरावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? ३ उत्तर-गोयमा ! असंखेजा वोणमंतरभोमेजणयरावाससय. सहस्सा पण्णत्ता। ४ प्रश्न-ते णं भंते ! किंमया पण्णता ? ४ उत्तर-सेसं तं चेव । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों के भूमि के अन्तर्गत कितने लाख नगर कहे गये हैं ? ' ३ उत्तर-हे गौतम ! वाणव्यन्तरों के भूमि के अन्तर्गत असंख्यात लाख नगर कहे गये हैं। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों के वे नगर किमय हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् ! ५ प्रश्न-केवड्या णं भंते ! जोइसियविमाणावाससयसहस्सापुच्छा । ५ उत्तर-गोयमा ! असंखेजा जोइसिय० । For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १९ उ. ७ देवावाम रत्नमय हैं ६ प्रश्न - ते णं भंते ! किंमया पण्णत्ता ? ६ उत्तर - गोयमा ! सव्वालिहामया, अच्छा, सेसं तं चैव । भावार्थ - ५ प्रश्न - हे भगवन् ! ज्योतिषी देवों के कितने लाख विमान कहे गये हैं । ५ उत्तर - हे गौतम! असंख्य लाख विमान कहे गये हैं । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! वे विमानावास किस वस्तु से बने हुए हैं ? ६ उत्तर - हे गौतम! वे विमानावास सर्व स्फटिक रत्नमय है और स्वच्छ हैं। शेष सब पूर्ववत् । ७ प्रश्न - सोहम्मे णं भंते! कप्पे केवइया विमाणावासस्य सहरसा पण्णत्ता ? ७ उत्तर - गोयमा ! बत्तीसं विमाणावासमयसहस्सा पण्णत्ता । ८ प्रश्न - ते णं भंते ! किंमया पण्णत्ता ? २८०९ ८ उत्तर - गोयमा ! सव्वरयणामया, अच्छा, सेसं तं चेव जाव अणुत्तरविमाणा, णवरं जाणेयव्वा जत्थ जत्तिया भवणा विमाणा वा । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति || गूणवीस मे सए सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ - ७ प्रश्न - हे भगवन् ! सौधर्मकल्प में कितने लाख विमानावास कहे गये हैं ? ७ उत्तर - हे गौतम! वहाँ बत्तीस लाख विमानावास कहे गये हैं । ८ प्रश्न - हे भगवन् ! वे विमानावास किमय हैं ? For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१० भगवती सूत्र-ग. १९ उ. ८ जीव-निनि आदि ८ उत्तर-हे गौतम ! वे सर्व रत्नमय और स्वच्छ है । शेष सब पूर्ववत् यावत् अनुत्तर विमानों तक कहना चाहिये। विशेष यह है कि जहां जितने भवन या विमान हों उतने कहना चाहिये । . 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'-कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ उन्नीसवें शतक का सातवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १६ उद्देशक ८ महार जीव-निवृति आदि १ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! जीवणिवत्ती पण्णत्ता ? . १ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा जीवणिवत्ती पण्णत्ता, तं जहाएगिंदियजीवणिवत्ती जाव पंचिंदियजीवणिवत्ती। २ प्रश्न-एगिंदियजीवणिवत्ती णं भंते ! कइविहा पण्णता ? २ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइयपगिदियजीवणिवत्ती जाव वणस्सइकाइयएगिंदियजीवणिवत्ती । For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - १९ उ. ८ जीव-निवृनि आदि २८११ ३ प्रश्न-पुढविकाइयएगिदियजीवणिवत्ती णं भंते ! कहविहा पण्णता ? ३ उत्तर-गोयमा ! दुविहा पण्णता, तं जहा-सुहुमपुढविकाइय. एगिंदियजीवणिव्वत्ती य बायरपुढवि०, एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा वडगबंधो तेयगसरीरस्स, जाव प्रश्न-'सबट्टसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पाईयवेमाणियदेवपंचिंदियजीवणिवत्ती णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ?' उत्तर-गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पजत्तगसव्वदृसिद्धअणुत्तरोववाइय जावं देवपंचिंदियजीवणिवत्ती य अपज्जत्तगसव्वट्ठ. सिद्धाणुतरोववाइय जाव देवपंचिंदियजीवणिव्वत्ती य । कठिन शब्दार्थ-णिवत्ती-निर्वृत्ति-रचना । ___ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव-निर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? १ उत्तर-हे गौतम ! जीव-निर्वृत्ति पाँच प्रकार की कही गई है । यथाएकेन्द्रिय जीव-निर्वृत्ति यावत् पञ्चेन्द्रिय जीव-निर्वृत्ति। २ प्रश्न-हे भगवन् ! एकेन्द्रिय जोव-निर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? २ उत्तर-हे गौतम ! पांच प्रकार की कही गई है। यथा-पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीव-निर्वृत्ति यावत् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीव-निर्वत्ति । ३ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीव-निवृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? . ३ उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार को कही गई है। यथा-सूक्ष्म पृथ्वीकायिक For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१२ भगवती मूत्र-श. १६ उ. ८ जीव-निवृनि आदि एकेन्द्रिय-जीव-निर्वत्ति और बादरपृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीव-निर्वृत्ति । इस अभिलाप द्वारा आठवें शतक के नौवें उद्देशक में बहद बन्धाधिकार में कथित तेजस-शरीर के भेदों के समान यहाँ भी जानना चाहिये, यावत् प्रश्न-हे भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक वैगानिक देव पञ्चेन्द्रिय जीव-निर्वति कितने प्रकार की कही गई है ? उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार की कही गई है । यथा-पर्याप्त सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिक वैमानिक देव पञ्चेन्द्रिय जीव-निर्वृत्ति और अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक वैमानिक देव पञ्चेन्द्रिय जीव-निर्वति। ' विवेचन-निर्वृत्ति का अर्थ है- रचना, निष्पत्ति अर्थात् बनावट की पूर्णता । यहाँ पर जीव-निर्वृत्ति आदि का वर्णन किया गया है । जो भावार्थ से ही स्पष्ट है । ४ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! कम्मणिवत्ती पण्णता ? ४ उत्तर-गोयमा ! अट्टविहा कम्मणिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहाणाणावरणिजकम्मणिवत्ती जाव अंतराइयकम्मणिवत्ती। ५ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! कइविहा कम्मणिवत्ती पण्णता ? ५ उत्तर-गोयमा ! अट्टविहा कम्मणिवत्ती पण्णत्ता, तं जहाणाणावरणिजकम्मणिव्यत्ती जाव अंतराइयकम्मणिव्वत्ती, एवं जाव वेमाणियाणं । भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! कर्म-निवृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? ४ उत्तर-हे गौतम ! कर्म-निर्वृत्ति आठ प्रकार की कही गई है । यथाज्ञानावरणीय कर्म-निर्वृत्ति यावत् अन्तराय कर्म-निवृत्ति । ५ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीवों के कितने प्रकार की कर्म-निर्वृत्ति कही गई है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! आठ प्रकार की कर्म-निवृत्ति कही गई है । यथा For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १९ उ ८ जीव-निर्वृत्ति आदि ज्ञानावरणीय कर्म- निर्वृत्ति यावत् अन्तराय कर्म- निर्वृत्ति । इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त । ६ प्रश्न - कविद्या णं भंते! सरीरणिव्वत्ती पण्णत्ता ? ६ उत्तर - गोयमा ! पंचविहा सरीरणिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहाओरालियसरीरणिव्वत्ती जाव कम्मगसरीरणिव्वत्ती । २८१३ ७ प्रश्न - रइयाणं भंते ! • ? ७ उत्तर - एवं चेव, एवं जाव वेमाणियाणं । णवरं णायव्वं जस्स जइ सरीराणि । भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! शरीर-निर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? ६ उत्तर - हे गौतम! शरीर-निर्वृत्ति पाँच प्रकार की कही गई है । यथा - औदारिक शरीर निर्वृत्ति यावत् कार्मण शरोर निर्वृत्ति । ७ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरधिक जीबों के कितने प्रकार की शरीर-निर्वृत्ति कही गई है ? ७ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् । यावत् वैमानिक तक जानना चाहिये, किन्तु जिसके जितने शरीर हों, उतने कहने चाहिये । ८ प्रश्न - कह विहाणं भंते ! सव्विदियणिव्वत्ती पण्णत्ता ? ८ उत्तर - गोयमा ! पंचविद्या सबिंदियणिव्यत्ती पण्णत्ता तं जहा- सोइंदियणिव्वती जाव फासिंदियणिव्वत्ती, एवं णेरहयाणं जाव थणियकुमाराणं । For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१४ भगवती सूत्र-. १९ उ. ८ जीव-निवृत्ति आदि ९ प्रश्न-पुढविकाइयाणं पुच्छा। ९ उत्तर-गोयमा ! एगा फासिंदियणिवत्ती पण्णत्ता, एवं जस्स जइ इंदियाणि जोव वेमाणियाणं । भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! सर्वेन्द्रिय निर्वृत्ति कितने प्रकार को कही गई है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! सर्वेन्द्रिय निर्वत्ति पांच प्रकार की कही गई है। यथा-श्रोत्रेन्द्रिय-निर्वृत्ति यावत् स्पर्शनेन्द्रिय निर्वृत्ति । इस प्रकार नरयिक यावत् स्तनितकुमार तक। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वोकायिक जीवों के कितनी इन्द्रिय-निर्वत्ति कही गई है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! एक स्पर्शनेन्द्रिय निर्वृत्ति कही गई है । इस प्रकार जिसके जितनी इन्द्रियां हों, उतनी इन्द्रिय निर्वत्ति कहनी चाहिये । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक कहना चाहिये। १० प्रश्न-कइविहा णं भंते ! भासाणिवत्ती पण्णत्ता ? -- १० उत्तर-गोयमा ! चउन्विहा भासाणिव्वत्ती पण्णता, तं जहासच्चाभासाणिवत्ती, मोसमासाणिवत्ती, सचामोसमासाणिवत्ती, असच्चामोसमासाणिवत्ती । एवं एगिदियवजं जस्स जा भासा जाव वेमाणियाणं । __भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! भाषा-निर्वृत्ति कितने प्रकार को कही . १० उत्तर-हे गौतम ! भाषा-निवृत्ति चार प्रकार को कही गई है। For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ८ जीव-निर्वृत्ति आदि २८१५ यथा-सत्यभाषा नित्ति, मषाभाषा निर्वत्ति, सत्यमषा भाषा निर्वति और असत्यामृषा भाषा निवृत्ति । इस प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक तक-जिसके जो भाषा हो उसके उतनी भाषा निर्वृत्ति कहनी चाहिये । ११ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! मणणिवत्ती पण्णत्ता ? ११ उत्तर-गोयमा ! चरविहा मणणिवत्ती पण्णत्ता, तं जहा१ सच्चमणणिवत्ती जाव असच्चामोसमणणिवत्ती। एवं एगिदिय. विगलिंदियवजं जाव वेमाणियाणं । __भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! मनो-निवृत्ति कितने प्रकार की कही ११ उत्तर-हे गौतम ! मनो-निर्वत्ति चार प्रकार की कही गई है। यथा-सत्यमनो-निर्वत्ति, यावत् असत्यामषा मनो-निवृत्ति । इस प्रकार एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़कर यावत वैमानिक तक कहना चाहिये? १२ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! कसायणिव्वत्ती पण्णता ? १२ उत्तर-गोयमा! चउन्विहा कसायणिवत्ती पण्णत्ता, तंजहाकोहकसायणिवत्ती जावलोभकसायणिवत्ती, एवं जाव वेमाणियाणं। भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय-निवृत्ति कितने प्रकार की कही . १२ उत्तर-हे गौतम ! कषाय-निवृत्ति चार प्रकार को कही गई है। यथा--क्रोधकषाय-निर्वृत्ति यावत् लोभकषाय-निवृत्ति । इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त । For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१६ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ८ जीव-निवृत्ति आदि M mmmmmm १३ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! वण्णणिवत्ती पण्णत्ता ? १३ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा वण्णणिवत्ती पण्णत्ता, तं जहाकालावण्णणिवत्ती जाव सुकिल्लवण्णणिव्वत्ती, एवं गिरवसेसं जाव वेमाणियाणं । एवं गंधणिवत्ती दुविहा जाव वेमाणियाणं । रसणिव्वत्ती पंचविहा जाव वेमाणियाणं। फासणिवत्ती अट्टविहा जाव वेमाणियाणं। भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! वर्ण निर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? १३ उत्तर-हे गौतम ! वर्ण-निर्वृत्ति पांच प्रकार की कही गई है। यथा-कृष्णवर्ण निर्वृत्ति यावत शुक्लवर्ण-निर्वृत्ति । इस प्रकार सब यावत् वैमानिक पर्यन्त । इसी प्रकार दो प्रकार की गन्ध-निर्वत्ति, पांच प्रकार की रसनिर्वृत्ति और आठ प्रकार की स्पर्श-निर्वृत्ति यावत् वैमानिक पर्यन्त । १४ प्रश्न-कहविहा णं भंते ! संठाणणिवत्ती पण्णता ? १४ उत्तर-गोयमा ! विहा संठाणणिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहासमचउरंससंठाणणिवत्ती जाव हुंडसंठाणणिवत्ती। १५ प्रश्न-णेरइयाणं पुच्छा। १५ उत्तर-गोयमा ! एगा हुंडसंठाणणिव्वत्ती पण्णत्ता । १६ प्रश्न-अमुरकुमाराणं पुच्छ । १६ उत्तर-गोयमा ! एगा समचउरंससंठाणणिव्वत्ती पण्णत्ता, एवं जाव थणियकुमाराणं । For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सुत्र-श. १९ उ. ८ जीव-निर्वति आदि २८१७ १७ प्रश्न-पुढविकाइयाणं पुच्छा। १७ उत्तर-गोयमा ! एगा मसूरचंदसंठाणणिवत्ती पण्णत्ता, जस्स जं संठाण जाव वेमाणियाणं । कठिन शब्दार्थ-मसूरचंदसंठाण-मसूर की दाल के आकार अर्थात् हुण्डक संस्थान । भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! संस्थान-निर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? १४ उत्तर-हे गौतम ! संस्थान-निवृत्ति छह प्रकार की कही गई है। यथा-समचतुरस्र संस्थान-निर्वृत्ति यावत् हुण्डक संस्थान-निवृत्ति । १५ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिकों के संस्थान-निवृत्ति कितनी है ? १५ उत्तर-हे गौतम ! एक हुण्डक संस्थान-निवृत्ति कही गई है। १६ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमारों के संस्थान-निर्वत्ति कितनी है ? १६ उत्तर-हे गौतम ! एक समचतुरस्त्र संस्थान-निवृत्ति है। इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त । १७ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के संस्थान निर्वत्ति-कितनी है ? १७ उत्तर-हे गौतम ! एक मसूर-चन्द्र (मसूर की दाल के समान) संस्थान-निवृत्ति कही गई है। इस प्रकार जिसके जो संस्थान हो, वह कहना चाहिये । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक । १८ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! सण्णाणिवत्ती पण्णता ? १८ उत्तर-गोयमा ! चउन्विहा सण्णा णिवत्ती पण्णत्ता, तं जहा-आहारसण्णाणिवत्ती जाव परिग्गहसण्णाणिवत्ती, एवं जाव वेमाणियाणं। For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१८ गई है ? १८ उत्तर - हे गौतम! संज्ञा-निर्वृत्ति चार प्रकार की कही गई है । यथा - आहारसंज्ञा-निर्वृत्ति यावत् परिग्रहसंज्ञा-निर्वृत्ति । इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त । भगवती सूत्र - श. १९ उ. ८ जीव- निर्वृत्ति आदि भावार्थ - १८ प्रश्न - हे भगवन् ! संज्ञा-निर्वृत्ति कितने प्रकार की कही १९ प्रश्न - इविहाणं भंते ! लेस्साणिव्वत्ती पण्णत्ता ? १९ उत्तर - गोयमा ! छव्विहा लेस्साणिव्वती पण्णत्ता, तं जहाकण्हलेस्साणिव्वत्ती जाव सुकलेस्साणिव्वत्ती, एवं जाव वेमाणियाणं जस्स जइ लेस्साओ । भावार्थ - १९ प्रश्न - हे भगवन् ! लेश्या- निर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? १९ उत्तर - हे गौतम ! लेश्या - निर्वृत्ति छह प्रकार की कही गई है । यथा - कृष्णलेश्या - निर्वृत्ति यावत् शुक्ललेश्या - निर्वृत्ति । इस प्रकार यावत् वेमानिक तक जिसके जितनी लेश्या हो, उतनी लेश्या - निर्वृत्ति कहनी चाहिये । २० प्रश्न - कविहा णं भंते! दिट्टीणिव्वत्ती पण्णत्ता ? २० उत्तर - गोयमा ! तिविहा दिट्टीणिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहासम्मादिट्ठीणिव्वत्ती, मिच्छदिट्टिणिव्वत्ती सम्मामिच्छदिट्टीनिवत्ती । एवं जाव वेमाणियाणं जस्स जइविहा दिट्ठी । भावार्थ - २० प्रश्न - हे भगवन् ! दृष्टि-निर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. १९ उ. = जीव- निर्वृति आदि २० उत्तम - हे गौतम ! दृष्टि-निर्वृत्ति तो प्रकार की कही गई है । यथा - सम्यग्दृष्टि-निर्वृत्ति, मिथ्यादृष्टि-निर्वृत्ति और सम्यग्मिथ्यादृष्टि - निर्वृत्ति । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जिसके जितनी दृष्टि हो । २१ प्रश्न - कह विद्या णं भंते! णाणणिव्वत्ती पण्णत्ता ? २१ उत्तर - गोयमा ! पंचविह्ना णाणणिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहाआभिणिबोहियणाणणिव्वत्ती जाव केवलणाणणिव्वत्ती । एवं एगि दियवज्जं जाव वेमाणियाणं जस्स जड़ णाणा । २२ प्रश्न - कविद्या णं भंते! अण्णाणणिव्वत्ती पण्णत्ता ? २२ उत्तर - गोयमा ! तिविहा अण्णाणणिव्वत्ती पण्णत्ता, तं जहा - महअण्णाणणिव्वत्ती, सुयअण्णाणणिव्वत्ती, विभंगणाणणिव्वत्ती । एवं जस्स जइ अण्णाणा जाव वेमाणियाणं । २८१९६ भावार्थ - २१ प्रश्न - हे भगवन् ! ज्ञान-निर्वृत्ति कितने प्रकार की है ? २१ उत्तर - हे गौतम ! ज्ञान-निर्वृत्ति पांच प्रकार की कही गई है । यथा-आभिनिबोधिक ज्ञान-निर्वृत्ति यावत् केवलज्ञान-निर्वृत्ति । इस प्रकार एकेद्रिय को छोड़ कर यावत् वैमानिक तक जिसमें जितने ज्ञान हों। २२ प्रश्न - हे भगवन् ! अज्ञान-निर्वृत्ति कितने प्रकार की ? * २२ उत्तर- हे गौतम! अज्ञान-निर्वृत्ति तीन प्रकार की कही गई है । यथा-मति अज्ञान - निर्वृत्ति, श्रुत- अज्ञान निर्वृत्ति और विभंग ज्ञान-निर्वृत्ति। इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जिसके जितने अज्ञान हों । २३ प्रश्न - कहविहा णं भंते! जोगणिव्वती पण्णत्ता ? For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२० भगवती सूत्र-श. १९ उ ८ जीव-निवृत्ति आदि २३ उत्तर-गोयमा ! तिविहा जोगणिव्वत्ती पंण्णत्ता, तं जहामणजोगणिवत्ती, क्यजोगणिवत्ती, कायजोगणिवत्ती । पवं जाव वेमाणियाणं जस्स जइविहो जोगो। भावार्थ-२३ प्रश्न-हे भगवन् ! योग-निर्वृत्ति कितने प्रकार की है ? २३ उत्तर-हे गौतम ! योग-निर्वृत्ति तीन प्रकार की कही गई है। यथा-मनोयोग-निर्वत्ति, वचनयोग-निर्वत्ति और काययोग-निर्वत्ति । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जिसके जितने योग हों। २४ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! उवओगणिव्वत्ती पण्णता ? २४ उत्तर-गोयमा! दुविहा उवओगणिवत्ती पण्णत्ता, तं जहासागारोवओगणिव्वत्ती, अणगारोवओगणिव्वत्ती । एवं जाव वेमाणि. याणं (अत्र संग्रहणीगाथे वाचनान्तरे-) "जीवाणं णिवत्ती कम्मप्पगडी सरीरणिवत्ती। सबिंदियणिवत्ती भासा य मणे कसाया य । वणे गंधे रसे फासे संठाणविहि व होइ बोद्धव्यो। लेसा दिट्ठी गाणे उवओगे चेव जोगे य॥" ॐ 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति'* ॥ एगृणवीसइमे सए अट्ठमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-२४ प्रश्न-हे भगवन् ! उपयोग-निर्वृत्ति कितने प्रकार की है ? For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती-सूत्र-ग. १९ उ. ९ करण के भेद २८२१ २४ उत्तर-हे गौतम ! उपयोग-निर्वत्ति दो प्रकार की कही गई है। यथा-साकारोपयोग-निर्वत्ति और अनाकारोपयोग-निर्वृत्ति । इस प्रकार यावत् वैमानिकों तक। दूसरी वाचना की दो संग्रह गाथाओं का अर्थ इस प्रकार है-१ जीव, २ कर्म-प्रकृति, ३ शरीर, ४ सर्वेन्द्रिय, ५ भाषा, ६ मन, ७ कषाय, ८ वर्ण, ९ गन्ध, १० रस, ११ स्पर्श, १२ संस्थान, १३ संज्ञा, १४ लेश्या, १५ दृष्टि, १६ ज्ञान, १७ अज्ञान, १८ योग, १९ उपयोग। इन सब की निवृत्ति का कथन इस उद्देशक में किया गया है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ उन्नीसवें शतक का आठवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक १६ उद्देशक करण के भेद १ प्रश्न-कइविहे गं भंते ! करणे पण्णत्ते ? १ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे करणे पण्णत्ते, तं जहा--१ दव्व. For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२२ __ भगवती सूत्र-श. १६ उ. ९ करण के भेद करणे, २ खेत्तकरणे, ३ कालकरणे, ४ भवकरणे, ५ भावकरणे । २ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! कइविहे करणे पण्णत्ते ? २ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे करणे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वकरणे जाव भावकरणे । एवं जाव वेमाणियाणं । कठिन शब्दार्थ-करणे-करण-क्रिया का साधन । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन ! करण कितने प्रकार का कहा गया है ? १ उत्तर-हे गौतम ! करण पांच प्रकार का कहा गया है । यथा-द्रव्य. करण, क्षेत्रकरण, कालकरण, भवकरण और भावकरण। २ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिकों के कितने प्रकार के करण कहे गये हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! पांच प्रकार के करण कहे गये हैं । यथा-द्रव्यकरण यावत् भावकरण । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक। विवेचच-जिसके द्वारा क्रिया की जाय, उस क्रिया के साधन को 'करण' कहते हैं । अथवा करने रूप क्रिया को करण कहते हैं । शंका-करण और निवृत्ति में क्या अन्तर है ? समाधान-क्रिया के प्रारम्भ को करण कहते हैं और क्रिया की निष्पत्ति (समाप्तिपूर्णता) को निर्वृत्ति कहते हैं। द्रव्यरूप दांतली (घास काटने का हँसिया) और चाकू आदि द्रव्य-करण है। अथवा शलाका (तृण की सलाइयाँ) से चटाई आदि बनाना 'द्रव्य-करण' हैं । क्षेत्ररूपकरण अथवा शाली क्षेत्र आदि का करना अथवा किसी क्षेत्रादि में स्वाध्यायादि करना 'क्षेत्र-करण' है । कालरूप करण अथवा काल के द्वारा या किसी काल में करना 'कालकरण' है । नरकादि भव करना 'भव करण' है । औपशमिकादि भाव को करना भावकरण' है। ३ प्रश्न-कइविहे गं भंते ! सरीरकरणे पण्णते ? . ३ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे सरीरकरणे पण्णत्ते, तं जहा-आरा. For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. १५ उ. ९ करण के भेद २८२३ लियसरीरकरणे जाव कम्मगसरीरकरणे । एवं जाव वेमाणियाणं जस्स जइ सरीराणि । ___४ प्रश्न-कविहे णं भंते ! इंदियकरणे पण्णत्ते ? ४ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे इंदियकरणे पण्णत्ते, तं जहा-सोई. दियकरणे जाव फासिंदियकरणे । एवं जाव वेमाणियाणं जस्स जइ इंदियाई । एवं एएणं कमेणं भासाकरणे चविहे, मणकरणे चउबिहे, कसायकरणे चउबिहे, समुग्घायकरणे सत्तविहे, सण्णाकरणे चउविहे, लेसाकरणे छविहे, दिट्ठीकरणे तिविहे, वेदकरणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ इत्थिवेदकरणे, २ पुरिसवेदकरणे, ३ णपुंसगवेदकरणे । एए सव्वे णेरइयाई दंडगा जाव वेमाणियाणं जस्स जं अत्थि तं तम्स सव्वं भाणियव्यं । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! शरीर-करण कितने प्रकार का कहा गया है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! शरीर करण पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-औदारिक शरीरकरण यावत् कार्मणशरीर-करण । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जिसके जितने शरीर हों, उतने शरीर-करण कहने चाहिये। ___४ प्रश्न-हे भगवन् ! इन्द्रिय-करण कितने प्रकार का कहा गया है ? ४ उत्तर-हे गौतम ! इन्द्रिय-करण पांच प्रकार का कहा गया है । यथाश्रोत्रेन्द्रिय-करण यावत् स्पर्शनेन्द्रिय-करण । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जिसके जितनी इन्द्रियां हों, उसके उतने इन्द्रिय करण हैं। इस क्रम से चार प्रकार का भाषा-करण, चार प्रकार का मनकरण, चार प्रकार का कषायकरण, सात प्रकार का समुद्घात-करण, चार प्रकार का संज्ञा-करण, छह For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२४ भगवती सूत्र-श. ११.६ करण के भेद प्रकार का लेश्या-करण और तीन प्रकार का दृष्टि-करण है । वेद-करण, तीन प्रकार का कहा गया है । यथा-स्त्रीवेद-करण, पुरुषवेद-करण और नपुंसकवेदकरण । इस प्रकार नैरयिक से ले कर यावत् वैमानिक तक जिसके जो होवे सब कहना चाहिए। ५ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! पाणाइवायकरणे पण्णते ? ५ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पाणाइवायकरणे पण्णत्ते, तं जहाएगिंदियपाणाइवायकरणे जाव पंचिंदियपाणाइवायकरणे । एवं णिरवसेसं जाव वेमाणियाणं । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! प्राणातिपात-करण कितने प्रकार का . कहा गया है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! प्राणातिपात-करण पांच प्रकार का कहा गया है ? यथा-एकेन्द्रिय प्राणातिपात-करण यावत् पञ्चेन्द्रिय प्राणातिपात-करण । इस प्रकार सर्व यावत् वैमानिक पर्यन्त । ६ प्रश्न-कविहे णं भंते ! पोग्गलकरणे पण्णते ? ६ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पोग्गलकरणे पणणत्ते, तं जहा१ वण्णकरणे, २ गंधकरणे, ३ रसकरणे, ४ फासकरणे, ५ संठाणकरणे। ७ प्रश्न-वण्णकरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ७ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-कालवण्णकरणे जाव मुश्किल्लवण्णकरणे, एवं भेदो, गंधकरणे दुविहे, रसकरणे पंचविहे, फासकरणे अट्टविहे । For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. १९ उ. ६ करण के भेद २८२५ ८ प्रश्न-संठाणकरणे णं भंते ! कइविहे पण्णते ? ८ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-परिमंडलसंठाणकरणे जाव आयतमंठाणकरणे। 'सेवं भंते ! मेवं भंते' ! ति जाव विहरइ 8 ॥ एगृणवीसइमे सए णवमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! पुद्गल-करण कितने प्रकार का कहा गया है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! पुद्गल-करण पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-वर्णकरण, गंधकरण, रसकरण, स्पर्शकरण और संस्थानकरण। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! वर्णकरण कितने प्रकार का कहा गया है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! वर्ण-करण पाँच प्रकार का कहा गया है। यथाकृष्ण वर्णकरण यावत् शुक्ल वर्ण-करण । इस प्रकार पुद्गल-करण के वर्णादि भेद कहना चाहिये । इस तरह दो प्रकार का गंध-करण, पांच प्रकार का रसकरण और आठ प्रकार का स्पर्शकरण है। . ८ प्रश्न-हे भगवन् ! संस्थान-करण कितने प्रकार का कहा गया है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! संस्थान-करण पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-परिमण्डल संस्थान-करण यावत् आयत संस्थान-करण । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ उन्नीसवें शतक का नौवां उद्देशक सम्पूर्ण । For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १६ उद्देशक १० देवों का आहार १ प्रश्न-वाणमंतरा णं भंते ! सव्वे समाहारा० एवं जहा सोलसमसए दीवकुमारुद्देसओ जाव 'अप्पिड्ढिय' ति। .. 8 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति ॐ ॥ एगूणवीसइमे सए दसमो उद्देसो समत्तो ॥ ॥ एगूणवीसइमं सयं समत्तं ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! सभी वाणव्यन्तर समान आहार वाले होते हैं इत्यादि प्रश्न। १ उत्तर-हे गौतम ! सोलहवें शतक के ग्यारहवें द्वीपकुमारोद्देशक के अनुसार यावत् 'अल्पद्धिक' पर्यन्त जानना चाहिये। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-कृष्णलेश्या वाले वाणव्यन्तरों की अपेक्षा नीललेश्या वाले वाणव्यन्तर महद्धिक हैं । यावत् तेजोलेश्या वाले वाणव्यन्तर सब से महद्धिक हैं, इत्यादि वर्णन सोलहवें शतक के ग्यारहवें उद्देशक में, द्वीपकुमारों का किया जा चुका है, तदनुसार यहाँ भी जानना चाहिये। ।। उन्नीसवें शतक का दसवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ।। उन्नीसवाँ शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २० १ वेइंदिय २ मागासे ३ पाणवहे ४ उवचए य ५ परमाणू । ६ अंतर ७ बंधे ८ भूमी ९ चारण १० सोवक्कमा जीवा ॥ इस शतक में दस उद्देशक इस प्रकार है भावार्थ-१ बेइन्द्रियादि को वक्तव्यता विषयक प्रथम उद्देशक है । २ आकाशादि अर्थ विषयक ३ प्राणातिपातादि अर्थ को प्रतिपादन करने वाला ४ इन्द्रियोपचय विषयक ५ परमाणु से ले कर अनन्त प्रदेशीस्कन्ध विषयक ६ रत्नप्रभा आदि के अन्तराल विषयक ७ जीव प्रयोगादि बन्ध विषयक ८ कर्मभूमि अकर्मभूमि विषयक ९ विद्याचारणादि विषयक और १० सोपक्रमनिरुपक्रम आयुष्य वाले जीवों का प्रतिपादन करने विषयक दसवां उद्देशक है। For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २० उद्देशक १ विकलेन्द्रिय के साधारण-शरीरादि १ प्रश्न - रायगिहे जाव एवं वयासी - सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच बेंदिया एगयओ साहारणसरीरं बंधति, एगयओ० २ बंधिता त पच्छ आहारेति वा परिणार्मेति वा सरीरं वा बंधंति ? १ उत्तर - णो इण समड़े । वेंदिया णं पत्तेयाहारा पतेय - परिणामा पत्तेयसरीरं वंधति, प० २ बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति । २ प्रश्न - तेसि णं भंते! जीवाणं कइ लेस्साओ पण्णत्ताओ ? २ उत्तर - गोयमा ! तओ लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहा - कण्ह लेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा । एवं जहा एगूणवीसइमे सए तेउकाइयाणं जाव 'उब्वति' । णवरं सम्मदिट्ठी विमिच्छादिट्ठी वि णो सम्मामिच्छदिट्टी, दो णाणा, दो अण्णाणा नियमं णो मणजोगी, वयजोगी वि, कायजोगी वि, आहारो नियमं छद्दिसिं । ३ प्रश्न - तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सण्णा इवा पण्णा इ वामणे इ वा वई इवा- 'अम्हे णं इाणिट्टे रसेाणिट्टे फासे पडसंवेपमो' ? For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २० उ. ५ विकलेन्द्रिय के साधारण-गरीरादि २८२९ - ३ उत्तर-णो इणटे समढे, पडिसंवेएंति पुण ते । ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वारस-संवच्छराई, सेसं तं चेव, एवं तेइंदिया वि, एवं चरिंदिया वि, णाणत्तं इंदिएमु ठिईए य, सेसं तं चेव, ठिई जहा पण्णवणाए। कठिन शब्दार्थ--णाणत्तं-- नानात्व (भेद), इटाणिठे--इप्ट-अनिष्ट । भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा हे भगवन ! कदाचित दो, तीन, चार या पांच बेइन्द्रिय जीव मिल कर एक साधारण-शरीर बांधते हैं, इसके पश्चात् आहार करते हैं, आहार परिणमाते हैं और इसके पश्चात् विशिष्ट शरीर बांधते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्योंकि बेइन्द्रिय जीव पृथक्-पृथक् आहार करने वाले और उसका भिन्न-भिन्न परिणमन करने वाले होते हैं । इसलिये वे पृथक्-पृथक् शरीर बांधते हैं, फिर आहार करते हैं, उसे परिणमाते हैं और विशिष्ट शरीर बांधते हैं। २ प्रश्न-हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीवों के कितनी लेश्याएँ कही गई हैं ? - २ उत्तर-हे गौतम ! तीन लेश्याएँ कही गई हैं। यथा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या। उन्नीसवें शतक के तीसरे उद्देशक में वणित अग्निकायिक जीवों के विषय में जो कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी यावत् 'उद्वर्तते' है, तक जानना चाहिये । विशेष यह है कि बेइन्द्रिय जीव सम्यगदृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी होते हैं, परन्तु सम्यमिथ्यादृष्टि नहीं होते। उनके अवश्य दो ज्ञान या दो अज्ञान होते हैं। उनके मनोयोग नहीं होता, वचनयोग और काययोग होते हैं । वे अवश्य छह दिशा का आहार लेते हैं। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! उन जीवों को हम 'इष्ट और अनिष्ट रस का तथा इष्ट और अनिष्ट स्पर्श का अनुभव करते हैं'-ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन या For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३० भगवती सूत्र - २० उ. १ पंचेन्द्रिय जीवों के शरीरादि वचन होता है ? ३ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । वे रसादि का संवेदन अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बारह वर्ष की होती तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय स्थिति और इन्द्रियों में अन्तर है । शेष चौथे पद के अनुसार जाननी चाहिये । विवेचन - तेइन्द्रिय जीवों के तीन इन्द्रियाँ होती हैं । उनकी स्थिति जघन्यं अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट ४९ अहोरात्र की होती है । चतुरिन्द्रियों के चार इन्द्रियाँ होती हैं । स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट छह महीनों की होती है । करते हैं । उनकी जघन्य स्थिति है । शेष सब पूर्ववत् । इस प्रकार में भी जानना चाहिये । किन्तु उनकी सब पूर्ववत् । स्थिति प्रज्ञापना सूत्र के पंचेन्द्रिय जीवों के शरीरादि ४ प्रश्न - सिय भंते! जाव चत्तारि पंच पंचिंदिया एगयओ साहारणं० ? ४ उत्तर - एवं जहा वेइंदियाणं, णवरं छल्लेसाओ, दिट्ठी तिविहा वि. चत्तारि णाणा तिष्णि अण्णाणा भयणाए तिविहो जोगो । ५ प्रश्न - तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सण्णा इ वा पण्णा इवा जाव वई इ वा-'अम्हे णं आहारमाहारेमो' ? ५ उत्तर - गोयमा ! अत्येगइयाणं एवं सण्णा इ वा पण्णा इवा मणे इ वा वई इ वा - 'अम्हे णं आहारमाहारेमो' । अत्थेगइयाणं णो एवं सण्णा इवा जाव वई इ वा - 'अम्हे णं आहारमाहारेमो, ' आहारेंति पुण ते । For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २० उ. १ पंवेन्द्रिय जीवों के शरीरादि २८३१ - भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! कदाचित् दो, तीन, चार या पांच आदि पञ्चेन्द्रिय मिल कर एक साधारण-शरीर बांधते हैं, इत्यादि प्रश्न । ४ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् बेइन्द्रियों के समान । विशेषता यह कि इनके छहों लेश्याएँ और तीनों दृष्टियां होती हैं । चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना (विकल्प) से होते हैं । तीन योग होते हैं। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! उन जीवों को-'हम आहार ग्रहण करते हैं'ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन और वचन होता है ? । ५ उर-हे गौतम ! कितने ही जीवों को (संजी जीवों को)-'हम आहार करते हैं'-ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन और वचन होता है और कितने ही जीवों को (असंज्ञी जीवों को) 'हम आहार ग्रहण करते हैं'-ऐसी संज्ञा यावत् वचन नहीं होता, परन्तु वे आहार ग्रहण करते हैं। ___विवेचन--पञ्चेन्द्रिय जीवों में मतिज्ञान आदि चार ज्ञान होते हैं । केवलज्ञान अनिन्द्रियों को होता है। __'हम आहार ग्रहण करते हैं'-इस प्रकार का ज्ञान, संज्ञी जीवों को होता है, असंज्ञी जीवों को नहीं। ६ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सण्णा इ वा जाव वई इ वा-'अम्हे णं इटाणिटे सदे, इटाणिटे रूवे, इट्टाणिटे गंधे, इट्टाणिढे रसे, इट्टाणिढे फासे पडिसंवेएमो' ? ६ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइयाणं एवं सण्णा इ वा जाव वई इ वा-'अम्हे णं इट्टाणिटे सद्दे, जाव इटाणिढे फासे पडिसंवेएमो,' अत्थेगइयाणं णो एवं सण्णा इ वा जाव वई इ वा-'अम्हे णं इट्टा. णिटे सद्दे जाव इटाणिढे फासे पडिसंवेएमो, पडिसंवेएंति पुण ते।' For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३२ भगवती सूत्र - २० उ. १ पंचेन्द्रिय जीवों के शरीरादि भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! उन जीवों को - ' हम इष्ट या अनिष्ट शब्द रूप, गन्ध, रस और स्पर्श का अनुभव करते हैं' - ऐसी संज्ञा यावत् वचन होता है ? ७ उत्तर - हे गौतम ! हम इष्ट या अनिष्ट शब्द यावत स्पर्श का अनुभव करते हैं- ऐसी संज्ञा यावत् वचन कई ( संज्ञी) जीवों को होता है और कई (असंज्ञी) जीवों को नहीं होता, परन्तु वे शब्द आदि का संवेदन करते हैं। ७ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा किं पाणाड़वाए उबक्खाइजं ति० ? ७ उत्तर - गोयमा ! अत्थेगइया पाणाइवाए वि उवक्खाइजंति जोव मिच्छादंसणसल्ले वि उवक्वाइजति, अत्थेगइया णो पाणाइवाए उवस्खाइज्जति, णो मुसा० जाव णो मिच्छादंसणसल्ले उवक्खाइज्जति । जेसिं पि णं जीवाणं ते जीवा एवमाहिज्जंति तेसिं पिणं जीवाणं अत्येगइयाणं विष्णाए णाणत्ते, अत्येगइयाणं णो विष्णाए णाणते उववाओ सव्वओ जाव सव्वट्टसिद्धाओ, ठिई जहण्णेण अंतोमुहूत्तं, उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, छस्ममुग्धाया केवलिवज्जा, उणा सव्वत्थ गच्छेति जाव सव्वट्टसिद्धं इ, सेसं जहा बेइंदियाणं । 1 कठिन शब्दार्थ -- उदवखाइज्जति कहे जाते हैं । भावार्थ - 9 -9 प्रश्न हे भगवन् ! वे जीव प्राणातिपात में रहे हुए हैं, इत्यादि कहा जाता है ? ७ उत्तर - हे गौतम ! दर्शनशल्य में रहे हुए हैं- ऐसा उन जीवों में से कई प्राणातिपात यावत् मिथ्याकहा जाता है और कई जीव प्राणातिपात For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २० उ. १ पंचेन्द्रिय जीवों के शरीरादि २८३३ M मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में नहीं रहे हुए हैं-ऐसा कहा जाता है । वे जिन जीवों का प्राणातिपात करते हैं, उन जीवों में से भी कई जीवों को-'हम मारे जाते हैं और ये हमें मारने वाले हैं'-इस प्रकार का ज्ञान होता है और कई जीवों को इस प्रकार का ज्ञान नहीं होता। उन जीवों का उत्पाद सर्व जीवों से यावत् सर्वार्थसिद्ध से भी होता है। स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की होती है। उनमें केवलौ-समुद्घात के सिवाय छह समुद्घात होती हैं। वे मर कर सर्वत्र यावत् सर्वार्थसिद्ध तक जाते हैं। शेष बेइंद्रियों के समान जानना चाहिये । ८ प्रश्न-एएसि णं भंते ! वेइंदियाणं जाव पंचिंदियाणं य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? ८ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा पंचिंदिया, चउरिंदिया विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, वेइंदिया विसेसाहिया । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति जाव विहरइ ® ॥ वीसइमे सए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! पूर्वोक्त बेइन्द्रिय यावत् पञ्चेन्द्रिय जीवों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! सब से थोड़े पञ्चेन्द्रिय जीव हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, उनसे तेइन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं और उनसे बेइन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं। ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २० उ. २ लोकाकाश- अलोकाकाश विवेचन -- असंयत जीव प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य वाले होते हैं और संयत जीव प्राणातिपातादि से रहित होते हैं । 'हम वध्य हैं और ये वधिक हैं अर्थात् हम मारे जाते हैं और ये हमें मारने वाले हैं' - ऐसा ज्ञान, संज्ञी जीवों को होता है, असंज्ञी जीवों को नहीं । ॥ बीसवें शतक का पहला उद्देशक सम्पूर्ण ॥ २८३४ शतक २० उद्देशक २ लोकाकाश- अलोकाकाश @@@@@++ १ प्रश्न - कविहे णं भंते ! आगासे पण्णत्ते ? १ उत्तर - गोयमा ! दुविहे आगासे पण्णत्ते, तं जहा - लोया... गाय अलोयागासे य । २ प्रश्न - लोयागासे णं भंते! किं जीवा, जीवदेसा ? २ उत्तर - एवं जहा बियसए अस्थिउद्देसे तह चैव इह वि भाणियव्वं, rai अभिलावो जाव 'धम्मत्थिकाए णं भंते ! केमहालए पण्णत्ते ? गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव ओगाहित्ता For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता मूत्र-ग. २० उ. २ लोकाकाग-अलोकाकाश . २८३५ . णं चिटुइ,' एवं जाव पोग्गलत्थिकाए । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! आकाश कितने प्रकार का कहा गया है ? १ उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है। यथा-लोकाकाश और अलोकाकाश । २ प्रश्न-हे भगवन् ! लोकाकाश, जीव रूप है या जीव देश रूप है, इत्यादि प्रश्न ? २ उत्तर-हे गौतम ! दूसरे शतक के दसवें अस्ति-उद्देशक के अनुसार यहां भी जानना चाहिये । विशेष में यह अभिलाप भी यहां कहना चाहिये प्रश्न-हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा है ? उत्तर-हे गौतम ! धर्मास्तिकाय लोकरूप, लोकमात्र, लोकप्रमाण, लोकस्पृष्ट और लोक को अवगाह कर रहा हुआ है-' इस प्रकार यावत् पुद्गलास्तिकाय तक जानना चाहिये। ३ प्रश्न-अहेलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स केवइयं ओगाढे ? ३ उत्तर-गोयमा ! साइरेगं अधं ओगाढे, एवं एएणं अभिलावणं जहा बिझ्यसए जाव 'ईसिपमारा णं भंते ! पुढवी लोयागासस्स किं संखेजहभागं० ओगाढा-पुच्छा । गोयमा ! णो संखेजइ. भागं ओगाढा, असंखेजइभागं ओगाढा, णो संखेजे भागे ओगाढा, णो अमंखेजे भागे ओगाढा, णो सब्बलोयं ओगाढा।' सेसं तं चेव । - भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! अधोलोक, धर्मास्तिकाय के कितने भाग को अवगाहित कर रहा हुआ है ? । ३ उत्तर-हे गौतम ! कुछ अधिक अद्ध भाग को अवगाहित कर रहा हुआ है । इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा दूसरे शतक के दसवें उद्देशक के अनु For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३६ भगवती सूत्र - २० उ. २ पंचास्तिकाय के अभिवचन सार जानना चाहिये । प्रश्न - हे भगवन् ! ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी लोकाकाश के संख्यातवें भाग या असंख्यातवें भाग आदि अवगाहित कर रही हुई है ? उत्तर - हे गौतम! लोकाकाश के संख्यातवें भाग को अवगाहित नहीं किया है, किन्तु असंख्यातवें भाग को अवगाहित किया है । संख्यात और असंख्यात भागों को भी अवगाहित नहीं किया है और सर्वलोक को भी अवगाहित नहीं किया है । शेष सब पूर्ववत् । पंचास्तिकाय के अभिवचन ४ प्रश्न - धम्मत्थिकायस्स णं भंते! केवइया अभिवयणा पण्णत्ता ? ४ उत्तर - गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहा - धम्मे इवा धम्मत्थिकाये इ वा पाणावायवेरमणे इ वा मुसावायवेरमणे इवा एवं जाव परिग्गहवेरमणे इ वा कोहविवेगे इ वा जाव मिच्छादंसणसल्ल विवेगे इ वा इरियासमिई इ वा, भासासमिई इ वा, एसणा समिई इवा, आयाणभंडमत्तणिवरखेवणासमिई इ वा, उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिडावणयासमिई इ वा मणगुत्ती इवा, बड़गुत्ती इवा, कायगुत्ती इ वा, जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते धम्मथिकास अभिवयणा । कठिन शब्दार्थ - अभिवयणा - नाम । भावार्थ - 6 प्रश्न - हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय के अभिवचन ( अभि For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -दा. २० उ.२ पंचास्तिकाय के अभिवचन धायक शब्द) कितने कहे गये हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! अनेक अभिवचन कहे गये हैं । यथा-धर्म, धर्मास्तिकाय, प्राणातिपात-विरमण, मषावाद-विरमण, यावत् परिग्रह-विरमण, क्रोध-विवेक, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य विवेक (त्याग), ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदानभाण्ड पात्र-निक्षेपणा-पमिति, उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्लसिंघानक-परिष्ठापनिका-समिति, मन-गुप्ति, वचन-गुप्ति, काय-गुप्ति, धर्मास्तिकाय के ये सब तथा इनके समान दूसरे भी अभिवचन हैं। ५ प्रश्न-अधम्मत्थिकायस्स णं भंते ! केवइया अभिवयणा पण्णत्ता ? ५ उत्तर-गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णता, तं जहाअधम्मे इ वा, अधम्मत्थिकाए इ वा, पाणाइवाए इ वा जाव मिच्छा. दंसणसल्ले इ वा, इरियाअसमिई इ वा जाव उच्चारपासवण-खेल-जल्ल. सिंघाण-पारिट्ठावणियाअसमिई इ वा, मणअगुत्ती इ वा, वइअगुत्ती इ वा, कायअगुत्ती इ वा, जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते अधम्मत्थिकाय. स्स अभिवयणा । • भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! अधर्मास्तिकाय के कितने अभिवचन कहे गये हैं ? ५ उत्तर-हे गौतन ! अनेक अभिवचनकहे गये हैं । यथा-अधर्म, अधर्मास्तिकाय, प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, ईर्या सम्बन्धी असमिति यावत् उनचार-प्रस्त्रवण-खेल-जल्ल-सिवानक-परिष्ठापनिका सम्बन्धी असमिति, मन. अगुप्ति, वचन-अगुप्ति, काय-अगुप्ति, अधर्मास्तिकाय के ये सब और इनके समान For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३८ भगवती सूत्र - श. २० उ २ पंचास्तिकाय के अभिवचन अन्य भी अनेक अभिवचन - अधर्मास्तिकाय के हैं । ६ प्रश्न - आगासत्थिका यस्स णं - पुच्छा । ६ उत्तर - गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहाआगासे इवा, आगासत्थिकाये इ वा, गगणे इ वा णभे इवा, समे इवा, विसमे इवा, खहे इ वा, विहे इ वा, बीयी इवा, विवरे इवा, अंबरे इवा, अंबरसे इवा, छिड्डे इ वा, झुसिरे इ वा, मग्गे इवा, विमुहे इवा, अददे इवा, (अट्टे इ वा) वियदे इ वा आधारे इवा, वो इवा, भायणे इ वा अंतरिक्खे इ वा सामे इवा. उवासंतरे इवा, अगमि इवा, फलिहे इ वा, अणंते इ वा, जे यावण्णे तहप्प - गारास ते आगासत्थिकायस्त अभिवयणा । " भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! आकाशास्तिकाय के कितने अभिवचन कहे गये है ? ६ उत्तर - हे गौतम! अनेक अभिवचन कहे गये हैं। यथा-आकाश, आकाशास्तिकाय, गगन, नभ, सम, विषम, खह, विहायस् वीचि, विवर, अम्बर, अम्बरस ( अम्ब-जल रूपी रस जिससे प्राप्त हो) छिद्र, शुषिर, मार्ग, विमुख (मुख आदि प्रारंभ से रहित), अर्द, व्यर्द, आधार, व्योम, भाजन, अन्तरिक्ष, श्याम, अवकाशान्तर, अगम, स्फटिक. ( स्वच्छ ), अनन्त, ये सब और इनके समान अन्य भी अनेक अभिवचन - आकाशास्तिकाय के हैं । ७ प्रश्न - जीवत्किायस्स णं भंते ! केवइया अभिवयणा पण्णत्ता ? ७ उत्तर - गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहा - जीवे For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती मुत्र-. २० उ. २ पंचास्तिकाय के अभिवचन- २८३९ इ वा, जीवत्थिकाये इ वा, पाणे इ वा. भूए इ वा, सत्ते इ वा, विष्णू इ वा, वेया इ वा, चेया इ वा, जेया इ वा, आया इ वा, रंगणा इ वा, हिंडुए इ वा, पोग्गले इ वा, माणवे इ वा, कत्ता इ वा, विकत्ता इ वा, जए इ वा, जंतु ड़ वा, जोणी ड़ वा, सयंभू इ वा, ससरीरी इ वा, णायए इ वा, अंतरप्पा इ वा, जे यावण्णे तहप्पगारा सब्वे ते जीवत्थिकायस्स अभिवयणा । ___ भावार्थ-७ प्रश्न-हे. भगवन् ! जीवास्तिकाय के कितने अभिवचन है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! जीवास्तिकाय के अनेक अभिवचन कहे गये हैं। यथा-जीव, जीवास्तिकाय, प्राण, भूत, सत्त्व, विज्ञ, चेता (पुदगलों का संचय करने वाला), जेता (कर्म रूप शत्रु को जीतने वाला) आत्मा, रंगण (रागयुक्त) हिण्डुक (गमन करने वाला) पुद्गल, मानव (नया नहीं, प्राचीन-अनादि) कर्ता, विकर्ती, (विविध कर्मों का करने वाला) जगत् (गमनशील) जन्तु, योनि, (उत्पादक) स्वयंभूति, शरीरी, नायक, अन्तरात्मा, जीवास्तिकाय के ये और इसके समान अन्य अनेक अभिवचन हैं। ८ प्रश्न-पोग्गलथिकायस्स णं भंते ! पुच्छा। ८ उत्तर-गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहापोग्गले इ वा, पोग्गलत्थिकाये इ वा, परमाणुपोग्गले इ वा, दुपए सिए इ वा, तिपएसिए इ वा जाव असंखेजपएसिए इ वा, अणंतपएसिए इ वा, जे यावण्णे तहप्पगारा सब्चे ते पोग्गलत्थिकायस्स अभिवयणा। For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४० भगवती सूत्र-श. २० उ. २ पंचास्तिकाय के अभिवचन wwww * 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति के ॥ वीसइमे सए बीओ उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के कितने अभिवचन हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! पुद्गलास्तिकाय के अनेक अभिवचन कहे गये हैं। यथा-पुद्गल, पुद्गलास्तिकाय, परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी यावत् असंख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी-ये और इसके समान अन्य अनेक अभिवचन हैं। "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते है। विवेचन-पर्यायवाची शब्दों को 'अभिवचन' कहते हैं । यहां यह प्रश्न किया गया है कि 'धर्मास्तिकाय' शब्द के द्वारा कहे जाने वाले अर्थ के वाचक कितने शब्द हैं ? इसका उत्तर यह है कि धर्मास्तिकाय शब्द के प्रतिपाद्य दो अर्थ है-धर्मास्तिकाय द्रव्य और सामान्य धर्म तथा विशेष धर्म। धर्मास्तिकाय द्रव्य प्रतिपादक और सामान्य धर्म प्रतिपादक'धर्म' शब्द हैं। 'प्राणातिपात-विरमण' आदि शब्द विशेष धर्म प्रतिपादक हैं। इसके सिवाय सामान्य रूप अथवा विशेष रूप से चारित्र धर्म के प्रतिपादक जो पर्यायवाची शब्द हैं, वे सब धर्मास्तिकाय के अभिवचन हैं । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय आदि के विषय में भी जानना चाहिये । यहां जो पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं, उनके निरुक्ति से भिन्नभिन्न अर्थ किये गये हैं । जीव शब्द के भी अनेक पर्यायवाची नाम दिये गये हैं। उनमें से प्राण-भूतादि प्रसिद्ध हैं । उनका अर्थ इस प्रकार है-- प्राणाः द्वि-त्रि-चतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रियाः प्रोक्ताः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः ।। अर्थ-प्राण-बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों को 'प्राण' कहते हैं । वनस्पतिकाय को 'भत' कहते हैं। पञ्चेन्द्रिय प्राणियों को 'जीव' कहते हैं । पृथ्वाकाय, अप्काय, तेउकाय और वायुकाय, इन चार स्थावर जीवों को 'सत्त्व' कहते हैं। इनका प्रकारान्तर से भी अर्थ किया गया है । यथा-प्राण वायु को भीतर खींचने और बाहर छोड़ने अर्थात् श्वासोच्छ्वास लेने के कारण जीव को 'प्राण' कहा जाता हैं । . For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २० उ. ३ आत्म-परिणत पाप-धर्म बुद्धि आदि २८४१ जीता है अर्थात् प्राण धारण करता है और आयुकर्म तथा जीवत्व का अनुभव करता है, इसलिये इसे जीव कहते हैं । जीव शुभाशुभ कर्मों के साथ सम्बद्ध है, अच्छे और बुरे कार्य करने में समर्थ हैं अथवा सत्ता वाला है, इसलिये इसे 'शक्त, सक्त या सत्त्व' कहते हैं। कड़वे, कर्षले, खट्टे, मीठे आदि रसों को जानता है । इसलिये जीव 'विज्ञ' कहलाता है । जीव सुख-दुःख का भोग करता है, इसलिये वह 'वेद' कहलाता है। यह नवीन नहीं, प्राचीन है अर्थात् अनादि है, इसलिये यह 'मानव' कहलाता है। यह नाना गतियों में हिण्डन (भ्रमण) करता है, इसलिये इसे 'हिण्डुक' कहते हैं । इस प्रकार अन्यान्य नामों के भी निरुक्ति से भिन्न-भिन्न अर्थ हैं । परन्तु वे सब उन्हीं के पर्यायवाची शब्द हैं । ॥ वीसवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २० उद्देशक ३ आत्म-परिणत पाप-धर्म बुद्धि आदि १ प्रश्न-अह भंते ! पाणाइवाए, मुसावाए जाव मिच्छादंसणसल्ले, पाणाइवायवेरमणे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे,उप्पत्तियाजाव पारिणामिया, उग्गहे जाव धारणा, उट्ठाणे, कम्मे, बले, वीरिए, पुरिसकारपरकमे, गेरइयत्ते, असुरकुमारत्ते जाव वेमाणियत्ते, णाणावरणिज्जे जाव अंतराइए, कण्हलेस्सा जाव सुकलेस्सा, सम्मदिट्ठी ३, चक्खु. For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श ० उ. ३ आत्म- परिणत पाप धर्म बुद्धि आदि ४. आभिणित्रोहियणाणे जाव विभंगणाणे, आहारसण्णा ४, ओरालिय सरीरे ५, मणजोगे ३ सागारोवओगे, अणागारोवओगे, जे यावणे तपगारा सव्वे ते णण्णत्थ आयाए परिणमंति ? २८४२ १ उत्तर - हंता गोयमा ! पाणाइवाए जाव सव्वे ते पण्णत्थ आयाए परिणमंति । २ प्रश्न - जीवे णं भंते ! गव्र्भ वक्कममाणे, कड़वण्णे. कइगंधे० ? २ उत्तर - एवं जहा बारसमसए पंचमुडेसे जाव 'कम्मओ णं जए, णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ' । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरड़ ॥ वीसइमे सए तईओ उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ - आयाए - आत्मा के वक्कममाणे गर्भ में उत्पन्न होता हुआ । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! प्राणातिपात मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, प्राणातिपात विरमण यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक, औत्पत्तिकी यावत् पारिणामिकी, अवग्रह यावत् धारणा, उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकारपराक्रम, नैरयिकपन, असुरकुमारपन यावत् वैमानिकपन, ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय, कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, दर्शन यावत् केवलदर्शन, आभिनिबोधिकज्ञान यावत् विभंगज्ञान, आहारसंज्ञा यावत् परिग्रह-संज्ञा, औदारिक- शरीर यावत् कार्मण- शरीर, मनोयोग, वचनयोग, काययोग, साकारोपयोग, अनाकारोपयोग, ये सब और इसके समान अन्य धर्म, क्या आत्मा के सिवाय अन्यत्र परिणमन नहीं करते ? १ उत्तर - हाँ गौतम ! प्राणातिपात यावत् अनाकारोपयोग ये सब For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २० उ. ३ आत्म-परिणत पाप धर्म बुद्धि आदि २८४३ आत्मा के सिवाय अन्यत्र परिणमन नहीं करते । २ प्रश्न - हे भगवन् ! गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव, कितने वर्ण, गंध, रस, स्पर्श वाले परिणामों से युक्त होता है ? २ उत्तर - हे गौतम ! बारहवें शतक के पाँचवें उद्देशक के अनुसार यावत् 'कर्म से जगत् है, कर्म के सिवाय जीव में विविध परिणाम नहीं होता'तक जानना चाहिये । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन प्राणातिपातादि उपर्युक्त सभी धर्म जीव के हैं । धर्मी को छोड़ कर धर्म नहीं रहते । धर्म और धर्मी कथंचित् एक रूप हो कर रहते हैं । इसलिये उपर्युक्त सर्व-धर्म आत्मा में होते हैं, अन्यत्र नहीं होते । गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव तैजस् कार्मण गरीरं सहित रहता हुआ औदारिक शरीर ग्रहण करता है और शरीर तो पुद्गलमय है, वर्णादि युक्त होता है और जीव वर्णादि से रहित होता है। इसलिये वणं, गन्ध, रस इत्यादि विषयक प्रश्न किया गया है। जिसका उत्तर है कि गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव, पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाले परिणामों से परिणमता है, इत्यादि वर्णन बारहवें शतक के पाँचवें उद्देशक से जान लेना चाहिये । ॥ बीसवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण || For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २० उद्देशक ४ इन्द्रियोपचय १ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! इंदियउवचए पण्णत्ते ? १ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे इंदियोवचए पण्णत्ते, तं जहासोइंदियउवचए० एवं विइओ इंदियउद्देसओ गिरवसेसो भाणियव्वो जहा पण्णवणाए। ® 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति जाव विहरइ ® ॥ वीसइमे सए चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-इंदियोवचए-इन्द्रियों का उपचय । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! इन्द्रियोपचय कितने प्रकार का है ? १ उत्तर-हे गौतम ! इन्द्रियोपचय पांच प्रकार का है। यथा-श्रोत्रेन्द्रियोपचय इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के पन्द्रहवें पद के दूसरे इन्द्रियोद्देशक के अनुसार जानना चाहिये। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ बीसवें शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण ।। For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २० उद्देशक ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि १ प्रश्न - परमाणुपोग्गले णं भंते! कड़वण्णे, कहगंधे, करसे, कइफासे पण्णत्ते ? १ उत्तर - गोयमा ! एगवण्णे, एगगंधे, एगरसे, दुफासे पण्णत्ते, तं जहा - जइ एगवण्णे सिय कालए, सिय णीलए, सिय लोहिए, सिय हालिदए, सिय सुकिल्लए, जइ एगगंधे सिय सुब्भिगंधे, सिय दुब्भिगंधे जइ एगरसे सिय तित्ते, सिय कडुए, सिय कसाए, सिय अविले सिय महुरे, जइ दुफा से सिय सीए य णिदधे य १, सिय सीए य लुक्खे य २, सिय उसि यदिधे य ३, सिय उसिणे य लुक्खे य ४ । कठिन शब्दार्थ - णिद्धे - स्निग्ध | भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु पुद्गल कितने वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाला है ? १ उत्तर - हे गौतम ! एक वर्ण, एक गंध, एक रस और दो स्पर्श वाला है । यथा-यदि एक वर्ण वाला हो, तो १ कदाचित् काला, २ नीला, ३ लाल, ४ पीला और ५ कदाचित् श्वेत होता है । यदि एक गन्ध वाला हो, तो -६ कदाचित् सुरभिगंध या ७ दुरभिगंध वाला होता है। यदि एक रस वाला होता हो, तो -८ कदाचित् तीखा, ९ कटुक, १० कषैला, ११ खट्टा और १२ कदाचित् मधुर होता है । यदि दो स्पर्श वाला होता हो, तो -१३ कदाचित् शीत और For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४६ गगवती मूत्र-श. २० उ ५ परमाणु पुद्गल के वर्णादि स्निग्ध, १४ शीत और रूक्ष, १५ उष्ण और स्निग्ध या १६ उष्ण और रूक्ष होता है । इस प्रकार परमाणु पुदगल में वर्ण के पाँच, गन्ध के दो, रस के पांच और स्पर्श के चार, ये सभी मिल कर सोलह भंग होते हैं। २ प्रश्न-दुप्पएसिए णं भंते ! खंधे कइवण्णे० ? २ उत्तर-एवं जहा अट्ठारसमसए छट्ठद्देसए जाव 'सिय चउफासे पण्णत्ते' । जइ एगवण्णे सिय कालए जाव सिय सुकिल्लए, जइ दुवण्णे सिय कालए य णीलए य १, सिय कालए य लोहियए य २, सिय कालए य हालिदए य ३, सिय कालए य सुकिल्लए य४, सिय णीलए य लोहियए य ५, सिय णीलए य हालिद्दए य ६, सिय णीलए य सुकिल्लए य ७, सिय लोहियए य हालिदए य ८, सिय लोहियए य सुकिल्लए य ९, सिय हालिदए य सुकिल्लऐ य १०॥ एवं एए दुयासंजोगे दस भंगा। जइ एगगंधे सिय सुब्भिगंधे १, सिय दुन्भिगंधे य २, जइ दुगंधे सुब्भिगंधे य दुब्भिगंधे य । रसेसु जहा वण्णेसु । जइ दुफासे सिय सीए य णि य, एवं जहेव परमाणुपोग्गले ४ । जइ तिफासे सव्वे सीए देसे णिधे देसे लुक्खे १, सव्वे उसिणे देसे णिधे देसे लुक्खे २, सब्वे णिधे देसे सीए देसे उसिणे ३, सत्वे लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे ४ । जइ चउफासे देसे सीए देसे उसिणे देसे णिधे देसे लुक्खे १, एए णव भंगा फासेसु । भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! द्विप्रदेशी स्कन्ध कितने वर्णादि वाला होता है, इत्यादि प्रश्न ? For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि २८४७ २ उत्तर-हे गौतम ! अठारहवें शतक के छठे उद्देशक के अनुसार जानना चाहिये यावत् कदाचित् चार स्पर्श वाला होता है । यदि वह एक वर्ण वाला होता है तो १-५ कदाचित् काला यावत् श्वेत होता है । यदि वह दो वर्ण वाला होता है तो-६ काला और नीला, ७ काला और लाल, ८ काला और पीला और ९ काला और श्वेत । १० नीला और लाल, ११ नीला और पीला, १२ नीला और श्वेत । १३ लाल और पीला, १४ लाल और श्वेत और १५ पीला और श्वेत होता है। (इस प्रकार द्विक-संयोगी दस भंग होते है) यदि वह एक गन्ध वाला होता है, तो-१६ सुरभिगन्ध या १७ दुरभिगन्ध होता है । यदि दो गन्ध वाला होता है तो-१८ सुरभिगंध और दुरभिगन्ध होता है। १९ से ३३-जिस प्रकार वर्ण के भंग कहे हैं, उसी प्रकार रस सम्बन्धी पन्द्रह भंग जानना चाहिये । जब दो स्पर्श वाला होता है तो ३४-३७ शीत और स्निग्ध इत्यादि चार भंग परमाणु-पुद्गल के समान जानना चाहिये । यदि वह तीन स्पर्श वाला होता है, तो ३८-सर्वशीत होता है और उसका एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है । ३९-सर्व उष्ण होता है और उसका एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है । अथवा ४०-सर्व स्निग्ध होता है और एक देश शीत और एक देश उष्ण होता है। अथवा ४१-सर्व रूक्ष होता है और एक देश शीत और एक देश उष्ण होता है । यदि वह चार स्पर्श वाला होता है तो ४२-उसका एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है । इस प्रकार स्पर्श के नौ भंग होते हैं। (इस प्रकार द्विप्रदेशी स्कन्ध में वर्ण के १५, गन्ध के ३, रस के १५ और स्पर्श के ९, सब मिल कर ४२ भंग होते हैं।) विवेचन-परमाणु-पुद्गल में शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष इन चार स्पों में से अविरोधी दो स्पर्श पाये जाते हैं। द्विप्रदेशी स्कन्ध में जब दोनों प्रदेश एक वर्ण वाले होते हैं तब असंयोगी ५ भंग होते हैं । जब दोनों प्रदेश भिन्न वर्ण वाले होते है, तब द्विकसंयोगो दस भंग होते हैं । गन्ध में जब दोनों प्रदेश एक गन्ध वाले ने हैं, तब असंयोगी दो भंग होते हैं और जब दोनों For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४८ भगवती सूत्र-श. २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि प्रदेश दो गन्ध वाले होते हैं, तब द्विकसंयोगी एक भंग होता है । रस में जब दोनों प्रदेश एक रस वाले हों, तब असंयोगी ५ भंग होते हैं और जब भिन्न-भिन्न दो रस वाले हों, तव दस भंग होते हैं । स्पर्श के द्विकसंयोगी ४ भंग और त्रिकसंयोगी ४ मंग तथा चतु:संयोगी एक भंग होता है । इस प्रकार वर्ण के १५, गन्ध के ३, रस के १५ और स्पर्श के ९, ये कुल मिला कर ४२ भंग होते हैं । ३ प्रश्न-तिपएसिए णं भंते ! खंधे कड़वण्णे० ? . ३ उत्तर-जहा अट्ठारसमसए छठुद्देसे जाव चउफासे पण्णत्ते । जइ एगवण्णे सिय कालए जाव सुकिल्लए ५ । जइ दुवण्णे सिय कालए य सिय णीलए य १, सिय कालए य सिय णीलगा य २, सिय कालगा य णीलए य ३, सिय कालए य लोहियए य १, सिय कालए य लोहियगा य २, सिय कालगा य लोहियए य ३, एवं हालिदएण वि समं भंगा ३, एवं सुकिल्लएण वि समं ३, सिय णीलए य लोहियए य एत्थ वि भंगा ३, एवं हालिद्दएण वि समं भंगा ३, एवं सुक्किल्लएण वि समं भंगा ३, सिय लोहियए य हालिदए य भंगा ३, एवं सुकिल्लएण वि समं भंगा ३, सिय हालिद्दए य सुक्किल्लए य भंगा ३, एवं सब्वे ते दस दुयासंजोगा भंगा तीसं भवति । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है, इत्यादि प्रश्न ? ३ उत्तर-हे गौतम ! अठारहवें शतक के छठे उद्देशक के अनुसार यावत् 'कदाचित् चार स्पर्श वाला होता है'-तक जानना चाहिए । (५) यदि For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि २८४९ एक वर्ण वाला होता है तो कदाचित् काला होता है, यावत् श्वेत होता है । जब दो वर्ण वाला होता है, तो १-उसका एक अंश कदाचित् काला और एक अंश नीला होता है । २-एक अंश काला और दो अंश नीले होते हैं । ३-दो अंश काले और एक अंश नीला होता है। ४-एक अंश काला और एक अंश लाल होता है । ५-एक देश काला और दो देश लाल होते हैं । ६-दो देश काले और एक देश लाल होता है। इसी प्रकार काले वर्ण के पीले वर्ण के साथ तीन भंग जानना चाहिये । इसी प्रकार काले वर्ण के साथ श्वेत वर्ण के तीन भंग जानना चाहिये । नीले वर्ण के लाल वर्ण के साथ पूर्ववत् तीन भंग जानना चाहिये । इसी प्रकार नीले वर्ण के तीन भंग पीले के साथ और तीन भंग श्वेत के साथ जानना चाहिये । लाल और पीले के भी तीन भंग होते हैं । इस प्रकार लाल वर्ण के तीन भंग श्वेत के साथ जानना चाहिये। पीले और श्वेत के भी तीन भंग जानना चाहिये । ये सब मिल कर द्विक संयोगी तीस भंग होते हैं। जइ तिवण्णे सिय कालए य णीलए य लोहियए य १, सिय कालए य णीलए य हालिद्दए य २, सिय कालए य णीलए य सुस्किल्लए य ३, सिय कालए य लोहियए य हालिद्दए य ४, सिय कालए य लोहियए य सुकिल्लए य ५, सिय कालए य हालिदए य सुकिलए य ६, सिय णीलए य लोहियए य हालिद्दए य ७, सिय णीलए य लोहियए य सुकिल्लए य ८, सिय णीलए य हालिद्दए य सुस्किल्लए य ९, सिय लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए य १० एवं एए दस तियासंजोगा । जइ एगगंधे सिय सुब्भिगंधे १, सिय For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५० भगवती सूत्र - २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि दुभिगंधे २ | जइ दुगंधे सिय सुब्भिगंधे यदुभिगंधे य ३ भंगा। रसा जहा वण्णा । जइ दुफा से सिय सीए य णिदुधे य, एवं जहेव दुपए सियस्स तहेव चत्तारि भंगा ४ | जड़ तिफा से सव्वे सीए देसे विधे देसे लक्खे १, सव्वे सीए देसे णिदधे देसा लुक्खा २, सव्वे सीए देसा गिद्धा देसे लक्खे ३, सव्वे उसिणे देसे णिधे देसे लक्खे ३ एत्थ विभंगा तिणि, सव्वेणिदधे देसे सीए देसे उसि भंगा तिष्णि ९, सव्वे लुक्खे देसे सीए देसे उर्मिणे भंगा तिष्णि एवं १२ | भावार्थ- जब त्रिप्रदेशी स्कन्ध तीन वर्ण वाला होता है, तो कदाचित् काला, नीला और लाल होता है, या काला, नीला और पीला होता है, या काला, नीला और श्वेत होता है, या काला, लाल और पीला होता है, या काला, लाल और श्वेत होता है, अथवा काला, पीला और श्वेत होता है अथवा नीला, लाल और पीला होता है, कदाचित् नीला, लाल और श्वेत होता है, या नीला, पीला और श्वेत होता है, कदाचित् लाल, पीला और श्वेत होता है । इस प्रकार त्रिकसंयोगी दस भंग होते हैं । यदि एक गन्ध वाला होता है, तो कदाचित् सुगन्धित होता है, या दुर्गन्धित होता है । यदि दो गन्ध वाला होता है, तो सुगन्धित और दुर्गन्धित होता है। यहां एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा तीन भंग होते हैं । जिस प्रकार वर्ण के ४५ भंग कहे हैं, उसी प्रकार रस के भी ४५ भंग जानना चाहिये । यदि दो स्पर्श वाला होता है, तो कदाचित् शीत और स्निग्ध, इत्यादि चार भंग द्विप्रदेशी स्कन्ध के समान जानना चाहिये। जब वह तीन स्पर्श वाला होता है तो १ - सर्वशीत, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है । २- अथवा - सर्वशीत, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होता है । ३- अथवा For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि २८५१ सर्वशीत, अनेक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है । ४-अथवा सर्व उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है । यहां भी पूर्ववत तीन भंग जानना चाहिये । अथवा-कदाचित् सर्व स्निग्ध, एक देश शीत और एक देश उष्ण होता है । यहां भी पूर्ववत तीन भग होते हैं। सब मिला कर त्रिकसंयोगी बारह भंग होते हैं। जइ चउफासे देमे सीए देसे उसिणे देसे णिदधे देसे लुक्खे १, देमे सीए देसे उसिणे देमे णिधे देमा लुक्खा २, देसे सीए देसे उसिणे देसा णिद्धा देसे लुक्खे ३, देसे सीए देसा उमिणा देसे णिदुधे देसे लुक्खे ४, देसे सीए देसा उसिणा देसे णिधे देसा लुक्खा ५, देमे सीए देसा उसिणो देसा णिद्धा देसे लुस्खे ६, देसा सीया देसे उसिणे देसे णिः देसे लुक्खे ७, देसा सीया देसे उसिणे देसे गिद्धे देसा लुक्खा, ८, देसा सीया देसे उसिणे देसा णिद्धा देसे लुक्खे ९, एवं एए तिरएसिए फासेसु पणवीसं भंगा। भावार्थ-जब वह चार स्पर्श वाला होता है, तो १ एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है। अथवा २ एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होते हैं। ३ अथवा एक देश शीत, एक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है । ४ अथवा एक देश शीत, अनेक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष । ५ अथवा एक देश शीत, अनेक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष । ६ अथवा एक देश शीत, अनेक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और एक देश लक्ष । ७ अथवा अनेक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष । For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५२ भगवती मूत्र-ग २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि ८ अथवा अनेक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष । ९ अथवा अनेक देश शीत, एक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष । इस प्रकार त्रिप्रदेशी स्कन्ध में स्पर्श के कुल पच्चीस भंग होते हैं। (इस प्रकार त्रिप्रदेशी स्कन्ध में वर्ण के ४५, गन्ध के ५, रस के ४५ और स्पर्श के २५, ये सब मिल कर १२० भंग होते हैं।) ___विवेचन-त्रिप्रदेशी स्कन्ध में तीन प्रदेश होते हैं, तथापि परिणाम के कारण वे तीनों कदाचित् एक प्रदेशावगाही, द्विप्रदेशावगाही और त्रिप्रदेशावगाही होते हैं। जब वे एक प्रदेशावगाही होते हैं, तब उनमें अंश की कल्पना नहीं हो सकती। जब द्विप्रदेशावगाही होते हैं, तब उनमें दो अंशों की और जव त्रिप्रदेशावगाही होते हैं, तब तीन अंशों की कल्पना हो सकती है । जब तीनों ही प्रदेश कालादि एक वर्ण रूप परिणाम वाले होते हैं, तब उनके पांच विकल्प होते हैं । जब दो वर्ण रूप परिणाम होता है, तब एक प्रदेश काला और दो प्रदेश एक प्रदेशावगाही होने से एक अंश नीला होता है । इस प्रकार विकसंयोगी प्रथम भंग होता हैं । अथवा एक प्रदेश काला होता है और दो प्रदेश भिन्न-भिन्न द्विप्रदेशावगाही होने से दो अंश नीले होते हैं । इस प्रकार विवक्षा हो सकती है । इसी प्रकार दूसरा ‘भंग भी जानना चाहिये । इसी प्रकार दो अंश काले और एक अंश नीला होता है । इस प्रकार एक द्विकसंयोग के तीन-तीन भंग होने से दस द्विकसंयोग के तीस भंग होते हैं । गन्ध के एक गन्ध परिणाम हो, तब दो भंग होते हैं और दो गन्ध परिणाम होता है, तब एक अंश और अनेक अंश की कल्पना से पूर्ववत् तीन भंग होते हैं। वर्ण के समान त्रिप्रदेशी स्कन्ध के द्विकसंयोगी तीस भंग, त्रिकसंयोगी दम भंग और असंयोगी पांच भंग, इस प्रकार कुल ४५ भंग रस सम्बन्धी होते है। जब त्रिप्रदेशी स्कन्ध दो आकाश प्रदेशों पर अवगाढ़ होता है तब दोनों आकाशप्रदेशस्थ तीनों प्रदेश शीत होने से सर्व शोत, एक प्रदेशात्मक एक देश स्निग्ध और एक प्रदेशावगाढ़ द्विप्रदेशात्मक एक देश रूक्ष होता है तब प्रथम भंग बनता है । जब त्रिप्रदेशी स्कंध तीन आकाश प्रदेशों पर अवगाढ़ होता है तब तानों प्रदेश शीत होने से सर्वशीत, एक प्रदेशात्मक एक देश स्निग्ध और द्विप्रदेशावगाढ़ दो प्रदेश रूप अनेक देश रूक्ष होते हैं तब दूसरा भंग बनता है । जब तीन प्रदेशी स्कंध तीन आकाश प्रदेशों पर अवगाढ होता हैं तब तीनों प्रदेश शीत होने से सर्वशीत, द्विप्रदेशावगाढ दो प्रदेश स्निग्ध होने से अनेक देश स्निग्ध और एक प्रदेशात्मक एक देश रूक्ष होता है तब तीसरा भंग बनता है । इसी प्रकार For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २० उ ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि २८५३ सर्व उष्ण सर्व स्निग्ध सर्व कक्ष के साथ भी तीन-तीन भंग जानने चाहिए । इसी प्रकार चतुः प्रदेशी आदि स्कंधों में भी यथायोग्य समझ लेना चाहिए । __जव त्रिप्रदेशी स्कंध दो आकाश प्रदेश पर अवगाढ हो, एक आकाश प्रदेश पर रहा हुआ एक परमाणु शीत और स्निग्ध हो और दूसरे आकाश प्रदेश पर रहे हुए दो परमाणु उष्ण और रूक्ष हो तब क्षेत्र की प्रधानता करके और द्रव्य (दो परमाणु) गौणता करके उन्हें एक देश ही समझा जाता है तब चार स्पर्श का प्रथम भंग (एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष) बनता है । जब उसी स्कंध के एक आकाश प्रदेश पर रहे हुए दो परमाणुओं में जो उष्ण और रूक्ष स्पर्ग है, उन में से उष्ण स्पर्श को क्षेत्र की प्रधानता का विवक्षा से एक देश मानने पर एवं रूक्ष स्पर्श में द्रव्य की प्रधानता की विवक्षा करने से अनेक देश मानने पर 'एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध, अनेक देश रूक्ष' रूप दूसरा भंग बनता है। जब त्रिप्रदेगी स्कंध दो आकाश प्रदेश पर अवगाढ हों, एक आकाश प्रदेश पर रहे हुए दो परमाणु उष्ण और स्निग्ध हों और दूसरे आकाश प्रदेश पर रहा हआ एक परमाण शीत और रूक्ष हो । एक आकाश प्रदेश पर रहे हुए दो परमाणुओं में रहे हुए उष्ण स्पर्श को क्षेत्र की प्रधानता एवं द्रव्य की गौणता से एक देश मानने पर एवं स्निग्ध स्पर्श को द्रव्य को प्रधानता एवं क्षेत्र की गौणता से अनेक देश मानने पर 'एक देश शीत, एक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष' रूप तीसरा भंग बनता है । जब इसी स्कंध में उष्ण स्पर्श को द्रव्य की प्रधानता एवं क्षेत्र की गौणता से अनेक देश मान लिया जाता है तथा स्निग्ध स्पर्श में क्षेत्र की प्रधानता एवं द्रव्य की गौणता से एक देश मान लिया जाता है तव 'एक देश शीत, अनेक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष' रूप चौथा भंग बनता है । जब त्रिप्रदेशी स्कंध तीन आकाश प्रदेशों पर रहा हुआ हो । एक आकाश प्रदेश पर स्थित एक प्रदेश शीत और स्निग्ध हो, दो आकाश प्रदेश पर रहे हुए दो प्रदेश उष्ण और रूक्ष हो तब 'एक देश शीत, अनेक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष 'रूप पांचवां भंग बनता है । जब त्रिप्रदेशावगाढ त्रिप्रदेशी स्कंध का एक प्रदेश शीत और रूक्ष हो और दो प्रदेश उष्ण और स्निग्ध हों तब 'एक देश शीत, अनेक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष' रूप छठा भंग बनता है । जब त्रिप्रदेशी स्कंध दो आकाश प्रदेशों पर अवगाढ़ होता है, उनमें से एक आकाश प्रदेश पर रहे हुए दो परमाणु पुद्गल शीत एवं रूक्ष हों तथा दूसरे आकाश प्रदेश पर रहा हुआ परमाणु उष्ण और स्निग्ध हो तब एक आकाश प्रदेश पर रहे हुए दो परमा For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५४ भगवती मूत्र श २. उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि णुओं में जो शीत और रूक्ष स्पर्श है उनमें से शीत स्पर्श को द्रव्य की प्रधानता से और क्षेत्र की गौणता से अनेक देश मानने पर तथा रूक्ष स्पर्श को क्षेत्र की प्रधानता और द्रव्य की गौणता से एक देश मानने पर 'अनेक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष रूप सातवां भंग बनता है। जब त्रिप्रदेशावगाढ़ त्रिप्रदेशी स्कंध का एक प्रदेश उष्ण और स्निग्ध होता है शेष दो प्रदेश शीत और रूक्ष होते हैं तब 'अनेक देश शीत एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष रूप आठवां भंग पाया जाता है । जब त्रिप्रदेशावगाढ़ त्रिप्रदेशी स्कंध का एक प्रदेश उष्ण और रूक्ष होता है, शेष दो प्रदेश शीत और स्निग्ध होते हैं तब 'अनेक देश शीत, एक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष' रूप नौवां भंग बनता है । इसी प्रकार आगे भी चार प्रदेशी आदि स्कंधों में भी उपयोग लगा कर द्रव्य क्षेत्र की प्रधानता गौणता से यथायोग्य भंग बना लेना चाहिए। उपर्युक्त प्रकार से एक ही भंग में एक स्पर्श में द्रव्य की मुख्यता गौणता तो दूसरे स्पर्श में क्षेत्र की मुख्यता गौणता करने से ही ये भंग वनते हैं अन्यथा प्रकार से ये संभव नहीं हैं । प्रसिद्ध सिद्धान्तवादी श्री जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण भी अपनी विशेषणवती के सतरहवें विशेषण में शंका समाधान के रूप में इस बात को इसी प्रकार कहा है । यथा बीसइमसउद्देसे चउप्पए साइए चउप्फासे । एग बहुवयणमीसा बी आइया कहं मंगा ।। १ ।। देसो देसावमया दव्वक्षेत्तवसओ विवक्लाए । संघाइय मेयतदुभय भावाओऽवी वयणकाले ।। २ ।। भावार्थ-शंका-बीसवें शतक के पांचवें उद्देशक में चतुःप्रदेशी आदि स्कंधों के चार स्पर्श सम्बंधी एक वचन बहुवचन के मिश्र (सम्मिलित) द्वितीयादि भंग किस प्रकार समझना? समाधान -शीत उष्ण के एक देश और स्निग्ध रूक्ष के अनेक देश या स्निग्ध या स्निग्ध रूक्ष के एक देश और शीत उष्ण के अनेक देश इस प्रकार एक देश, अनेक देश रूप जो द्वितीयादि मिश्र भंग हैं, वे विवक्षा भेद से द्रव्य और क्षेत्र की प्रधानता गौणता के कारण से बने हैं । अर्थात् एक वचन के स्पर्श में द्रव्य की प्रधानता मान ली गई है । इस प्रकार कथन के समय में अर्थात् भंग रचना के समय में संघातित (अवगाहित क्षेत्र की प्रधानता) भेद (द्रव्य की प्रधानता) और तदुभयता (द्रव्य और क्षेत्र की प्रधानता) होने से ये चार स्पर्श सम्बन्धी द्वितीयादि भंग होते हैं। इस प्रकार श्री जिनभद्र गणि भी इन भंगों की संगति इसी प्रकार बिठाते हैं। इसलिए मंगों की संगति उपर्युक्त प्रकार से ही समझनी चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २० उ ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि ४ प्रश्न - उप्परसिए णं भंते ! खंधे कइवण्णे० ? ४ उत्तर - जहा अट्ठारसमसए जाव 'सिय चउफासे पण्णत्ते' । जगवणे सिय कालए य जाव सुकिल्लए ५ । जइ दुवण्णे सिय कालए य णीलए य १, सिय कालए य णीलगा य २, सिय कालगा य णीलए य ३, सिय कालगा य णीलगा य ४ । सिय कालए य लोहियए य । एत्थ वि चत्तारि भंगा ४ । सिय कालए य हालिए य ४ । सिय कालए य सुकिल्लए य ४ । सिय णीलए य लोहियए य ४ । सिय णीलए य हालिदए य ४ । सिय णीलए य सुकिल्लए य ४ । सिय लोहियए य हालिदए य ४ । सिय लोहियए य सुकिल्लए य ४ । सिय हालिए य सुकिल्लए य ४ | एवं एए दस दुयासंजोगा भंगा पुण चत्तालीस ४० । भावार्थ - ४ प्रश्न - हे भगवन् ! चतुष्प्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है, इत्यादि प्रश्न ? ४ उत्तर - हे गौतम ! अठारहवें शतक के छठे उद्देशकवत् यावत् 'वह कदाचित् चार स्पर्श वाला होता है' तक । जब वह एक वर्ण वाला होता है, तो ५- कदाचित् काला होता है यावत् श्वेत होता है । जब दो वर्ण वाला होता है, तो १ - कदाचित् उसका एक अंश काला और एक अंश नीला होता है, २ - कदाचित् एक देश काला और अनेक देश नीले होते हैं, ३ - कदाचित् अनेक देश काले और एक देश नीला होता है, ४- अथवा अनेक देश काले और अनेक देश नीले होते हैं । अथवा कदाचित् एक अंश काला और एक अंश लाल होता है। यहां भी पूर्ववत् चार भंग कहने चाहिये । कदाचित् एक अंश काला और एक अंश पोला, पूर्ववत् चार २८५५ For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५६ भगवती सूत्र-श. २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि भंग । कदाचित् एक अंश काला और एक अंश श्वेत, पूर्ववत् चार भंग । कदाचित् एक अंश नीला और एक अंश लाल आदि पूर्ववत् चार भंग । कदाचित् नीला और पीला के पूर्ववत् चार भंग। कदाचित् नीला और श्वेत के चार भंग । कदाचित् लाल और पीला के चार भंग । कदाचित् लाल और श्वेत के चार भंग । कदाचित् पोला और श्वेत के चार भंग । इस प्रकार इन दस द्विकसंयोग के ४० भंग होते हैं। जइ तिवण्णे सिय कालए य णीलए य लोहियए य १, सिय कालए णीलए लोहियगा य २, सिय कालए य णीलगा य लोहियए य ३, सिय कालगा य णीलए य लोहियए य एए भंगा ४ । एवं कालणीलहालिदएहिं भंगा ४, कालणीलसुकिल्ल० ४, काललोहियहालिद्द० ४, काललोहियसुकिल्ल० ४, कालहालिदसुकिल्ल० ४ । णीललोहियहालिदगाणं ४ भंगा, णीललोहियसुकिल्ल० ४, णील. हालिहसुस्किल्ल० ४, लोहियहालिहसुकिल्लगाणं ४ भंगा । एवं एए दसतियासंजोगा, एस्केक्के संजोए चत्तारि भंगा, सव्वे ते चत्ता. लीसं भंगा ४० । जइ चउवण्णे सिय कालए णीलए लोहियए हालिइए य १, सिय कालए णीलए लोहियए सुकिल्लए २, सिय कालए णीलए हालिहए सुकिल्लए ३, सिय कालए लोहियए हालिइए सुफिल्लए ४, सिय णीलए लोहियए हालिइए सुफिल्लए य५। एषमते चउक्कगसंजोए पंच भंगा । एए सव्वे णउड़ भंगा। ___भावार्थ-यदि वह तीन वर्ण वाला होता है तो (१) कदाचित् काला, नीला और लाल होता है । अथवा एक देश काला, एक देश नीला और अनेक For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-. २० उ. ५ परमाणु और म्कन्ध के वर्णादि २८५७ देश लाल होते हैं । अथवा एक देश काला, अनेक देश नीला और एक देश लाल होता है । अथवा अनेक देश काला, एक देश नीला और एक देश लाल होता है । इस प्रकार एक त्रिक संयोग के चार भंग होते हैं। (२) इस प्रकार काला, नीला और पीला वर्ण के चार भंग । (३) काला, नीला और श्वेत वर्ण के चार भंग । (४) काला, लाल और पीला वर्ण के चार भंग । (५) काला, लाल और श्वेत वर्ण के चार भंग । अथवा (६) काला, पीला और श्वेत वर्ण के चार भंग । (७) अथवा नीला, लाल और पीला वर्ण के चार भंग । (८) अथवा नीला, लाल और श्वेत वर्ण के चार भंग (९) अथवा नीला, पोला और श्वेत वर्ण के चार भंग। (१०) कदाचित् लाल, पीला और श्वेत वर्ण के चार भंग । इस प्रकार दस त्रिक संयोग होते है और एक-एक त्रिक संयोग में चार-चार भंग होते हैं। ये सब मिल कर ४० भंग होते हैं । जब वह चार वर्ण का होता है तो कदाचित् काला, नीला, लाल और पीला होता है । कदाचित् काला, नीला, लाल और श्वेत होता है। अथवा कदाचित् काला, नीला, पीला और श्वेत होता है । अथवा कदाचित् काला, लाल, पीला और श्वेत होता है । अथवा कदाचित् नीला, लाल, पीला और श्वेत होता है । इस प्रकार चतुःसंयोग के पांच भंग होते हैं। सब मिल कर वर्ण सम्बन्धी ९० भंग होते है। जइ एगगंधे सिय सुन्भिगंधे १, सिय दुन्मिगंधे य २, जह दुगंधे +मुन्भिगंधे य +दुभिगंधे य ४ । रसा जहा वण्णा । भावार्थ-जब यह चतुःसंयोगी स्कन्ध एक गन्ध वाला होता है, तो कदाचित् सुरभिगन्ध और कदाचित् दुरभिगन्ध होता है । जब बह दो गम्ध + यहां मूल पाठ में दोनों स्थान पर लिय' शब-. भगनानवास बाली प्रति में है और सूरत वाली में भी है, परन्तु सुत्तागमै पाली में नहीं है । हमें सुतागमे बाका पाठ टीका लगा। होमो नम्ध जहाँ हो, वहाँ 'सिय' शब्द की आवश्यकता हो नहीं रहनी-होशी। For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५८ भगवती सूत्र - य. २० उ ५ परमाणु और स्कंध के वर्णादि वाला होता है, तो सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध । इसके चार भंग होते हैं । इस प्रकार गन्ध सम्बन्धी छह भंग होते हैं । जिस प्रकार वर्ण के ९० भंग कहे गये हैं, उसी प्रकार रस के ९० भंग कहने चाहिये । जइ दुफासे जहेव परमाणुपोग्गले ४ । जह तिफासे सव्वे सीए देसे णिदधे देसे लक्खे १, सव्वे सीए देसे णिधे देसा लुक्खा २, सव्वे सीए देसा दिा देसे लक्खे ३, सव्वे सीए देसा गिद्धा देसा लक्खा ४, सव्वे उसिने देसे णिदुधे देसे लक्खे । एवं भंगा ४, सव्वे दिघे देसे सीए देउसिणे ४, सव्वे लुक्खे देसे सीप देसे उसि ४ । एए तिफा से सोलस भंगा । भावार्थ- जब वह दो स्पर्श वाला होता है, तो उसके परमाणु पुदगल के समान चार भंग होते हैं। जब वह तीन स्पर्श वाला होता है, तो सर्व शीत और एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है। अथवा सर्व शीत, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होते हैं । अथवा सर्व शीत, अनेक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है । अथवा सर्व शीत, अनेक देश स्निन्ध और अनेक देश रूक्ष होते हैं । अथवा सर्व उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के चार भंग । अथवा सर्व स्निग्ध, एक देश शीत, एक देश उष्ण के चार भंग होते हैं । अथवा सर्व रूक्ष, एक देश शीत और एक देश उष्ण के चार भंग । इस प्रकार सब मिल कर तीन स्पर्श के सोलह भंग होते हैं । जइ चउफा से देसे सीए देसे उसने देसे णिदधे देसे लक्खे १ देसे सीए देसे उसिणे देसे णिधे देसा लुक्खा २, देसे सीए देसे उसि देसा णिद्धा देसे लुक्खे ३, देसे सिए देसे उसने देसा For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २० उ. ५ पर पाणु और स्कन्ध क वगाद २८, णिद्धा देमा लुक्खा ४, देसे सीए देमा उप्तिणा देसे गिद्धे देसे लुक्खे ५, देसे सीए देमा उसिणा देसे णिधे देसा लुक्खा ६, देसे सीए देमा उसिणा देसे गिद्धा देसे लुक्खे ७, देसे सीए देसा उसिणा देसा णिद्धा देसा लुक्खा ८, देसा सीया देसे उसिणे देसे णिधे देसे लुक्खे ९, एवं एए चउफासे सोलस भंगा भागियव्वा जाव देमा सीया देमा उसिणा देसा णिद्धा देसा लुक्खा । सवे एए फासेसु छत्तीस भंगा। भावार्थ-कदाचित् चार स्पर्श वाला हो तो उसका एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है। अथवा एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होते हैं । अथवा एक देश शीत, एक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है। अथवा एक देश शीत, एक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होते हैं । अथवा एक देश शीत, अनेक देश उष्ग, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है । अथवा एक देश शीत, अनेक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होते हैं । अथवा एक देश शीत, अनेक देश उष्ग, अनेक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है । अथवा एक देश शोत, अनेक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होते हैं । अथवा अनेक देश शीत, एक देश उष्ण, एफ देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है । इस प्रकार चार स्पर्श के सोलह भंग कहने चाहिये, यावत् अनेक देश शीत, अनेक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होते हैं। ये सब मिल कर द्विकसंयोगी चार, त्रिकतंयोगो सोलह और चतुःसंयोगी सोलह, इस प्रकार स्पर्श सम्बन्धी ३६ भंग होते हैं। (चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के विषय में वर्ण के ९०, गन्ध के ६, रस के ९०, और स्पर्श के ३६, ये सब मिल कर २२२ भंग होते हैं।) For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६० भगवती मूत्र-स. २० उ ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि विवेचन-वणं सम्बन्धी ९० भंग ऊपर बतला दिये गये हैं। उसी के अनुसार रस के भी ९० भंग जानने चाहिये । ५ प्रश्न-पंचपएसिए णं भंते ! खंधे कइवण्णे० ? ५ उत्तर-जहा अट्टारसमसए जाव सिय चउफासे पण्णत्ते । जइ एगवण्णे एगवण्णदुवण्णा जहेव चउप्पएसिए । जइ तिवण्णे सिय कालए णीलए लोहियए य १, सिय कालए णीलए लोहियगा य २, सिय कालए णीलगा य लोहियए य ३, सिय कालए णीलगा य लोहियगा य ४, मिय कालगा य णीलए य लोहियए य ५, सिय कालगा य णीलए य लोहियगा य ६, सिय कालगा य णीलगा य लोहियए य ७। सिय कालए णीलए हालिद्दए य । एत्थ वि सत्त भंगा ७ । एवं कालगणीलगसुकिल्लएसु सत्त भंगा, कालगलोहियहालिद्देसु ७, कालगलोहियसुकिल्लेसु ७, कालगहालिहसुकिलेस्सु ७, णीलगलोहियहालिद्देसु ७, णीलगलोहियसुकिल्लेसु सत्त भंगा ७, णीलगहालिद्दसुकिल्लेसु ७, लोहियहालिदसुकिल्लेसु वि सत्त भंगा ७ । एवमेए तियासंजोए सत्तरि भंगा। ___भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! पञ्चप्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला हैं, इत्यादि प्रश्न ? ५ उत्तर-हे गौतम ! अठारहवें शतक के छठे उद्देशक के अनुसार यावत् 'वह कदाचित् चार स्पर्श वाला होता है'-तक जानना चाहिये । जब वह एक वर्ण वाला या दो वर्ण वाला होता है तो चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के समान (उसके ५ और ४०) जानना चाहिये। जब वह तीन वर्ण वाला होता है तो For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ग. २० उ ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि कदाचित् एक देश काला, एक देश नीला और एक देश लाल होता है । कदाचित् एक देश काला, एक देश नीला और अनेक देश लाल होते हैं । कदाचित् एक देश काला, अनेक देश नीला और एक देश लाल होता है । कदाचित् एक देश काला, अनेक देश नीला और अनेक देश लाल होते हैं । अथवा अनेक देश काला, एक देश नीला और एक देश लाल होता है । अथवा अनेक देश काला, एक देश नीला और अनेक देश लाल होते हैं अथवा अनेक देश काला, अनेक देश नीला और एक देश लाल होता है । अथवा कदाचित् एक देश काला, एक देश नीला और एक देश पीला होता है । इस त्रिकसंयोग के भी सात भंग होते हैं । इसी प्रकार काला, नीला और श्वेत के भी सात भंग होते हैं । अथवा काला, लाल और पीला, इसके भी सात भंग होते हैं । अथवा काला, लाल और श्वेत के सात भंग । अथवा काला, पीला और श्वेत के सात भंग । अथवा नीला, लाल और पीला इतके सात भंग । अथवा नीला, लाल और श्वेत के सात भंग । अथवा नीला, अथवा लाल पीला और श्वेत के सात भंग । सात-सात भंग होने से ७० भंग होते हैं । पीला और श्वेत के सात भंग । इस प्रकार दस त्रिक संयोग के . जइ चउवण्णे सिय कालए य णीलए य लोहियए हालिइए य १, सिय कालए य णीलए य लोहियए य हालिहगा य २, सिय कालए यणीलए य लोहियगा य हालिहगे य ३, सिय कालए णीलगाय लोहियगेय हालिहगे य ४, सिय कालगा य णीलए य लोहियए हालिए य ५ । एए पंच भंगा। सिय कालए य णीलए य लोहियए य सुकिल्लए य एत्थ वि पंच गंगा ५, एवं कालगणीलगहालिहसुकिल्लेसु वि पंच गंगा ५, कालगलोहियहा लिह सुकिल्लएस वि २८६१ For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८.६२ भगवनी मूत्र-श. २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि पंच भंगा ५, णीलगलोहियहालिहसुकिल्लेसु वि पंच भंगा ५, एवमेए चउकगसंजोएणं पणवीसं भंगा । भावार्थ-यदि वह चार वर्ण वाला होता है तो कदाचित् एक देश काला एक देश नीला, एक देश लाल और एक देश पीला होता है। अथवा एक देश काला, नीला, लाल, अनेक देश पीला होता। अथवा एक देश काला, नीला, अनेक देश लाल और एक देश पीला होता है । अथवा एक देश काला, अनेक देश नीला, एक देश लाल और एक देश पीला होता है । अथवा अनेक देश काला, एक देश नीला, एक देश लाल और एक देश पीला होता है । इस प्रकार चतुःसंयोगी पांच भंग होते हैं इसी प्रकार कदाचित् एक देश काला, नीला, लाल ओर श्वेत के पांच भंग । एक देश काला, नीला, पीला और श्वेत के पांच भंग । अथवा काला, लाल, पीला और श्वेत के पांच भंग । अथवा नीला लाल, पीला और श्वेत के पांच भंग होते हैं । इस प्रकार चतुःसंयोगी पच्चीस भंग होते है । जह पंचवण्णे कालए य णीलए व लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए य । सब्वमेए एक्का-दुयग-तियग-चउक्क पंचगसंजोएणं ईयालं भंगमयं भवइ । गंधा जहा वउप्पएसियस्स । रसा जहा वण्णा । फासा जहा चउप्पएसियस्स। भावार्थ-यदि वह पांच वर्ण वाला हो तो काला, नीला, लाल, पीला और श्वेत होता है । इस प्रकार असंयोगी ५, द्विक संयोगी ४०, त्रिक संयोगी ७०, चतुःसंयोगी २५. और पंच संयोगी एक, इस प्रकार सब मिल कर वर्ण के १४१ भंग होते हैं । गन्ध के चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के समान छह भंग होते है। रस के वर्ण के समान १४१ भंग होते है । स्पर्श के ३६ भंग, चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के समान होते हैं। (गञ्चप्रदेशी स्कन्ध के विषय में वर्ण के १४१, गन्ध के ६, For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. २. उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि २८६३ रस के १४१ और स्पर्श के ३६, ये कुल मिला कर ३२४ भंग होते है ।) ६ प्रश्न-छप्पएसिए णं भंते ! खंधे कइवण्णे० ? ६ उत्तर-एवं जहा पंचपएसिए जाव 'सिय चउफासे पण्णत्ते' । जइ एगवण्णे एगवण्ण-दुवण्णा जहा पंचपएसियस्स । जइ तिवण्णे सिय कालए य णीलए य लोहियए य, एवं जहेव पंचपएसियस्स सत्त भंगा जाव सिय कालगा य णीलगा य लोहियए य ७, सिय कालगा य णीलगा य लोहियगा ८ । एए अट्ट भंगा। एवमेए दस तियासंजोगा, एक्केक्कए संजोगे अट्ठ भंगा, एवं सच्चे वि तियगमंजोगे असीइ भंगा। - भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! छह प्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है, इत्यादि प्रश्न । . ६ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार पञ्चप्रदेशी स्कन्धवत्, यावत् 'कदाचित् चार स्पर्श वाला होता है'-तक । यदि वह एक चर्ण या दो वर्ण वाला है, तो पञ्चप्रदेशी स्कन्ध के समान एक वर्ण के ५ और दो वर्ण के ४ भंग होते हैं । जब वह तीन वर्ण वाला है तो कदाचित् काला, नीला और लाल होता है । जिस प्रकार पञ्चप्रदेशिक स्कन्ध के सात भंग कहे है, उसी प्रकार, यावत् 'कदाचित् अनेक देश काला, नीला और एक देश लाल होता है। कदाचित् अनेक देश काला, नीला और लाल होते हैं । इस प्रकार त्रिकसंयोग के ८ भंग होते हैं इस तरह दस त्रिक संयोगों' के ८० भंग होते हैं। - जइ चउवण्णे सिय कालए य णीलए य लोहियए य हालिदए य १, सिय कालए य णीलए य लोहियए य हालिदगा य २, सिय कालए य णौलए य लोहियगा य हालिइए य ३, सिय कालए य For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६४ . भगवतो मूत्र-ग. २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि णीलए य लोहियगा य हालिदगा य ४, सिय कालए य णीलगा य लोहियए य हालिद्दए य ५, सिय कालए य णीलगा य लोहियए य हालिंदगा य ६, सिय कालए य णीलगा य लोहियगा य हालि. द्दए य ७, सिय कालगा य णीलए य लोहियए य हालिद्दए य ८, सिय कालगा य णीलए य लोहियए य हालिद्दगा य ९, सिय कालगा य णीलए य लोहियगा य हालिद्दए य १०, सिय कालगा य णीलगा य लोहियए य हालिद्दए य ११ । एए एकारस भंगा एवमेए पंचचउकसंजोगा कायव्वा, एक्केक्कसंजोए एक्कारस भंगा, सव्वे ते चउकसंजोएणं पणपण्णं भंगा। - भावार्थ-यदि वह चार वर्ण का होता है तो कदाचित् एक देश काला नीला, लाल और पीला होता है । कदाचित् एक देश काला, एक देश नीला एक देश लाल और अनेक देश पीला होता है। अथवा एक देश काला, एक देश नीला, अनेक देश लाल और एक देश पीला होता है। कदाचित् एक देश काला, एक देश नौला, अनेक देश लाल और अनेक देश पीला होता है। कदाचित् एक देश काला, अनेक देश नौला, एक देश लाल और एक देश पीला होता है । अथवा एक देश काला, अनेक देश नीला, एक देश लाल और अनेक देश पीला होता है । अथवा एक देश काला, अनेक देश नीला, अनेक देश लाल और एक देश पीला होता है । अथवा अनेक देश काला, एक देश नीला, एक देश लाल और एक देश पीला होता है । कदाचित् अनेक देश काला, एक देश नीला, एक देश लाल और अनेक देश पीला होता है। कदाचित् अनेक 'देश काला, एक देश नीला, अनेक देश लाल और एक देश पीला होता है। अथवा अनेक देश काला, अनेक देश नीला, एक देश लाल और एक देश . For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि २८६५ पीला होता है । इस प्रकार चतुःसंयोगी ग्यारह भंग होते हैं। इस प्रकार पांच चतुःसंयोग कहने चाहिये । प्रत्येक चतुःसंयोग में ग्यारह-ग्यारह भंग होने से सब मिल कर ५५ भंग होते हैं। ___जइ पंचवण्णे सिय कालए य णीलए य लोहियप य हालिइए य सुकिल्लए १, सिय कालए य णीलए य लोहियप य हालिदए य सुकिल्लगा य २, सिय कालए य णीलए य लोहियए य हालिदगा य सुकिल्लए य ३, मिय कालए य णीलए य लोहियगा य हालिद्दए य सुकिल्लए य ४, सिय कालए य णीलगा य लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए य ५, सिय कालगा य णीलए य लोहियए य हालिदए य सुकिल्लए य ६,एवं एए छन्भंगा भाणियब्वा, एवमेए सव्वे वि - एकग-दुयग-तियग-चउक्ग-पंचगसंजोगेसु छासीयं भंगसयं भवइ । गंधा जहा पंचपएसियस्स । रसा जहा एयस्मेव वण्णा । फासा जहा चउप्पएसियस्स। 'भावार्थ-यदि वह पांच वर्ण का है तो कदाचित् एक देश काला, नीला, लाल, पीला और श्वेत होता है। कदाचित् एक देश काला, एक देश नीला, एक देश लाल, एक देश पीला और अनेक देश श्वेत होता है। अथवा एक देश काला, नीला, लाल तथा अनेक देश पीला और एक देश श्वेत होता है। कदाचित् एक देश काला, एक देश नीला, अनेक देश लाल, एक देश पीला और एक देश श्वेत होता है । अथवा एक देश काला, अनेक देश नीला, एक देश लाल, एक देश पीला और एक देश श्वेत होता है । अथवा अनेक देश काला एक देश नीला, लाल, पोला और श्वेत होता है । इस प्रकार छह भंग होते हैं। इस प्रकार असंयोगी ५, द्विक संयोगी ४०, त्रिकसंयोगी ८०, चतुःसंयोगी ५५ For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६६ भगवनी सूत्रश २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि और पंच संयोगी ६, सब मिल कर वर्ण सम्बन्धी १८६ भंग होते हैं। गन्ध सम्बन्धी छह मंग पञ्चप्रदेशी स्कन्ध के समान होते हैं । वर्ण के समान रस के १८६ भंग होते हैं । स्पर्श के भंग चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के समान जान लेना चाहिये। विवेचन-छह प्रदेशी स्कन्ध के विषय में वर्ण के १८६, गन्ध के ६, रस के १८६ और स्पर्श के ३६, ये कुल मिलाकर ४१४ भंग होते हैं । ७ प्रश्न-सत्तपएसिए णं भंते ! खंधे कइवण्णे० ? ७ उत्तर-जहा पंचपएसिए जाव 'सिय चउफासे' पण्णत्ते । जइ एगवण्णे० एवं एगवण्णदुवण्णतिवण्णा जहा छप्पएसियस्स । जइ चउवण्णे सिय कालए य णीलए य लोहियए य हालिद्दए य १, सिय कालए य णीलए य लोहियए य हालिदगा य २, सिय कालए य णीलए य लोहियगा य हालिद्दए य ३, एवमेए चउक्गसंजोगेणं पण्णरस भंगा भाणियव्वा जाव 'सिय कालगा य णीलगा य लोहियगा हालिद्दए य १५ । एवमेए पंचचउकसंजोगा णेयब्वा, एक्कक्के संजोए पण्णरस भंगा, सव्वमेए पंचसत्तरि भंगा भवइ । ... भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! सात प्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण का होता है, इत्यादि प्रश्न ? . .. ७ उत्तर-हे गौतम ! पंच प्रदेशिक स्कन्ध समान यावत् 'कदाचित् चार स्पर्श वाला होता है'-तक । जब वह एकादि वर्ण वाला होता है, तो एक वर्ण, दो वर्ण और तीन वर्ण के भंग छह प्रदेशी स्कन्ध के समान जानना चाहिये। जब वह चार वर्ण वाला होता है तो कदाचित् एक देश काला, नीला, लाल और पीला होता है । कदाचित् एक देश काला, एक देश नीला, एक देश लाल For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २० उ. ५ परमाण और स्कन्ध के वर्णादि २८६७ और अनेक देश पीला होता है। कदाचित् एक देश काला, एक देश नीला, अनेक देश लाल और एक देश पीला होता है । (कदाचित एक देश काला, एक देश नीला, अनेक देश लाल और अनेक देश पीला होता है ।) इस प्रकार चतुःसंयोग में पन्द्रह भंग जानना चाहिये, यावत् कदाचित् अनेक देश काला, अनेक देश नीला, अनेक देश लाल और एक देश पीला होता है। इस प्रकार पांच चतुःसंयोगी भंग होते हैं । एक-एक चतुःसंयोग में पन्द्रह-पन्द्रह भंग होते हैं। सब मिल कर ७५ भंग होते हैं । ___जड़ पंचवण्णे सिय कालए णीलए य लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए य १, सिय कालए य णीलए य लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लगा य २, सिय कालए य णीलए य लोहियए य हालि. दगा य सुकिल्लए य ३, सिय कालए य णीलए य लोहियए य हालिद्दगा य सुकिल्लगा य ४, सिय कालए य णीलए य लोहियगा य हालिदए य सुकिल्लए य ५, सिय कालए य णीलए य लोहियगा य हालिद्दए य सुकिल्लगा य ६, सिय कालए य णीलए य लोहियगा य हालिदगा य सुकिल्लए य ७, सिय कालए य णीलगा य लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए य ८, सिय कालए य णीलगा य लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लगा य ९, सिय कालए य णीलगा य लोहियए य हालिद्दगा य सुकिल्लए य १०, सिय कालए य णीलगा य लोहियगा य हालिद्दए य सुकिल्लए य ११, सिय कालगा य णीलगे य लोहियए य हालिदए य सुकिल्लए For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २० उ ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि य १२, सिय कालगा य णीलए य लोहियगे य हालिए य सुकिलगा य १३, सिय कालगा य णीलए य लोहियए य हालिगा य सुकिल्लए य १४, सिय कालगा य णीलए य लोहियगा य हालिए य सुकिल्लए य १५, सिय कालगा य णीलगा य लोहियए य हालिए य सुकिल्लए य १६ । एए सोलस भंगा, एवं सव्वमेए एक्कग- दुयग-तियग- चउक्कग पंचगसंजोगेणं दो सोला भंगसया भवइ | गंधा जहा चउप्प एसियस्स । रसा जहा एयस्स चेव वण्णा । फासा जहा उप्पएसियस्स । २८६८ भावार्थ- जब वह पांच वर्ण का होता है तो कदाचित् एक देश काला, नीला, लाल, पीला और श्वेत होता है। कदाचित् एक देश काला, नीला, लाल पीला और अनेक देश श्वेत होता है । कदाचित् एक देश काला, एक देश नील', एक देश लाल, अनेक देश पीला और एक देश श्वेत होता है । कदाचित् एक देश काला, एक देश नीला, एक देश लाल, अनेक देश पीला और अनेक देश श्वेत होता है । कदाचित् एक देश काला, एक देश नीला, अनेक देश लाल, एक देश पीला और एक देश श्वेत होता है । अथवा एक देश काला, एक देश नीला, अनेक देश लाल, एक देश पीला और अनेक देश श्वेत होता है। कदाचित् एक देश काला, एक देश नीला, अनेक देश लाल, अनेक देश पीला और एक देश श्वेत होता है। कदाचित् एक देश काला, अनेक देश मीला, एक देश लाल, एक वेश पीला और एक देश इबेल होता है। कदाचित् एक देश काला, अनेक देश मीला, एक देश लाल, पीला और अनेक देश इथेत होता है । कदाचित एक देश अनेक देश नीला, एक देश लाल, अनेक देश पीला और एक देश श्वेत होता है । कदाचित् एक देश काला, अनेक देश मीला, लाल, एक देश पीला और एक देश श्वेत होता है । कदाचित् अनेक देश काला, एक देश नीला, लाल, काला, For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वदि ८६ पोला और श्वेत होता है । कदाचित अनेक देश काला, एक देश नीला, लाल, पीला और अनेक देश श्वेत होता है । कदाचित् अनेक देश काला, एक देश नीला, लाल, अनेक देश पीला और एक देश श्वेत होता है । कदाचित् अनेक देश काला, एक देश नीला, अनेक देश लाल, एक देश पीला और एक देश श्वेत होता है । कदाचित् अनेक देश काला, नीला, एक देश लाल, पीला और श्वेत होता है । इस प्रकार सोलह भंग होते हैं। असंयोगी ५, द्विक संयोगी ४०, त्रिक संयोगी ८०, चतुःसंयोगी ७५ और पंच संयोगी १६ भंग होते हैं । ये सब मिला कर वर्ण के २१६ भंग होते हैं । गन्ध के छह भंग चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के समान कहने चाहिये । वर्ण के समान रस के २१६ भंग कहने चाहिये और स्पर्श के भंग चतुष्प्रदेशो स्कन्ध के समान कहने चाहिये। विवेचन - सप्त प्रदेशी स्कन्ध के विषय में वर्ण के २१६, गन्ध के ६, रस के २१६ और स्पर्ग के ३६ ये सब मिला कर कुल ४७४ भंग होते हैं। ८ प्रश्न-अटुपएसियस्स णं भंते ! खंधे०-पुन्छा । ८ उत्तर-गोयमा ! सिप एगवण्णे० जहा सत्तपएसियरस जाव सिय चउफासे पण्णत्ते जइ एगवण्णे, एवं एगवण्णदुवण्णतिवण्णा जहेव सत्तपएसिए । जइ चउवण्णे सिय कालए य णीलए य लोहियए य हालिइए य. १, सिय कालए य णीलए य लोहियए य हालिदगा य, एवं जहेव सत्तपएसिए जाव 'सिय कालगा य णीलगा य लोहि यगा य हालिहगे य १५, सिय कालगा य गीलगा य लोहियगा य हालिदगा य १६' । एए सोलस भंगा, एवमेए पंच चउकसंजोगा, एवमेए असीइ भंगा ८०। भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! आठ प्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है, इत्यादि प्रश्न ? For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७० - भगवती सूत्र-श. २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि : ८ उत्तर-हे गौतम ! जब वह एक वर्ण वाला होता है, इत्यादि वर्णन सात प्रदेशी स्कन्ध के समान यावत् कदाचित् चार स्पर्श वाला होता है इत्यादि कहना चाहिये । उसके एक वर्ण, दो वर्ण और तीन वर्ण के ग सात प्रदेशी स्कन्ध के समान कहना चाहिये । जब वह चार वर्ण वाला होता है तो कदाचित् एक देश काला, नीला, लाल और पीला होता है। कदाचित् एक देश काला, नीला, लाल और अनेक देश पीला होता है। इस प्रकार सात प्रदेशी स्कन्ध के समान पन्द्रह भंग यावत् 'अनेक देश काला, नीला, लाल और एक देश पीला होता है (सोलहवां भंग)। कदाचित् अनेक देश काला, नीला, लाल और पीला होता है । एक चतुःसंयोग में सोलह भंग होते हैं। पांच चतुःसंयोगों के सोलह-सोलह भंग होने से ८० भंग होते हैं। जइ पंचवण्णे सिय कालए य णीलए य लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए य १, सिय कालए य णीलए य लोहियगे य हालिद्दगे य सुकिल्लगा य २, एवं एएणं कमेणं भंगा चारेयव्वा जाव सिय कालए य णीलगा य लोहियगा य हालिद्दगा य सुकिल्लगे य १५, . एसो पण्णरसमो भंगो, सिय कालगा य णीलगे य लोहियगे य हालिदए य मुकिल्लए य १६, सिय कालगा य णीलगे य लोहियगे य हालिद्दगे य सुकिल्लगा य १७, सिय कालगा य णीलगे य लोहियगे य हालिदगा य सुकिल्लए य १८, सिय कालगा य णीलगे य लोहियगे य हालिदगा य सुकिल्लगा य १९, सिय कालगा य णीलगे य लोहियगा य हालिद्दए य सुकिल्लए य २०, सिय For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ भगवती मूत्र-श. २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि २८७१ कालगा य णीलगे य लोहियगा य हालिद्दए य सुकिल्लगा य २१, सिय कालगो य णीलए य लोहियगा य हालिदगा य सुकिल्लए य २२, सिय कालगा य णीलगा य लोहियगे य हाजिदए य सुकिल्लए य २३, सिय कालगा य णीलगा य लोहियगे य हालिद्दए य सुकिल्लगा य २४, मिय कालगा य णीलगा य लोहियगे य हालिदगा य सुकिल्लए य २५, सिय कालगा य णीलगा य लोहियगा य हालिदए य सुकिल्लए य २६, एए पंचसंजोएणं छव्वीसं भंगा भवइ, एवमेए सपुव्वावरेणं एकग दुयग-तियग-चउकग-पंचगसंजोएहिं दो एकतीसं भंगसया भगइ । गंधा जहा सत्तपएसियरस, रसा जहा एयस्स चेव वण्णा, फासा जहा चउप्पएसियस्स । भावार्थ-जब वह पांच वर्ण वाला होता है, तो कदादित् एक देश काला नीला, लाल, पीला और श्वेत होता है, कदाचित् एक देश काला, नीला, लाल, पोला और अनेक देश श्वेत होता है । इस प्रकार अनुक्रम से भंग कहने चाहिये। १५-यावत् एक देश काला, अनेक देश नीला, लाल, पीला और एक देश श्वेत होता है । १६-कदाचित् अनेक देश काला, एक देश नीला, लाल, पीला और श्वेत होता है । १७-कदाचित् अनेक देश काला, एक देश नीला, लाल, पीला और अनेक देश श्वेत होता है । १८-कदाचित् अनेक देश काला, एक देश नीला, लाल, अनेक देश पीला और एक देश श्वेत होता है। १९-कदाचित् अनेक देश काला, एक देश नीला, लाल और अनेक देश पीला और श्वेत होता है । २०-कदाचित् अनेक देश काला, एक देश नीला, अनेक देश लाल, एक देश पीला और श्वेत होता है । २१-कदाचित् अनेक देश काला, एक देश नीला, अनेक देश लाल, एक देश पीला और अनेक देश श्वेत होता है । २२-कदा For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७२ भगवती सूत्र-श. २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि चत् अनेक देश काला, एक देश नीला, अनेक देश लाल, पीला और एक देश श्वेत होता है । २३-कदाचित् अनेक देश काला, नीला, एक देश लाल, पीला, और श्वेत होता है । २४-कदाचित अनेक देश काला, नीला, एक देश लाल, पीला और अनेक देश श्वेत होता है। २५-कदाचित् अनेक देश काला, नीला, एक देश लाल, अनेक देश पीला और एक देश श्वेत होता है । २६-कदाचित् अनेक देश काला, नीला, लाल, एक देश पीला और श्वेत होता है। इस प्रकार पंक्-संयोगी २६ भंग होते हैं । ये सब मिला कर अर्थात् असंयोगी पांच, द्विक-संयोगी ४०, त्रिक-संयोगो ८०, चतुःसंयोगी ८० और पंच-संयोगी २६, ये वर्ण सम्बन्धी २३१ भंग होते हैं। गन्ध के सप्त-प्रदेशी के समान ६ भंग होते हैं । वर्ण के समान रस के २३१ भंग होते हैं और स्पर्श के चतुष्प्रदेशी के समान ३६ भंग होते हैं। - विवेचम-अष्ट-प्रदेशी स्कन्ध के विषय में वणं के २३१, गन्ध के ६, रस के २३१ और स्पर्श के ३६, ये सब मिला कर ५०४ भंग होते हैं। ९ प्रश्न-णवपएसियस पुच्छ । ९ उत्तर-गोयमा ! सिय एगवण्णे, जहा अट्ठपएसिए जाव 'सिय चउफासे' पण्णत्ते । जइ एगवण्णे एगवण्ण-दुवण्ण-तिवण्ण चउवण्णा जहेव अटुपएसियस्स । जड़ पंचवण्णे सिय कालए य णीलए य लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए १, सिय कालए य णीलए य लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लगा य २, एवं परिवाडीए एकतीसं भंगा भाणियव्वा जाव सिय कालगा य णीलगा य लोहियगा य हालिदगा य सुकिल्लए य । एए एकत्तीसं भंगा । एवं एकग-दुयग For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि २८७३ तियग-चउक्कग-पंचगसंजोएहिं दो छत्तीसा भंगसया भवंति । गंधा . जहा अट्ठपएसियस्स । रसा जहा एयस्स चेव वण्णा फासा जहा चउप्पएसियस्स । भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! नव-प्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है, इत्यादि प्रश्न। ९ उत्तर-हे गौतम ! अष्ट-प्रदेशी स्कन्ध के समान यावत् कदाचित् चार स्पर्श वाला होता है-तक जानना चाहिये । उसके एक वर्ण, दो वर्ण, तीन वर्ण और चार वर्ण के भंग अष्ट-प्रदेशी स्कन्ध के समान कहने चाहिये । जब वह पांच वर्ण वाला होता है, तो कदाचित् एक देश काला, नीला, लाल, पीला और श्वेत होता है । कदाचित् एक देश काला, नीला, लाल, पीला और अनेक देश श्वेत होता है । इस प्रकार क्रमपूर्वक ३१ भंग कहने चाहिये । यावत् कदाचित् अनेक देश काला, नीला, लाल, पीला और एक देश श्वेत होता है । इस प्रकार ३१ भंग जानने चाहिये । इस प्रकार वर्ण की अपेक्षा असंयोगो ५, द्विक-संयोगी ४०, त्रिक-संयोगी ८०, चतुःसंयोगी ८०, और पञ्च-संयोगी ३१, ये सब मिला कर वर्ण सम्बन्धी २३६ भंग होते हैं। गन्ध विषयक ६ भंग अष्टप्रवेशी के समान है । वर्ण के समान रस के २३६ भंग है और स्पर्श के विषय में चतुःप्रदेशो के समान ३६ भंग होते हैं। विवेचन-नव-प्रदेशी स्कन्ध के विषय में वणं के २३६, गंध के ६, रम के २६६ और स्पर्श के ३६ ये सभी मिलाकर ५१४ भंग होते हैं। . १० प्रश्न-दप्तपएसिए णं भंते ! खंधे-पुच्छा । १० उत्तर-गोयमा ! सिय एगवण्णे० जहा णवपएसिए जाव 'सिय चउफासे पण्णत्ते' । जइ एगवण्णे एगवण्ण-दुवण्ण-तिवण्ण For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७४ भगवती सूत्र - श. २० उ ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि चवण्णा जेहेव णवपसियस्स । पंचवण्णे वि तहेव, णवरं बत्तीसमो भंगो भण्णइ । एवमेए एकग- दुयग-तियग- चउकग- पंचगसंजोए सु दोणि सत्तईसा भंगसया भवंति । गंधा जहा णवपरसियस्स । रसा जहा एयस्स चैव वण्णा । फासा जहा चउप्परसियस्स । जहा दसपएसिओ एवं संखेज्जपरसिओ वि, एवं असंखेज्जपरसिओ वि, सुहुमपरिओ अतपसि वि एवं चैव । भावार्थ - १० प्रश्न - हे भगवन् ! दस प्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है, इत्यादि प्रश्न । यह १० उत्तर - हे गौतम ! नव-प्रदेशिक स्कन्ध के समान यावत् कदाचित् चार स्पर्श वाला होता है-तक कहना चाहिये । इसके एक वर्ण, दो वर्ण, तीन वर्ण और चार वर्ण सम्बन्धी भंग नव प्रवेशी स्कन्ध के समान कहना चाहिये । जब वह पांच वर्ण वाला होता है, तो नव-प्रदेशी की तरह कहना चाहिये । परन्तु यहां 'अनेक देश काला, नीला, लाल, पीला और श्वेत होता है,' बत्तीसवां भंग अधिक कहना चाहिये । इस प्रकार असंयोगी ५, द्विक संयोगी ४०, त्रिक संयोगी ८०, चतु:संयोगी ८० और पंच- संयोगी ३२, ये सब मिला कर वर्ण के २३७ भंग होते हैं । गन्ध के ६ भंग नव- प्रदेशी स्कन्ध के समान है । वर्ण के समान रस के २३७ भंग होते हैं और स्पर्श सम्बन्धी ३६ भंग चतुष्प्र देशी के समान होते हैं । दस- प्रदेशी के समान संख्यात- प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी और सूक्ष्म-परिणाम वाला अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी कहना चाहिये । विवेचन - दस- प्रदेशी स्कन्ध के विषय में वर्ण के २३७, गन्ध के ६, रस के २३७ और स्पर्श के ३६, वे सब मिला कर ५१६ भंग होते हैं । इसी प्रकार संख्यात- प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी और सूक्ष्म-परिणाम वाले अनन्त प्रदेशी स्कन्ध के विषय में भी भंग कहने चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २० उ ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि २८७५ ११ प्रश्न - वायर परिणए णं भंते! अनंतपएसए खंधे कहवष्णे० १ ११ उत्तर - एवं जहा अट्ठारसमसए जाव 'सिय अनुफासे पण्णने । वष्ण-गंध-रसा जहा दसपएसियस्स । जड़ चउफासे सव्वे कक्खडे सव्वे गए सव्वे सीए सब्वे णिदधे १, सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए सब्वे लुक्खे २, सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे उसिणे सव्वे गिद्धे ३, सव्वे क+खडे सव्वे गरुए सव्वे उसिणे सव्वे लक्खे ४, सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे सीए सव्वे पिढधे ५, सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे सीए सब्वे लुक्खे ६, सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सब्वे उसिणे सव्वेणिधे ७, सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सब्वे उसि सव्वे लक्खे ८, सव्वे मउ सव्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे णिदधे ९, सव्वे मउए सव्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे लुक्खे १०, सव्वे मउए सव्वे गरुए सवे उस सव्वेणि ११, सव्वे मउए सव्वे गरुए सब्वे उसिने सव्वे लुक्खे १२, सव्वे मउए सव्वे लहुए सब्वे सीए सव्वे णिदुधे १३, सव्वे मउए सब्वे लहुए सव्वे सीए सब्वे लुक्खे १४, सव्वे मउए सब्वे लहुए सब्वे उसिणे सव्वे णिदधे १५, सव्वे मउए सब्वे लहुए सव्वे उस सव्वे लक्खे १६ । एए सोलस भंगा । भावार्थ - ११ प्रश्न - हे भगवन् ! बादर परिणाम वाला (स्थूल) अनन्तप्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है, इत्यादि प्रश्न । For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. २० उ. ', परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि ११ उत्तर-हे गौतम ! अठारहवें शतक के छठे उद्देशक के अनुसार यावत् 'कदाचित् आठ स्पर्श वाला भी कहा गया है'-तक जानना चाहिये । अनन्त-प्रदेशी बादर परिणाम वाले स्कन्ध के वर्ण, गन्ध और रस के भंग, दस प्रदेशी स्कन्ध के समान कहने चाहिये । यदि वह चार स्पर्श वाला होता है, तो १-कदाचित् सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व शीत और सर्व स्निग्ध होता है । २-कदाचित् सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व शीत और सर्व रूक्ष होता है । ३-कदाचित् सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व उष्ण और सर्व स्निग्ध होता है। ४-कदाचित् सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व उष्ण और सर्व रूक्ष होता है। ५-कदाचित् सर्व कर्कश, सर्व लघु, सर्व शीत और सर्व स्निग्ध होता है । ६-कदाचित् सर्व कर्कश, सर्व लघु, सर्व शीत और सर्व रूक्ष होता है । ७-कदाचित् सर्व कर्कश, सर्व लघु, सर्व उष्ण और सर्व स्निग्ध होता है । ८-कदाचित् सर्व कर्कश, सर्व लघु, सर्व उष्ण और सर्व रूक्ष होता है । ९-कदाचित् सर्व मदु (कोमल), सर्व गुरु, सर्व शीत और सर्व स्निग्ध होता है । १०-कदाचित् सर्व मदु, सर्व गुरु, सर्व शीत और सर्व रूक्ष होता है । ११-कदाचित् सर्व मृदु, सर्व गुरु, सर्व उष्ण और सर्व स्निग्ध होता है । १२-कदाचित् सर्व मृदु, सर्व गुरु, सर्व उष्ण और सर्व रूक्ष होता है। १३-कदाचित् सर्व मृदु, सर्व लघु, सर्व शीत और सर्व स्निग्ध होता है। १४-कदाचित् सर्व मृदु, सर्व लघु, सर्व शीत और सर्व रूक्ष होता है। १५-कदाचित् सर्व मदु, सर्व लघु, सर्व उष्ण और सर्व स्निग्ध होता है। १६-कदाचित सर्व मृदु, सर्व लघु, सर्व उष्ण और सर्व रूक्ष होता है। जड़ पंचफासे सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए देमे णिदधे देसे लुक्खे १, सव्वे काखडे सब्वे गरुए सव्वे सीए देसे णिधे देसा लुक्खा २, सव्वे कम्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए देसा णिद्धा देसे लुक्खे ३, सब्वे कक्खडे सब्वे गरुए सव्वे सीए देसा णिद्धा देसा लुक्खा ४, सब्वे कवडे सव्वे गरुए सव्वे उसिणे देसे णिधे देसे For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो मूत्र-स. २० ३. , परमाण और स्कन्ध वे वर्णादि २८७ लुक्खे ४, सव्वे कक्खडे सब्वे लहुए मव्वे सीए देसे णिदधे देमे लुक्ग्वे ?, सब्वे कावडे सब्वे लहुए सब्वे उमिणे देसे णिदधे देसे लुबखे ४, एवं एए कक्खडेणं सोलस भंगा। सव्वे मउए सब्वे गरुए सव्वे सीए देमे णिधे देसे लुक्खे ४, एवं मउएण वि सोलस भंगा, एवं वत्तीमं भंगा । सब्वे कावडे सब्बे गरुए मब्बे णिदुधे देने सीए देसे उसिणे ४, सब्वे काखडे सव्वं गरुए सव्वे लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे ४, एए बत्तीसं भंगा । मब्वे काखडे सब्वे सीए सब्वे णिदुधे देसे गरुए देने लहुए, एत्थ वि बत्तीम भंगा, सब्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे णिदधे देने कक्खडे देसे मउए, एत्थ वि बत्तीमें भंगा, एवं सब्वे ते पंचफामे अट्टावीमं भंगमयं भवइ । ... भावार्थ-जब वह पांच स्पर्श वाला होता है, तो-(१) सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व शीत, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है । २-अथवा सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व शीत, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होता है । ३-अथवा सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व शीत, अनेक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है । ४-अथवा सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व शीत, अनेक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होता है । अयवा (२) कदाचित् सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के पूर्ववत् चार भंग। (३) अथवा सर्व कर्कश, सर्व लघु, सर्व शीत, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के चार भंग। (४) अथवा कदाचित् सर्व कर्कश, सर्व लघु, सर्व उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के चार भंग। इस प्रकार कर्कश के साथ सोलह भंग होते हैं । अथवा सर्व मदु, सर्व गुरु, सर्व शीत, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के पूर्ववत् चार भंग होते हैं। इस प्रकार मदु के साथ भी कहने चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७८ भगवती सूत्र-श २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि ये सोलह भंग हुए । इस प्रकार सब मिला कर ३२ भंग होते हैं। अथवा सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व स्निग्ध, एक देश शीत और एक देश उष्ण के सोलह भंग। अथवा सर्व कर्कश, सर्व गुरु, सर्व रूक्ष, एक देश शीत और एक देश उष्ण के सोलह भंग । ये सब मिला कर बत्तीस भंग होते हैं। अथवा कदाचित् सर्व कर्कश, सर्व शीत, सर्व स्निग्ध, एक देश गुरु और एक देश लघु के पूर्ववत् ३२ भंग । अथवा कदाचित् सर्व गुरु, सर्व शीत, सर्व स्निग्ध, एक देश मृदु के भी पूर्ववत् ३२ भंग । इस प्रकार सब मिला कर पांच स्पर्श के १२८ भंग होते हैं। जइ छफासे सव्वे कक्खडे सब्वे गरुए देसे सीए देसे उसिणे देसे णिद्धे देसे लुक्खे १, सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए देसे सीए देसे उसिणे देसे गिद्धे देसा लुक्खा २, एवं जाव सब्वे कक्खडे सव्वे गरुए देसा सीया देसा उसिणा देसा गिद्धा देसा लुक्खा १६, एए सोलस भंगा। सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे गिद्धे देसे लुपखे, एत्थ वि सोलस भंगा। सव्वे मउए सव्वे गरुए देसे सीए देसे उसिणे देसे गिद्धे देसे लुक्खे, एत्थ वि सोलस भंगा। सव्वे मउए सब्वे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे गिद्धे देसे लुक्खे, एत्थ वि सोलस भंगा, एए चउसद्धिं भंगा । सव्वे कक्खडे सव्वे सीए देसे गरुए देसे लहुए देसे गिद्धे देसे लुक्खे, एवं जाव सब्वे मउए सब्बे उसिणे देसो गरुया देसा लहुया देसा णिद्वा देसा लुक्खा, एए वि व उसद्धिं भंगा । सव्वे कक्खडे सव्वे गिद्धे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे १, For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि २८७९ जाव सव्वे मउए सव्वे लुक्खे देसा गरुया देसा लहुया देसा सीया देमा उसिणा, एए चउस िभंगा। सव्वे गरुए सव्वे सीए देने कक्खडे देसे मउए देसे मिद्धे देसे लक्खे, एवं जाव सव्वे लहुए सब्वे उसिने देसा कक्खडा देसा णिद्धा देसा मउया देसा लुक्खा, एए चउसट्ठि भंगा । सब्वे गरु सव्वेणिद्धे देसे कक्खडे देसे मउए देसे सीए देसे उसिणे जाव सब्वे लहुए सव्वे लु+खे देसा कक्खडा देमा मउया देमा सीया देसा उसिणा, एए चउसट्ठि भंगा । सब्वे सीए सव्वेणिद्धे देसे कक्खडे देसे उसे गरुए देसे लहुए जाव सव्वे उसिने सब्वे लुम्खे देसा कक्खडा देसा मउया देसा गरुया देसा लहुया, एए चउसट्ठि भंगा। सव्वे ते फासे तिष्णि चउरासीया भंगसया भवंति ३८४ । भावार्थ- जब वह छह स्पर्श वाला होता है तो, (१) सर्व कर्कश, सर्व गुरु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता हैं । २ - कदाचित् सर्व कर्कश, सर्व गुरु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होता है। इस प्रकार यावत् सर्व कर्कश, सर्व गुरु अनेक देश शीत, अनेक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष- यह सोलहवां भंग है । इस प्रकार १६ भंग होते है । (२) कदाचित् सर्व कर्कश, सर्व लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के सोलह भंग । (३) कदाचित् सर्व मृदु, सर्व गुरु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के सोलह मंग । ( ४ ) कदाचित् सर्व मृदु, सर्व लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के १६ भंग | ये सब मिला कर ६४ भंग होते हैं । अथवा कदाचित् सर्व कर्कश, सर्व शीत, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता For Personal & Private Use Only 1 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८० भगवती सूत्र-श. २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि है । इस प्रकार यावत् सर्व मृदु सर्व उष्ण, अनेक देश गुरु, अनेक देश लघु, अनेक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होते हैं। यह चौसठवां भंग है। इस प्रकार इसके भी ६४ भंग होते हैं। कदाचित् सर्व कर्कश, सर्व स्निग्ध, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत और एक देश उष्ण होता है, यावत् कदाचित् सर्व मदु, सर्व रूक्ष, अनेक देश गुरु, अनेक देश लघ, अनेक देश शीत और अनेक देश उष्ण होते हैं । यह चौसठवां भंग है । इस प्रकार यहां भी ६४ भंग होते हैं । कदाचित् सर्व गुरु, सर्व शीत, एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है । इस प्रकार यावत् सर्व लघु, सर्व उष्ण, अनेक देश कर्कश, अनेक देश मृदु, अनेक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होते हैं। यह चौसठवां भंग है । इस प्रकार यहां भी ६४ भंग होते हैं । कदाचित् सर्व शीत, सर्व स्निग्ध, एक देश कर्कश, एक देश मदु, एक देश शीत और एक देश उष्ण होता है । इस प्रकार यावत् कदाचित् सर्व लघ, सर्व रूक्ष, अनेक देश कर्कश, अनेक देश मृदु, अनेक देश शीत और अनेक देश उष्ण होते है। यह चौसठवां भंग है । इस प्रकार यहां भी ६४ भंग होते हैं। कदाचित् सर्व शीत, सर्व स्निग्ध, एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु और एक देश लघु होता है । इस प्रकार याक्त् कदाचित् सर्व उष्ण, सर्व रूक्ष, अनेक देश कर्कश, अनेक देश मदु, अनेक देश गुरु और अनेक देश लघु होता है। यह चौसठवां भंग है । इस प्रकार यहाँ पर भी ६४ भंग होते हैं । ये सब मिला कर छह स्पर्श सम्बन्धी ३८४ भंग होते हैं। जइ सत्तफासे सव्वे कावडे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देने उसिणे देसे णिधे देसे लुक्खे १, सब्वे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देमे सीए देमे उमिणे देसा णिद्धा देसा लुक्खा ४, सब्वे कक्खडे देसे । गरुए देसे लहुए देसे सीए देसा उसिणा देसे णिधे देसे लुक्खे ४, सब्वे For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २० उ ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि २८८१ कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देमा सीया देसे उसने देने विदधे देसे लुक्खे ४, सव्वे कक्खडे देसे गरुए देने लहुए देसा सीया देमा उसिणा देसे णि देसे लक्खे | सव्वे ते सोलस भंगा भाणियव्वा | सच्चे कक्खडे देसे गरुए देमा लहुया देसे सीए देसे उसिने देसे पिछे देखे लक्खे, एवं गरुणं एगत्तेणं लहुएणं पुहुत्तेणं एए वि सोलस भंगा । सब्वे कक्खडे देसा गरुया देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे ि देसे लक्खे, एए वि सोलम भंगा भाणियव्वा । सव्वे कक्खडे देसा गरुया देसा लहुया देसे सोए देसे उमिणे देसे णिदधे देसे लुक्खे, एए वि सोलस भंगा भाणियव्वा । एवमेए चउसट्ठि भंगा करखडेनं समं । सव्वे मउए देखे गए देसे लहुंए देसे सीए देने उसिणे देसे णिे. दे लक्खे | एवं मउएण विसमं चउसट्टिं भंगा भाणियव्वा । सव्वे गरु देसे कक्खडे देसे मउ देसे सीए देने उसिणे देमे णिधे देसे लुवखे । एवं गरुएण वि समं चउसट्टिं भंगा कायव्वा । सव्वे लहुए देने कक्खडे देसे मउ देसे सीए देसे उसिने देसे विद्धे देसे लुक्खे | एवं लहुएण वि समं चट्टि भंगा कायव्वा । सव्वे सीए देने कक्खडे देने मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे विद्धे देसे लुक्खे | एवं सीएण वि समं चउसट्टिं भंगा कायव्वा । सव्वे उसिने देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे णिद्धे देसे लक्खे | एवं उसणेण वि समं चउसट्ठि भंगा कायवा । सव्वेणिधे देसे कक्खडे देसे मउए देखे गए देसे For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८२ भगवती सूत्र-श. २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि लहुए देसे सीए देसे उसिणे । एवं णिघेण वि समं चउसटुिं भंगा कायब्वा । सव्वे लुफ्खे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे । एवं लुक्खेण वि समं चउसद्धिं भंगा कायब्वा जोव सव्वेलुक्खे देसा काखडा देसा मउया देसा गरुया देसा लहु या देसा सीया देसा उसिणा। एवं सत्तफासे पंच बारसुत्तरा भंगसया भवंति । १५ ____ जब वह सात स्पर्श वाला होता है, तो (१) सर्व कर्कश, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है । ४-४-कदाचित् सर्व कर्कश, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होते हैं। (इस प्रकार चार भंग कहने चाहिये) (२) कदाचित् सर्व कर्कश, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत, अनेक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के चार भंग । (३) कदाचित् सर्व कर्कश, एक देश गुरुं, एक देश लघु, अनेक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के चार भंग । (४) कदाचित् सर्व कर्कश, एक देश गुरु, एक देश लघु, अनेक देश शीत, अनेक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के चार भंग। ये सब १६ भंग होते हैं । (२) कदाचित् सर्व कर्कश, एक देश गुरु, अनेक देश लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है। इस प्रकार 'गुरु' पद को एक वचन में और 'लघु' पद को अनेक (बहु) वचन में रख कर पूर्ववत् सोलह भंग यहां भी कहने चाहिये। (३) कदाचित् सर्व कर्कश, अनेक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के १६ मंग।(४) कदाचित् सर्व कर्कश, अनेक देश गुरु, अनेक देश लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के १६ भंग । ये ६४ भंग हुए। ये ६४ भंग · सर्व कर्कश' के साथ बने For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २० उ ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि हैं । (२) कदाचित् सर्व मृदु, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है । इस प्रकार मृदु साथ भी ६४ भंग होते हैं । ( ३ ) कदाचित् सर्व गुरु एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष इस प्रकार 'गुरु' के साथ भी ६४ भंग होते हैं । ( ४ ) कदाचित् सर्व लघु, एक देश कर्कश, एक देश मृदु. एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष, इस प्रकार लघु के साथ भी ६४ भंग होते हैं । (५) कदाचित् सर्व शीत, एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष, इस प्रकार शीत के साथ भी ६४ भंग कहने चाहिये । ( ६ ) कदाचित् सर्व उष्ण, एक देश कर्कश, एक देश मृदु. एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष, इस प्रकार उष्ण के साथ भी ६४ भंग कहने चाहिये । ( ७ ) कदाचित् सर्व स्निग्ध, एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत और एक देश उष्ण होता है । इस प्रकार स्निग्ध के साथ भी ६४ भंग होते हैं । ( ८ ) कदाचित् सर्व रूक्ष, एक देश कर्कश, एक देश मृदु. एक देश गुरु एक देश लघु, एक देश शीत और एक देश उष्ण, इस प्रकार रूक्ष के साथ भी ६४ भंग यावत् सर्व रूक्ष, अनेक देश कर्कश, अनेक देश मृदु, अनेक देश गुरु, अनेक देश लघु, अनेक देश शीत और अनेक देश उष्ण होता है । इस प्रकार ये सब मिला कर सात स्पर्श के ५१२ भंग होते हैं । २८८३ जइ अट्ठफासे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देउसि देसे णिद्धे देसे लुक्खे ४, देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देना उसिणा देसे णिद्धे देने लुक्खे ४, देने कक्खडे देने मउए देसे गरुए देसे लहु देशा सीया देमे उसिने For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८४ भगवती सूत्र-श. २० उ. ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि देसे मिद्धे देसे लक्खे ४, देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देखा सीया देसा उसिणा देसे मिद्धे देसे लुक्खे ४, एए चत्तारि चक्का सोलस भंगा । देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसा लहुया देसे सीए देसे उसिने देसे णिद्धे देसे लक्खे, एवं एए गरुपणं एगत्तरणं लहुएणं पुहत्तएणं सोलस भंगा कायव्वा । देसे कक्खडे देसे मउ देसा गरुया देसे लहुए देसे सीए देसे उसिने देसे मिद्धे देसे लुखे । एए वि सोलस भंगा कायव्या देसे कक्खडे देसे मउप देसा गरुया देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे णिद्धे देसे लक्खे | एए वि सोलस भंगा कायव्वा । सव्वे वि ते चउसट्टिं भंगा कक्खड - एहिं गत्तएहिं । ताहे कक्खडेणं एगत्तएणं मउएणं पुहत्तेणं एते चउसट्टिं भंगा कायव्वा । ताहे कक्खडेणं पुहत्तएणं मउएणं एगत्तणं चसट्टिं भंगा कायवा । ताहे एएहिं चैव दोहि वि पुहत्तेहिं चउसट्ठि भंगा कायव्वा जाव 'देसा कवखडा देसा मया देसा गरुया देसा लहुया देसा सीया देसा उसिणा देसा णिद्धा देसा लुक्खा एसो अपच्छिमो भंगो | सव्वे ते अट्ठफासे दो छप्पण्णा भंगसया भवंति । एवं एए वायर परिणए अनंतपए सिए खंधे सव्वेसु संजोएसु बारस छण्उया भंगसया भवंति । भावार्थ- जब वह आठ स्पर्श वाला होता है, तो (१) कदाचित् एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत, एक देश For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २० उ ५ परमाणु और स्कन्ध के वर्णादि २८८५ उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है। इसके चार भेंग कहने चाहिये । (२) कदाचित् एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत, अनेक देश उष्ग, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के चार भंग । (३) कदाचित् एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु, एक देश लघु, अनेक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के चार भंग । ( ४ ) कदाचित् एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु, एक देश लघु, अनेक देश शीत, अनेक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के चार भंग । इस प्रकार चार चतुष्क के १६ भंग होते हैं । (२) कदाचित् एक देश कर्कश, एक देश मृदु, एक देश गुरु, अनेक देश लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष । इस प्रकार 'गुरु' पद को एक वचन में और 'लघु' पद को बहुवचन में रख कर पूर्ववत् १६ भंग कहने चाहिये । (३) कदाचित् एक देश कर्कश, एक देश मृदु, अनेक देश गुरु, एक देश लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के १६ भंग । ( ४ ) कदाचित् एक देश कर्कश, एक देश मृदु, अनेक देश गुरु, अनेक देश लघु, एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष के १६ भंग । ये सब मिला कर ६४ भंग 'कर्कश और मृदु' को एक वचन में रखने से बनते हैं । ( २ ) इन्ही भंगों में 'कर्कश' को एक वचन में और मृदु को बहुवचन में रख कर पूर्ववत् ६४ भंग कहने चाहिये । (३) 'कर्कश' को बहुवचन में और 'मृदु' को एक वचन में रख कर फिर पूर्ववत् ६४ भंग कहने चाहिये । (४) 'कर्कश' और 'मृदु' दोनों को बहुवचन में रख कर फिर ६४ भंग कहने चाहिये यावत् अनेक देश कर्कश, अनेक देश मृदु, अनेक देश गुरु, अनेक देश लघु, अनेक देश शीत, अनेक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होते हैं । यह अन्तिम भंग है । ये सब मिला कर आठ स्पर्श के २५६ भंग होते हैं । इस प्रकार बादर परिणत अनन्त प्रदेशी स्कन्ध के सब संयोग के मिला कर १२९६ भंग स्पर्श सम्बन्धी होते हैं । विवेचन - इस प्रकार बादर अनन्तप्रदेशी - स्कन्ध में स्पर्श के चतुःसंयोगी १६, पंच For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८६ भगवती सूत्र-ग. २० उ. ५ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव परमाणु संयोगी १२८, षट्संयोगी ३८४, सप्तसंयोगो ५१२ और अष्टसंयोगी २५६, ये कुल मिला कर १२९६ भंग होते है । एक परमाणु से ले कर सूक्ष्म अनन्तप्रदेशी-स्कन्ध तक स्पश के ३९८ भंग होते हैं और बादर अनन्तप्रदेशी-स्कन्ध के १२९६ भंग होते हैं। परमाणु मे ले कर बादर अनन्तप्रदेशी-स्कन्ध तक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के ६४७० भंग होते हैं, जो पहले गिना दिये गये हैं। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव परमाणु .. १२ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! परमाणू पण्णत्ते ? १२ उत्तर-गोयमा ! चउविहे परमाणू पण्णत्ते, तं जहा-१ दव्व परमाणू, २ खेत्तपरमाणू, ३ कालपरमाणू, ४ भावपरमाणू । १३ प्रश्न-दव्वपरमाणू णं भंते ! कहविहे पण्णत्ते ? १३ उत्तर-गोयमा ! चरविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ अच्छेज्जे, २ अभेज्जे, ३ अडझे, ४ अगेज्झे । १४ प्रश्न-खेत्तपरमाणू णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? १४ उत्तर-गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ अणद्धे, २ अमज्झे, ३ अपएसे, ४ अविभाइमे। १५ प्रश्न-कालपरमाणू-पुन्छ । १५ उत्तर-गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ अवणे, २ अगंधे, ३ अरसे, ४ अफासे । १६ प्रश्न-भावपरमाणू णं भंते ! कइविहे पण्णते ? For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ग. २० उ. ५ द्रव्य क्षेत्र काल-भाव परमाणु १६ उत्तर - गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - १ वष्णमंते, २ गंधमंते ३ रसमंते, ४ फासमंते । अग्राह्य । गया है * 'सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरड || वीसइमे सए पंचमो उद्देमो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-अच्छेज्जे- अछेदय, अभेज्जे अभेदय, अज्झे-अदाय, अगेज्झे २८८३ भावार्थ - १२ प्रश्न - हे भगवन् ! परमाणु कितने प्रकार का कहा ? १२ उत्तर - हे गौतम ! परमाणु चार प्रकार का है । यथा - द्रव्य-परमाणु, क्षेत्र- परमाणु, काल-परमाणु और भाव- परमाणु । १३ प्रश्न - हे भगवन् ! द्रव्य-परमाणु कितने प्रकार का कहा गया है ? १३ उत्तर - हे गौतम! द्रव्य परमाणु चार प्रकार का है। यथा-अछेदध, अभेदय, अदा और अग्राह्य | १४ प्रश्न - हे भगवन् ! १४ उत्तर - हे गौतम ! यथा - अनर्द्ध, अमध्य, अप्रदेश और अविभाग । क्षेत्र परमाणु कितने प्रकार का कहा गया है ? क्षेत्र परमाणु चार प्रकार का कहा गया है । १५ प्रश्न - हे भगवन् ! काल-परमाणु कितने प्रकार का कहा गया है ? १५ उत्तर - हे गौतम ! काल-परमाणु चार प्रकार का कहा गया हैं । यथा - अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श । १६ प्रश्न - हे भगवन् ! भाव- परमाणु कितने प्रकार का कहा गया है ? १६ उत्तर - हे गौतम! भाव- परमाणु चार प्रकार का कहा गया है । यथा-वर्णवान् गन्धयुक्त, रस सहित और स्पश्यं । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है' For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८८ भगवती सूत्र-श. २० उ. ५ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव परमाणु ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-वर्णादि धर्म की विवक्षा किये बिना एक परमाणु को 'द्रव्य-परमाणु' कहते हैं । क्योंकि यहां केवल द्रव्य की ही विवक्षा की गई है। एक आकाश प्रदेश को क्षेत्रपरमाणु' कहते हैं । एक समय को 'काल-परमाणु' कहते हैं । वर्णादि धर्म की प्रधानता की विवक्षापूर्वक परमाणु को 'भाव-परमाणु' कहते हैं। द्रव्य-परमाणु शस्त्रादि के द्वारा काटा नहीं जा सकता। इसलिये वह 'अछेदय' कहलाता है । सूई आदि के द्वारा भेदन नहीं किया जा सकता, इसलिये वह 'अभेदय' कहलाता है । अग्नि से जलाया नहीं जा सकता, इसलिये 'अदाह्य' कहलाता है और हस्तादि से पकड़ा नहीं जा सकता, इसलिये वह ‘अग्राह्य' कहलाता है । परमाणु अति सूक्ष्म है, इसलिये उसमें छेदन, भेदन, दहन, ग्रहणादि क्रिया नहीं हो सकती। परमाणु के सम-संख्या वाले अवयव नहीं होते । इसलिये वह 'अनर्द्ध' कहलाता है । विषम संख्या वाले अवयव नहीं हैं, इसलिये 'अमध्य' कहलाता है। अवयव नहीं है, इसलिये वह 'अप्रदेश' कहलाता है । परमाणु का विभाग नहीं हो सकता, इसलिये वह 'अविभाग' कहलाता है। ॥ बीसवें शतक का पांचवा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ क .a2 (EARSHAN For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २० उद्देशक ६ आहार ग्रहण उत्पत्ति के पूर्व या पश्चात् १ प्रश्न-पुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सकरप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववजित्तए, से णं भंते ! किं पुदि उववजित्ता पच्छा आहारेजा, पुब्बिं आहारित्ता पच्छा उववज्जेजा ? ___१ उत्तर-गोयमा ! पुञ् िवा उववजित्ता० एवं जहा सत्तरसमसए छटुइसे जाव से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-'पुट्विं वा जाव उववज्जेजा' । णवरं तेहिं संपाउणणा, इमेहिं आहारो भण्णइ, सेसं तं चेव । २ प्रश्न-पुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सकरप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए ईसाणे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववजित्तए० ? २ उत्तर-एवं चेव, एवं जाव ईसीप भाराए उववाएयव्वो । कठिन शब्दार्थ-अंतरा-मध्य, समोहए-समवहत-समुद्घात की। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी और शर्कराप्रभा पृथ्वी के बीच में मरण समुद्घात कर के सौधर्म-कल्प For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २० उ. ६ आहार ग्रहण उत्पत्ति के पूर्व या पश्चात् में पृथ्वी कायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न हो कर पीछे आहार करते हैं, या पहले आहार कर के पोछे उत्पन्न होते हैं ? २८६० wwwww १ उत्तर - हे गौतम ! वे पहले उत्पन्न हो कर पीछे आहार करते हैं । अथवा पहले आहार कर के पीछे उत्पन्न होते हैं, इत्यादि वर्णन सतरहवें शतक के छठे उद्देशक के अनुसार । इसलिये हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि यावत् पीछे उत्पन्न होते हैं । विशेष यह है कि वहां पृथ्वीकायिक 'सम्प्राप्त करते हैंपुद्गल ग्रहण करते हैं' -कथन है और यहां 'आहार करते है'- कहना चाहिए । शेष सब पूर्ववत् । २ प्रश्न - हे भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रमा पृथ्वी के मध्य में मरण समुद्घात कर के ईशानकल्प में पृथ्वीकायिक पने उत्पन्न होने के योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न ? २ उत्तर - हे गौतम ! पूर्ववत् । इस प्रकार यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक उपपात जानो । ३ प्रश्न - पुढविकाइए णं भंते! सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए य पुढवी अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे जाव ईसीपन्भाराए । ३ उत्तर - एवं एएणं कमेणं जाव तमाए असत्तमाए य पुढवीए अंतरा समोहए समाणे जे भविए सोहम्मे जाव ईसीपन्भाराए उववाएयव्वो । ४ प्रश्न - पुढविकाइए णं भंते! सोहम्मी-साणाणं सणकुमारमाहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २० उ. ६ आहार ग्रहण उत्पत्ति के पूर्व या पश्चात् २८५१ रयणप्पभाए पुढवीए पुढविक्काइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! पुर्वि उववजित्ता पच्छा आहारेजा ? ४ उत्तर-सेसं तं चेव जाव से तेणटेणं जाव णिक्खेवओ। ___भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, शर्कराप्रभा और वालुकाप्रभा के मध्य में मरण-समुद्घात कर के, सौधर्म-कल्प में यावत् ईषत्प्रागभारा पृथ्वी में उत्पन्न होने के योग्य हैं, इत्यादि प्रश्न ? ३ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इस प्रकार इस क्रम से यावत् तमःप्रभा और अधःसप्तम पृथ्वी के मध्य में मरण-समुद्घात पूर्वक पृथ्वीकायिक जीवों का सौधर्म-कल्प में यावत् ईषत्प्रागभारा पृथ्वी में उपपात जानना चाहिए। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, सौधर्म, ईशान और सनत्कुमार, माहेन्द्र-कल्प के मध्यम मरण-समुद्घात कर के इस रत्नप्रभा पृथ्वी में पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न हो कर, पोछे आहार करते हैं, इत्यादि प्रश्न ? ४ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । यावत् इस कारण से ऐसा कहा जाता है, इत्यादि उपसंहार कहना चाहिये। ५ प्रश्न-पुढविकाइए णं भंते ! सोहम्मी-साणाणं सर्णकुमारमाहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भघिए सक्करप्पभाए पुढवीए पुढविकाइयत्ताए उववजित्तए० ? ५ उत्तर-एवं चेव, एवं जाव अहेसत्तमाए उववाएयन्वो । एवं सणंकुमार-माहिंदाणं बंभलोगस्स य कप्पस्स अंतरा समोहए, समोहणित्ता पुणरवि जाव अहेसत्तमाए उववाएयव्बो, एवं बंभलोगस्स लंत For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९२ भगवती मूत्र-स. २० उ. ६ आहार ग्रहण उत्पत्ति के पूर्व या पश्चात् गस्स य कप्पस्स अंतरा समोहए, पुणरवि जाव अहेसत्तमाए, एवं लंत. गस्स महासुक्कस्म कप्पस्स य अंतरा समोहए, पुणरवि जाव अहे. सत्तमाए, एवं महासुक्कस्स सहस्सारस्स य कप्पस्स अंतरा पुणरवि जाव अहेसत्तमाए, एवं सहस्सारस्स आणयपाणकप्पाणं य अंतरा पुणरवि जाव अहेमत्तमाए. एवं आणय-पाणयाणं आरण-अच्चुयाण य कप्पाणं अंतरा पुणरवि जाव अहेसत्तमाए, एवं आरण-च्चुयाणं गेवेजविमाणाण य अंतरा जाव अहेसत्तमाए, गेवेजविमाणाणं अणुत्तरविमाणाण य अंतरा पुणरवि जाव अहेसत्तमाए, एवं अणुत्तरविमाणाणं ईसीपभाराए य पुणरवि जाव अहेसत्तमाए उववाएयब्वो ।१। ___ भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, सौधर्म, ईशान और सनत्कुमार माहेन्द्र कल्प के नध्य में मरण-समुदवात कर के शर्करापृथ्वी में पृथ्वीकायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं, इत्यादि प्रश्न । ५ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इस प्रकार. यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक उपपात कहना चाहिये । इस प्रकार सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक कल्प के मध्य में मरण-समुद्घात कर के पुन: रत्नप्रभा से ले कर यावत् अध:सप्तम पृथ्वी तक उपपात जानना चाहिये । इस प्रकार ब्रह्मलोक और लान्तक के अन्तराल में मरण-समुद्घातपूर्वक यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक । इस प्रकार लान्तक और महाशुक्र कल्प के अन्तराल में, महाशुक्र और सहस्रार-कल्प के मध्य में, सहस्रार और आनत तथा प्राणत-कल्प के बीच में आनत, प्राणत और आरण तथा अच्युत-कल्प के मध्य में आरण, अच्युत और ग्रेवेयक विमानों के आंतरे में, ग्रेवेयक विमान और अनुत्तर विमानों के अन्तराल में तथा अनुत्तर विमान और ईषत्प्रागभारापृथ्वी के बीच में मरण-समुद्घातपूर्वक रत्नप्रभा से For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २० उ. ६ अाहार ग्रहण उत्पत्ति के पूर्व या पश्चात् २८६३ ले कर यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक पृथ्वीकायिक जीवों का उपपात जानना चाहिये। विवेचन-जो जीव गेंद के समान समुद्घात कर के मरता है, वह पहले उत्पन्न होता है और पीछे आहार करता है अर्थात् उत्पत्ति स्थान में उत्पन्न हो कर शरीर प्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । जो जीव ईलिका गति रूप समुद्घात कर के उत्पन्न होता है, वह पहले आहार करता है अर्थात् उत्पत्ति क्षेत्र में पहुंचे हुए प्रदेशों के द्वारा आहार ग्रहण करता है और इसके बाद पूर्व-शरीर में रहे हुए प्रदेशों को उत्पत्ति क्षेत्र में खींचता है । ६ प्रश्न-आउक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सवकरप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए मोहम्मे कप्पे आउकाइयत्ताए उववजित्तए । ____६ उत्तर-सेसं जहा पुढविक्काइयस्स जाव से तेणटेणं० । एवं पढम-दोचाणं अंतरा समोहए जाव ईसीपभाराए उववाएयवो, एवं एएणं कमेणं जाव तमाए अहेसत्तमाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जाव ईसीपभाराए उववाएयब्बो आउक्काइयत्ताए। ७ प्रश्न-आउयाए णं भंते ! सोहम्मी-साणाणं सर्णकुमारमाहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहि घणोदहिवलएसु आउक्काइयत्ताए उववजित्तए ? ७ उत्तर-सेसं तं चेव, एवं एएहिं चेव अंतरा समोहओ जाव अहेसत्तमाए पुढवीए घणोदहि घणोदहिवलएसु आउपकाइयत्ताए उव. For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९४ भगवती मूत्र-ग. २० उ. ६ आहार ग्रहण उत्पत्ति के पूर्व या पश्चात् वाएयव्यो, एवं जाव अणुत्तरविमाणाणं ईसीपभाराए य पुढवीए अंतरा समोहए जाव अहेसत्तमाए घणोदहि-घणोदहिवलपसु उव. वाएयव्यो । २ । भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! जो अपकायिक जीव इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के बीच में मरण-समघात कर के सौधर्मकल्प में अपकायिक पने उत्पन्न होने के योग्य हैं, इत्यादि पृथ्वीकायिक के समान प्रश्न । ६ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् पृथ्वीकायिक के समान । इस प्रकार पहली और दूसरी पृथ्वो के मध्य मरण-समुद्घातपूर्वक अप्कायिक जीवों का यावत् ईषत्प्रागभारा पृथ्वी तक उपपात जानना चाहिये । इस क्रम से यावत् तमःप्रभा और अधःसप्तम पृथ्वी के मध्य में मरण-समुद्घातपूर्वक अप्कायिक जीवों का यावत् ईषत्प्रागभारापृथ्वी तक अपकायिकपने उपपात जानना चाहिये। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! जो अपकायिक जीव सौधर्म, ईशान और सनतकुमार माहेन्द्र-कल्प के बीच में मरण-समुद्घात कर के रत्नप्रभा पृथ्वी में घनोदधि और घनोदधि वलयों में अप्कायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं, इत्यादि प्रश्न ? ७ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इस प्रकार पूर्व-कथित अन्तरालों में मरण-समुद्घात को प्राप्त अप्कायिक जीवों का अधःसप्तम पृथ्वो तक के घनोदधि और घनोदधि-वलयों में अपकायिकपने उपपात कहना चाहिये । इस प्रकार यावत् अनुत्तर विमान और ईषत्प्रागभारा पृथ्वी के बीच मरण-समुद्घात प्राप्त अपकायिक जीवों का यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक के घनोदधि और घनोदधिवलयों में अपकायिकपने उपपात जानना चाहिये । ८ प्रश्न-वाउक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए सकरप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २० उ. ६ आहार ग्रहण उत्पत्ति के पूर्व या सोहम्मे कप्पे वाउकाइयत्ताए उववजित्तर० ? ८ उत्तर - एवं जहा सत्तरसमस वाउका इय उद्देसए तहा इह वि, णवरं अंतरेसु समोहणा यव्वा, मेसं तं चैव जाव अणुत्तर विमाणाणं ईसीप भाराए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए घणवाय तणुवाए घणवाय तणुवायवलएस वाउकाइयत्ताए उववजित्तए, सेमं तं चैव जाव मे तेणट्टेण जाव उववज्जेज्जा । * 'सेवं भंते ! मेवं भंते' ! ति || वीस मे सए ओ उद्देमो समत्तो ॥ भावार्थ-८ प्रश्न - हे भगवन् ! जो वायुकायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के मध्य में मरण-समुद्घात कर के सौधर्म कल्प में . वायुकायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं, इत्यादि प्रश्न । ८ उत्तर - हे गौतम ! सतरहवें शतक के दसवें वायुकायिक उद्देशक के •अनुसार यहां भी जानना चाहिये। विशेष यह है कि रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के अन्तरालों में मरण - समुघात पूर्वक कहना चाहिये, शेष सब पूर्ववत् है । इस प्रकार यावत् अनुत्तर विमान और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात कर के जो वायुकायिक जीव घनवात और तनुवात में तथा घनवात वलयों और तनुवात वलयों में वायुकायिकपने उत्पन्न होने के योग्य हैं, इत्यादि सब पूर्ववत् । यावत् इस कारण उत्पन्न होते हैं । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है' कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । ॥ बीसवें शतक का छठा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ २८१५ For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २० उद्देशक ७ अनन्तर-परम्पर बंध १ प्रश्न-कइविहे गं भंते ! बंधे पण्णते ? १ उत्तर-गोयमा ! तिविहे वंधे पण्णत्ते, तं जहा-१ जीवप्पओगबंधे, २ अणंतरबंधे, ३ परंपरबंधे । २ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! कइविहे बंधे पण्णते ? २ उत्तर-एवं चेव, एवं जाव वेमाणियाणं । ३ प्रश्न-णाणावरणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स कइविहे बंधे पण्णत्ते ? ३ उत्तर-गोयमा ! तिविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा-जीवप्पओगबंधे, अणंतरबंधे, परंपरबंधे । ४ प्रश्न-गैरइयाणं भंते ! णाणावरणिजस्स कम्मस्स कइविहे बंधे पण्णत्ते ? ४ उत्तर-एवं चेव, एवं जाव वेमाणियाणं, एवं जाव अंतराइयस्स। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? १ उत्तर-हे गौतम ! बन्ध तीन प्रकार का कहा गया है । यथा-जीवप्रयोग बन्ध, अनन्तर बन्ध और परम्पर बन्ध । For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २० उ. ७ अनन्तर-परम्पर बन्ध २८६७ २ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक जीवों के बन्ध कितने प्रकार के हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत्, यावत् वैमानिक पर्यन्त । ३ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध कितने प्रकार का है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! तीन प्रकार का है। यथा-जीव-प्रयोग बन्ध, अनन्तर बन्ध और परम्पर बन्ध । ४ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिकों के ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? . ___४ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत्, यावत् वैमानिक पर्यन्त, अन्तराय कर्म तक का बन्ध जानना चाहिये। ५ प्रश्न-णाणावरणिजोदयस्स णं भंते ! कम्मरस कइविहे बंधे पण्णत्ते ? ५ उत्तर-गोयमा ! तिविहे मंधे पण्णत्ते एवं चेव, एवं गेरइयाण वि, एवं जाव वेमाणियाणं, एवं जाव अंतराइयउदयस्स । ६ प्रश्न-इत्थीवेयस्स णं भंते ! कविहे बंधे पण्णत्ते ? ..६ उत्तर-गोयमा । निति बंधे पण्णत्ते एवं चेव । (04-असुरकुमाराणं भंते ! इत्थीवेयस्स कइविहे बंधे पण्णते ? ७ उत्तर-एवं चेव, एवं जाव वेमाणियाणं, णवरं जस्स इथिवेओ अत्थि, एवं पुरिसवेयस्स वि, एवं णपुंसगवेयस्स वि जाव वेमाणियाणं, णवरं जस्स जो अस्थि वेओ। भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! उदय प्राप्त ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध कितने प्रकार का है ? For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९८ भगवती मूत्र-श. २० उ. ७ अनन्तर-परम्पर, वन्ध ५ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इस प्रकार नरयिकों से ले कर यावत् वैमानिकपर्यन्त यावत् अन्तरायोदय कर्म-बन्ध तक जानना चाहिये । ६ प्रश्न-हे भगवन् ! (उदय प्राप्त) स्त्री-वेद का बन्ध कितने प्रकार का है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् तीन प्रकार का है। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमारों के (उदय प्राप्त) स्त्री-वेद का बन्ध कितने प्रकार का है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् तीन प्रकार का है । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक । विशेष में जिसके स्त्री-वेद है उसके लिये ही जानना चाहिये । इस प्रकार पुरुषवेद और नपुंसक वेद के विषय में भी जानना चाहिये, यावत् वैमानिक पर्यन्त । यहां भी जिनके जो वेद हो वही जानना चाहिये। ८ प्रश्न-दसणमोहणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स कइविहे बंधे पण्णते ? ८ उत्तर-एवं चेव, णिरंतरं जाव वेमाणियाणं । एवं चरित्तमोहणिजस्स वि जाव वेमाणियाणं। एवं एएणं कमेणं ओरालियसरीरस्स जाव कम्मगसरीरस्स, आहारसण्णाए जाव परिग्गहसण्णाए, कण्ह. लेसाए जाव सुकलेसाए, सम्मदिट्टीए मिच्छादिट्ठीए सम्मामिच्छादिट्टीए आभिणिवोहियणाणस्स जाव केवलणाणस्स, मइअण्णाणस्स, सुयअण्णाणस्स, विभंगणाणस्स, एवं आभिणियोहियणाणविसयरस भंते ! कइविहे बंधे पण्णत्ते जाव केवलणाणविसयस्स मइअण्णाणविसयरस For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -शः २० उ. ७ अनन्तर- रम्पर- बन्ध सुयअण्णाणविसयस्स विभंगणाणविमयस्म एएसिं सव्वेसिं पयाणं तिविहे बंधे पण्णत्ते । सव्वे एए चउव्वीसं दंडगा भाणियव्वा, णवरं जाणियव्वं जस्स जं अत्थि । जाव प्रश्न - वेमाणियाणं भंते! विभंगणाणविसयस्स कड़विहे बंधे पण्णत्ते ? उत्तर - गोयमा ! तिविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा - जीवप्पओगबंधे अनंतरबंधे परंपरबंधे । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति जाव विहरइ ॥ वीसहमे सए सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-८ प्रश्न - हे भगवन् ! दर्शन- मोहनीय कर्म का बन्ध कितने प्रकार का है ? ८ उत्तर - हे गौतम ! पूर्ववत् तीन प्रकार का है । इस प्रकार यावत् वैमानिक - पर्यन्त तथा इसी प्रकार चारित्र मोहनीय के विषय में भी यावत् २८९९ वैमानिक तक प्रश्न - इस क्रम से औदारिक शरीर यावत् कार्मण- शरीर, आहारसंज्ञा यावत् परिग्रह- संज्ञा, कृष्ण-लेश्या यावत् शुक्ल- लेश्या, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, मिश्रदृष्टि, मतिज्ञान यावत् केवलज्ञान, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान इन सब का बन्ध-हे भगवन् ! कितने प्रकार का है ? उत्तर - हे गौतम ! इन सब का बन्ध तीन प्रकार का है। इन सब के विषय में २४ दण्डक से जानना चाहिये। विशेष यह है कि जिसके जो हो, वही जानना चाहिये । यावत् For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९०० भगवती सूत्र-ग. २० उ. ७ अनन्तर-परम्पर वन्ध प्रश्न-हे भगवन् ! वैमानिक के विभंगज्ञान का बन्ध कितने प्रकार का है? उत्तर-हे गौतम ! तीन प्रकार का है। यथा-जीव-प्रयोग बन्ध, अनन्तर बन्ध और परम्पर बन्ध । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेनन-जीव के प्रयोग से अर्थात् मन, वचन, काया के व्यापार से कम-पुद्गलों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना ‘जीव-प्रयोग बन्ध' कहलाता है । कर्म-पुद्गलों का बन्ध होने के बाद के समय में जो बन्ध होता है, उसे 'अनन्तर बन्ध' कहते हैं । इसके पश्चात् द्वितीयादि समय में जो बन्ध होता है, उसे 'परम्पर बन्ध' कहते हैं। उदय प्राप्त ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध पूर्व-काल को अपेक्षा जानना चाहिये । अथवा ज्ञानावरणीयपने जिसका उदय है, ऐसे कर्म का बन्ध समझना चाहिये, क्योंकि कम, विपाक से और प्रदेशों मे-दोनों तरह मे वेदा जाता है । अत: यहाँ विपाकोदय मे वेदे जाने योग्य कर्म का बन्ध समझना चाहिये । अथवा ज्ञानावरणीय कर्म के उदय में जो कर्म बंधता है अथवा वेदा जाता है, उम कर्म का बन्ध जानना चाहिये। ___ आत्मा के साथ कर्मों के सम्बन्ध को 'वन्ध' कहते हैं-यह बात पहले कही जा चुकी है। परन्तु यहाँ कर्म-पुद्गलों का अथवा अन्य पुद्गलों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना 'वन्ध' माना जाय, तो ओदारिकादि शरीर, आहार आदि संज्ञाजनक कर्म और कृष्णादि लेण्या का बन्ध तो घटित हो सकता है, परन्तु दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान और तद विषयक बन्ध कैसे हो सकता है ? क्योंकि ये मब अपोद्गलिक (आत्मिक) है। इसका उत्तर यह है कि यहाँ का बन्ध का अर्थ केवल सम्बन्ध विवक्षित है, इसलिये सम्यगदृष्टि आदि का जीव प्रयोगादि बन्ध घटित हो जाता है। ॥ बीसवें शतक का सातवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २० उद्देशक ८ कर्मभूमि-अकर्मभूमि में उत्सर्पिणी आदि काल १ प्रश्न-कइ णं भंते ! कम्मभूमीओ पण्णत्ताओ ? १ उत्तर-गोयमा ! पण्णरस कम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - पंच भरहाई, पंच एरवयाई, पंच महाविदेहाई।। २ प्रश्न-कइ णं भंते ! अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ ? २ उत्तर-गोयमा ! तीसं अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहापंच हेमवयाई, पंच हेरण्णवयाई, पंच हरिवासाई, पंच रम्मगवासाई, पंच देवकुराई, पंच उत्तरकुराई । ३ प्रश्न-एयासु णं भंते ! तीसासु अकम्मभूमीसु अत्थि उस्सप्पिणीइ वा ओसप्पिणीइ वा ? ३ उत्तर-णो इणटे समझे। ४ प्रश्न-एएसु णं भंते ! पंचसु भरहेसु पंचमु एरवएमु अस्थि उस्सप्पिणीड़ वा ओसप्पिणीइ वा ? ४ उत्तर-हंता अस्थि । एएसु णं पंचमु महाविदेहेसु०? णेवत्थि उस्सप्पिणी, वस्थि ओसप्पिणी, अवट्ठिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो। For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९०२ भगवती सूत्र - श. २० उ. ८ कर्मभूमि- अकर्मभूमि में उत्सर्पिणी आदि काल भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! कर्मभूमियां कितनी कही गई हैं ? १ उत्तर - हे गौतम ! कर्मभूमियां पन्द्रह कही गई हैं। यथा- पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह । २ प्रश्न - हे भगवन् ! अकर्षभूमियां कितनी कही गई हैं ? २ उत्तर - हे गौतम! अकर्मभूमियां तीस कही गई हैं। यथा- पांच हैमवत, पांच हैरण्यवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यकवर्ष, पांच देव कुरु और पांच उत्तर कुरु । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! उपरोक्त तीस अकर्मभूमियों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप काल है ? ३ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल है ? ४ उत्तर - हां, गौतम ! है । प्रश्न - हे भगवन् ! पांच महाविदेह क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल है ? उत्तर - हे गौतम! नहीं है । हे आयुष्यमन् श्रमण ! वहां एक अवस्थित काल कहा गया है । विवेचन - जिन क्षेत्रों में असि ( शस्त्र और युद्ध विद्या) मषि ( लेखन और पहनपाठन) और कृषि तथा भाजीविका के दूसरे साधन रूप कर्म (व्यवसाय) हों, उन्हें 'कर्म - भूमि' कहते हैं । जहां असि, मषि, कृषि आदि न हों, किन्तु कल्पवृक्षों से निर्वाह होता हो, उन्हें 'अकर्म-भूमि' कहते हैं । कर्मभूमि पन्द्रह हैं । उनमें से जम्बूद्वीप में एक भरत, एक ऐरवत और एक महाविदेह है । धातकी खण्ड द्वीप में दो भरत, दो ऐरवत और दो महाविदेह हैं । अर्द्ध पुष्कर द्वीप में दो भरत, दो ऐरवत और दो महाविदेह हैं । इस प्रकार ये पन्द्रह कर्मभूमि हैं । अकर्मभूमि तीस हैं । उनमें से एक हैमवत, एक हैरण्यवत, एक हरिवर्ष एक रम्यकवर्ष, एक देवकुरु और एक उत्तरकुरु-ये छह जम्बूद्वीप में हैं और इससे द्विगुण - बारह घातकी For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. २० उ. ८ महाविदेह के तीर्थंकरों का धर्म .. २९०३ खण्ड द्वीप में और बारह अर्द्ध पुष्कर द्वीप में हैं। जिस काल में जावों के संहनन और सम्यान क्रमशः अधिकाधिक शुभ होते जाय, आयु और अवगाहना बढ़ते जाय तथा उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषकार पराक्रम को वृद्धि होती जाय, वह 'उत्सर्पिणी' काल है । इस काल में पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी क्रमशः शुभ होते जाते हैं । अशुभतम, अशुभतर और अशुभ भाव क्रमशः शुभ, शुभतर होते हुए शुभतम हो जाते हैं। इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होते हुए क्रमशः उच्चतम अवस्था आ जाती है । उत्सर्पिणी काल दस क्रीडाकोड़ी सागरोपम का होता है । जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान क्रमशः हीन होते जाय, आयु और अवगाहना घटती जाय तथा उत्थान-कम-बल-वीर्य और पुरुषकार पराक्रम का ह्रास होता जाय, वह 'अवसर्पिणी' काल है । इस काल में पुद्गलों के वर्ण-गन्ध-रस और स्पर्श हीन होते जाते हैं । शुभ भाव घटते जाते हैं और अशुभ भाव बढ़ते जाते हैं । अवसर्पिणी काल भी दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है । महाविदेह के तीर्थंकरों का धर्म ५ प्रश्न-एएसु णं भंते ! पंचसु महाविदेहेसु अरहंता भगवंतो पंचमहव्वइयं सपडिकमणं धम्मं पण्णवयंति ? ५ उत्तर-णो इणढे समढे । एएसु णं (भंते !) पंचसु भरहेसु, पंचसु एरवएसु, पुरिम-पच्छिमगा दुवे अरहंता भगवंतो पंचमहब्वइयं (पंचाणुव्वइयं) सपडिकमणं धम्मं पण्णवयंति, अवसेसा णं अरहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पण्णवयंति । एएसु णं पंचसु महाविदेहेसु अरहंता भगवंतो चाउजामं धम्मं पण्णवयंति । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! पांच महाविदेह में अरिहन्त भगवान् पांच महावत और सप्रतिक्रमण धर्म का उपदेश करते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २० उ ८ भरत क्षेत्र में २४ तीर्थंकर ५ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है | पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्रों में प्रथम और अन्तिम- ये दो अरिहन्त भगवान्, पाँच महाव्रत ( और पांच अणुव्रत ) और सप्रतिक्रमण धर्म का उपदेश करते हैं । शेष अरिहन्त भगवान् चार याम रूप धर्म का उपदेश करते हैं और पांच महाविदेह में भी अरिहन्त भगवान् चार याम रूप धर्म का उपदेश करते हैं । २९०४ भरत - क्षेत्र में २४ तीर्थंकर ६ प्रश्न - जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए क तित्थगरा पण्णत्ता ? ६ उत्तर - गोयमा ! चउवीसं तित्थगरा पण्णत्ता, तं जहा - उसभ अजिय-संभव - अभिनंदण- सुमइ- सुप्पभ सुपास-ससि - पुप्फदंत-सीयलसेज्जंस- वासुपूज्ज - विमल-अनंत- धम्म-संति- कुंथु - अर- मल्लि-मुणिसुव्वयमि.मि. पास-वर्द्धमाणा । ७ प्रश्न - एएसि णं भंते ! चवीसाए तित्थगराणं कह जिणंतरा पण्णत्ता ? ७ उत्तर - गोयमा ! तेवीसं जिणंतरा पण्णत्ता । भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल में कितने तीर्थंकर हुए हैं ? ६ उत्तर - हे गौतम! चौबीस तीर्थंकर हुए हैं । यथा - १ - ऋषभ, २- अजित, ३ - संभव, ४- अभिनन्दन, ५ - सुमति ६ - सुप्रभ, (पद्मप्रभ) ७ - सुपावं, ८ - शशि, (चन्द्रप्रभ), ९ - पुष्पदन्त ( सुविधि), १० - शीतल, ११ - श्रेयांस, For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहे हैं ? भगवती सूत्र - श. २० उ. जिनान्तरों में श्रुत व्यवच्छेद १२- वासुपूज्य, १३ - विनल, १४ - अनन्त, १५ - धर्म, १६- शान्ति, १७- कुन्थु, १८- अर, १९ - मल्लि, २० - मुनिसुव्रत, २१ - नमि, २२- नेमि, २३ - पार्व २४ - वर्धमान । ७ प्रश्न - हे भगवन् ! इन चौवीस तीर्थंकरों के कितने अन्तर ( व्यवधान) ७ उत्तर - हे गौतम! तेईस अन्तर कहे हैं ? जिनान्तरों में व्यवच्छेद ८ प्रश्न - एएम णं भंते ! तेवीसाए जिणंतरेसु कस्स कहिं कालियसुयस्स वोच्छेए पण्णत्ते ? ८ उत्तर - गोयमा ! एएस णं तेवीसाए जिणंतरेसु पुरिमपच्छिमएस असु २ जिणंतरेसु एत्थ णं कालियसुयस्स अवोच्छेए पण्णत्ते, मज्झिमएस सत्तसु जिणंतरेसु एत्थ णं कालियसुयस्स वोच्छेए पण्णत्ते, सव्वत्थ विणं वोच्छिष्णे दिट्टिवाए । २९०५ श्रुत भावार्थ-८ प्रश्न - हे भगवन् ! इन तेईस जिनान्तरों में किस जिन के अन्तर में कालिकत का व्यवच्छेद कहा है ? ८ उत्तर - हे गौतम ! इन तेईस जिनान्तरों में पहले आठ और पिछले आठ जिनान्तरों में कालिकत का अव्यववछेद कहा है और मध्य के सात जिनान्तरों में कालिकश्रुत का व्यवच्छेद हुआ है । दृष्टिवाद का व्यवच्छेद तो सभी जिनान्तरों में हुआ है । विवेचन- जिन सूत्रों का अध्ययनादि काल में ही अर्थात् दिन के और रात्रि के प्रथम प्रहर और अन्तिम प्रहर में किया जा सकता है, वे सूत्र 'कालिक' कहलाते हैं, जैसे For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९०६ भगवती सूत्र-श. २० उ. ८ भरत-क्षेत्र में पूर्वगत श्रुत कब तक ? आचारांग आदि । जिन सूत्रों का अध्ययनादि अस्वाध्याय काल को छोड़ कर शेष सब काल में किया जा सकता है, उन्हें 'उत्कालिक श्रुत' कहते हैं-दशवैकालिक आदि । नौवें तीर्थंकर श्री सुविधिनाथ स्वामी से ले कर सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ स्वामी तक सात अन्तरों (मध्य काल) में कालिकश्रुत का विच्छेद हो गया था, और दृष्टिवाद का विच्छेद तो सभी जिनान्तरों में हुआ और होता है। सात जिनान्तरों में कालिकश्रुत का विच्छेद काल इस प्रकार है चउभागो चउमागो तिण्णि य, चउभाग पलियमेगं च । तिण्णेव य च उभागा, चउत्थभागो य चउभागो ।। अर्थात्-सुविधिनाथ और शीतलनाथ के बीच में पल्योपम का चतुर्थ भाग, शीतलनाथ और श्रेयांसनाथ के बीच में पल्योपम का चतुर्थ भाग, श्रेयांसनाथ और वासुपूज्य के मध्य में पल्योपम का तीन चौथाई भाग (पौन पल्योपम), वासुपूज्य और विमलनाथ के मध्य एक पल्योपम, बिमलनाथ और अनन्तनाथ के मध्य पल्योपम का तीन चौथाई भाग, अनन्तनाथ और धर्मनाथ के मध्य पल्योपम का चतुर्थ भाग तथा धर्मनाथ और शान्तिनाथ के मध्य पल्योपम का चतुर्थ भाग तक कालिकश्रुत का विच्छेद हो गया था । भरत-क्षेत्र में पूर्वगत श्रुत कब तक ? ९ प्रश्न-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं केवइयं कालं पुव्वगए अणुसजिस्सइ ? ९ उत्तर-गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए ममं एगं वाससहस्सं पुव्वगए अणुसजिस्सइ । __ १० प्रश्न-जहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं एगं वाससहस्सं पुव्वगए अणुसज्जिस्सइ, तहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए अव For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २० उ. ८ भरत क्षेत्र में जिन धर्म कब तक ? सेसाणं तित्थगराणं केवइयं कालं पुव्वगए अणुसज्जित्था ? १० उत्तर - गोयमा ! अत्येगइयाणं संखेज्जं कालं, अत्थेगइयाणं असंखेज्जं कालं । भावार्थ - ९ प्रश्न - हे भगवन् ! इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में इस अवर्सापणी काल में आप देवानुप्रिय का पूर्वगत श्रुत कितने काल तक रहेगा ? ९ उत्तर - हे गौतम! इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल में मेरा पूर्वगत श्रुत एक हजार वर्ष तक रहेगा । १० प्रश्न - हे भगवन् ! जिस प्रकार इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल में आप देवानुप्रिय का पूर्वगत श्रुत एक हजार वर्ष तक रहेगा, उसी प्रकार शेष दूसरे तीर्थंकरों का पूर्वगत श्रुत कितने काल तक रहा था ? १० उत्तर - हे गौतम! कितने ही तीर्थंकरों का पूर्वगत श्रुत संख्यात काल तक रहा और कितने ही तीर्थंकरों का असंख्यात काल तक रहा । भरत क्षेत्र में जिन धर्म कब तक ? ११ प्रश्न - जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पि - fire देवापियाणं केवइयं कालं तित्थे अणुसज्जिस्सइ ? ११ उत्तर - गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे भार हे वासे इमीसे ओसप्पि - णौए ममं एगवीसं वाससहस्साइं तित्थे अणुसज्जिस्सर । २६०७ १२ प्रश्न - जहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं एकवीसं वाससहस्साइं तित्थं अणुसज्जिस्सइ तहाणं भंते! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमेस्साणं चरि For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९०८ भगवती सूत्र-श. २० उ. ८ तीर्य और तीर्थंकर मतित्थगरस्स केवइयं कालं तित्थे अणुमजिस्सइ ? १२ उत्तर-गोयमा ! जावइए णं उसमस्स अरहओ कोसलियस्स जिणपरियाए एवइयाइं संखेन्जाइं आगमेस्साणं चरिमतित्थगरस्स तित्थे अणुसज्जिस्सइ । भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! इस जम्बूद्वीप के. भरत-क्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल में आप देवानुप्रिय का तीर्थ कितने काल तक रहेगा ? ११ उत्तर-हे गौतम ! जम्बूद्वीप के इस भरत-क्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल में मेरा तीर्थ इक्कीस हजार वर्ष तक रहेगा। - १२ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस प्रकार इस जम्बूद्वीप के भरत-क्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल में आप देवानुप्रिय का तीर्थ इक्कीस हजार वर्ष तक रहेगा, उसी प्रकार हे भगवन् ! इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में भावी तीर्थंकरों में से अन्तिम तीर्थंकर का तीर्थ कितने काल तक रहेगा ? , १२ उत्तर-हे गौतम ! कौशल देशोत्पन्न ऋषभ देव अरिहन्त का जितना जिनपर्याय है, उतना (एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व) वर्ष तक भावी तीथंकरों में से अन्तिम तीर्थंकर का तीर्थ रहेगा। विवेचन-श्रमण भगवान महावीर स्वामी का तीर्थ इक्कीस हजार वर्ष तक चलेगा और तश्चानुपूर्वी के क्रम में पार्श्वनाथ स्वामी आदि तीर्थंकरों का तोर्थ संख्यात काल तक रहा था और ऋषभदेव आदि का तीर्थ असंख्यात काल तक रहा था। तीर्थ और तीर्थंकर १३ प्रश्न-तित्थं भंते ! तित्थं, तित्थगरे तित्थं ? १३ उत्तर-गोयमा ! अरहा ताव णियमं तित्थगरे, तित्थं पुण For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २० उ. ८ तीर्थ और तीर्थंकर चाउवण्णाइणे समणसंघे, तं जहा - समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ । १४ प्रश्न - पवयणं भंते ! पवयणं, पावयणी पवयणं ? १४ उत्तर - गोयमा ! अरहा ताव णियमं पावयणी, पवयणं पुण दुवालसँगे गणिपिडगे, तं जहा - आयारो जाव दिट्टिवाओ । १५ प्रश्न - जे इमे भंते ! उग्गा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, णाया, कोरव्वा एए णं अस्सि धम्मे ओगाहंति, अस्सिं० २ ओगाहित्ता अडविहं कम्मरयमलं पवाहेंति, अटु २ पवाहित्ता तओ पच्छा सिज्झति जाव अंत करेंति ? १५ उत्तर - हंता गोयमा ! जे इमे उग्गा भोगा तं चैव जाव अंतं करेंति, अत्थेगइया अण्णयरेसु देवलोपसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । १६ प्रश्न – कइ विहा णं भंते ! देवलोया पण्णत्ता ? १६ उत्तर - गोयमा ! चउव्विहा देवलोया पण्णत्ता, तं जहाभवणवासी, वाणमंतरा, जोइसिया, वेमाणिया । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति ॥ वीस मे सए अट्टमो उद्देसो समत्तो ॥ २९०९ को तीर्थ कहते हैं ? कठिन शब्दार्थ - इक्खाणा- इक्ष्वाकु कुलोत्पन्न । भावार्थ - १३ प्रश्न - हे भगवन् ! 'तीर्थ' को तीर्थ कहते हैं, या तीर्थंकर For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१० भगवती सूत्र-श. २० उ. ८ तीर्थ और तीर्थकर १३ उत्तर-हे गौतम ! अरिहन्त तो अवश्य तीर्थंकर हैं (तीर्थ नहीं) परन्तु ज्ञानादि गुणों से युक्त चार प्रकार का श्रमण-संघ तीर्थ कहलाता है । यथा-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका । १४ प्रश्न-हे भगवन् ! 'प्रवचनकार' ही 'प्रवचन' कहलाता है या उनके द्वारा उपदिष्ट 'प्रवचन' ? १४ उत्तर-हे गौतम ! अरिहन्त अवश्य प्रवचनी हैं (प्रवचन नहीं) और द्वादशांग गणिपिटक प्रवचन है । यथा-आचारांग यावत् दृष्टिवाद । १५ प्रश्न-हे भगवन् ! जो उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, इक्ष्वाकुकुल, ज्ञातकुल और कौरम्यकुल, इन कुलों में उत्पन्न क्षत्रिय, इस धर्म में प्रवेश करते हैं और प्रवेश कर के आठ प्रकार के कर्म रूपी रज-मैल को धुनते हैं (नष्ट करते हैं) इसके पश्चात् वे सिद्ध होते हैं, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं ? १५ उत्तर-हाँ, गौतम ! उग्रकुल आदि कुलों में उत्पन्न क्षत्रिय है, वे यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं और कितने ही किन्हीं देवलोकों में देवपने उत्पन्न होते हैं। १६ प्रश्न-हे भगवन् ! देवलोक कितने प्रकार के कहे हैं ? १६ उत्तर-हे गौतम ! देवलोक चार प्रकार के कहे हैं । यथा-भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक । ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-संघ को 'तीर्थ' कहते हैं, या तीर्थकर' को 'तीर्थ' कहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि तीर्थंकर तो तीर्थ के प्रवर्तक होते हैं, इसलिये वे 'तीर्थ' नहीं कहलाते, किन्तु साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप संघ 'तीर्थ' कहलाता है। दूसरा प्रश्न किया गया है कि 'प्रवचन' किसे कहते हैं ? इसका उत्तर दिया गया है कि 'प्रकर्षणोच्यतेऽभिधेयमनेनेतिप्रवचनम्-आगमः ।' For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २० उ. ९ चारण-मुनियों की तीव-गति २९११ -विशिष्ट रूप से जो कहा जाय, उमे 'प्रवचन' कहते हैं, अर्थात् 'आगम' को 'प्रवचन' कहते हैं । तीर्थकर भगवान् प्रवचन के प्रणेता होते हैं । इसलिये वे 'प्रवचनी' कहलाते हैं। ॥ बीसवें शतक का आठवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २० उद्देशक चारण-मुनियों की तीव्र-गति १ प्रश्न-कहविहा णं भंते ! चारणा पण्णत्ता ? १ उत्तर-गोयमा ! दुविहा चारणा पण्णत्ता, तं जहा-विजाचारणा य, जंघाचारणा य। २ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-विजाचारणा' २ ? २ उत्तर-गोयमा ! तस्स णं छटुंछटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं विजाए उत्तरगुणलद्धिं खममाणस्स विजाचारणलद्धी णामं लद्धी समुप्पज्जइ, से तेणटेणं जाव विजाचारणा २।। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! चारण कितने प्रकार के कहे हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! चारण दो प्रकार के कहे हैं। यथा-विद्या For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१२ भगवती मूत्र-स. २० उ. ९. चारण-मुनि की तोव-गति चारण और जंघाचारण। २ प्रश्न-हे भगवन् ! विद्याचारण मुनि को 'विद्याचारण' क्यों कहते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! निरन्तर बेले-बेले के तपपूर्वक पूर्वगत श्रुत रूप विद्या द्वारा उत्तरगुण-लब्धि ( तपोलब्धि ) को प्राप्त मुनि को विद्याचारण नामक लब्धि उत्पन्न होती है । इससे यावत् 'विद्याचारण' कहते हैं। ३ प्रश्न-विजाचारणस्स णं भंते ! कहं सीहा गई, कहं सीहे गइविसए पण्णत्ते ? ३ उत्तर-गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव किंचिविसेसाहिए परिक्खेवणं, देवे णं महड्ढीए जाव महेसक्खे जाव 'इणामेव' त्तिकटु केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छराणिवाएहिं तिक्खुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेजा, विजाचारणस्स णं गोयमा ! तहा सीहा गई, तहा सीहे गइविसए पण्णत्ते । ४ प्रश्न-विजाचारणस्स णं भंते ! तिरियं केवइयं गइविसए पण्णते ? ___४ उत्तर-गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं माणुसुत्तरे पव्वए समोसरणं करेइ, माणु० २ करेत्ता तहिं चेइयाई वंदइ, तहिं० २ वंदित्ता विइएणं उप्पाएणं गंदीसरवरे दीवे समोसरणं करेइ, गंदीस०२ करेत्ता तहिं चेइयाइं वंदइ, तहिं० २ वंदित्तातओ पडिणियत्तइ, तओ पडिणियत्तित्ता इहमागच्छद, इहमागच्छित्ता इह चेइयाइं वंदइ । विजा. For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २० उ. ५ वारण-मुनि की तीव्र-गति २६१३ चारणस्स णं गोयमा ! तिरियं पवइए गइविमए पण्णत्ते । ५ प्रश्न-विजाचारणस्स णं भंते ! उड्ढे केवइए गइविसए पण्णत्ते ? __ ५ उत्तर-गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पारणं गंदणवणे समो. सरणं करेइ, गंद० २ करेत्ता तहिं चेहयाई वंदइ, नहिं० २ वंदित्ता विइएणं उप्पारणं पंडगवणे समोसरणं करेइ, पंडग० २ करेत्ता तहिं चेइयाइं वंदइ, तहिं०२ वंदित्ता तओ पडिणियत्तइ, तओ पडिणियतित्ता इहमागच्छइ, इहमागच्छित्ता इहं चेइयाई वंदइ । विजाचारणस्स णं गोयमा ! उड्ढं एवइए गइविसर पण्णत्ते । से णं तस्स ठाणस्स अणालोइय-पडिक्कंते कालं करेइ, णस्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कंते कालं करेइ अस्थि तस्स आराहणा । कठिन शब्दार्थ-सीहा-शीघ्र, उप्पाएणं-उत्पात-उड़ान । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! विद्याचारण की शीघ्र-गति कैसी होती है और उनका गति विषय कितना शीघ्र होता है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! यह जम्बूद्वीप यावत् जिसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन से कुछ विशेषाधिक है, उसके चारों ओर * कोई महद्धिक यावत् महासुख वाला देव यावत् 'यह चक्कर लगाता हूँ'-ऐसा कह कर तीन चुटकी बजावे, उतने समय में, तीन बार चक्कर लगा कर शीघ्र आवे, ऐसी शीघ्र गति विद्याचारण को है और इस प्रकार का शीघ्र-गति का विषय कहा है। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! विद्याचारण की तिझै-गति को मालितना कहा गया है ? For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१४ भगवती मूत्र-श. २० उ. ९ चारण-मुनि की तीव्र गति ४ उत्तर-हे गौतम ! विद्याचारण एक उत्पात (उड़ान) से मानुषोत्तर पर्वत पर समवसरण करते हैं (वहां जा कर ठहरते हैं)। वहां चैत्य वन्दन करते हैं। वन्दना कर के वहां से दूसरे उत्पात से नन्दीश्वर द्वीप में समवसरण (स्थिति) करते हैं । फिर वहां चैत्य वन्दन करते हैं। फिर वहां से एक ही उत्पात से वापिस यहां आते है। यहां आ कर चैत्य वन्दन करते हैं। हे गौतम ! विद्याचारण को तिछी-गति का विषय ऐसा है। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! विद्याचारण की ऊर्ध्व-गति का विषय कितना है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! विद्याचारण एक उत्पात द्वारा नन्दन वन में समवसरण करता है, फिर वहां चैत्य वन्दन करता है । फिर दूसरे उत्पात द्वारा पण्डकवन में समवसरण करता है। वहां चैत्य वन्दन करता है । फिर वहां से एक ही उत्पात द्वारा वापिस यहां आ जाता है। यहां आ कर चैत्य वन्दन करता है। हे गौतम ! विद्याचारण की ऊर्ध्व-गति का विषय ऐसा कहा है। हे गौतम ! वह विद्याचारण लब्धि का प्रयोग करने सम्बन्धी पापस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाय, तो आराधक नहीं है और यदि उस पापस्यान की आलोचना और प्रतिक्रमण कर के काल करे, तो वह आराधक होता है। ६ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'जंघाचारणा' २ ? ६ उत्तर-गोयमा ! तस्स णं अट्ठमंअट्टमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स जंघाचारणलद्धी णाम लद्धी समुप्पजइ, से तेणटेणं जाव जंघाचारणा २। __७ प्रश्न-जंघाचारणस्स णं भंते ! कहं सीहा गई, कहं सीहे गइविसए पण्णत्ते ? For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २० उ. ९ चारण-मुनि की तीव्र गति २९१५ ७ उत्तर - गोयमा ! अयणं जंबुद्दीवे दोवे० एवं जहेव विज्जाचारणस्स, णवरं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेजा, जंवाचारणस्स णं गोयमा ! तहा सीहा गई, तहा सीहे गइविसए पण्णत्ते । भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! 'जंघाचारण' क्यों कहते हैं ? ६ उत्तर - हे गौतम ! निरन्तर तेले-तेले की तपस्यापूर्वक आत्मा को भावित करते हुए मुनि को 'जंघाचारण' नामक लब्धि उत्पन्न होती है । इस कारण उसे 'जंघाचारण' कहते हैं । ७ प्रश्न - हे भगवन् ! जंघाचारण की शीघ्र गति कैसी होती है और उसकी शीघ्र गति का विषय कितना होता है ? ७ उत्तर - हे गौतम! यह जम्बूद्वीप यावत् जिसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन से कुछ विशेषाधिक है, इत्यादि वर्णन विद्याचारणवत् । विशेष यह है कि कोई महद्धक देव, तीन चुटकी बजावे, उतने में इस जम्बूद्वीप की इक्कीस बार परिक्रमा कर ले। हे गौतम! जंघाचारण की इतनी शीघ्र गति और शीघ्र गति का विषय है । ८ प्रश्न - जंघाचारणस्स णं भंते! तिरियं केवड़ए गड़विसए पण्णत्ते ? ८ उत्तर - गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पारणं रुयगवरे दीवे समोसरणं करेड़, रुयग० २ करेत्ता तहिं चेहयाई वंदर, तहिं० २ वंदित्ता त पडिणियत्तमाणे बिइएणं उप्पारणं णंदीसरवरदीवे समोसरणं करेs, नंदी० २ करेत्ता तहिं चेहयाई वंदन, तहिं० २ वंदित्ता For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१६ भगवती मूत्र-द. २० उ. ९ चारण-मनि की तीव-गति इहमागच्छइ, इहमागच्छित्ता इह चेइयाई वंदइ, जंघाचारणस्स णं गोयमा ! तिरियं एवइए गइविसए पण्णत्ते । ९ प्रश्न-जंघाचारणस्स णं भंते ! उड्ढे केवइए गइविसए पण्णते ? ९ उत्तर-गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं पंडगवणे समो. सरणं करेइ, स० २ करेत्ता तहिं चेइयाई वंदइ, तहिं० २ वंदित्ता तओ पडिणियत्तमाणे विइएणं उप्पाएणं णंदणवणे समोसरणं करेइ, गंदण०२ करेत्ता तहिं चेइयाइं वंदइ, तहिं० २ वंदित्ता इहमागच्छइ, इह चेइयाइं वंदइ, जंघाचारणस्स णं गोयमा ! उड्ढे एवइए गइविसए पण्णत्ते । से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालं करेइ णत्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेइ अत्थि तस्स आराहणा। ® 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति । जाव विहरइ * ॥ वीसइमे सए णवमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! जंघाचारण की ति -गति का विषय कितना कहा है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! जंघाचारण एक उत्पात से रूचकवर द्वीप में समवसरण करता है, फिर वहां चैत्य वन्दन करता है। वन्दन कर के वहां से लौटते समय एक उत्पात से नन्दीश्वर द्वीप में समवसरण करता है। वहां चैत्य वन्दन कर दूसरे उत्पात से यहां आता है। यहां आकर चैत्य वन्दन करता है। हे गौतम ! जंघाचारण की तिझै-गति और तिझै-गति का विषय For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २० उ ९ चारण-मुनि की तीव्र गति २९४७ इतना शीघ्र कहा है। 1 ९ प्रश्न - हे भगवन् ! जंघाचारण की ऊर्ध्व- गति का विषय कितना कहा है ? ९ उत्तर - हे गौतम! जंघाचारण एक उत्पात से पण्डकवन में समवसरण करता है । फिर वहां चैत्य वन्दन करता है। वहां से लौटते हुए एक उत्पात से नन्दनवन में समवसरण करता है। वहां चंत्य वन्दन करता है । फिर दूसरे उत्पात से यहां आ कर चैत्य वन्दन करता है। हे गौतम! जंघाचारण का ऐसा ऊर्ध्व गति का विषय कहा है । वह जंघाचारण उस लब्धि प्रयोग सम्बन्धी पाप-स्थान की आलोचना, प्रतिक्रमण किये बिना यदि काल कर जाय, तो आराधक नहीं होता और उस पाप स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण कर के काल करे, तो वह आराधक होता है । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है' - कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन -लब्धि के प्रभाव से आकाश में अतिशय गमन करने की शक्ति वाले मुनि को 'चारण' कहते हैं । चारण दो प्रकार के होते हैं । यथा - विद्याचारण अर्थात् पूर्वगत श्रुत से गमन करने की लब्धि को प्राप्त मुनि विद्याचारण' कहलाते हैं । जंघा के व्यापार से गमन करने की लब्धि वाले मुनि 'जंघाचारण' कहलाते हैं । उपर्युक्त विधिपूर्वक निरन्तर बेले-वेले की तपस्या करने वाले मुनि को विद्याचारण लब्धि प्राप्त होती है और तेले-तेले की तपस्या करने वाले मुनि को जंघाचारण लब्धि प्राप्त होती है । विद्याचारण की अपेक्षा जंघाचारण की गति सात गुण शोघ्र होती है । लब्धि का प्रयोग करना प्रमाद है। लब्धि का प्रयोग किया हो और उसकी आलोचना नहीं की, तो उसे चारित्र की आराधना नहीं होती । विद्याचारण का गमन दो उत्पात से और आगमन एक उत्पात से होता है तथा जंघाचारण का गमन एक उत्पात से और आगमन दो उत्पात से होता है । यह उस लब्धि का स्वभाव समझना चाहिये । इस विषय में किन्हीं आचार्यों का कथन है कि - विद्याचारण की विद्या आतेसमय विशेष अभ्यास वाली हो जाती है, किन्तु गमन के समय वह वैसी अभ्यास वाली नहीं होती । इसलिये आते समय तो वह एक ही उत्पात से यहाँ आ जाता For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१८ भगवती सूत्र-श. २० उ. १० सोपक्रम-निरूपक्रम आयुष्य है, परन्तु जाते समय दो उत्पात से वहां पहुँचता है । जंघाचारण की लब्धि का ज्यों-ज्यों प्रयोग होता हैं, त्यों-त्यों वह अल्प सामर्थ्य वाली होती जाती है । इसलिये वह जाते समय तो एक ही उत्पात से वहाँ पहुँच जाता है, परन्तु लौटते समय दो उत्पात से पहुंचता है । जंघाचारण और विद्याचारण लब्धि वाले मुनि जब मानुषोत्तर पर्वत, नन्दीश्वर द्वीप आदि में पहुंचते हैं, तब वहां चैत्य वन्दन करते हैं अर्थात् ज्ञानियों की स्तुति करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नन्दीश्वर द्वीप आदि की रचना का वर्णन उन लब्धिधारी मुनियों ने ज्ञानियों से सुना था अथवा आगमों से जाना था, वैसी ही रचना को साक्षात् देखते हैं, तब वे शानियों की स्तुति करते हैं । यहां मूलपाठ में जो 'चेइयाई' (चैत्य) शब्द दिया है, उसका अर्थ 'ज्ञानी' है और 'वंदइ' का अर्थ-स्तुति करना है, क्योंकि-'वैदि अभिवादन स्तुत्योः' के अनुसार 'वदि' धातु का अर्थ स्तुति करना है। यदि चैत्य का अर्थ मन्दिर किया जाय, तो यह अर्थ संगत नहीं होता, क्योंकि मानुषोत्तर पर्वत पर मन्दिरों का वर्णन नहीं है और स्वस्थान अर्थात् जहां से उन्होंने उत्पात किया है, वह भी मन्दिर नहीं है। अतः चैत्य का अर्थ मन्दिर-मूर्ति करना संगत नहीं है, 'ज्ञानी' अर्थ ही संगत है। . ॥ बीसवें शतक का नौवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २० उद्देशक १० . सोपक्रम निरुपक्रम आयुष्य १ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं सोवकमाउया, णिरुवकमाउया ? १ उत्तर-गोयमा ! जीवा सोवकमाउया वि णिरुवकमाउया वि । For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २० उ. १० सापक्रम-निरूपक्रम आयुष्य २ प्रश्न-णेरड्याणं-पुच्छा। २ उत्तर-गोयमा ! गैरइया णो सोवकमाउया, णिरुवकमाउया। एवं जाव थणियकुमारा। पुढविकाइया जहा जीवा, एवं जाव मणुस्सा। वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा णेरइया । ३ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! किं आओवकमेणं उववज्जंति, परोक्कमेणं उववज्जंति, णिरुवकमेणं उववज्जति ? . ३ उत्तर-गोयमा ! आओवकमेण वि उववज्जंति, परोवकमेण वि उववज्जति, णिरुवकमेण वि उववज्जंति, एवं जाव वेमाणियाणं । ४ प्रश्न-गेरइया णं भंते ! किं आओवकमेणं उब्वटुंति, परोवकमेणं उब्वति, णिरुवकमेणं उव्वटुंति ? ___४ उत्तर-गोयमा ! णो आओवकमेणं उव्वटुंति, णो परोवकमेणं उज्वटुंति, णिरुवक्कमेणं उव्वटुंति, एवं जाव थणियकुमारा । पुढविकाइया जाव मणुस्सा तिसु उव्वद्वृति, सेसा जहा णेरड्या, णवरं जोइसिय चेमाणिया चयंति । कठिन शब्दार्थ--सोवक्कमाउया--उपक्रम युक्त आयुष्य वाले, णिरुवक्कमाउयानिरुपक्रम आयुष्य वाले। . भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव सोपक्रम आयुष्य वाले होते हैं, या निरुपक्रम आयुष्य वाले ? १ उत्तर-हे गौतम ! जीव सोपक्रम आयुष्य वाले भी होते हैं और निरुपक्रम आयुष्य वाले भी होते हैं। २ प्रश्न-हे भगवन् ! नेरयिक जीव सोपक्रम आयुष्य वाले होते हैं, या For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२०. भगवती सूत्र-श. २० उ. १० उत्पत्ति उद्वर्तन आत्म-ऋद्धि से निरुपक्रम आयुष्य वाले ? . . २ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक जीव सोपक्रम-आयुष्य वाले नहीं होते, निरुपक्रम-आयुष्य वाले होते हैं। इस प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त जानना चाहिये । पृथ्वीकायिकों का कथन औधिक जीवों के समान है। इस प्रकार यावत् मनुष्य पर्यन्त । वाणव्यतर, ज्योतिषी और वैमानिक का कथन नैरयिकों के समान है। . ३ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव, आत्मोपक्रम से उत्पन्न होते हैं, या परोपक्रम.अथवा निरुपक्रम से ? ____३ उत्तर-हे गौतम ! आत्मोपक्रम से भी उत्पन्न होते हैं और परोपक्रम तथा निरुपक्रम से भी उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यंत । - ४ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक आत्मोपक्रम से उद्वर्तते (मरते) हैं, परोपक्रम से या निरुपक्रम से उद्वर्तते हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! वे आत्मोपक्रम और परोपक्रम से नहीं, किन्तु निरुपक्रम से उद्वर्तते हैं । इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक । पृथ्वीकायिक यावत् मनुष्य तक तीनों उपक्रमों से उद्वर्तते हैं। शेष सब नैरयिकों के समान । विशेष यह है कि ज्योतिषी और वैमनिक में-'चवते हैं'-कहना चाहिये। उत्पत्ति उद्वर्तन आत्म-ऋद्धि से ५ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! किं आइइडीए उववजंति परिड्डीए उववजति ? ५ उत्तर-गोयमा ! आइड्ढीए उववजंति, णो परिड्ढीए उववजंति एवं जाव वेमाणिया ।। ६ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! किं आइड्ढीए उव्वटृति, परिड्टीए For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २० उ. १० उत्पत्ति उद्वर्तन आत्म- ऋद्धि मे उव्वति ? ६ उत्तर-गोयमा ! आइड्ढीए उब्वट्टेति णो परिड्ढीए उब्वट्टंति, एवं जाव वेमाणिया, णवरं जोइसिया वेमाणिया य चयंतीइ अभिलावो । ७ प्रश्न - रइया णं भंते! किं आयकम्मुणा उववजंति, परकम्मुणा उववजंति ? ७ उत्तर - गोयमा ! आयकम्मुणा उववजंति, णो परकम्मुणा उववज्जंति, एवं जाव वेमाणिया । एवं उब्वट्टणादंडओ वि । ८ प्रश्न - रइया णं भंते ! किं आयप्पओगेणं उववज्जंति, परप्पओगेणं उववज्जंति ? २९२१ ८ उत्तर - गोयमा ! आयप्पओगेणं उववजंति, णो परप्पओगेणं उववजति, एवं जाव वेमाणिया, एवं उब्वट्टणादंडओ वि । भावार्थ - ५ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक आत्म- ऋद्धि ( स्व सामर्थ्य) से उत्पन्न होते है, या पर ऋद्धि से ? ५ उत्तर - हे गौतम! वे आत्म - ऋद्धि से उत्पन्न होते हैं, पर ऋद्धि से नहीं होते, इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिये । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक आत्म- ऋद्धि से उद्वर्तते हैं, या परऋद्धि से ? ६ उत्तर - हे गौतम! वे आत्म- ऋद्धि से उद्वर्तते हैं, पर ऋद्धि से नहीं । इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त । किन्तु ज्योतिषी और वैमानिक'चवते हैं' ऐसा अभिलाप कहना चाहिये । ७ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक आत्म-कर्म से उत्पन्न होते हैं, या पर- कर्म से ? ७ उत्तर - हे गौतम! आत्म-कर्म से उत्पन्न होते हैं, पर कर्म से नहीं । इस For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२२ भगवती सूत्र-श. २० उ. १० कति-अकति संचित प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त । इसी प्रकार उद्वर्तना दण्डक भी जानना चाहिये। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक जीव आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, या परप्रयोग से? ८ उत्तर-हे गौतम ! वे आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से नहीं । इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त । इसी प्रकार उद्वर्तना दण्डक भी जानना चाहिये। विवेचन-जिन जीवों का आयुष्य, व्यवहार से अप्राप्त काल (असमय) में ही समाप्त हो जाता है, वे जीव 'सोपक्रम आयुष्य' वाले कहलाते हैं और इसके अतिरिक्त दूसरे जीव 'निरुपक्रम आयुष्य वाले' कहलाते हैं । देव, नैरयिक और असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यंच और मनुष्य, उत्तम पुरुष तथा चरम शरीरा जीव, ये सब निरुपक्रम आयुष्य वाले होते हैं। शेष सभी संसारी जीव, सोपक्रम और निरुपक्रम-दोनों प्रकार के आयुष्य वाले होते हैं। ___ व्यवहार दृष्टि से आयुष्य को स्वयमेव घटा देना-'आत्मोपक्रम' कहलाता है । श्रेणिक नरेशवत् और अन्य के द्वारा आयुष्य का घटाया जाना अर्थात् परकृत मरण से मरना 'परोपक्रम' कहलाता है । यथा-कोणिकं । उपक्रम के अभाव से मरना-'निरुपक्रम' कहलाता है । यथा-कालशौकरिक ।। जीव आत्मऋद्धि अर्थात् स्व-सामर्थ्य से मरते हैं, ईश्वरादि के प्रभाव से नहीं । इसी प्रकार आत्मकृत कर्मों और आत्मप्रयोग से मरते हैं, परकृत कर्म और परप्रयोग से नहीं मरते। कति-अकति संचित - ९ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! किं कइसंचिया, अकइसंचिया, अवत्तव्वगसंचिया ? ९ उत्तर-गोयमा ! णेरड्या कइसंचिया वि, अकइसंचिया वि, अवतव्वगसंचिया वि। For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता सूत्र श २० उ. १० कति अकति संचित प्रश्न - सेकेण द्रेणं जाव अवत्तव्वगसंचिया वि ? उत्तर - गोयमा ! जे णं णेरड्या संखेज्जपणं पवेसणपणं पविसंति ते णं णेरड्या कइसंचिया, जे णं णेरइया असंखेज्जपणं पवेसणएणं पविसंति ते णं णेरड्या अकइसंचिया, जे णं णेरड्या एकएणं पवेसणवणं पविसंति ते णं णेरड्या अवत्तव्यगसंचिया, से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव अवत्तव्वगसंचिया वि । एवं जाव थणियकुमारा । १० प्रश्न - पुढविकाइयाणं पुच्छा । १० उत्तर - गोयमा ! पुढविकाइया णो कहसंचिया, अकड़संचिया, णो अवत्तव्वगसंचिया । प्रश्न-से केणट्टेणं एवं वुच्चड़ - जाव णो अवत्तव्वगसंचिया' ? उत्तर - गोयमा ! पुढविकाइया असंखेजपणं पवेसणएणं पविसंति से तेणट्टेणं जाव णो अवत्तव्वगसंचिया, एवं जाव वणस्सइकाइया, बेंदिया जाव वेमाणिया जहा णेरइया । २९२३ कठिन शब्दार्थ - कइसंचिया- कतिसंचित - एक समय में संख्यात उत्पन्न अवत्तवंगसंचिया - अवक्तव्यसंचित - एक समय में एक उत्पन्न । भावार्थ - ९ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक कतिसञ्चित हैं, अकतिसञ्चित या अवक्तव्यसञ्चित हैं ? ९ उत्तर - हे गौतम ! नैरयिक कतिसञ्चित भी हैं, अकतिसञ्चित भी हैं और अवक्तव्यसञ्चित भी हैं। प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि - यावत् अवक्तव्यसंचित भी हैं ? For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२४ भगवता सूत्र श. २० उ. १० कति अकति संचित उत्तर - हे गौतम ! जो नैरयिक नरक-गति में एक साथ संख्यात प्रवेश करते हैं (उत्पन्न होते हैं) वे कतिसंचित हैं, जो नैरयिक असंख्यात प्रवेश करते हैं, वे अकतिसंचित हैं और जो नैरथिक एक-एक प्रवेश करते हैं, वे अवक्तव्यसंचित हैं । इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त जानना चाहिये । १० प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक कतिसंचित है, इत्यादि प्रश्न । १० उत्तर - हे गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव, कतिसंचित नहीं, अवक्तव्यसंचित भी नहीं, किन्तु अकतिसंचित है । प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि यावत् अवक्तव्यसंचित नहीं है ? उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक एक साथ असंख्य प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, इसलिये वे अकतिसंचित हैं, परन्तु यावत् अवक्तव्यसंचित नहीं । इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक जानना चाहिये । बेइन्द्रिय से ले कर यावत् वैमानिक तक का कथन नैरयिकों के समान है । ११ प्रश्न - सिद्धाणं पुच्छा । ११ उत्तर - गोयमा ! सिद्धा कइसंचिया, णो अकड़संचिया, अवत्तव्वगसंचिया वि । प्रश्न - सेकेण्डेणं जाव 'अवत्तव्वगसंचिया वि' ? उत्तर - गोयमा ! जे णं सिद्धा संखेज्जपणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा कसंचिया, जेणं सिद्धा एकरणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा अवत्तव्वगसंचिया, से तेणट्टेणं जाब अवत्तव्वगसंचिया वि । १२ प्रश्न - एएस णं भंते! णेरइयाणं कइसंचियाणं अकसंचि For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -श. २. उ. १० कनि-अकति मंचित याणं अवत्तव्वगसंचियाण य कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा ? १२ उत्तर-गोयमा ! सम्बत्थोवा गैरइया अवत्तव्यगसंचिया, कइसंचिया संखेबगुणा, अकइसंचिया असंखेजगुणा, एवं एगिदियवबाण जाव वेमाणियाणं अप्पाबहुगं, एगिंदियाणं णत्थि अप्पाबहुगं। __१३ प्रश्न-एएसि णं भंते ! सिद्धाणं कइसंचियाणं अवत्तव्वगसंचियाण य कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा ? १३ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा सिद्धा कइमंचिया, अवत्तव्वगसंचिया संखेजगुणा। भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! सिद्ध कतिसंचित हैं, इत्यादि प्रश्न ? ११ उत्तर-हे गौतम ! सिद्ध कतिसंचित और अवक्तव्यसंचित हैं, अकतिसंचित नहीं हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि सिद्ध यावत् अवक्तव्यसंचित हैं ? उत्तर-हे गौतम ! जो सिद्ध संख्यात प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे कतिसंचित हैं और जो सिद्ध एक-एक प्रवेश करते हैं, वे अवक्तव्यसंचित है। इसलिये सिद्ध यावत् अवक्तव्यसंचित हैं। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! कतिसंचित, अतिसंचित और अवक्तव्यसंचित नरयिकों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? १२ उत्तर-हे गौतम ! अवक्तव्यसंचित नैरयिक सब-से थोड़े हैं । उनसे कतिसंचित नैरयिक संख्यात गुण है और अकतिसंचित उनसे असंख्यात गुण हैं। इस प्रकार एकेन्द्रिय के सिवाय यावत् वैमानिकों तक अल्प-बहुत्व कहनी चाहिये। एकेन्द्रियों का अल्प-बहुत्व नहीं है । १३. प्रश्न-हे भगवन् ! कतिसंचित और अवक्तव्यसंचित सिद्धों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २० उ. १० षट्क समजत नो- पट्क समर्जित १३ उत्तर - हे गौतम! कतिसंचित सिद्ध सब से थोड़े है और उनसे अवक्तव्यसंचित सिद्ध संख्यात गुण हैं । 1 विवेचन - जो जीव दूसरी जाति में से आकर एक समय में एक साथ संख्यात उत्पन्न होते हैं, उन्हें 'कतिसंचित' कहते हैं। दो से ले कर उत्कृष्ट संख्याता तक की संख्या को यहां 'कतिसंचित' कहा है । जो एक समय में, एक साथ असंख्यात उत्पन्न होते है, उन्हें 'अकतिसंचित' कहते है । जो एक समय में एक उत्पन्न हो, उसे 'अवक्तव्यसंचित' कहते हैं । यिक जीव तीनों प्रकार के होते हैं। क्योंकि वे एक समय में, एक साथ एक ले कर असंख्यात तक उत्पन्न होते हैं । से पृथ्वी कायिकादि पांच स्थावर अकतिसंचित हैं, क्योंकि वे एक समय में एक साथ असंख्यात उत्पन्न होते हैं, एक-दो नहीं । यद्यपि वनस्पतिकायिक जीव एक समय में, एक साथ अनन्त उत्पन्न होते हैं, किन्तु यहां विजातीय जीवों से आ कर उत्पन्न होने वाले जीवों की विवक्षा है । इससे वे असंख्यात ही उत्पन्न होते हैं । अनन्त तो स्वजाति के वनस्पति जीव, स्वजाति में ही उत्पन्न होते हैं । सिद्ध भगवान् अकतिसंचित नहीं हैं, क्योंकि मोक्ष जाने वाले जीव एक समय में एक साथ एक से लेकर संख्यात ( एक सौ आठ तक ) ही सिद्ध होते हैं । असंख्यात जीव एक समय में एक साथ सिद्ध नहीं होते । एकेन्द्रिय को छोड़ कर शेष का जो अल्प - बहुत्व कहा गया है, वह इस प्रकार हैअवक्तव्यं संचित सत्र से थोड़े हैं, क्योंकि अवक्तव्य स्थान एक है। उनसे कतिसंचित संख्यात गुण हैं, क्योंकि उनके संख्यात स्थान हैं और अकतिसंचित असंख्यात गुण हैं, क्योंकि असंख्यात स्थान भी असंख्य हैं । इस विषय में कुछ आचार्यों का कथन इस प्रकार है कि. इसमें स्थान की अल्पता कारण नहीं है, किन्तु वस्तु-स्वभाव ही ऐसा है । क्योंकि कतिसंचित स्थान बहुत्व होने पर भी कतिसंचित सिद्ध सत्र से थोड़े हैं और अवक्तव्य स्थान एक होने पर भी अवक्तव्यसंचित सिद्ध उनसे संख्यात गुण हैं, क्योंकि दो आदि रूप से केवली अल्प संप्रा में सिद्ध होते हैं । अतः वस्तु-स्वभाव और लोक-स्वभाव ऐसा ही हैं - यह मानना चाहिये । षट्क- समर्जित नो-षट्क - समर्जित १४ प्रश्न - रइया णं भंते ! किं छफ्कसमजिया १, णोछक्क २९२६ For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २० उ. १० प- समजित ना-पट्क समर्जिन समज्जिया २, छक्केण य णोछक्केण य समज्जिया ३, छक्केहिय समज्जिया ४, छक्केहि य गोछक्केण य समज्जिया ५ १ १४ उत्तर - गोयमा ! रया छक्कसमज्जिया वि १, गोवकसमज्जिया व २, छक्केण य णोछक्केण य समजिया वि ३. छक्केहि य समजिया वि ४, छक्केहि य णोछक्केण य समज्जिया वि५ । प्रश्न - सेकेण्डेणं भंते ! एवं चुच्चs - णेरड्या छकसमजिया वि जाव छक् केहि य णोंछक्केण य समज्जिया विं ? उत्तर - गोयमा ! जे णं णेरड्या करणं पवेसणणं पविसंति ते णं णेरइया छकममज्जिया १ । जे णं णेरइया जहण्णेणं एक्केण वादोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं पंचरणं पवेसणएणं पविसंति ते णं रइया पोछकसमज्जिया २ । जे णं णेरइया एगेणं करणं अण्णेण य जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणणं पविसंति ते णं णेरइया छक्केण य णोछक्केण य समजिया ३ । जे णं णेरड्या गेहिं छक्केहिं पवेसणएणं पविसंति ते णं णेरइया छक्केहि य समज्जिया ४ । जे णं णेरइया गेहिं छक्केहिं अण्णेण य जहणेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं णेरड्या छक्केहि य णोछक्केण य समज्जिया ५ । से तेणट्टेणं तं चेव जाव समजिया वि । एवं जाव थणियकुमारा । २९२७ For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२८ भगवती सूत्र-२० उ. १० पटक-पजिन नो-पटक-समजित कठिन शब्दार्थ-छक्कसमज्जिया-पटक-सपजित-छह का समुदाय रूप । भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक षटक-समजित हैं, नो-पटकसमजित है, षट्क और नो-षट्क-समजित हैं, अनेक षट्क-समजित है, अथवा अनेक षटक-तजित और एक नो-षटक-समजित है ? १४ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक जीव षट्क-समजित भी हैं, नो-षट्कसमजित भी हैं, एक षट्क और एक नो-षटक-समजित भी हैं, अनेक षट्कसमजित भी हैं और अनेक षटक-समजित और एक नो-षट्क-सजित भी हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया ? उत्तर-हे गौतम ! जो नैरयिक एक समय में, एक साथ छह की संख्या से प्रवेश करते हैं, ने नैरयिक 'षट्क-समजित' कहलाते हैं। जो नैरयिक जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट पांच संख्या में प्रवेश करते हैं, वे 'नोषट्क-समजित' कहलाते हैं । जो नैरयिक एक षट्क संख्या से और अन्य जघन्य एक, दो या तीन तथा उत्कृष्ट पांच की संख्या में प्रवेश करते हैं, वे 'षटक और नो-षटक-सजित' कहलाते हैं । जो नैरयिक अनेक षट्क संख्या में प्रवेश करते हैं, वे नैरयिक ‘अनेक षट्क-समजित' कहलाते हैं। जो नरयिक अनेक षट्क तथा जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट पांच संख्या में प्रवेश करते हैं, वे नैरयिक 'अनेक षट्क और एक नो-षटक-सजित' कहलाते हैं । इसलिये हे गौतम ! इस प्रकार कहा गया है कि यावत् अनेक षट्क और एक नो-षट्कसजित भी होते हैं । इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यंत । १४ प्रश्न-पुढविक्काइयाणं-पुच्छा । १५ उत्तर-गोयमा ! पुढविकाइया णो छकसमज्जिया १ णो णोक्कसमज्जिया २, णो छक्केण य णोछक्केण य समज्जिया ३, छक्केहिं समज्जिया ४, छक्केहि य णोक्केण य समज्जिया वि ५। For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २० उ. १० पटक समजित तो पट्क समजत २९२९ प्रश्न - सेकेण्डेणं जाव 'समजिया वि' ? उत्तर - गोयमा ! जेणं पुढविकाइया गेहिं छक्कएहिं पवेसणगं पविसंति ते णं पुढविकाइया छक्केहिं समज्जिया । जेणं पुढविकाइया गेहिं छकएहि य अण्णेण य जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं पंचरणं पवेसणएणं पविसंति ते णं पुढविकाइया छक्केहि य णोछक्केण य समज्जिया, से तेण्डेणं जाव 'समज्जिया वि' | एवं जाव वणस्सइकाइया । वेंदिया जाव वेमाणिया, सिद्धा जहा णेरड्या | भावार्थ - १५ प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव पट्क - समजित हैं, इत्यादि प्रश्न | १५ उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक षट्क समजत नहीं, नो-षट्कसमजत नहीं और एक षट्क और एक नो-षट्क समजत भी नहीं हैं । किन्तु अनेक षट्क - समजत हैं तथा अनेक षट्क और एक नो- षट्क-समजित भी हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया कि यावत् समजित भी हैं ? उत्तर - हे गौतम! जो पृथ्वीकायिक जीव अनेक षट्क से प्रवेश करते हैं, वे अनेक षट्क समजत हैं । जो पृथ्वीकायिक अनेक षट्क से तथा जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट पांच संख्या से प्रवेश करते हैं, वे अनेक षट्क और एक नो-षट्क समजित कहलाते हैं । इसलिये हे गौतम! वे यावत् समजित हैं। इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक जानना चाहिये। बेइन्द्रिय से ले कर यावत् वैमानिक तक । सिद्धों का कथन नैरयिक के समान है । . १६ प्रश्न - एएसि णं भंते ! णेरइयाणं छकसमज्जियाणं, For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३० भगवती मूत्र-श. २० उ. १० षट्क-समजित नो-षट्क-समजित णोछक्कसमजियाणं, छक्केण य णोछक्केण य समजियाणं, छक्केहि य समजियाणं, छक्केहि य णोछक्केण य समजियाणं कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा ? १६ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा णेरइया छक्कसमज्जिया, णोछक्कसमज्जिया संखेज्जगुणा, छक्केण य णोछक्केण य समजिया संखेजगुणा, छक्केहि य समजिया असंखेज्जगुणा, छक्केहि य णोछक्केण य समज्जिया संखेज्जगुणा । एवं जाव थणियकुमारा । __ १७ प्रश्न-एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं छक्केहिं समज्जियाणं, छक्केहि य णोछक्केण य समज्जियाणं कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा ? १७ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा पुढविकाइया छक्केहिं समजिया, छक्केहि य णोछक्केण य समजिया संखेजगुणा । एवं जाव वण्णस्सइकाइयाणं । वेइंदियाणं जाव वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं । भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! १-षट्क-समजित, २-नो-षट्क-समजित ३-एक षट्क और नो-षटक-समजित, ४-अनेक षट्क-समजित, ५-अनेक षट्क और नो-षट्क-सजित नरयिकों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक है ? १६ उत्तर-हे गौतम ! १-एक षटक-समजित नैरयिक सब से कम है। २-नो-षटक-समजित नैरयिक उनसे संख्यात गुण हैं । ३-एक षट्क और नोषटक-समजित नैरयिक उनसे संख्यात गुण हैं। ४-अनेक षट्क-समजित नैरयिक उनसे असंख्यात गुण हैं। ५-अनेक षट्क और नो-पटक समजित नैरयिक उनसे संख्यात गुण है । इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक । For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २० उ. १० पटक-समजित नो-पटक-समजित २९३१ १७ प्रश्न-हे भगवन् ! अनेक षटक-सजित और अनेक षट्क तथा नो-षट्क-समजित पृथ्वीकायिकों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? १७ उत्तर-हे गौतम ! अनेक षट्क-समजित पृथ्वीकायिक सब से कम हैं । अनेक षट्क और नो-षट्क-समजित पृथ्वीकायिक उनसे संख्यात गुण है । इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक । बेइन्द्रिय से ले कर वैमानिक तक का कथन नैरयिकों की भांति जानना चाहिए। १८ प्रश्न-एएसिणं भंते ! सिद्धाणं छक्कसमज्जियाणं णोड़कसमज्जियाणं जाव छक्केहि य णोछक्केण य समज्जियाण य कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा ? १८ उत्तर-गोयमा ! सम्वत्थोवा सिद्धा छक्केहि य णोछक्केण य समज्जिया, छक्केहि समज्जिया संखेज्जगुणा, छक्केण य णो. छक्केण य समजिया संखेजगुणा, छक्कसमजिया संखेजगुणा, णोछक्कसमजिया संखेजगुणा । भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! षटक-समजित नो-षटक-समजित यावत् अनेक षटक और नो-षट्क-समजित सिद्धों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? १८ उत्तर-हे गौतम ! अनेक षटक और नो-षट्क-समजित सिद्ध सब से कम है । उनसे अनेक षट्क-समजित सिद्ध संख्यात गुण हैं। उनसे एक षट्क और नो-षटक-समजित सिद्ध संख्यात गुण हैं । उनसे षटक-समजित सिद्ध संख्यात गुण हैं और उनसे नो-षट्क-समजित सिद्ध संख्यात गुण हैं। विवेचन-जो एक साथ, एक समय में छह उत्पन्न हुए हों, उन्हें 'षट्क-सजित' कहते हैं । जो एक साथ, एक समय में एक, दो, तीन, चार या पांच उत्पन्न हुए हों, वे For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३२ भगवती सूत्र-श. २० उ. १० द्वादश-समजित 'नो-षट्क-समजित' कहलाते हैं । जो एक समय में एक साथ एकादि अधिक छह उत्पन्न . हुए हों, अर्थात् सात, आठ, नौ, दस और ग्यारह तक उत्पन्न हुए हो, वे 'षट्क, नो षट्कसमजित' कहलाते हैं एक समय में जो छह-छह के समुदाय रूप से अनेक उत्पन्न हुए हों, वे 'अनेक षट्क-समजित' कहलाते हैं । जो एक समय में अनेक षट्क समुदाय रूप से और एकादि अधिक रूप से उत्पन्न हुए हों, वे 'अनेक षट्क और एक नो-षट्क-समनित' कहलाते हैं। नैरयिक जीवों में ये पांचों भंग पाये जाते हैं, क्योंकि नैरयिकों में एक समय में एक से ले कर असंख्यात तक उत्पन्न होते हैं । असंख्यातों में भी ज्ञानियों के ज्ञान से षट्क आदि की व्यवस्था बन जाती है। एकेन्द्रियों में एक समय में असंख्यात उत्पन्न होते हैं, इसलिये उनमें अनेक पटक'समजित तथा अनेक षट्क और एक नो-षट्क-समर्जित ये दो विकल्प ही पाये जाते हैं। षट्क-समजित आदि का जो अल्प-बहुत्व बतलाया गया है, वह स्थान के अल्पबाहुल्य की अपेक्षा समझना चाहिये , अथवा वस्तु-स्वभाव ही ऐसा है-समझना चाहिये । द्वादश-समार्जत १९ प्रश्न-णेरड्या णं भंते ! किं बारससमजिया १, णोबारस. समजिया २, बारसरण य णोबारसरण य समजिया ३, बारस एहिं समजिया ४, बारसएहि य णोबारसरण य समजिया ५ ? - १९ उत्तर-गोयमा ! गेरइया वारससमजिया वि जाव बारसएहि य णोबारसरण य समन्जिया वि । प्रश्न-से केणटेणं जाव 'समजिया वि' ? .. उत्तर-गोयमा ! जेणं णेरड्या बारसरणं पवेसणएणं पविसंति ते णं णेरड्या वारससमजिया १ । जे णं परइया जहण्णेणं एक्केण For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २० उ. ५० द्वादन समर्जिन वादोहिं वा तीहिं वा उक्कोमेणं, एक्कारसरणं पवेसणएणं पविसंति ते णं णेरइया गोबारससमज्जिया २ । जे णं णेरड्या वारस एणं अण्णेण य जहणेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं एकारणं पवेसणणं पविसंति ते णं णेरइया बारसएण य गोवारसपण य समज्जिया ३ । जे णं णेरइया णेगेहिं वारस हिं पवेसण गं पविसंति ते णं णेरड्या वारसएहिं समज्जिया ४ । जे गं २०३३ या गेहिं वारस एहिं अण्णेण य जहणेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा कोणं एकारसरणं पवेसणएणं पविसंति ते गं रइया चारसहि यणोचारसरण य समजिया ५ । से तेणट्टेणं जाव समज्जिया वि । एवं जाव धणियकुमारा । कठिन शब्दार्थ - बारससमज्जिया - द्वादश समजत । भावार्थ- १९ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीव द्वादश- समजित हैं, या नो- द्वादश समजत हैं, या द्वादश, नो-द्वादश- समजत हैं, या अनेक द्वादश समजत हैं, या अनेक द्वादश और नो- द्वादश समजित हैं ? १९ उत्तर - हे गौतम ! नैरयिक द्वादश- समजित भी हैं, यावत् अनेक द्वादश और नो-द्वादश- समजत भी हैं। प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण ऐसा कहा गया कि नैरयिक यावत् अनेक द्वादश और नो-द्वादश- समजत भी हैं ? उत्तर - हे गौतम! जो नेरयिक एक समय में बारह की संख्या में प्रवेश करते हैं, वे द्वादश समजत हैं। जो नैरयिक जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट ग्यारह तक प्रवेश करते हैं, वे नो-द्वादश- समजत हैं । जो नैरयिक एक समय में बारह और जघन्य एक, दो, तीन तथा उत्कृष्ट ग्यारह तक प्रवेश करते हैं, For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३४ भगवती सूत्र-श. २० उ. १० द्वादश-समज्जित वे द्वादश, नो-द्वादश-समजित हैं। जो नरयिक एक समय में अनेक बारह-बारह की संख्या में प्रवेश करते है, वे अनेक द्वादश-समजित हैं। जो नरयिक एक समय में अनेक बारह-बारह की संख्या में तथा जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट ग्यारह तक प्रवेश करते हैं, वे अनेक द्वादश, नो-द्वादश-समर्जित हैं। इस कारण हे गौतम ! यावत् वे अनेक द्वादश, नो-द्वादश-समजित कहलाते हैं। इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यंत । २० प्रश्न-पुढविकाझ्याणं-पुच्छा। '२० उत्तर-गोयमा ! पुढविकाइया णो बारससमजिया १, णो णोवारससमजिया २ णो वारसरण य णोवारसरण य समजिया ३, वारसएहिं समजिया ४, बारसएहि य णोबारसएण य समजिया वि ५। प्रश्न-से केणटेणं जाव 'समज्जिया वि' ? उत्तर-गोयमा ! जे णं पुढविकाइया णेगेहिं बारसएहिं पवेसणगं पविसंति ते णं पुढविकाइया बारसएहिं समज्जिया। जे णं पुढविक्काइया णेगेहिं बारसरहिं अण्णेण य जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं एकारसरणं पवेसणएणं पविसंति ते णं पुढविकाइया वारसएहिं य णोबारसएण य समज्जिया, से तेणटेणं जाव 'समज्जिया वि' । एवं जाव वणस्सइकाइया। वेइंदिया जाव सिद्धा जहा णेरइया । २१ प्रश्न-एएसि णं भंते ! गैरइयाणं बारससमज्जियाणं० For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ग. २० उ. १० द्वादश समजित सव्वेमिं अप्पावहुगं जहा छक्कसमज्जियाणं, णवरं वारसाभिलावो, सेसं तं चेव । भावार्थ - २० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक द्वादश- समजत हैं, इत्यादि प्रश्न | २६३५ २० उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक द्वादश समजत नहीं हैं, नो-द्वादशसमजत नहीं हैं। द्वादश, नो- द्वादश- समजित भी नहीं है । परन्तु अनेक द्वादशसमजत और अनेक द्वादश नो-द्वादश- समजत हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि यावत् समजित हैं ? उत्तर - हे गौतम ! जो पृथ्वीकायिक अनेक द्वादश प्रवेश करते हैं, वे अनेक द्वादश- समजत हैं । जो पृथ्वीकायिक अनेक द्वादश तथा अन्य जघन्य एक, दो, तीन उत्कृष्ट ग्यारह प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे अनेक द्वादशसमजत और एक नो- द्वादश समजत हैं । इस कारण हे गौतम ! यावत् समजत हैं- ऐसा कहा गया है। इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक । बेइन्द्रियों से ले कर वैमानिक तक तथा सिद्धों का कथन नैरयिकों के समान है । २१ प्रश्न - हे भगवन् ! द्वादश समजत यावत् अनेक द्वादश, नो-द्वादशसमजत नैरयिकों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं । २१ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार षट्क समजत का अल्प - बहुत्व कहा, उसी प्रकार द्वादश- समजित का भी अल्प - बहुत्व भी कहना चाहिये । विशेष यह है कि षट्क के स्थान में 'द्वादश' ऐसा अभिलाप कहना चाहिये । शेष पूर्ववत् । विवेचन - बारह - बारह के समुदाय रूप से एक साथ, एक समय में उत्पन्न हों, उन्हें 'द्वादश- समर्जित' कहते हैं । एक से ले कर ग्यारह तक जो उत्पन्न हों, उन्हे 'नो द्वादशसमजत' कहते हैं । शेष कथन षट्क समजत के समान समझना चाहिये । इनका अल्पबहुत्व भी षट्क समजत है । For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २० उ. १० चौरासी-समर्जित चौरासी-समार्जित २२ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! किं चुलसीइसमजिया १, णो. चुलसीइसमजिया २, चुलसीईए य णोचुलसीईए य समजिया ३, चुलसीईहिं समजिया ४, चुलसीईहि य णोचुलसीईए य समजिया ५। २२ उत्तर-गोयमा ! णेरड्या चुलसीइसमजिया वि जाव चुल. सीईहि य णोचुलसीईए य समजिया वि । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव 'समजिया वि' ? उत्तर-गोयमा ! जे णं णेरड्यो चुलसीईएणं पवेसणएणं पवि. संति ते णं णेरइया चुलसीइसमजिया १ । जे जेरइया जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं तेसीइपंवेसणएणं पविसंति ते णं णेरइया णोचुलसीइसमजिया २ । जे णं णेरड्या चुलसीईए णं अण्णेण य जहण्णेणं एवकेण वा दोहिं वा तीहिं वा जाव उक्को. सेणं तेसीईएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं णेरइया चुलसीईए य णोचुलसीईए य समजिया ३ । जे णं जरइया णेगेहिं चुल. सीईएहिं पवेसणगं पविसंति ते णं णेरड्या चुलसीईएहिं सजिया ४। जे णं णेरइया णेगेहिं चुलसीईएहि य अण्णेण य जहण्णेणं एक्केण वा जाव उक्कोसेणं तेसीईएणं जाव पविसति ते णं गैरइया चुलसीईहि य णोचुलसीईए य समजिया ५, से तेणटेणं जाव ‘सम For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. २० ३.१० चौरासी-मजित जिया वि' । एवं जाव थणियकुमारा । पुढविक्काइया तहेव पच्छिल्ल. एहिं, णवरं अभिलावो चुलसीईओ, एवं जाव वणस्मइकाइया । दिया जाव वेमाणिया जहा णेरड्या । कठिन शब्दार्थ-चुलसीइसमज्जिया-चतुरशीति (चौरासी) समजित । भावार्थ-२२ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक चौरासी-समजित हैं या नोचौरासी-सजित हैं, या चौरासी-समजित और नो-चौरासी-समजित है, या अनेक चौरासी-प्समजित हैं, या अनेक चौरासी-समजित और नो-चौरासीसमजित हैं ? २२ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक चौरासी-सजित भी हैं और यावत् अनेक चौरासी-समर्जित और नो-चौरासी-समजित भी हैं । . प्रश्न-हे भगवन् ! उपरोक्त कथन का क्या कारण है ? उत्तर-हे गौतम ! जो नैरयिक एक साथ, एक समय में चौरासी प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे चौरासी-समजित हैं। जो नैरयिक जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट तिरयासी प्रवेश करते हैं, वे नो-चौरासी-समजित हैं। जो नरयिक एक साथ, एक समय में चौरासी और अन्य जघन्य एक, दो, तीन यावत् उत्कृष्ट तिरयासी प्रवेश करते हैं, वे चौरासी-सजित और नो-चौरासीसमजित हैं । जो नरयिक एक साथ, एक समय में अनेक चौरासी प्रवेश करते हैं, वे अनेक चौरासी-सजित हैं। जो नैरयिक एक साथ, एक समय में अनेक चौरासी और अन्य जघन्य एक, दो, तीन यावत् उत्कृष्ट तिरयासी प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे अनेक चौरासी-समजित और नो-चौरासी-सजित हैं। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि यांवत् सजित भी है । इस प्रकार यावत् स्तनिकुमार पर्यन्त । पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में अनेक चौरासीसमजित तथा अनेक चौरासी और नो चौरासी-समजित-ये पिछले दो भंग जानना चाहिये । इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक जानना For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३८ . भगवती सूत्र-श. २० उ. १० चौरासी-समजित चाहिये । बेइन्द्रियों से ले कर वैमानिक तक नरयिकों के समान । २३ प्रश्न-सिद्धाणं-पुच्छा। २३ उत्तर-गोयमा ! सिद्धा चुलसीइसमजिया वि १, णोचुलसीइसमजिया वि २, चुलसीईए य णोचुलसीईए य समजिया वि ३, णो चुलसीईहिं समजिया ४, णोचुलसीईहि य णोचुलसीईए य समजिया ५। प्रश्न-से केणटेणं जाव 'समजिया'। उत्तर-गोयमा ! जे णं सिद्धा चुलसीईएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा चुलसीइसमजिया । जे णं सिद्धा जहण्णेणं एक्केण वा दोहि वा तीहिं वा उक्कोसेणं तेसीइएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा णोचुलसीइसमजिया । जे णं सिद्धा चुलसीइएणं अण्णेण य जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा उपकोसेणं तेसीइएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा चुलसीईए य णोचुलसीईए य समजिया । से तेणटेणं जाव 'समजिया'। २४ प्रश्न-एएसि णं भंते ! णेरइयाणं चुलसीइसमजियाणं णोचुलसीइसमजियाण० ? ___ २४ उत्तर-सव्वेसि अप्पाबहुगं जहा छक्कसमजियाणं जाव वेमाणियाणं, णवरं अभिलावो चुलसीईओ। For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २० उ. १० चौरासी-समजित २९३९ २५ प्रश्न-एएसि णं भंते ! मिद्धाणं चुलमीइसमजियाणं, णोचुलसीइसमजियाणं, चुलसीईए य णोचुलसीईए य समजियाणं कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा ? । __२५ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा सिद्धा चुलसीईए य णोचुलसीईए य समजिया, चुलसीईसमजिया अणंतगुणा, णोचुलसीइ. समजिया अणंतगुणा। ॐ 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति जाव विहरइ ॐ ॥ वीसइमे सए दसमो उद्देसो समत्तो ॥ ॥ वीसइमं सयं समत्तं ॥ भावार्थ-२३ प्रश्न-हे भगवन् ! सिद्ध चौरासी-समजित हैं, इत्यादि प्रश्न । २३ उत्तर-हे गौतम ! सिद्ध चौरासी-समजित भी हैं, नो-चौरासी. सजित भी हैं, चौरासी-समजित और नो-चौरासी-समजित भी हैं, किन्तु अनेक चौरासी-समजित नहीं हैं तथा अनेक चौरासी-समजित और नो-चौरासीसमजित भी नहीं हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! उपरोक्त कथन का कारण क्या है ? उत्तर-हे गौतम ! जो सिद्ध एक साथ, एक समय में चौरासी संख्या में प्रवेश करते हैं, वे चौरासी-समजित हैं। जो सिद्ध जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट तिरयासी संख्या में प्रवेश करते हैं, वे नो चौरासी-समजित हैं । जो सिद्ध एक समय में, एक साथ चौरासी और जघन्य एक, दो तीन और उत्कृष्ट तिरयासी तक प्रवेश करते हैं, वे चौरासी-समजित और नो-चौरासी For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४० भगवती मूत्र-श. २० उ. १० चौरासी-समर्जित समजित हैं। इस कारण हे गौतम ! यावत् पूर्वोक्त प्रकार से कहा गया है। २४ प्रश्न-हे भगवन् ! चौरासी-समजित आदि नरयिकों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक है ? २४ उत्तर-हे गौतम ! चौरासी-सजित, नो-चौरासी-समजित इत्यादि नैरयिकों का अल्प-बहुत्व षट्क-समजित के समान है । इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यंत । विशेष यह है कि यहां षट्क के स्थान में 'चौरासी' समझना चाहिये। २५ प्रश्न-हे भगवन् ! चौरासी-समजित, नो-चौरासी-समजित और चौरासी, नो चौरासी-समजित सिद्धों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? . २५ उत्तर-हे गौतम ! चौरासी, नो-चौरासी-समजित सिद्ध सब से थोड़े हैं । उनसे चौरासी-समजित सिद्ध अनन्त गुण हैं। उनसे नो-चौरासी-समजित सिद्ध अनन्त गुण है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैंकह कर गौतम स्वामी यावत विचरते हैं। विवेचन-एक समय में, एक साथ चौरासी संख्या का समुदाय रूप उत्पन्न हो, उसे 'चौरासी-समर्जित' कहते हैं । एक से ले कर तिरयासी तक उत्पन्न हों, उनको 'नो-चौरासीसमजित' कहते हैं । इसी प्रकार आगे के शब्दों का भी अर्थ है। शेष सब सुगम है। सिद्धों में चौरासी-समजित के तीन भंग कहे हैं। उनमें से तीसरे मंग में (चौरासी, नो-चौरासी-समजित में) यहां 'नो-चौरासी' में एक से ले कर चौवीस तक ही लेने चाहिये । चौरासी में चौबीस संख्या को जोड़ने से १०८ हो जाते हैं । एक समय में १०८ से अधिक सिद्ध नहीं होते, इसलिये यहां सिद्धों के विषय में चौरासी के साथ 'नो-चौरासी' में उत्कृष्ट संख्या तिरयासी तक न ले कर चौवीस तक ही लेनी चाहिये । ॥ बीसवें शतक का दसवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ । बीसवाँ शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २१ सालि कल अयसि वंसे, इक्खू दन्भे य अब्भ तुलसी य । अट्ठए दस वग्गा, असीई पुण होंति उद्देसा॥ भावार्थ-इस शतक में आठ वर्ग इस प्रकार हैं-शालि आदि धान्य के विषय में, दस उद्देशात्मक प्रथम वर्ग है । कलाय (मटर) आदि धान्य के विषय में दूसरा वर्ग है । अलसी आदि धान्य के विषय में तीसरा वर्ग है। बांस आदि पर्व वाली वनस्पति के लिये चौथा वर्ग है। इक्षु आदि पर्व वाली वनस्पति से सम्बन्धित पांचवां वर्ग है । दर्भ (डाभ) आदि तृण के विषय में छठा वर्ग है। अभ्र आदि वनस्पति का प्रतिपादक सातवां वर्ग है और तुलसी आदि वनस्पति का प्रतिपादक आठवां वर्ग है । इस प्रकार इक्कीसवें शतक में आठ वर्ग हैं। प्रत्येक वर्ग में दस उद्देशक हैं । इस प्रकार इस शतक में कुल अस्सी उद्देशक हैं। For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २१ वर्ग १ उद्देशक १ शाली आदि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-अह भंते ! साली-वीहीगोधूम० जाव जवजवाणं, एएसि णं भंते ! जीवा मूलत्ताए वकमंति? ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववज्जंति-किं णेरइएहितो. जाव उववज्जति तिरि०, मणु०, देवे ? १ उत्तर-जहा वाकंतीए तहेव उववाओ, णवरं देववज्ज । २ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जंति ? २ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा उववजंति । अवहारो जहा उप्पलुद्देसे । ३ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरौशेगाहणा पण्णता ? ३ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजहभाग, उपको. सेणं धणुहपुहुत्तं । कठिन शब्दार्थ-बोही-ब्रीही-साधारण शालि । भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ भगवती सूत्र-श. २१ वर्ग १ उ. १ गाली आदि के मूल की उत्पत्ति .. २९४३ पूछा-'हे भगवन् ! शालि, ब्रोहि, गेहूं यावत् जवजव, इन सब धान्यों के मूल : में जो उत्पन्न होते हैं, वे कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं ? क्या नैरयिक, - तियंञ्च, मनुष्य या देवों से आ कर उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद के अनुसार . इनका उपपात जानना चाहिए । विशेषता यह है कि देवगति से आ कर मूल• पने उत्पन्न नहीं होते, २ प्रश्न-है भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? . २ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। उनका अपहार ग्यारहवें शतक के प्रथम उत्पलोद्देशक के अनुसार है। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! उन जीवों के शरीर को अवगाहना कितनी बड़ी होती है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट धनुष पृथक्त्व (दो से नौ धनुष तक) की कही गई है। - ४ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधगा, अबंधगा ? ४ उत्तर-जहा उप्पलुद्देसे, एवं वेए वि, उदए वि, उदीरणाए वि। ५ प्रश्न ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेस्सा, णील० काउ० ? . ५ उत्तर-छव्वीसं भंगा, दिट्ठी जाव इंदिया जहा उप्पलुद्देसे । भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! ये जीव ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धक हैं, या अबन्धक हैं ? .. ४ उत्तर-हे गौतम ! ग्यारहवें शतक के प्रथम उत्पलोद्देशक के अनु For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४४ भगवती मूत्र-श. २१ वर्ग १ उ. १ शालि आदि के मूल की उत्पत्ति सार । इसी प्रकार कर्मों की वेदना, उदय और उदीरणा के विषय में भी जानना चाहिये। ___ ५ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव कृष्ण-लेशी, नील-लेशी, या कापोत-लेशी होते हैं ? ___५ उत्तर-हे गौतम ! यहाँ तीन लेश्या सम्बन्धी छब्बीस भंग कहने चाहिये । दृष्टि यावत् इन्द्रियों के विषय में उत्पलोद्देशक के अनुसार है । ६ प्रश्न-ते णं भंते ! साली-वीही-गोधूम० जाव जवजवगमूलगजीवे कालओ केवचिरं होइ ? ६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्त, उक्कोसेणं असंखेनं कालं। __ ७ प्रश्न-से णं भंते ! साली-वीही-गोधूम० जाव जवजवगमूलगजीवे पुढवीजीवे, पुणरवि साली-वीही-जाव जवजवगमूलगजीवे केवइयं कालं सेवेजा, केवइयं कालं गइरागई करिजा ? ७ उत्तर-एवं जहा उप्पलुद्देसे। एएणं अभिलावेणं जाव मणुस्सजीवे, आहारो जहा उप्पलुद्देसे, ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वोलपहुत्तं, समुग्घाय (या), समोहया, उव्वट्टणा य जहा उप्पलुद्देसे । ८ प्रश्न-अह भंते ! सव्वपाणा जाव सव्वसत्ता साली-वीहीजाव जवजवगमूलगजीवत्ताए उववण्णपुव्वा ? .. ८ उत्तर-हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो। For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. २१ वर्ग १ उ. १ गालि आदि के मूल को उत्पत्ति २९४५ - - - 8 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति ॐ ॥ एगवीसइमे सए पढमवग्गस्स पढमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! शालि, ब्रीहि, गोधूम यावत् जवजव, इन सब धान्यों के मूल का जीव कितने काल तक रहता है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक रहता है। ७प्रश्न-हे भगवन् ! शालि, ब्रीहि, गोधूम यावत् जवजव, इन सभी के मल का जीव यदि पृथ्वोकायिक जीवों में उत्पन्न हो और फिर पीछा शालि, ब्रोहि यावत् जवजन के मलपने उत्पन्न हो, तो इस प्रकार कितने काल तक सेवन (गमनागमन) करता रहता है ? . ७ उत्तर-हे गौतम ! ग्यारहवें शतक के पहले उत्पलोद्देशक के अनुसार जानना चाहिये। इस अभिलाप से यावत् मनुष्यों तक कहना चाहिये । उनके आहार का कथन भी उत्पलोद्देशक के समान ही, स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वर्ष-पृथक्त्व (दो वर्ष से नौ वर्ष तक)। समुद्घात समवहत (समुद्घात को प्राप्ति) और उद्वर्तना उत्पलोद्देशक के समान है। . ८ प्रश्न-हे भगवन् ! सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, शाली, ब्रीहि यावत् जवजव के मूल के जीवपने पहले उत्पन्न हो चुके हैं ? ८ उत्तर-हां, गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है' - कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-पहले वर्ग में दस उद्देशक हैं। उनकी संग्रह गाथा इस प्रकार है । मूले कंदे खंधे तया य साले पवाल-पत्ते य । पुप्फे फल बीए विय इक्केको होइ उद्देसो । अर्थात् पहले वर्ग में, दस उद्देशक हैं । यथा-१ मूल, २ कन्द, ३ स्कन्ध, ४ त्वचा, ५ शाखा, ६ प्रवाल (कोमल पत्र), ६ पत्र, ८ पुष्प, ९ फल और १० बीज । ये दस उद्देशक हैं । आगे के सात वर्गों में भी प्रत्येक वर्ग में ये दस-दस उद्देशक हैं For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४६ भगवती सूत्र-श. २१ वर्ग १ उ. १ गालि आदि के मूल की उत्पत्ति शाल्यादि के मूल में उत्पन्न होने वाले जीव की उत्पत्ति के लिये प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद का अतिदेश किया गया है । वहां वनस्पति में देवों की उत्पत्ति बतलाई गई है । इसका आशय यह है कि देव वनस्पति के पुष्प आदि शुभ अंगों में उत्पन्न होते हैं। परन्तु मूल आदि अशुभ अंगों में उत्पन्न नहीं होते। इसीलिये मूल पाठ में कहा है कि‘णवरं देव वज्ज' (देव गति से आ कर मूल आदि में उत्पन्न नहीं होते)। __यद्यपि सामान्यतया वनस्पति में प्रति समय अनन्त उत्पन्न होते हैं, तथापि यहाँ शालि आदि प्रत्येक शरीरी वनस्पति होने से इनमें एक, दो आदि की उत्पत्ति का कथन विरुद्ध नहीं है। उन शालि आदि के जीवों को प्रति समय एक-एक निकाला जाय, तो असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी बीत जाने पर भी वे पूरी तरह नहीं निकाले जा सकते (क्योंकि ऐसा किमी ने किया नहीं और कर भी नहीं सकता)। शालि आदि के जीव ज्ञानावरणीयादि कर्मों के अबन्धक नहीं है, बन्धक हैं। कभी उनमें एक जीव हो, तो वह एक जीव ज्ञानावरणीय आदि का बन्धक होता है और कदाचित् बहुत जीव हों, तो बहुत जीव बन्धक होते हैं, इत्यादि। कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या, कापोत-लेश्या, इन तीन लेश्या के एकवचन और बहुवचन सम्बन्धी असंयोगी तीन-तीन भंग होने से छह भंग होते हैं । कृष्ण-नील, कृष्ण-कापोत और नील-कापोत ये द्विक संयोगी तीन विकल्प होते हैं । इन प्रत्येक के एक वचन और बहुवचन सम्बन्धी चार-चार भंग होने से बारह भंग होते हैं । त्रिक संयोगी एक वचन और बहुवचन सम्बन्धी आठ भंग होते हैं । इस प्रकार ये कुल मिला कर छब्बीस भंग होते हैं। जघन्य दो भव और उत्कृष्ट असंख्यात भव तक गमनागमन की स्थिति है। शाल्यादि जीवों के वेदना, कषाय और मरण-ये तीन समुद्घात होती हैं। ये समुद्घात कर के भी मरते हैं और समुद्घात किये बिना भी मरते हैं। मर कर ये मनुष्य और तिर्यच गति में जाते हैं, इत्यादि वर्णन ग्यारहवें शतक के प्रथम उद्देशक से जान लेना चाहिये । ॥ इक्कीसवें शतक के पहले वर्ग का पहला उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतक २९ वर्ग १ उद्देशक २-१० शालि आदि के कन्द की उत्पत्ति 12 १ प्रश्न - अह भंते ! साली वीही० जाव जवजवाणं एएसि‍ जे जीवा कंदत्ताए वक्कमंति ते णं भंते! जीवा कओहिंतो. उव वज्रंति ? १ उत्तर - एवं कंदा हिगारेण सच्चेव मूलद्देसो अपरिसेसो भाणि यव्वो, जाव असई अदुवा अनंतखुत्तो | 'सेवं भंते! सेवं भंते' ! ति । २१ - २ | एवं खंभे वि उद्देसओ यव्वो । २१-३ । एवं तयाए वि उसो भाणियव्वो । २१ - ४ । साले वि उद्देसो भाणियव्वो । २१ - ५ | पवाले वि उसो भाणियव्वो । २१- ६ । पत्ते वि उद्देसो भाणियव्वो । एए सत्त वि उद्देसगा अपरिसेसं जहा मूले तहा यव्वा । २१-७ । एवं पुष्फे वि उद्देसओ, णवरं देवा उववज्र्ज्जति जहा उप्पलुसे । चत्तारि लेस्साओ, असीइ भंगा। ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं अंगुलपुहुत्तं, सेसं तं चेव । ' सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । २१-८ । जहा पुष्फे एवं फले वि उद्देसओ अपरिसेसो भाणियव्वो । २१ - ९ । एवं बीए वि उद्देसओ । २१ - १० । एए दस उद्देसगा । || गवीसहमे सर पढमो वग्गो समत्तो ॥ For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४८ भगवती सूत्र-श २१ वर्ग १ उ. २ शालि आदि के कन्द की उत्पत्ति भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! शालि, ब्रीहि यावत् जवजव, इन सब के कन्द रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं ? । १ उत्तर-हे गौतम ! कन्द के विषय में पूर्वकथित मूल का समग्र उद्देशक यावत् 'अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुके हैं'-तक । विशेष यह है कि यहां 'मूल' के स्थान 'कन्द'-पाठ कहना चाहिये । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।' (२१-२) इसी प्रकार स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल (कोंपल) और पत्र के विषय में एक-एक उद्देशक मल के समान जानना चाहिए। (२१-७) ___ 'पुष्प' के विषय में भी इसी प्रकार एक उद्देशक कहना चाहिये । विशेषता यह है कि 'पुष्प' में देव उत्पन्न होते हैं। ग्यारहवें शतक के प्रथम उत्पलोद्देशक में, जिस प्रकार चार लेश्या और उनके अस्सी भंग कहे गये हैं, उसी प्रकार यहां भी कहने चाहिए । अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट अंगुल पृथक्त्व होती है । शेष सब पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।' (२१-८) इसी प्रकार 'फल' और 'बीज' के विषय में भी एक-एक उद्देशक कहना चाहिये । (२१-१०) ये दस उद्देशक हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।' विवेचन-कृष्ण, नील, कापोत और तेजो लेश्या के एक वचन और बहु वचन की अपेक्षा असंयोगी चार-चार भंग गिनने से आठ भंग होते हैं । द्विकसंयोगो छह विकला होते हैं, उनके एक वचन और बहु वचन से चार-चार भंग होने से चौवीस भंग होते हैं। त्रिकसंयोगी चार विकल्प होते हैं और एक-एक विकल्प के आठ-आठ भंग होने से बत्तीस भंग होते हैं । चतुःसंयोगी सोलह भंग होते हैं । ये कुल मिला कर अस्सी भंग होते हैं। मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल और पत्र, इन सात में देव उत्पन्न नहीं : होते । पुष्प, फल और बीज में देव उत्पन्न होते हैं । अतएव इन में चार लेश्याएं होती हैं । जिसके अस्सी भंग ऊपर बतलाये हैं । अवगाहना इस प्रकार है For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २१ वर्ग २ उ. ५-१० कलाय, मसूर आदि के मूल की उत्पत्ति २६४९ मले, कंदे, खंधे, तयाय साले पवाल पते य । सत्तसु वि धणुपुहृत्तं, अंगलिमो पुप्फफलबीए ।। अर्थात्-मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल और पत्र, इन सात में अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट धनुष पृथक्त्व है । पुष्प, फल और वीज, इन तीन की उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल पृथक्त्व है। ॥ इक्कीसवें शतक का पहला वर्ग सम्पूर्ण ॥ शतक २१ वर्ग २ उद्देशक १-१० कलाय, मसूर आदि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न-अह भंते ! कलाय-मसूर-तिल-मुग्ग-मास-णिप्फावकुलत्थ-अलिसंदग-सतिण-पलिमंथगाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ते णं भंते ! जीवा कोहिंतो उववजंति ? १ उत्तर-एवं मूलादीया दस उद्देसगा भाणियव्वा जहेव सालीणं गिरवसेसं तहेव । ॥ एगवीसइमे सए विइओ वग्गो समतो ॥ For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५० भगवती सूत्र-श. २१ वर्ग ३ उ. १-१० अलमी आदि के मूल की उत्पत्ति भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! कलाय (मटर) मसूर, तिल, मूंग, उड़द, निष्पाव (वल्ल नाम का धान्य), कुलथ, आलिसंदक, सतिन और पलिमंथक (चना) इन सब के मूल में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहां से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । मूलादि दस उद्देशक जो शालि के विषय में कहे हैं, वे यहां भी पूरे कहने चाहिये । ॥ इक्कीसवें शतक का दूसरा वर्ग सम्पूर्ण ।। - VARA- शतक २१ वर्ग ३ उद्देशक १-१० अलसी आदि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न-अह भंते ! अयसि-कुसुंभ-कोदव-कंगु-रालग-तुवरीकोदूसा-सण-सरिसव-मूलगवीयाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वकमंति ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववज्जति ? । १ उत्तर-एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा जहेव सालीणं णिरवसेसं तहेव भाणियव्वं । ॥ एगवीसइमे सए तड़ओ वग्गो समत्तो॥ For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २१ वर्ग ४ उ. १-१० वांस आदि के मल की उत्पत्ति २९५१ . कठिन शब्दार्थ-अय सि-अलमी । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! अलसी, कुसुम्ब, कोद्रव, कांग, राल, तूअर, कोदूसा, सण और सर्षप (सरसों) तया मूलक बोज, इन वनस्पति के मूल में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! यहां भी शालि उद्देशक के समान मूलादिक दस उद्देशक कहने चाहिये। ॥ इक्कीसवें शतक का तीसरा वर्ग सम्पूर्ण । शतक २१ वर्ग ४ उद्देशक १-१० बाँस आदि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न-अह भंते ! वंस-वेणु कणक ककावंस-चारवंस दंडा-कुडाविमा-चंडा-वेणुया-कल्लाणीणं एएसि गं जे जीवा मूलत्ताए वकमंति? १ उत्तर-एवं पत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा जहेव सालीणं, णवरं देवो सव्वत्थ वि ण उववजइ, तिणि लेसाओ, सव्वत्थ वि, छब्बीसं भंगा, सेसं तं चेव ।। ॥ एगवीसहमे सए चउत्थो वग्गो समत्तो॥ For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५२ भगवती मूत्र-ग. २१ वर्ग ५ उ. १-१० इक्षु आदि के मूल की उत्पत्ति भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! बाँस, वेणु, कनक, कविंश, चारुवंश, दण्डा, कुडा, बिमा, चण्डा, वेणुका और कल्याणी, इन सब वनस्पति के मल में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहां से आते हैं ? । १ उत्तर-हे गौतम ! यहां भी पूर्ववत् शालि-वर्ग के समान मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिये । विशेष में यहां किसी भी स्थान में देव उत्पन्न नहीं होते । अतः सर्वत्र तीन लेश्या और उनके छब्बीस भंग जानना चाहिये । शेष सब पूर्ववत् । ॥ इक्कीसवें शतक का चौथा वर्ग सम्पूर्ण ॥ शतक २१ वर्ग ५ उद्देशक १-१० इक्षु आदि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न-अह भंते ! उक्खु-इक्खुवाडिया-वीरणा इक्कड भमासमुंठि-सत्त-वेत्त-तिमिर-सयपोरग-णलाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति० ? १ उत्तर-एवं जहेव वंसवग्गो तहेव एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा, णवरं खंधुद्देसे देवो उववजह, चत्तारि लेस्साओ, सेसं तं चेव । ॥ एगवीसइमे सए पंचमो वग्गो समत्तो । For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. २१ वर्ग ६ उ. १-१० मेडिय आदि के मल की उत्पत्ति २९५३ कठिन शब्दार्थ --उल-इक्षु-गन्ना। . भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! इक्षु, इक्षु-वाटिका, वीरण, इक्कड़, भमास, संठ, शर, वेत्र (बँत), तिमिर, सतपोरग और नल, इन सब वनस्पतियों के मूल में, जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहां से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार चौथा वंश-वर्ग कहा, उसी प्रकार यहां भी मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिये । विशेष यह है कि स्कन्धोद्देशक में देव भी उत्पन्न होते है और उनके चार लेश्या होती हैं । शेष पूर्ववत् । ॥ इक्कीसवें शतक का पांचवां वर्ग सम्पूर्ण ॥ सतक २१ वर्ग उद्देशक १-१० सेडिय आदि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न-अह भंते ! सेडिय भंडिय-दब्भ-कोतिय दम्भकुस-+ धवगपोइद-ताल अज्जुण आसाढग-रोहिय-समु-अवखीर भुस-एरंड-कुरुकुंद + यहां प्रतियों में पाठ-भेद है। इसो विषय का पाठ प्रज्ञापना पद १ में इस प्रकार है 'संडिय-भंतिय-हो (कों) त्तिय, दन्भ-कुसे पन्वए य पोडइला । अज्जण-असाढए होहियंसे सुयवेय-खीरभुसे । एरंडे कुरुविदे करजर सुंठे सहा विभंगू य । . महुरत्तण छुरय सिप्पिय । बोद्धव्वे संकलितणे य।' For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२९५४ भगवती सूत्र-श. २१ वर्ग ७ उ. १-१० अभ्रम्ह आदि के मूल की उत्पत्ति करवर-वदसुंठ-विभंगु-महुरयण-थुरग-सिप्पिय सुंकलितणाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति० ? १ उत्तर-एवं एत्थ वि दस उद्देसगा णिरवसेसं जहेव वंसवग्गो। - ॥ एगवीसइमे सए छटो वग्गो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! सेडिय, भंतिय (भण्डिय), दर्भ, कौन्तिय, - दर्भकुश, पर्वक, पोदेइल (पौदिना) अर्जुन (अंजन) आषाढक, रोहितक, समू, अवखीर (तवखीर), भुस, एरंड, कुरुकुन्द, करवर, सुंठ, विभंगु, मधुरतृण थुरग, शिल्पिक और सुंकलितृण, इन सब वनस्पतियों के मूल में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहां से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! चौथे वंश-वर्ग के समान मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिये। ॥ इक्कीसवें शतक का छठा वर्ग सम्पूर्ण ॥ . AVAAMAAN शतक २१ वर्ग ७ उद्देशक १-१० अक्षरुह आदि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न-अह भंते ! अन्भरुह-चोयाण-हरितग-तंदुलेजग-तणवत्थुल-चोरग मजारयाई चिल्लि-यालक्क दगपिप्पलिय-दग्वि-सोत्थिय. For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २१ वर्ग ८ उ. १ - १० तुलसी आदि के मूल की उत्पत्ति २९५५ सायमंडुक्कि मूलग सरिसव अविलसाग-जियंतगाणं, एएसि णं जे मूल० जीवा 50 ? १ उत्तर - एवं एत्थ वि दस उद्देगा जहेव सवग्गो । || गवीसहमे स सत्तमो वग्गो समत्तो ॥ सए भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! अभ्ररुह, वायण, हरितक, तांदलजो, तृण, वत्थुल, पोरक, मार्जारक, बिल्लि ( चिल्लि ), पालक, दगपिप्पली, दर्जी, स्वस्तिक, शाकमण्डुकी, मूलक, सर्षप (सरसों), अंबिलशाक, जियतंक, इन सब वनस्पति के मूल 'में जो जीव उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न । १ उत्तर - हे गौतम! चौथे वंश-वर्ग के समान मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिये । विवेचन - एक वृक्ष में दूसरी जाति का वृक्ष उग जाता है, उसे 'अभ्र वृक्ष' कहते हैं। जैसे बड़ के वृक्ष में पोपल का वृक्ष उग जाता है, नीम के वृक्ष में पीपल का वृक्ष उग जाता है। ॥ इक्कीसवें शतक का सातवां वर्ग सम्पूर्ण ॥ शतक २९ वर्ग ८ उद्देशक ९-१० ➡rrivi i rr तुलसी आदि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न - अह भंते ! तुलसी- कण्ह-दल-फणेज्जा- अज्जा-चूयणा For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५६ भगवती सूत्र-ग. २१ वर्ग ८ उ. १-१० तुलसी आदि के मूल की उत्पत्ति चोरा-जीरा-दमणा-मरुया-इंदीवर-सयपुप्फाणं एएसि णं जे जीवा मूलताए वक्कमंति० ? १ उत्तर-एत्थ वि दस उद्देसगा गिरवसेस जहा वंसाणं । एवं एएसु अट्ठसु वग्गेसु असीइं उद्देसगा भवंति । ॥ एगवीसहमे सए अट्ठमो वग्गो समत्तो ॥ . ॥ एकवीसइमं सयं समत्तं ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! तुलसी, कृष्ण, दराल, फणेज्जा, अज्जा, चूयणा | चूतणा), चोरा, जीरा, दमणा, मरुया, इन्दीवर और शतपुष्प, इन सब वनस्पतियों के मूल में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहां से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! चौथे वंश-वर्ग के समान यहाँ भी मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिये । इस प्रकार ये सब मिला कर आठ वर्ग के अस्सी उद्देशक होते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-प्रथम वर्ग में जो विवेचन दिया गया है, तदनुसार सब का विवेचन समझना चाहिये । यहाँ जिन वनस्पतियों के नाम दिये गये हैं, वे सब प्रायः अप्रसिद्ध वनस्पतियाँ हैं। ॥ इक्कीसवें शतक का आठवां वर्ग सम्पूर्ण ॥ ॥ इक्कीसवाँ शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २२ ताले-गट्टिय-बहुबीयगा य, गुच्छा य गुम्म वल्ली य । छदस वग्गा एए, सट्ठि पुण होंति उद्देसा ॥ भावार्थ - इस शतक में छह वर्ग हैं। यथा-ताल, तमाल आदि वृक्षों के aur में दस उद्देशात्मक प्रथम वर्ग है। एक बीज वाले वृक्षों के विषय में दूसरा वर्ग है । बहुबीज फल वाले वृक्षों के सम्बन्ध में तीसरा वर्ग है । रींगंणी आदि गुच्छ वनस्पति के विषय में चौथा वर्ग है । सिरिय नवमालिका आदि गुल्म वनस्पति के विषय में पाँचवाँ वर्ग है । वल्लि आदि बेल के विषय में छठा वर्ग है । प्रत्येक वर्ग में दस-दस उद्देशक हैं। ये सब मिला कर ६० उद्देशक हैं । For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २२ वर्ग १ उद्देशक ५-१० ताल-तमालादि की उत्पत्ति १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-अह भंते ! ताल-तमालतकलि-तेतलि-साल सरला-सारगल्लाणं जाव केयइ-कदलि-कंदलि. चम्मरुक्ख गुंतरुकाव-हिंगुरुख-लवंगरुक्ख-पूयफल-खज्जूरि-णालिएरीणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वकमंति, ते णं भंते ! जीवा कओ. हिंतो उववजंति ? १ उत्तर-एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा कायव्वा जहेव सालीणं, णवरं इमं णाणत्तं-मूले कंदे खंदे तयाए साले य एएसु पंचसु उद्देसगेसु देवो ण उववज्जइ । तिण्णि लेसाओ। ठिई जहणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं दसवाससहस्साई । उवरिल्लेंसु. पंचसु उद्देसएसु देवो उववजइ । चत्तारि लेसाओ । ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्को. सेणं वासपहुत्तं । ओगाहणा मूले कंदे धणुहपहुत्तं, खंधे तयाए साले य गाउयपुहुत्तं, पवाले पत्ते धणुहपहुत्तं, पुप्फे हत्थपुहुत्तं, फले वीए य अंगुलपुंहत्तं । सम्बेमि जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं । सेसं For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २२ वर्ग १ उ. १-१० ताल-तमालादि की उत्पत्ति २९५९ जहा सालीणं । एवं एए दस उद्देसगा। ॥ बावीसइमे सए पढमो वग्गो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-राजगह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-'हे भगवन् ! ताल (ताड़), तमाल, तक्कली, तेतली, शाल, सरल (देव दारु), सारगल्ल, यावत् केतकी (केवड़ा), कदली (केला), कन्दली, चर्मवृक्ष, गुन्दवृक्ष, हिंगुवृक्ष, लवंगवृक्ष, पूगफल (सुपारी) का वृक्ष, खजूर और नारियल, इन सब के मूलपने जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आते हैं ? : १ उत्तर-हे गौतम ! शालिवर्ग के समान यहां भी मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिये । विशेष यह है कि इन वृक्षों के मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल) और शाखा, इन पांच उद्देशकों में देव आ कर उत्पन्न नहीं होते। इसलिये यहां तीन लेश्याएँ होती हैं। इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की होती है । शेष पांच उद्देशकों में देव उत्पन्न होते हैं। इसलिये उनमें चार लेश्याएं होती हैं। उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व होती है । अवगाहना मूल और कन्द को धनुष पृथक्त्व, स्कन्ध, त्वचा और शाखा की गव्यूति (दो कोश) पृथक्त्व होती है। प्रवाल और पत्र को अवगाहना धनुषपृथक्त्व होती है । पुष्प को हस्तपृथक्त्व, फल और बीज को अंगुलपृथक्त्व उत्कृष्ट अवगाहना होती है। इन सब की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग होती है। शेष सब शालिवर्ग के समान जानना चाहिये । इस प्रकार ये दस उद्देशक होते हैं । विवेचन-इन सब की व्याख्या शालि उद्देशक के समान है । विशेषता यह है पत्त पवाले पुप्फे, फले य बीए य होइ उववाओ। रुक्लेसु सुरगणाणं, पसत्थरस-वण्णगंधेसु ।। अर्थ-इनमें से उत्तम रस, वर्ण और गन्ध वाले वृक्षों के पत्र, प्रवाल, पुष्प, फल और बीज, इन पांच में देव आ कर उत्पन्न होते है। यहां अनेक वृक्षों के नाम बतलाये गये हैं। इनमें 'कदली' नाम भी आया है । For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६० भगवती मूत्र-ग. २२ वर्ग १ उ. १-१० ताल-तमालादि की उत्पत्ति 'कदली' का अर्थ है केले का वृक्ष । केले के भी मूल से ले कर बीज पर्यंत दस उद्देशक कहे गये हैं । इससे यह स्पष्ट है कि केले में बीज होते हैं। एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्नोत्तरों में उन जीवों का उपपात (जन्म), परिमाण, स्थिति, अवगाहना, लेश्या आदि का वर्णन किया गया है । अतः केले (कदली फल ) में बीज होते हैं और वे सचित्त हैं । यहां ताल वर्ग में वर्णित वनस्पतियों में फल और बीज की उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल पृथक्त्व बताई गई है। इसलिए यह भ्रम हो सकता है कि यहां पर उन्हीं वनस्पतियों का ग्रहण करना चाहिए कि जिनके फल एवं बीज की अवगाहना समान हो । कदली (केले) की स्थिति ऐसी नहीं होने से उसका यहां पर ग्रहण नहीं करना चाहिए । किन्तु गहराई से विचार करने पर यह भ्रम दूर हो सकता है। यहां पर वलय जाति की अनेक वनस्पतियों का ग्रहण हुआ है, उनमें खजूर पूगीफल (मुपारी) आदि कुछ वनस्पतियों में फल और बीज की अवगाहना समान है तो नारियल, कदला आदि अनेक वनस्पतियों में फल और बीज की अवगाहना समान नहीं है । सब वनस्पतियों की अलग-अलग अवगाहना बताना संभव न होने से आगमकार उस पूरे समूह की सर्व जघन्य एवं सर्व उत्कृष्ट अवगाहना बता देते हैं । फल और बीजों का जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग बताई है और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल पृथक्त्व । यद्यपि अनेक स्थानों पर पृथक्त्व का अर्थ दो मे नव तक किया जाता है, तथापि यहां पर आया हुआ 'पृथक्त्व' शब्द अनेकता । का द्योतक है, मात्र दो से नव अंगुल तक का ही नहीं। आवश्यकतानुसार इससे अधिक अंगुलों का भी इसमें ग्रहण समझना चाहिए । अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना उत्पत्ति के समय होता है । उसके बाद बढ़ते हुए किसी की अवगाहना अंगुल के संख्यातवें भाग आदि हो कर रह जाती है, वे अंगुल पृथक्त्व से अधिक तो होती ही नहीं । इसलिए वलय बनस्पति के सभी भेदों के फल और बीजों की अवगाहना अंगुल पृथक्त्व नहीं समझ कर किसी भेद की समझनी चाहिए। उस में भी प्रथम-द्वितीयादि सभी आरों का ग्रहण है। प्रथमादि आरों में वनस्पतियों की अवगाहना भी बड़ी होती है। स्कंधादि की गव्यूति - ___ + भगवती मूत्र के इस मूल पाठ से केले में भी बीज होना स्पष्ट प्रमाणित हो । रहा है केले के मध्य में जो काली रेखा दिखाई देती है, वह छोटे-छोटे बीजों की पंक्ति है। यह प्रत्यक्ष से भी सिद्ध है। केला पूरा हो, या खण्ड रूर टुकड़े, और भले ही उन टुकड़ों पर शक्कर डाल दो गई हो, बीज तो है हौ और ज्यों के त्यों सचित्त है। इसलिये साध-माध्वियों के लिए अकल्पनीय है। यही बात इस शतक के अंतिम वर्ग में वणित 'दाख' के विषय में भी लाग होती है। दाख भी बीज यक्त एवं सचित्त है-डोशी। For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २२ वर्ग १ उ. १ १० ताल-तमालादि की उत्पत्ति २९६१ ( कोरा ) पृथक्त्व को अवगाहना भी प्रथमादि आरों की अपेक्षा से ही संभव है । वैसे ही फल और बीज की भी उत्कृष्ट अवगाहना प्रथमादि आरा की अपेक्षा समझनी चाहिए तथा फल और वाज की अंगुल पृथक्त्व अवगाहन दोनों की अवगाहना एकांत समान भी नहीं समझनी चाहिए | क्योंकि दो अंगुल को भी अंगुल पृथक्त्व कहते हैं और अनेक अंगुलों को भी अंगुल पृथक्त्व कहते हैं। जैसे कि वकुश और प्रतिसेवना कुशील को संख्या कोटिशत पृथवत्व होते हुए भी दोनों की संख्या समान नहीं है । वकुश से प्रतिसेवना कुशील संख्यात गुणा है वैसे ही फल और वीज की उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल पृथक्त्व होते हुए भी बीज से फल की अवगाहना बड़ी हो सकती है, जो नारियल आदि में बिना मतभेद के स्वीकार की ही जाती है । इतनी स्पष्टता होते हुए भी यदि वोज की अंगुल पृथक्त्व अवगाहना का आग्रह रखा जायेगा तो आज उपलब्ध नारियल, खजूर आदि होने वाली सभी वनस्पतियों को आगम निर्दिष्ट वनस्पतियों से भिन्न मानना पड़ेगा। ( क्योंकि आज उपलब्ध होने वाली किसी भी वनस्पति के स्कंधादि की अवगाहना गव्यूति पृथक्त्व नहीं है ।) जिससे उनको भी सचित्त ( बीज वाला) मानने में बाधा पड़ेगी। इसलिए आगम निर्दिष्ट उत्कृष्ट अवगाहना प्रथमादि आरों की अपेक्षा ताल वर्ग के किसी भेद की समझनी चाहिए, सभी की नहीं । दूसरी बात यदि उपलब्ध केले के वृक्ष को ताल वर्ग में नहीं माना जायगा तो उसे किसमें माना जायगा ? उसमें लक्षण तो तालवर्ग ( वलय) के ही पाये जाते हैं । इसलिए दूसरी वनस्पति में उसका ग्रहण संभव नहीं होने से उसे तालवर्ग में ही ग्रहण करना होगा । इसी प्रकार छठा वल्ली वर्ग हैं, उसमें दाख की बेल का भी ग्रहण है । वहां पर * फल की उत्कृष्ट अवगाहना जो धनुष पृथक्त्व बताई गई है वह भी तरबूज, खरबूज, ककड़ी आदि की अपेक्षा समझनी चाहिए, दाख की अपेक्षा नहीं, क्योंकि वल्ली वर्ग में बड़ी अवगाहना वाले फल तरबूज आदि ही हैं। इनमें भी बीज हैं एवं बीज का अवगाहना ( उत्कृष्ट अंगुल पृथक्त्व ) ताल वर्ग के समान समझनी चाहिए । नारियल ( सुखा ), मुनक्का आदि के बीज नहीं उगते हुए भी इनमें बीज होने मे इन्हें सचित्त समझा जाता है । वैसे ही केले * और छोटी दाख (किशमिश ) में भी बीज होते हैं, इसलिए इन्हें भी सचित्त समझना चाहिए । || बाईसवें शतक का पहला वर्ग सम्पूर्ण || * टिप्पण - सन् १९३३ विक्रम संवत् १९९० में अजमेर (राजस्थान) में अखिल भारतवर्षीय For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६२ भगवती सूत्र - २२ वर्ग २ ३ १ १० नीम- आम्रादि के मूल की उत्पत्ति शतक २२ वर्ग २ उद्देशक १-१० Deeeeeee नीम - आम्रादि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न - अह भंते! बि-ब-जंबु कोसंब-ताल-अंकोल्ल-पीलु-सेलसल्लइ-मोयइ-मालुय बउल- पलास करंज पुत्तं जीवग रिद्र-विहेडग-हरियग-भल्लाय - उंबरिय-खीरणिधायई- पियाल-पूइयणिबायग- ( करंज )सेहय पासिय सीसव अयसि - पुण्णाग णागरुक्ख- सीवण्ण- असोगाणं • स्थानकवासी बृहत् साधु सम्मेलन हुआ था। उसमें स्थानकवासी सब सम्प्रदायों का प्रतिनिधित्व था । उसमें केला (कदलीफल ) सचित्त अचित्त का प्रश्न चला था । उन महापुरुषों के सामने भगवती सूत्र का यह पाठ संभवतः उपस्थित नहीं हुआ था, अन्यथा उन महापुरुषों को केले को सचित्त स्वीकार करने में जरा भी संकोच नहीं होता । बृहत्कल्प सूत्र संस्कृत टीका सहित सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल जोधपुर द्वारा प्रकाशित हुआ है । इसके अनुवादक और सम्पादक पूज्य आचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. है । इसके पहले उद्देशक में "ताल पलंब" शब्द का प्रयोग हुआ है । जिसका अर्थ पृष्ठ २ में संस्कृत टीका में इस प्रकार किया है । - 'तालो वृक्ष विशेषः तत्र भवं तालं - तालफलं, प्रकर्षेण लम्बते इति प्रलम्बम्' अर्थात् ताल एक प्रकार का वृक्ष होता है। उसके फल को 'ताल प्रलंब' कहते हैं। यह अयं आचार्य मलयगिरि ने किया है । पृष्ठ ८५ में पूज्य आचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. ने ताल पलंब शब्द का हिन्दी अर्थ किया है ताल पलंबे = तालवृक्ष का फल | इस प्रकार बृहत्कल्प सूत्र की प्राचीन निर्युक्ति भाष्य ओर टीका में ताल पलंब शब्द का अर्थ केला (कदलीफल ) कहीं नहीं किया है । आगम में केले के लिए " कयली" (कदली ) शब्द का प्रयोग हुआ है । किन्तु ताल प्रलंब शब्द का नहीं। तथा किसी भी आगम, व्याकरण, शब्दकोष और आयुर्वेदिक ग्रंथों में भी ताल प्रलंब शब्द का अर्थ केला (कदली फल ) देखने में नहीं आया है । अतः भगवती सूत्र के इस पाठ से केला सचित्त है, यह बात स्पष्ट सिद्ध होती है । For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो सूत्र-श. २२ वर्ग ३ उ. १-१० अगस्तिकादि के मूल की उत्पति २९६३ एएमि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति० ? १ उत्तर-एवं मूलादीया दस उद्देसगा कायव्वा गिरवलेसं जहा तालवग्गो। ॥ वावीसइमे सए बिइओ वग्गो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! नीम, आम्र. जम्बू, कोशम्ब, ताल, अकोल्ल, पीलु, सेलु, सल्लकी, मोचकी, मालुक, बकुल, पलाश, करंज, पुत्रंजीवक, अरिष्ट (अरिट्ठा), बहेड़ा, हरड़ (हरितकी), भिलामा, उम्बेभरिका, क्षीरणी, धातकी (धावड़ी), प्रियाल (चारोली), पूतिकनिम्ब (करंज), सेण्हक, पासिय, शीशम, अतसी (अप्सन), नागकेशर, नागवृक्ष, श्रीपर्णी (सेवन) और अशोक, इन सब वृक्षों के मूलपने जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! यहाँ भी प्रथम ताड़ वर्ग के समान मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिये। ॥ बाईसवें शतक का दूसरा वर्ग सम्पूर्ण ॥ शतक २२ वर्ग ३ उद्देशक १-१० अगस्तिकादि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न-अह भंते ! अत्थिय-तिंदुय-बोर कविट्ठ अंबाडग-माउ For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६४ भगवती मूत्र-ग. २२ वर्ग ३ उ. १-१० अगस्तिकादि के मूल की उत्पत्ति लिंग-विल्ल-आमलग-फणस-दाडिम-आसत्थ उंबर वडणग्गोहणंदिरुक्ख पिप्पलि सतर-पिलखुरुक्ख-काउंबरिय-कुच्छु भरिय-देवदालि-तिलगलउय-छत्तोह-सिरीस-सत्तवण्ण-दहिवण्ण-लोद्ध धव-चंदण-अज्जुण-णीवकुडग-कलंबाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति ते णं भंते ! ०? १ उत्तर-एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा तालवग्गसरिसा णेयवा जाव वीयं । ॥ बावीसइमे सए तइओ वग्गो समत्तो । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! अगस्तिक, तिन्दुक, बोर, कवीठ, अंबाडक, बिजोरा, बिल्व, आमलक (आंवला), फणस, दाडिम, अश्वत्थ (पीपल), उंबर, बड़, न्यग्रोध, नन्दिवृक्ष, पीपर, सतर, प्लक्षवृक्ष (ढाक का वृक्ष) काको-दंबरी, कुस्तुंभरी, देवदालि, तिलक, लकुच (लीच), छत्रौघ, शिरीष, सप्तपर्ण (सादड़) दधिपर्ण, लोध्रक (लोद), धव, चन्दन, अर्जुन, नीप, कुटज और कदंब, इन सब वृक्षों के मूलपने जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहां से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम ताड़ वृक्ष के समान यहां भी मूल से ले कर बौज तक दस उद्देशक कहने चाहिये । ॥ बाईसवें शतक का तीसरा वर्ग सम्पूर्ण ॥ Y. IN For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २२ वर्ग ४ उद्देशक १-१० sectiece बैंगनादि के मूल की उत्पत्ति R १ प्रश्न - अह भंते ! वाइंगणि अल्लइ - पोंडइ० एवं जहा पण्णवणाए गाहाणुसारेणं णेयव्वं जाव गंज- पाडला-वासि अकोल्लाणं एएसि णं जे जीवा मूलताए वकमंति० ? १ उत्तर - एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा तालबग्गसरिसा यव्वा जाव वीयंति णिरवसेसं जहा वसवग्गो । || बावीस मे स चत्थो वग्गो समत्तो ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! बेंगन, अल्लड, पोंडइ, इत्यादि वृक्षों के नाम प्रज्ञापना सूत्र के पहले पद की गाथा के अनुसार जानना चाहिये, यावत् गंज, पाटला, वासी और अंकोल्ल, इन सभी वृक्षों के मूलपने जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम ! यहां मूल से ले कर बीज तक दस उद्देशक, वंशवर्ग के समान जानना चाहिये । || बाईसवें शतक का चौथा वर्ग सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २२ वर्ग ५ उद्देशक ९-१० ▪ vir b b b (1) A A A A r➡ सिरियकादि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न - अह भंते । सिरियका णवणालिय- कोरंटग-बंधुजीवगमणोज्जा • जहा पण्णवणाए पढमपए गाहाणुसारेणं जाव णलणीयकुंद-महाजाईणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति० ? १ उत्तर - एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा णिरवसेसं जहा सालीणं । || बावीस मे सए पंचमो वग्गो समत्तो ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! सिरियक, नवनालिका, कोरण्टक, बन्धुजीवक, मणोजा इत्यादि सब नाम प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद की गाथा के अनुसार यावत् नलिनी, कुन्द और महाजाति, इन सब वृक्षों के मूलपने जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम! यहाँ भी शालिवृक्ष के समान मूलादि दस उद्देशक है । ॥ बाईसवें शतक का पांचवां वर्ग सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २२ वर्ग उद्देशक १-१० पूसफलिकादि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न-अह भंते ! पूसफलि कालिंगी-तुंबी-तउसी-एलावालुकी० एवं पयाणि छिंदियवाणि पण्णवणागाहाणुसारेणं जहा तालवग्गे जाव दधिफोल्लइ-काकलि-मोकलि-अकबोंदीणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वकमंति? १ उत्तर-एवं मूलादीया दस उद्देसगा कायव्वा जहा तालवग्गो। णवर फलउद्देसे ओगाहणाए जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उकोसेणं धणुहपहत्तं । ठिई सव्वत्य जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं घासपहत्तं, सेस तं चेव । छटो वग्गो समत्तो । एवं छसु वि वग्गेसु सर्द्धि उदेसगा भवंति। ॥ बावीसइमे सए छटो वग्गो समत्तो ॥ ॥ बावीसइमं सयं समत्तं ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! पूसफलिका, कालिंगी, तुम्बी, अपुषी (ककड़ी), एलवालुंकी इत्यादि नाम प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद की गाथा (२६ वीं से तीसवीं तक) के अनुसार ताइवर्ग में कहे अनुसार, यावत् दधिफो. ल्लइ, काकली, मोकली और अर्कबोन्दी, इन सब बल्लियों के मूल में गों मीर For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६८ भगवती सूत्र - २२ वर्ग ६ उ. १-१० पूसफलिकादि के मूल उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम! यहां भी ताड़वर्ग के समान मूलादि दस उद्देशक हैं। विशेष यह है कि फलोद्देशक में फल की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व होती है। सब जगह स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वर्ष पृथक्त्व है। शेष सब पूर्ववत् । इस प्रकार इन छह वर्गों में सब मिला कर साठ उद्देशक होते हैं । विवेचन - इस बाईसवें शतक का विवेचन प्रायः इक्कीसवें शतक के समान है । यहां वल्लियों के नाम निर्देश के लिये प्रज्ञापना सूत्र 'प्रथम पद की छब्बीसवीं गाथा से लेकर तीसवीं गाथा तक का अतिदेश किया गया है। उनमें उनतीसवीं गाथा में 'मुद्दिय' शब्द है, जिसका अर्थ है - मृद्वीका अर्थात् द्राक्षा ( दाख) । दाख की बेलड़ी के मूल से ले कर बीज तक दस उद्देशक हैं । अतः दाख में भी बीज हैं, यह इससे स्पष्ट है ! इस प्रकार दाख सचित्त है । ॥ बाईसवें शतक का छठा वर्ग सम्पूर्ण ॥ ॥ बाईसवाँ शतक सम्पूर्ण ॥ की उत्पत्ति For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २३ णमो सुदेवयाए भगवईए । आलु -लोही अवया पाढा तह मासवष्णि वल्ली य । पंचेए दसवग्गा पण्णासं होंति उद्देसा ॥ कठिन शब्दार्थ -- णमो सुयदेवयाए भगवईए - भगवान् की वाणी रूप भगवती श्रुत देवी को नमस्कार हो । भावार्थ - इस शतक के पांच वर्ग हैं। यथा-आलू आदि साधारण वनस्पति विषयक दस उद्देशात्मक प्रथम वर्ग है । लोही आदि अमन्तकायिक विषयक दूसरा, अवकादि वनस्पति विषयक तीसरा, पाठा मृगवालुंकी आदि वनस्पति विषयक चौथा और माषपर्णी आदि वनस्पति विषयक पाँचवां वर्ग है । प्रत्येक वर्ग में दस-दस उद्देशक हैं । सब मिला कर पचास उद्देशक इस तेईसवें शतक में हैं । For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २३ वर्ग १ उद्देशक १-१० आलु आदि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-अह भंते ! आलुय-मूलगसिंगवेर-हलिद-रुरु कंडरिय-जीरुच्छोरबिरालि किट्टिकुंदक कण्हकडसुमहु-पयलइ-महसिंगि-णिरहा-सप्पसुगंधा छिण्णरहा-बीय-रहाणं एएस णं जे जीवा मूलत्ताए वकमंति० ? १ उत्तर-एवं मूलादीया दस उद्देसगा कायव्वा वंसवग्गसरिसा, णवरं परिमाणं जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा उववजंति । अवहारो-गोयमा ! ते णं अणंता समये-समये अवहीरमाणा अबहीरमाणा अणंताहिं ओसप्पिणीहिं उस्सप्पिणीहिं एवइकालेणं अवहीरं ति, णो चेव णं · अवहरिया सिया । ठिई जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं, सेसं तं चेव। ॥ तेवीसइमे सए पढमो वग्गो समत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-'हे भगवन् ! आलू, मूला, शृंगबेर (अदरख), हल्दी, रुरु, कण्डरीक, जीर, क्षीरविराली (क्षीर विदारीकन्द), कि ड्डि, कुन्दुक, कृष्ण, कडसु, For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २३ वर्ग २ उ. १-१० लोही आदि के मूल की उत्पत्ति २९७१ . . . . मधु, पयलई, मधुश्रृंगी, निरुहा, सर्पसुगन्धा, छिनरुहा और बीजरुहा, इन वृक्षों के मलपने जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे जीव कहाँ से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! यहां वंशवर्ग के समान मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिये । विशेष यह है कि उनका परिमाण एक समय में जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृल संख्यात, असंख्यात और अनन्त जीव आ कर उत्पन्न होते हैं। हे गौतम ! यदि एक-एक समय में, एक-एक जीव का अपहार किया जाय, तो अनन्त उत्सपिणी और अवसपिणी काल तक किया जाने पर भी उनका अपहार नहीं हो सकता (ऐसा किसी ने किया नहीं और कर भी नहीं सकता) क्योंकि उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त की होती है। शेष सब पूर्ववत् । ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गोतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ तेईसवें शतक का पहला वर्ग सम्पूर्ण ॥ शतक २३ वर्ग २ उद्देशक ५-१० लोही आदि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न-अह भंते ! लोही-णीहू-थीहू-थिवगा-अस्सकण्णी-सीहकण्णी-सीउंढी-मुसंढीणं, एएसि णं जीवा मूल० ? For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७२ भगवती सूत्र. २३ वर्ग ३ उ. १-१० आय आदि के मूल की उत्पत्ति १ उत्तर - एवं एत्थ वि दस उद्देसगा जहेब आलुवग्गे | नवरं ओगाहणा तालवग्गसरिसा, सेसं तं चैव । * 'सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥ तेवीस मे स विइओ वग्गो समत्तो ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! लोही, नीहू, थोहू, विभगा, अश्वकर्णी, सहकर्णी, सोउंढी और मुसुंढी, इन सब के मूलपने जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम ! आलू-वर्ग के समान यहाँ भी मूलादि दस उद्देशक जानना चाहिये । अवगाहना ताड़ वर्ग के समान । शेष सब पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है' - कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । ॥ तेईसवें शतक का दूसरा वर्ग सम्पूर्ण ॥ शतक २३ वर्ग ३ उद्देशक ९-१० आय आदि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न - अह भंते ! आय काय कुहुण-कुंदुरुक्क उव्वेहलिया सफासज्जा-छत्ता-वंसाणिय· कुमाराणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए० ? For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २३ वर्ग ४ उ. १-१० पाठा आदि के मूल की उत्पत्ति २९७३ १ उत्तर - एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा णिरवसेसं जहा आलुवग्गो, णवरं ओगाहणा तालवग्गसरिसा, सेसं तं चैव । * 'सेवं भंते! सेवं भंते' ! त्ति ॥ तेवीस मे सए तइओ वग्गो समत्तो ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! आय, काय, कुहुणा, कुन्दुरुक्क उव्वेहलिय, सफा, सज्जा, छत्रा, वंशानिका और कुमारी, इन सब के मूलपने जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम! आलू-वर्ग के समान यहाँ भी मूलादि दस उद्देश जानना । अवगाहना ताड़-वर्ग के समान है । शेष सब पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । ॥ तेईसवें शतक का तीसरा वर्ग सम्पूर्ण ॥ * r r r r r t i A A A शतक २३ वर्ग ४ उद्देशक १-१० पाठा आदि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न- अह भंते ! पाढा-मियवालुंकि महुररसारायवल्लि पउमामोंढरि- दंति-चंडी, एएसि णं जे जीवा मूल० ? For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७४ भगवती सूत्र - श. २३ वर्ग ४ उ. १-१० पाठा आदि के मूल १ उत्तर - एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा आलुयवग्ग सरिसा, वरं ओगाहणा जहा वल्लीणं, सेसं तं चैव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति ॥ तेवीस मे स चत्थो वग्गो - समत्तो ॥ की उत्पत्ति भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! पाठा, मृगवालुंकी, मधुर रसा, राजवल्ली, पद्मा, मोढरी, दंती और चण्डी, इन सब वनस्पति के मूलपने जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! आलू-वर्ग के समान यहां भी मूलादि दस उद्देशक जानना चाहिये । अवगाहना वल्ली के समान । शेष सब पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । ॥ तेईसवें शतक का चौथा वर्ग सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २३ वर्ग५ उद्देशक १-१० 09MARRAM माषपर्णी आदि के मूल की उत्पत्ति १ प्रश्न-अह भंते ! मासपण्णी-मुग्गपण्णी-जीवग-सरिसव-कएणुयकाओलि-खीरकाकोलि-भंगि-णहि-किमिरासि-भद्दमुच्छ-णंगलइ. पओय किंणा पउल-पाढे-हरेणुया-लोहीणं,एएसि णं जे जीवा मूल० ? १ उत्तर-एवं एत्थ वि दस उद्देसगा गिरवसेसं आलुयवग्गसरिसा । एवं एत्थ पंचसु वि वग्गेसु पण्णासं उद्देसगा भाणियव्वा । सव्वत्थ देवा ण उववजंति, तिण्णि लेसाओ। ® 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ' त्ति . ॥ तेवीसइमे सए पंचमो वग्गो समत्तो ॥ ॥ तेवीसइमं सयं समत्तं ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! माषपर्णी, मुद्गपर्णी, जीवक, सर्षप केरेणक, काकोली, क्षीर काकोली, भंगी, णही, कृमिराशि, भद्रमस्ता, लांगली, पयोद, किण्णापउलय, पाढ (हढ) हरेणुका और लोही, इन सब के मूलपने जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहां से आते हैं ? . For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७६ मगवती मूत्र-श. २३ वर्ग ५ उ. १-१० मापपर्णी आदि के मूल की उत्पति १ उत्तर-हे गौतम ! यहां भी आलू-वर्ग के समान मूलादि दस उद्देशक जानना । इस प्रकार इन पांच वर्गों में सब मिला कर पचास उद्देशक हैं। इन पांचों ही वर्गों में कथित वनस्पति में देव उत्पन्न नहीं होते। इसलिये सब में । प्रथम की तीन लेश्याएं ही होती हैं। . ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन-यहाँ बतलाई हुई वनस्पतियाँ प्राय: अप्रसिद्ध हैं । इनके नामादि का विस्तृत कथन प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में है । जिज्ञासुओं को वहां देखना चाहिये । ॥ तेईसवें शतक का पांचवाँ वर्ग सम्पूर्ण ॥ ।। तेईसवाँ शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४ उववाय परीमाणं संघयणुचत्तमेव संठाणं । लेस्सा दिट्ठी णाणे, अण्णाणे जोग उवओगे॥१॥ सण्णा-कसाय इंदिय-समुग्घाया, वेयणा य वेए य । आउं अन्झवसाणा, अणुबंधो कायसंवेहो ॥२॥ जीवपए जीवपए जीवाणं, दंडगंमि उद्देसो।। चउवीसइमंमि सए, चउव्वीसं होंति उद्देसा ॥३॥ भावार्थ--इस शतक में चौबीस उद्देशक इस प्रकार हैं--१ उपपात, २ परिमाण, ३ संहनन, ४ ऊँचाई, ५ संस्थान, ६ लेश्या, ७ दृष्टि, ८ ज्ञान, अज्ञान, ९ योग, १० उपयोग, ११ संज्ञा, १२ कषाय, १३ इन्द्रिय, १४ समुद्घात, १५ वेदना, १६ वेद, १७ आयुष्य, १८ अध्यवसाय, १९ अनुबन्ध और २० कायसंवेध । यह सब विषय चौबीस दण्डक से प्रत्येक जीव पद में कहे जायेंगे अर्थात् प्रत्येक दण्डक पर ये बीस द्वारा कहे जायेंगे। इन बीस द्वारों में से पहला-दूसरा For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७८ भगवती मूत्र-श. २४ उ. १ नैरधिकादि का उपपातादि द्वार तो जीव जहां उत्पन्न होता है, उस स्थान की अपेक्षा से हैं । तीसरे से उन्नीसवें तक सतरह द्वार, उत्पन्न होने वाले जीव के इस भव सम्बन्धी हैं और बीसवां द्वार दोनों भव सम्बन्धी सम्मिलित है। इस प्रकार चौबीसवें शतक में चौबीस दण्डक सम्बन्धी चौबीस उद्देशक कहे जायेंगे। विवेचन-उपपात आदि बीस द्वारों का अर्थ स्पष्ट है । 'उपपात' का अर्थ है-नैरयिकादि कहाँ से आते हैं ? 'परिमाण' का अर्थ है-नरयिकादि में उत्पन्न होने वाले जीवों की गणना (संख्या)। इसो प्रकार संहनन, संस्थान आदि का भी अर्थ समझना चाहिये । 'अनुबन्ध' का अर्थ है-विवक्षित पर्याय से अव्यवछिन्न रहना । 'कायसंवेध' का अर्थ हैविवक्षित काय से कायान्तर (दूसरी काया) अथवा तुल्यकाय में जा कर पुनः यथासम्भव उसो काया में आना । शतक २४ उद्देशक १ नैरयिकादि का उपपातादि १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-णेरइया णं भंते ! कओ. हिंतो उववज्जति, किं णेरइएहिंतो उववज्जति, तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति, मणुस्सेहिंतो उववज्जंति, देवेहितो उववज्जति ? १ उत्तर-गोयमा ! णो णेरइएहिंतो उववजंति, तिरिक्ख जोणिएहिंतो उववज्जति, मणुस्सेहितो वि उववजंति, णो देवेहितो For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ १ नैरयिकादि का उपपातादि उववज्जेति । भावार्थ - १ प्रश्न - राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा - हे भगवन् ! नैरयिक कहाँ से आते हैं ? क्या नैरयिकों से, तियंच-योनिकों से, मनुष्यों से या देवों से आते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम | नैरयिक, नैरयिकों से नहीं आते, तिथंच-योनिकों से और मनुष्यों से आते हैं। देवों से भी नहीं आते । २९७९ २ प्रश्न - जड़ तिरिक्ख जोणिएहिंतो उववज्जंति किं एगिंदियतिरिक्ख जोणिएहिंतो उववज्जंति, बेइंदियतिरि०, तेइंदियतिरि०, चउरिंदियतिरि०, पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति ? २ उत्तर - गोयमा ! णो एगिंदियतिरिक्ख जोणिएहिंतो उववज्जंति, णो दिय०, णो तेई दिय०, णो चउरिंदिय०, पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति । भावार्थ - २ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि तियंच-योनिक से आते हैं, तो क्या एकेन्द्रिय तिर्यच-योनिक से या बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय से या पंचन्द्रिय तियंचयोनिक से आते हैं ? २ उत्तर - हे गौतम! एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय तियंच-योनिक से नहीं आते, वे पंचेन्द्रिय तियंच-योनिक से आते हैं । ३ प्रश्न - जइ पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति किं सष्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उवबज्जंति, असणिपंचिंदिय For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८० भगवती सूत्र - श. २४ उ १ नैरयिकादि का उपपातादि तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति ? ३ उत्तर - गोयमा ! सष्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्रंति, अण्णीपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो वि उववजंति । भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि नैरयिक जीव पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक से आते हैं, तो क्या संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक से आते हैं, या असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक से आते हैं ? ३ उत्तर - हे गौतम! वे संज्ञी पंचेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक से आते हैं । ४ प्रश्न - जड़ असणिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं जलचरेहिंतो उववजंति, थलचरेहिंतो उववज्जंति, खहचरेहिंतो उववज्जंति ? ४ उत्तर - गोयमा ! जलचरेहिंतो उववजंति, थलचरेहिंतो वि उववजंति, खहचरेहिंतो वि उववजंति । भावार्थ - ४ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक यदि असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक से आते हैं, तो क्या जलचर, थलचर और खेचर से आते हैं ? ४ उत्तर- हे गौतम! वे जलचर, थलचर और खेचर से भी आते हैं । ५ प्रश्न - जड़ जलचर थलचर- खहचरेहिंतो उववजंति किं पज्जतपहिंतो उनवजंति अपज्जत्तए हिंतो ववजंति ? ५ उत्तर - गोयमा ! पज्जतएहिंतो उववज्जंति, णो अपजत्तएहिंतो For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २४ उ. १ नैरयिकादि का उपपातादि उवजंति । भावार्थ - ५ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि वे जलचर, थलचर और खेचर से आते हैं, तो क्या पर्याप्त या अपर्याप्त जलचर, थलचर और खेचर से आते हैं ? ५ उत्तर - हे गौतम! पर्याप्त जलचर, थलचर और खेचर से आते हैं, अपर्याप्त से नहीं । २९८१ ६ प्रश्न - पज्जत्ताअसणिपंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए इस उववज्जित्तर से णं भंते! कइसु पुढवीसु उववज्जेज्जा ? ६ उत्तर - गोयमा ! एगाए रयणप्पभाए पुढवीए उववज्जेज्जा । भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक जीव जो नैरयिक में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने नरक पृथ्वियों में उत्पन्न होता है ? ६ उत्तर - हे गौतम ! वह एक रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होता है । ७ प्रश्न - पत्ता असणिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए रयणप्पभाए पुढवीए रइएस उववज्जित्तए से णं भंते ! केवइकालट्ठिएस उववज्जेज्जा ? ७ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं दसवा ससहस्सट्टिईएस, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागट्टिईएस उववजेज्जा १ । भावार्थ - ७ प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? ७ उत्तर - हे गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट पल्योपम For Personal & Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २९८२ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ नैरयिकादि का उपपातादि के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। विवेचन-रत्नप्रभा के नरयिकों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक .सागरोपम की है । किन्तु पर्याप्त असंशी पंचेन्द्रिय तिथंच जो नरक में जाता है, वह पत्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नरयिकों तक हो उत्पन्न होता है, इससे आगे नहीं। ८ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जति ? ८ उत्तर- गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा उववजंति २ । भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! वे असंज्ञी तिथंच रत्नप्रभा पृथ्वी में एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! वे जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात. उत्पन्न होते हैं। ९ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा कि संघयणी पण्णता ? ९ उत्तर-गोयमा ! छेवटुसंघयणी पण्णत्ता ३ । भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! उनके (असन्नी तियंच-पञ्चेन्द्रिय के) शरीर किस संहनन वाले होते हैं ? ९ उत्तर-हे गौतम ! सेवार्त संहनन वाले होते हैं। १० प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? ___१० उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं, उकोसेणं जोयणसहस्सं ४। For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ नै रयिकादि का उपपातादि २६८३ भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! उन जीवों के शरीर को अवगाहना कितनी बड़ी होती है ? १० उत्तर-हे गौतम ! उनके शरीर को अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन की होती है। ११ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किं संठिया पण्णत्ता ? ११ उत्तर-गोयमा ! हुंडसंठाणसंठिया पण्णत्ता ५। भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! उनके शरीर का संस्थान कौन सा है ? ११ उत्तर-हे गौतम ! हुण्डक संस्थान होता है। १२ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं कइ लेस्साओ पण्णत्ताओ? १२ उत्तर-गोयमा ! तिण्णि लेस्साओ पण्णत्ताओ । तं जहाकण्हलेस्सा, णीललेस्सा, काउलेस्ता ६। भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! उनके कितनी लेश्याएं होती हैं ? १२ उत्तर-हे गौतम ! उनके तीन लेश्याएं होती हैं । यथा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या । १३ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्टी, सम्मामिच्छादिट्ठी ? __ १३ उत्तर-गोयमा ! णो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी ७ । For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८४ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ नैरयिकादि का उपपातादि __भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि या सम्यगमिथ्यादृष्टि होते हैं ? १३ उत्तर-हे गौतम ! वे सम्यग्दृष्टि नहीं होते, मिथ्यादृष्टि होते हैं। सम्यमिथ्यादृष्टि भी नहीं होते। १४ प्रश्न ते णं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? १४ उत्तर-गोयमा ! णो णाणी, अण्णाणी, णियमा दुअण्णाणी, तं जहा-महअण्णाणी य सुयअण्णाणी य ८ । भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? १४ उत्तर-हे गौतम ! वे ज्ञानी नहीं होते, अज्ञानी होते हैं। उनके अवश्य दो अज्ञान होते हैं । यथा-मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान । १५ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी? १५ उत्तर-गोयमा ! णो मणजोगी, वयजोगी वि, कायजोगी वि ९॥ भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव मनयोगी, वचनयोगी या काययोगी हैं? १५ उत्तर-हे गौतम ! वे मनयोगी नहीं, वचनयोगी और काययोगी हैं। १६ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता ? १६ उत्तर-गोयमा ! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि १०॥ For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ नरयिकादि का उपपातादि २९८५ भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन ! वे जीव साकारोपयोग वाले हैं या अनाकारोपयोग युक्त ? १६ उत्तर-हे गौतम ! वे साकारोपयोगः युक्त भी है और अनाकारोपयोग युक्त भी। . १७ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं कइ सण्णाओ पण्णताओ ? १७ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि सण्णा पण्णत्ता, तं जहा-आहारसण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा ११ । भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! उन जीवों के संज्ञाएँ कितनी हैं ? १७ उत्तर-हे गौतम ! उनके चार संज्ञाएँ हैं। यथा-आहारसज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा । १८ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं कइ कसाया पण्णता ? १८ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तं जहा-कोहकसाए, माणकसाए, मायाकसाए, लोभकसाए १२ । भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! उन जीवों के कषाय कितनी हैं ? । १४ उत्तर-हे गौतम ! उनके कषाय चारों हैं। यथा-क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय । १९ प्रश्न-तेसिणं भंते ! जीवाणं कइ इंदिया पण्णता ? १९ उत्तर-गोयमा ! पंचिंदिया पण्णत्ता, तं जहा-सोइंदिए, चक्खिदिए जाव फासिंदिए १३ । For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ. १ नैरयिकादि का उपपातादि भावार्थ - १९ प्रश्न - हे भगवन् ! उन जीवों के इन्द्रियां कितनी हैं ? १९ उत्तर - हे गौतम ! उनके पांच इन्द्रियां हैं। यथा-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, यावत् स्पर्शनेन्द्रिय । २९८६ २० प्रश्न - तेसि णं भंते ! जीवाणं कह समुग्धाया पण्णत्ता ? २० उत्तर - गोयमा ! तओ समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहावेणासमुग्धाए, कसायसमुग्धाए, मारणंतियसमुग्धाए १४ । भावार्थ - २० प्रश्न - हे भगवन् ! उन जीवों के समुद्घात कितनी हैं ? २० उत्तर - हे गौतम! उनके तीन समुद्घात हैं । यथा-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात । २१ प्रश्न - ते णं भंते! जीवा किं सायावेयगा असायावेयगा ? २१ उत्तर - गोयमा ! सायावेयगा वि, असा यावेयगा वि १५ । भावार्थ - २१ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव साता-वेदक हैं, या असातावेदक ? २१ उत्तर - हे गौतम! वे साता-वेदक भी हैं और असातावेदक भी हैं । २२ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा किं इत्थीवेयगा, पुरिसवेयगा, पुंगवेयगा ? २२ उत्तर - गोयमा ! णो इत्थीवेयगा, णो पुरिसवेयगा, णपुंसगबेयगा १६ । भावार्थ - २२ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव स्त्री-वेदक हैं, पुरुष-बेदक हैं, या नपुंसक वेदक हैं ? For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २४ उ. १ नेरयिकादि का उपपातादि २९८७ २२ उत्तर-हे गौतम ! वे स्त्री-वेदक और पुरुष-वेदक नहीं, एक नपुंसकवेदक हैं। २३ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? २३ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्व. कोडी १७। भावार्थ-२३ प्रश्न-हे भगवन् ! उन जीवों की स्थिति कितने काल की है ? २३ उत्तर-हे गौतम ! उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की होती है। २४ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं केवइया अन्झवसाणा पण्णता ? २४ उत्तर-गोयमा ! असंखेजा अज्झवसाणा पण्णत्ता। भावार्थ-२४ प्रश्न-हे भगवन् ! उनके अध्यवसाय स्थान कितने हैं ? २४ उत्तर-हे गौतम ! उनके अध्यवसाय स्थान असंख्यात हैं। २५ प्रश्न-ते णं भंते ! किं पसत्था अप्पसत्था ? २५ उत्तर-गोयमा ! पसत्था वि अप्पसत्था वि १८ ।। भावार्थ-२५ प्रश्न-हे भगवन् ! उनके अध्यवसाय स्थान प्रशस्त हैं, या अप्रशस्त ? २५ उत्तर-हे गौतम ! प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी। २६ प्रश्न-से णं भंते ! पजत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणि For Personal & Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८८ भगवती सूत्र-श. २४ 3. १ नैरयिकादि का उपपातादि यत्ति कालओ केवचिरं होइ ? ___ २६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्त, उक्कोसेणं पुय. कोडी १९ । भावार्थ-२६ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक रूप में कितने काल तक रहते हैं ? २६ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि । २७ प्रश्न-से णं भंते ! पजत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए रयणप्पभाए पुढवीए णेरइए, पुणरवि पजत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिषखजोणिएत्ति केवइयं कालं सेवेजा-केवश्य कालं गइरागई करेजा ? २७ उत्तर-गोयमा ! भवादेनेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहंग्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमभहियाई, उकोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं पुवकोडिममहियं, एवइयं कालं सेवेजा. एवइयं कालं गहरागई करेजा २० । भावार्थ-२७ प्रश्न-हे भगवन् ! वे पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच-योनिक जीव, रत्नप्रभा पृथ्वी में ने रयिकपने उत्पन्न होते हैं और फिर पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक हों, इस प्रकार कितने काल तक सेवन करते हैं और कितने काल तक गमनागमन करते हैं ? २७ उत्तर-हे गौतम ! भवादेश की अपेक्षा दो भव और कालादेश की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग, इतने काल तक सेक्न करता है और इतने काल तक गमनागमन करता है ।२०। For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श २४ उ १ नैरविकादि का उपपातादि विवेचन - यहां असंजी नियंत्र पञ्चेन्द्रिय के विषय में बीस द्वार कहे हैं। वे प्रायः स्पष्टार्थ ही हैं । कायसंवेध के विषय में इस प्रकार समझना चाहिये । जो जीव पूर्व-भव में असंज्ञी तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय हो और वहां से मर कर नरक में उत्पन्न हो तो नरक से निकल कर फिर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच नहीं होता । वह अवश्य संजीवन प्राप्त करता है । इसलिए भव की अपेक्षा दो भव काय संवेध जानना चाहिये । काल की अपेक्षा जघन्य कायसंवेध असंजी के जघन्य अन्तर्मुहूर्त आयुष्य सहित नरक की जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाला होता है और उत्कृष्ट कायसंवेध असंज़ी के पूर्वकोटि व प्रमाण उत्कृष्ट आयुष्य सहित । रत्नप्रभा में उसका उत्कृष्ट आयुष्य पत्योपम के असख्यातवें भाग प्रमाण जानना चाहिये । २८ प्रश्न - पज्जत्ता असणिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए जहण्णका लट्टिईएस रयणप्पभापुढविणेरइएस उववज्जित्तए से णं भंते ! केवइकालट्टिईएस उववज्जेज्जा ? २८ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्टिईए. उनकोसेण वि दसवाससहसईिएस उववजेजा । २९८९ भावार्थ : - २८ प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक जीव, रत्नप्रभा पृथ्वी में जघन्य काल स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? २८ उत्तर - हे गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट भी दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है । २९ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति ? २९ उत्तर - एवं सच्चैव वत्तव्वया णिरवसेसा भाणियव्वा जाव अणुबंधोति । For Personal & Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ १ नैरयिकादि का उपपातादि भावार्थ - २९ प्रश्न - हे भगवन् ! वह असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? २६६० २९ उत्तर - हे गौतम! पूर्वकथित सारी वक्तव्यता यावत् अनुबन्ध ( सूत्र ७ से २६ ) तक जाननी चाहिये । ३० प्रश्न - से णं भंते ! पज्जत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिखखजोणिए जहणका लट्ठिय- रयणप्पभापुढविणेरइए, पुणरवि पत्ता असणि० जाव गहराई करेजा ? ३० उत्तर - गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अव्भहिया, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गहराई करेजा २ | भावार्थ - ३० प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक, जघन्य स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हों और फिर पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक हो, इस प्रकार कितने काल तक यावत् गति आगत करता है ३० उत्तर - हे गौतम ! भव की अपेक्षा दो भव और काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक दस हजार वर्ष, इतना काल सेवन और गमनागमन करता है । २ । ३१ प्रश्न - पज्जत्ता असष्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं जे भविए उसका लट्ठिए रयणप्पभापुढविणेरइएस उववज्जित्तए से णं भंते ! For Personal & Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ नै रयिकादि का उपपातादि केवइयकालट्टिईएसु उववज्जेज्जा ? ३१ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागदिईएसु उववज्जेजा, उक्कोसेण वि पलिओवमस्म असंखेजहभागट्टिईएसु उववज्जेजा। भावार्थ-३१ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, रत्नप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो वह कितने काल की स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न होता है ? ____३१ उत्तर-हे गौतम ! वह जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है । ३२ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा० ? .. ३२ उत्तर-अवसेसं तं चेव जाव अणुबंधो । भावार्थ-३२ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ३२ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् सारी वक्तव्यता यावत् अनुबन्ध (सूत्र ७ से २६) पर्यन्त जानो। ___ ३३ प्रश्न-से णं भंते ! पजत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए उक्कोसकालट्ठिईयरयणप्पभापुढविणैरइए, पुणरवि पजत्ता० जाव करेजा ? ३३ उत्तर-गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं अंतोमुहुत्तमभहियं, उक्को. For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९२ भगवती सूत्र-स. २४ उ. १ नैरपिकादि का उपपातादि - - सेणं पलिओवमस्स असंखेजड़भागं पुवकोडिअमहियं, एवइयं कालं सेवेजा, एवइयं कालं गइरागई करेजा, ३ । ____ भावार्थ-३३ प्रश्न-हे भगवन् ! वह पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच. योनिक, रत्नप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति वाले नयिकों में उत्पन्न हो और पुनः पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक हो, तो इस प्रकार कितने काल तक यावत् गमनागमन करता है ? . ३३ उत्तर-हे गौतम ! भव की अपेक्षा दो भव और काल की अपेक्षा. जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग तक सेवन और गमनागमन करता है । ३। ___ ३४ प्रश्न-जहण्णकालट्टिईयपज्जत्ताअसण्णिपंचिंदियतिरिरखजोणिए णं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढविणेरईएसु, उववजित्तए से णं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववज्जेजा ? ३४ उत्तर-गोयमा ! जहणणेणं दसवाससहस्सट्टिईएसु उक्कोसेणं, पलिओवमस्स असंखेजइभागट्टिईएसु उववज्जेजा। भावार्थ-३४ प्रश्न-हे भगवन् ! जघन्य स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच योनिक जीव, रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरपिकों में उत्पन्न होता है ? ३४ उत्तर-हे गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। ३५ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया ? For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -ग. २४ उ. १ नरयिकादि का उपपातादि २९९३ ३५ उत्तर-सेसं तं चेव, णवरं इमाई तिण्णि णाणत्ताइ-आउं, अज्झवसाणा, अणुबंधो य । जहण्णेणं ठिई अंतोमुहत्तं, उकोसेण वि अंतोमुहत्तं । प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं केवइया अन्झवसाणा पण्णता ? उत्तर-गोयमा ! असंखेज्जा अन्झवसाणा पण्णत्ता । प्रश्न-ते णं भंते ! किं पसत्था अप्पसत्था ? उत्तर-गोयमा ! णो पसत्था, अप्पसत्था । अणुबंधो अंतोमुहुत्तं, सेसं तं चेव । भावार्थ-३५ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ३५ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । किन्तु उनके आयुष्य, अध्यवसाय और अनुबन्ध के विषय में अन्तर है । यथा-आयुष्य जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त। प्रश्न-हे भगवन् ! उन जीवों के अध्यवसाय कितने होते हैं ? ... उत्तर-हे गौतम ! असंख्यात होते हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! वे अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं या अप्रशस्त ? उत्तर-हे गौतम ! प्रशस्त नहीं होते, अप्रशस्त होते हैं । अनुबन्ध अन्तमुहूर्त होता है । शेष सव पूर्ववत् । । ___ ३६ प्रश्न-से णं भंते ! जहण्णकालट्ठिईए पजत्ताअसण्णिपंचिं. दिय० रयणप्पभा० जाव करेजा ? ____३६ उत्तर-गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमन्भहियाई उक्कोसेणं पलिओ For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९४ भगवती सूत्र - श. २४ उ १ नैरयिकादि का उपपातादि वमस्स असंखेजड़भागं अंतोमुहुत्तमव्भहियं एवइयं कालं सेवेज्जा जाव गहराई करेजा ४ । भावार्थ - ३६ प्रश्न - हे भगवन् ! जघन्य स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक जीव, रत्नप्रभा में नैरयिकपने उत्पन्न हो और पुनः जघन्य स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक हो, इस प्रकार कितने काल यावत् गमनागमन करता है ? ३६ उत्तर - हे गौतम ! भव की अपेक्षा दो भव और काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग तक यावत् गमनागमन करता है ४ । ३७ प्रश्न - जहणका लट्ठिईयपज्जत्तअसण्णिपंचिंदियतिरिखखजोणिए णं भंते ! जे भविए जहण्णका लट्ठिएस रयणप्पभापुढवि रइएस उववज्जित्तए, से ण भंते ! केवइयका लट्ठिईएस उववज्जेज्जा ? ३७ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवा ससहस्सट्टिईएसु, उनको सेण वि दसवाससहस्सट्टिईएस उववज्जेज्जा । भावार्थ - ३७ प्रश्न - हे भगवन् ! जघन्य स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक जीव, रत्नप्रभा में जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने के योग्य है, वह कितनी स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? ३७ उत्तर - हे गौतम जघन्य और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है । ३८ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा० ? · For Personal & Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ नरयिकादि का उपपातादि ३८ उत्तर-सेसं तं चेव, ताई चव तिण्णि णाणत्ताइ जाव भावार्थ-३८ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ३८ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । किन्तु आयुष्य, अध्यवसाय और अनुबन्ध के विषय में पूर्ववत् अन्तर है । यावत् ३९ प्रश्न-से णं भंते ! जहण्णकालटिईयपज्जत्त० जाव जोणिए जहण्णकालट्टिईयरयणप्पभा० पुणरवि जाव ? ३९ उत्तर-गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई. कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेण वि दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, एवइयं कालं सेवेजा जाव करेजा ५। भावार्थ-३९ प्रश्न-हे भगवन् ! वह जघन्य स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक, रत्नप्रभा में जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो और पुनः असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच हो, इस प्रकार कितने काल तक यावत् गमनागमन करता है ? ३९ उत्तर-हे गौतम ! भवादेश से दो भव और कालादेश से जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त अधिक दस हजार वर्ष सेवन और इतने काल तक गमनागमन करता है ५ । ___४० प्रश्न-जहण्णकालट्टिईयपजत्ता० जाव तिरिक्खजोणिए ण भंते ! जे भविए उक्कोसकालट्टिईएसु रयणप्पभापुढविणेरइएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइयकालठिईएसु उववजेजा ? For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ नैरयिकादि का उपपातादि ४० उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागढिईएसु उववज्जेजा, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेजइभागटिईएसु उववज्जेजा। भावार्थ-४० प्रश्न-हे भगवन् ! जघन्य स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच-योनिक जीव रत्नप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न हो, तो वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? ४० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न होता है। ४१ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा० ? ४१ उत्तर-अवसेसं तं चैव । ताई चेव तिणि णाणत्ताई जाव० भावार्थ-४१ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ... .. ४१ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । आयुष्य, अध्यवसाय और अनुबन्ध के विषय में भी पूर्ववत् अन्तर है । यावत् ४२ प्रश्न-से णं भंते ! जहण्णकालट्टिईयपजत्त० जाव तिरिक्खजोणिए उक्कोसकालट्टिईयरयण० जाव करेजा ? ४२ उत्तर-गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं, अंतोमुहुत्तमम्भहियं, उक्को. सेण वि पलिओवमस्स असंखेजइभागं अंतोमुहुत्तमभहियं, एवइयं कालं जाव करेजा ६। For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २४ उ. १ नरयिकादि का उपपातादि भावार्थ-४२ प्रश्न-हे भगवन् ! वह जघन्य स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच रत्नप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न हो और पुनः पर्याप्त असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय तियंच-योनिक हो, इस प्रकार कितने काल तक यावत् गमनागमन करता है ? ४२ उत्तर-हे गौतम ! भव की अपेक्षा दो भव और काल की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग तक यावत् गमनागमन करता है । ६ । ४३ प्रश्न-उकोसकालट्ठिइयपज्जत्तअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजो. णिए णं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढविणेरइएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइयकाल० जाव उववज्जेज्जा ? . ४३ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्टिईएसु, उकासेणं पलिओवमस्स असंखेजइ० जाव उववज्जेजा। भावार्थ-४३ प्रश्न-हे भगवन् ! उत्कृष्ट स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक जीव रत्नप्रभा में नैरयिकपने उत्पन्न होता है, वह कितने काल की स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न होता है ? _४३ उत्तर -हे गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट पल्योपम ' के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न होता है। ४४ प्रश्न ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० ? ४४ उत्तर-अवसेसं जहेव ओहियगमएणं तहेव अणुगंतव्वं । णवरं इमाई दोणि णाणत्ताई-ठिई जहण्णेणं पुवकोडी, उक्कोसेण For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६८ भगवती सूत्र - श. २४ उ १ नैरयिकादि का उपपातादि विव्वकोडी, एवं अणुबंधो वि, अवसेसं तं चैव । भावार्थ - ४४ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ४४ उत्तर - हे गौतम! सारी वक्तव्यता पूर्व के औधिक (सामान्य) पाठ के अनुसार जाननी चाहिये । स्थिति और अनुबन्ध में अन्तर है । स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष और अनुबन्ध भी इसी प्रकार है, शेष पूर्ववत् । ४५ प्रश्न - से णं भंते ! उक्कोसका लट्ठियपज्जत्तअसणि० जाव तिरिक्खजोणिए रयणप्पभा० जाव - ? ४५ उत्तर - गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणणं पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अव्भहिया, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पुव्वकोडीए अव्भहियं, एवइयं जाव करेजा ७ । भावार्थ - ४५ प्रश्न - हे भगवन् ! वह उत्कृष्ट स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक, फिर रत्नप्रभा में उत्पन्न हो और पुनः उत्कृष्ट स्थिति वाला असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक हो, इस प्रकार कितने काल तक यावत् गमनागमन करता है ? ४५ उत्तर - हे गौतम! भव से दो भव और काल से जघन्य दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक पत्योपम का असंख्यातवां भाग तक यावत् गमनागमन करता है ७| ४६ प्रश्न - उक्कोसका लट्ठिईयपज्जत्त० तिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए जहण्णकालट्ठिईएस रयण० जाव उववज्जित्तए से णं भंते! केवइ० जाव उववजेजा ? For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ १ नैरयिकादि का उपपातादि ४६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्टिएईसु, उक्कोसेण वि दसवास सहसडिईएस उववज्जेज्जा । भावार्थ- ४६ प्रश्न - हे भगवन् ! उत्कृष्ट स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी तिर्यंव-योनिक जीव, रत्नप्रभा में जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? ४६ उत्तर - हे गौतम! जघन्य और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरनिकों में उत्पन्न होता है । २९९९ ४७ प्रश्न - ते णं भंते ! • ? ४७ उत्तर - सेसं तं चैव, जहा सत्तमगमए । जाव ---- भावार्थ- ४७ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ४७ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् यावत् अनुबन्ध तक सातवें गमक के अनुसार जानना चाहिये । यावत् ४८ प्रश्न - से णं भंते ! उक्कोसका लट्ठिईय जाव तिरिक्खजोणिए जहण्णकाल ट्टिईयरयणप्पभा० जाव करेज्जा ? S ४८ उत्तर - गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाईं, कालादेसेणं जहणेणं पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया, उक्कोसेण वि पुव्यकोडी दसवाससहस्सेहिं अमहिया, एवइयं जाव करेजा ८ । भावार्थ - ४८ प्रश्न - हे भगवन् ! वह उत्कृष्ट स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच-योनिक, रत्नप्रभा में जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो, और पुनः पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक हो, इस प्रकार कितने काल For Personal & Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००० भगवती मूत्र-श. २४ उ. १ नैरयिकादि का उपपातादि तक यावत् गमनागमन करता है ? ४८ उत्तर-हे गौतम ! भव की अपेक्षा दो भव और काल की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक दस हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है। ८। ४९ प्रश्न-उकोमकालदिईयपजत्त० जाव तिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए उक्कोसकालट्टिईएसु रयण० जाव उववजित्तए से णं भंते ! केवइयकाल० जाव उववज्जेजा ? __४९ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागदिईएसु, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेजइभागट्टिईएसु उवयज्जेजा। भावार्थ-४९ प्रश्न-हे भगवन् ! उत्कृष्ट स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक रत्नप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न होता है ? ४९ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। ५० प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० ? ५० उत्तर-सेसं जहा सत्तमगमए जाव भावार्थ-५० प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ५० उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् सातवें गमक के अनुसार । यावत् ५१ प्रश्न-से णं भंते ! उक्कोसकालट्टिईयपज्जत्त० जाव तिरि For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २४ उ १ नैरयिकादि का उपपातादि ३००१ क्खजोगिए उकोसकालटिईयरयणप्पभा० जाव करेजा ? ५१ उत्तर - गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणेणं पलिओ मस्स असंखेजड़ भागं पुव्वकोडीए अमहियं, उक्कोसेण विपलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पुव्वकोडीए अव्महियं, एवइयं कालं सेवेज्जा, जाव गइरागई करेजा १ | एवं एए ओहिया तिष्णि गमगा ३, जहण्णका लट्ठिएमु तिष्णि गमगा, उक्कोसका लट्ठिईएस तिष्णि गमगा ९, सव्वे ते णव गमा भवति । भावार्थ - ५१ प्रश्न - हे भगवन् ! वह उत्कृष्ट स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, रत्नप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न हो और पुनः उत्कृष्ट स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक हो, तो कितने काल तक यावत् गमनागमन करता है ? ५१ उत्तर - हे गौतम! दो भव और काल की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग तक यावत् गमनागमन करता है । ९ । इस प्रकार औधिक तीन गमक हैं, जघन्य काल की स्थिति के तीन गमक हैं और उत्कृष्ट स्थिति के भी तीन गमक हैं। ये सब मिला कर ९ गमक होते हैं । विवेचन- १ - पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक जीव का नरक में उत्पन्न होना, यह पहला गमक है । २ - जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होना, यह दूसरा गमक है । ३ - उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होना, यह तीसरा गमक है । इस प्रकार पर्याप्त असज्ञी पचेन्द्रिय तिर्यच के साथ किसी प्रकार का विशेषण लगाये बिना तीम गमक बनते हैं । इसी प्रकार जघन्य स्थिति वाले पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक जीव के तीन गमक बनते हैं और तीन गमक उत्कृष्ट स्थिति वाले पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक जीव के बनते हैं । ये नव गमक होते हैं । I असंज्ञी की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है और नरक में जाने वाले के अध्य For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००२ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ सज्ञी तियंच का नरकोपपात वसाय स्थान अप्रशस्त होते हैं । आयुष्य की दीर्घ स्थिति हो, तो प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के अध्यवसाय हो सकते हैं । अनुबन्ध आयुष्य के समान ही होता है और कायसंवेध नैरयिक और असंज्ञी तिथंच पंचेन्द्रिय की जघन्य स्थिति और उत्कृष्ट स्थिति दोनों को मिला कर जाननी चाहिये । संज्ञी तिर्यंच का नरकोपपात ५२ प्रश्न-जइ सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति, किं संखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति, असंखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्ख० जाव उववजति ? . ५२ उत्तर-गोयमा ! संखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिवखजोणिएहिंतो उववजंति, णो असंखेनवासाउय० जाव उववजति । ___ भावार्थ-५२ प्रश्न-हे भगवन् ! जो नैरयिक, संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक से आते हैं, वे संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच से आते हैं, या असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच-से आते हैं ? ५२ उत्तर-हे गौतम ! वे संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संजी पंचें- . द्रिय तिर्यंच से आते है, असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यच से नहीं। ५३ प्रश्न-जइ संखेन्जवासाउयसण्णिपंचिंदिय० जाव उववजति किं जलचरेहिंतो उवबजंति-पुच्छा। ५३ उत्तर-गोयमा ! जलचरेहितो उववजंति, जहा असण्णी For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ संज्ञी तिर्यंच का नरकोपपात ३००३ जाव पजत्तएहिंतो उववजंति, णो अपजत्तपहिंतो उववजंति । भावार्थ-५३ हे भगवन् ! जो नरयिक संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संजी पंचेंद्रिय तियं व से आते हैं, वे जलचर से धल वर या खेचर से आते हैं ? ५३ उत्तर-हे गौतम ! वे जलचर से आते हैं, इत्यादि सब असंज्ञी के समान यावत् पर्याप्त से आते हैं, अपर्याप्त से नहीं। ५४ प्रश्न-पजत्तसंखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोगिए णं भंते ! जे भविए णेरइएसु उवजित्तए से णं भंते ! कइसु पुढविसु उववजेज्जा ? ५४ उत्तर-गोयमा ! सत्तसु पुढविसु उववजेजा, तं जहारयणप्पभाए जाव अहेसत्तमाए । ' . भावार्थ-५४ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिथंच किन नरक पवियों में उत्पन्न होता है ? , ५४ उत्तर-हे गौतम ! वह सातों ही नरक पृथ्वियों में उत्पन्न होता है । यथा-रत्नप्रभा यावत् अधःपप्तम पृथ्वी। - ५५ प्रश्न-पजत्तसंखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढविणेरइएसु उवघजित्तए से णं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववजेज्जा ? __ ५५ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सटिईएसु, उपको. सेणं सागरोवमट्टिईएसु उववजेजा । For Personal & Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००४ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ संज्ञी तिथंच का नरकोपपात - भावार्थ-५५ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञो पञ्चेन्द्रिय तियंच, रत्नप्रभा पृथ्वी में नरयिकपने उत्पन्न हो, तो कितने वर्ष की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? ५५ उत्तर-हे गौतम! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है । ५६ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति ? ५६ उत्तर-जहेव असण्णी। भावार्थ-५६ प्रश्न-हे भगवन् ! वे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यच, एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ५६ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत्, असंज्ञी के समान । ५७ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरंगा किं संघयणी पण्णता? ५७ उत्तर-गोयमा ! छव्विहसंघयणी पण्णता, तं जहा-वइरो. सभणारायसंघयणी, उसभणारायसंघयणी जाव छेवटुसंघयणी। सरीरो' गाहणा जहेव असण्णीणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उकोसेणं जोयणसहस्सं । भावार्थ-५७ प्रश्न-हे भगवन् ! उन के शरीर के संहनन कितने हैं ? ५७ उत्तर-हे गौतम ! उनके शरीर छहों संहनन वाले हैं। यथावज्रऋषभनाराचसंहनन यावत् सेवार्तसंहनन । शरीर की अवगाहना असंज्ञी के सनान जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन । For Personal & Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २४ उ. १ मंजी तियंत्र का नरकोपपात ५८ प्रश्न - तेसि णं भंते! जीवाणं सरीरगा किं संठिया पण्णत्ता ? ५८ उत्तर - गोयमा ! छव्विसंठिया पण्णत्ता, तं जहा - समचउ रंसा, णिग्गोहा जाव हुंडा । भावार्थ - ५८ प्रश्न - हे भगवन् ! उनके शरीर संस्थान कितने हैं ? ५८ उत्तर - हे गौतम ! छहों संस्थान होते हैं । यथा - समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल यावत् हुण्डक संस्थान । ५९ प्रश्न - तेसि णं भंते! जीवाणं कड़ लेस्साओ पण्णत्ताओ ? ५९ उत्तर - गोयमा ! छल्लेसाओ पण्णत्ताओ । तं जहा - कण्ह लेस्सा जाव सुकलेस्मा । दिट्टी तिविहा वि । तिष्णि णाणा तिष्णि अण्णाणा भयणाए । जोगो तिविहो वि । सेसं जहा असण्णीणं जाव अणुबंधो | णवरं पंच समुग्धाया आदिल्लगा । वेदो तिविहो वि. अवसेसं तं चैव जाव ३००५ भावार्थ - ५९ प्रश्न - हे भगवन् ! उन जीवों के लेश्याएँ कितनी होती हैं ? ५९ उत्तर - हे गौतम! उनके छहों लेश्याएँ होती हैं । यथा - कृष्ण-लेश्या यावत् शुक्ल-लेश्या । दृष्टियाँ तीन, ज्ञान तीन, अज्ञान तीन भजना (विकल्प) से होते हैं। योग तीनों होते हैं। शेष सब यावत् अनुबन्ध तक असंज्ञी के समान, किंतु समुद्घात प्रथम के पांच होते हैं और वेद तीनों होते हैं। शेष पूर्ववत् । यावत् ६० प्रश्न - से णं भंते! पज्जत्तसंखेज्जवासाज्य० जाव तिरिक्खजोणिए रयणप्पभा० जाव करेज्जा ? For Personal & Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २४ उ १ मंजी तिर्यंच का नरकोपपान ६० उत्तर - गोयमा ! भवादेसेणं जहणेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ट भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहण्णेणं दसवास सहस्सा ई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उक्को सेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहिं पुव्यकोडीहिं अमहियाई, एवइयं कालं सेवेजा जाव करेजा १ । भावार्थ - ६० प्रश्न - हे भगवन् ! वह पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच, रत्नप्रभा में नैरयिकपने उत्पन्न हो और फिर संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच हो, इस प्रकार कितने समय तक यावत् गमनागमन करता है ? ६० उत्तर - हे गौतम ! भव की अपेक्षा जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव तक तथा काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम काल तक सेवन करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है । १ । ३००६ ६१ प्रश्न - पज्जत्तसंखेज्ज० जाव जे भविए जहण्णकाल० जाव से णं भंते! केवइयकालट्टिईए उववज्जेज्जा ? ६१ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं दसवाससहस्सटिईएस, उक्कोसेण वि दसवास सहसईिएस जाव उववज्जेज्जा । भावार्थ - ६१ प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, रत्नप्रभा में जवन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? ६१ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की स्थिति के नैरयिकों में । ६२ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा० ? For Personal & Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ १ गंज्ञी तिर्यंच का नरकोपपात ६२ उत्तर - एवं मोचैव पढमो गमओ णिरवसेसों भाणियव्वो जाव कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साइं अतोमुहुत्तमव्भहियाई, उकोसेणं चत्तारि पुचकोडीओ चत्तालीसाए वाससहस्सेहिं अव्भहियाओ, एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गइरागई करेज्जा २ | भावार्थ - ६२ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ६२ उत्तर - हे गौतम ! पूर्ववत् (सूत्र ५६ से ५८ तक ) प्रथम गमक पूरा यावत् काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चालीस हजार वर्ष अधिक चार पूर्वकोटि तक यावत् गमनागमन करता है । २ । ३००३ ६३ - सो चेव उक्कोसका लट्ठिईएस उववण्णो जहण्णेणं सागरोवमट्ठिए, उक्कोसेण वि सागरोवमट्टिईएस उववज्जेज्जा । अवसेसो परिमाणादीओ भवादेसपज्जवसाणो सो चेव पढमगमो णेयव्वो जाव कालादेसेणं जहण्णेणं साग़रोवमं अंतोमुहुत्तमन्भहियं, उक्को सेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहिं पुव्वकोडीहिं अमहियाई, एवइयं कालं सेवेज्जा जाव करेजा ३ | AAAA भावार्थ - ६३ - यदि वह उत्कृष्ट काल की स्थिति में उत्पन्न हो, तो जघन्य एक सागरोपम और उत्कृष्ट भी एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरfasों में उत्पन्न होता है । शेष परिमाणादि से ले कर भवादेश तक का कथन पूर्वोक्त प्रथम गमक के समान है, यावत् काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है । ३ । For Personal & Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००८ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ संज्ञी तियंच का नरकोपपात ६४ प्रश्न-जहण्णकालहिईयपजत्तसंखेन्जवासाउयसष्णिपंचिं. दियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढवि० जाव उववजित्तए से णं भंते ! केवइकालटिईएसु उक्षजेजा ? ६४ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्टिईएसु, उको सेणं सागरोवमट्टिईएसु उववज्जेजा। भावार्थ-६४ प्रश्न-हे भगवन् ! जघन्य स्थिति वाला पर्याप्त संख्येयवर्षायष्क पंचेन्द्रिय तिर्यंच, रत्नप्रभा पृथ्वी में नैरयिक हो, तो वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? ६४ उत्तर-हे गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। ६५ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा० ? ६५ उत्तर-अवसेसो सो चैव गमओ । णवरं इमाइं अट्ठ णाणत्ताइं-१ सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभार्ग, उक्को. सेणं धणुहपहुत्तं, २ लेस्साओ तिण्णि आदिल्लाओ, ३ णो सम्मदिट्टी, मिच्छादिट्टी, णो सम्मामिच्छादिट्टी, ४ णो णाणी, दो अण्णाणा णियमं, ५ समुग्घाया आदिल्ला तिण्णि, ६ आउं, ७ अन्झवसाणा, ८ अणुवंधो य जहेव असण्णीणं । अवसेसं जहा पंढमगमए जाव कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अभहियाई, एवइयं For Personal & Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २४ उ. १ संनी तिर्यंच का नरकोपपात कालं जाव करेजा ४। भावार्थ-६५ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न । ६५ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम गमक के समान सारी वक्तव्यता जाननी चाहिये, किंतु इन आठ विषयों में विशेषता है । यथा-१-शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उकृष्ट धनुषपृथक्त्व (दो धनुष से ९ धनुष तक) होती है । २-उनमें प्रथम की तीन लेश्याएँ होती हैं । ३-वे सम्यग्दृष्टि या मिश्र-दृष्टि नहीं होते, एक मिथ्यादृष्टि ही होते हैं । ४-वे ज्ञानी नहीं, नियम से दो अज्ञान वाले होते हैं । ५-उनमें प्रथम को तीन समुद्घात होती हैं। ६-आयुष्य ७-अध्यवसाय और ८-अनुबन्ध, असंज्ञी के समान होता है, शेष सब प्रथम गमक के समान है, यावत् काल को अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार सागरोपम काल तक यावत् गमनागमन करता है ४ । . ६६ प्रश्न सो चेव जहण्णकालदिईएसु उववण्णो जहण्णेणं दसवाससहस्सटिईएम, उकोसेण वि दसवाससहस्सटिईएसु उववजेजा। ते णं भंते !.. ६६ उत्तर-एवं सो चेव चउत्थो गमओ णिरवसेसो भाणियव्वो जाव कालादेसेणं जहण्णण दसवासमहस्साई अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं चत्तालीसं वाससहस्साई चउहि अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाई, एवइयं जाव करेजा ५। भावार्थ-६६ प्रश्न-हे भगवन् ! जघन्य स्थिति वाला पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच-योनिक जीव, रत्नप्रभा में जघन्य स्थिति वाले नरयिकों में For Personal & Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१० भगवती सूत्र-श. २४ उ १ संज्ञो तिर्यच का नरकोपपात उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? . ६६ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की स्थिति के नैरयिकों में उत्पन्न होता है । यहां सम्पूर्ण चौथे गमक के समान, यावत् काल से जघन्य अन्तर्मुहूतं अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चालीस हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है । ५ । ६७ प्रश्न-सो चेव उक्कोसकालटिईएसु उववण्णो जहण्णेणं सागरोवमट्टिईएसु उववज्जेजा, उक्कोसेण वि सागरोवमट्टिईएसु उववज्जेजा। ते णं भंते ? . ६७ उत्तर-एवं सो चेव चउत्थो गमओ गिरवसेसो भाणियव्वो जाव कालादेसेणं जहण्णेणं सागरोवम अंतोमुहुत्तमभहियं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई, एवइयं जाव करेजा ६। ___ भावार्थ-६७ प्रश्न-हे भगवन् ! जघन्य स्थिति वाला यावत् संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच, रत्नप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो कितनी स्थिति में उत्पन्न होता है ? । ६७ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है । यहां चौथे गमक के समान यावत् काल से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक सागरोपम और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है । ६ । ६८ प्रश्न-उक्कोसकालट्ठिईयपज्जत्तसंखेज्जवासाउय० जाव For Personal & Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ. १ संज्ञी तियंच का नरकोपपात तिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढविणेग्इएस उववज्जितए से णं भंते ! केवइयकालट्ठिईएस उववज्जेज्जा ? ६८ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं दसवासमहस्सट्टिईएस, उकोसेणं सागरोवमट्टिईएसु उववज्जेज्जा । भावार्थ - ६८ प्रश्न - हे भगवन् ! वह उत्कृष्ट स्थिति वाला संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? ६८ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है । ६९ प्रश्न - ते णं भंते जीवा० ? ६९ उत्तर - अवसेसो परिमाणादीओ भवाएसपज्जवसाणो एएसिं चैव पढमगमओ यव्वो णवरं ठिई जहणणेणं पुव्वकोडी, उक्कोमेण विपुव्वकोडी । एवं अणुबंधो वि, सेसं तं चैवं । कालादेसेणं जहणेणं पुचकोडी दमहिं वासमहस्सेहिं अमहिया, उक्कोसेणं चत्तारि सागगेवमाई चउहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई, एवइयं कालं जाव करेजा ७ । भावार्थ - ६९ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ६९ उत्तर - हे गौतम! परिमाण से ले कर भवादेश तक की वक्तव्यता के लिये संज्ञी पञ्चेन्द्रिय का प्रथम गमक जानना चाहिये । विशेष यह है कि स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की होती है और इसी प्रकार अनुबन्ध ३०११ For Personal & Private Use Only ". Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१२ भगवती सूत्र - २४ उ १ संज्ञी तिथंच का नरकोपपात भी होता है, शेष पूर्ववत् । काल की अपेक्षा जघन्य दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है ७ । ७० - सो चैव जहण्णका लट्ठिईएसु उववण्णो जहण्णेणं दसवासमहस्त दिईए, उक्को सेण वि दसवास सहस्सट्टिईएस उववज्जेज्जा । ७० - वह जंघन्य और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है । ७१ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा० ? ७१ उत्तर - सो चेव सत्तमो गमओ णिरवसेसो भाणियव्वो, जाव 'भवादेसी' त्ति । कालादेसेणं जहणेणं पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्लेहिं अमहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुव्वकोडींओ चत्तालीसाए वाससहस्सेहिं अन्भहियाओ, एवइयं जाव करेजा ८ । भावार्थ - ७१ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ७१ उत्तर - हे गौतम! परिमाण से ले कर भवादेश तक सातवें गमकवत् । काल से जघन्य दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि वर्ष और उत्कृष्ट चालीस हजार वर्ष अधिक चार पूर्वकोटि वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है ८ । ७२ प्रश्न - उक्कोसका लट्ठियपज्जत्त० जाव तिरिखखजोणिए णं भंते ! जे भविए उक्कोसकालट्ठिईय० जाव उववज्जित्तए से गं भंते ! केवइकालट्ठिएस उववज्जेज्जा ? For Personal & Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-टा. २८ उ. ? मंज्ञी तियं व का नरकोपपात ३.१३ ___७२ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमट्टिईएसु, उक्कोसेण वि सागरोवमट्टिईएमु उववजेजा । भावार्थ-७२ प्रश्न-हे भगवन् ! उत्कृष्ट स्थिति वाला पर्याप्त पंचेंद्रिय तिथंच उत्कृष्ट स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले नयिकों में उत्पन्न होता है ? ७२ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है । ७३ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा ? ७३ उत्तर-सो चेव सत्तमगमओ णिरवसेसो भाणियव्वो जाव 'भवादेसो' त्ति । कालादेसेणं जहण्णेणं सागरोवमं पुवकोडीए अव्भहियं, उकोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहिं पुवकोडीहिं अव्भहियाई, एवइयं जाव करेजा ९ । एवं एए णव गमका उक्खेवणिक्खे. वओ णवसु वि जहेव असण्णीणं । भावार्थ-७३ प्रश्न-हे भगवन् ! वे एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ७३ उत्तर-हे गौतम! परिमाण से ले कर भवादेश तक के लिये सातवां गमक सम्पूर्ण कह देना चाहिये यावत् काल की अपेक्षा जधन्य पूर्वकोटि अधिक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम तक यावत गमनागमन करता है । इस प्रकार ये नव गमक होते हैं। इन नव गमकों का प्रारम्भ और उपसंहार असंज्ञी के समान है। विवेचन-संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच जो नरक में उत्पन्न होने वाले हैं, उनमें तीन ज्ञान या तीन अज्ञान विकल्प से होते हैं अर्थात् किसी में दो ज्ञान या तीन ज्ञान होते हैं और किसी में दो अज्ञान या तीन अज्ञान होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१४ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ संज्ञी तिर्यंच का नरकोपपात ___ असंजी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में प्रथम की तीन समुद्घात होती हैं और नरक में जाने वाले संज्ञी तिर्यंच पञ्चेन्द्रिय के पहले की पांच समुद्घात होती हैं । अन्तिम दो समुद्घात (आहारक समुद्घात और केवली समुदुधात नहीं होता। क्योंकि ये दो समुद्घात मनुष्यों के सिवाय दूसरे जीवों में नहीं होती)। संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यच जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव करता है । अर्थात् संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच नरक में उत्पन्न होता है और वहां से निकल कर तिर्यंच होता है। इसी प्रकार उत्कृष्ट आठ भव समझना चाहिये। इस प्रकार चार भव संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच के और चार भव नरक के कर के नौवें भव में मनुष्य होता है । इस प्रकार औधिक (सामान्य) संज्ञी तिर्यंच पञ्चेन्द्रिय का औधिक नरयिकों में उत्पन्न होने रूप प्रथम गमक है । जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने रूप दूसरा गमक है और उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने रूप तीसरा गमक है। जघन्य स्थिति वाला तिर्यच नरक में उत्पन्न होने रूप चौथा गमक है । इसमें आठ नानात्व (अन्तर) है । यथा-अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट धनुष पृथक्त्व (दो धनुष से लगा कर नव धनुष तक), लेश्या प्रथम की तीन, दृष्टि एक मिथ्यादृष्टि, अज्ञान दो, प्रथम की तीन समुद्घात । आयुष्य अन्तर्मुहूर्त, मध्यवसाय अशुभ और अनुबन्ध आयुष्य के अनुसार होता है । शेष कथन संज्ञी के प्रथम गमक के समान है। जघन्य स्थिति वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यच का जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने रूप पांचवां गमक है. और उत्कृष्ट स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न होने रूप छठा गमक है। उत्कृष्ट स्थिति वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यच का नरक में उत्पन्न होने रूप सातवां गमक है । इसका आयुष्य और अनुबन्ध पूर्वकोटि वर्ष का होता है और उसी का जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में । उत्पन्न होने रूप आठवां गमक है तथा उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने रूप नौवाँ गमक है। इस प्रकार पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यच की अपेक्षा रत्नप्रभा पृथ्वी सम्बन्धी वक्तव्यता कही गई है । आगे उसी की अपेक्षा शर्कराप्रभा की वक्तव्यता कही जायगी। . ७४ प्रश्न-पजत्तसंखेज्जवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए सकरप्पभाए पुढवोए जेरइएसु उववज्जित्तए से For Personal & Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २४ उ. १ मंशी तिर्यंच का नरकोपपात ३०१५ णं भंते ! केवइकालदिईएसु उववज्जेज्जा ? __७४ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं सागगेवमट्टिईएसु, उक्कोसेणं तिसागगेवमट्टिईएसु उववज्जेजा।। __ भावार्थ-७४ प्रश्न-हे भगवन ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञो पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, शर्कराप्रभा पृथ्वी में नैरयिकपने उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? __७४ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक सागरोपम और उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है । ७५ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० ? ७५ उत्तर-एवं जहेव रयणप्पभाए उववज्जंतगस्स लद्धी सच्चेव णिरवसेसा भाणियव्वा जाव 'भवादेसो' ति। कालादेसेणं जहण्णेणं सागरोवमं अंत्तोमुहत्तमभहिये, उकोसेणं बारस सागरोवमाइं चउहिं पुवकोडीहिं अव्भहियाई, एवड्यं जाव करेजा १ । एवं रयणप्पभा. पुढविगमगसरिमा णव वि गमगा भाणियव्वा । णवरं सव्वगमएमु वि इयट्टिईसंवेहेसु मागरोवमा भाणियब्वा, एवं जाव 'छट्ठपुढवि' त्ति० । णवरं गैरइयटिई जा जत्थ पुढवीए जहण्णुकोसिया सा तेणं चेव कमेणं चउगुणा कायव्वा । वालुयप्पभाए पुढवीए अट्ठावीसं सागरोवमाई चउगुणिया भवंति, पंकप्पभाए चत्तालीसं, धूमप्पभाए अट्ठसटिं, तमाए अट्ठासीई । संघयणाई-वालुयप्पभाए पंचविहसंघयणी, For Personal & Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१६ भगवती मूत्र-श. २४ उ. १ संज्ञी तिर्यच का नरकोपपात तं जहा-वयरोसहणारायसंघयणी जाव खीलियासंघयणी, पंकप्पभाए चउब्बिहसंघयणी, धूमप्पभाए तिविहसंघयणी, तमाए दुविहसंघयणी तं जहा-वयरोसभणारायसंघयणी य १ उसभणारायसंघयणी य २, सेसं तं चेव । भावार्थ-७५ प्रश्न-हे भगवन् ! वे एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ७५ उत्तर-हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यच की सम्पूर्ण वक्तव्यता भवादेश तक जाननी चाहिये । काल से जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक बारह सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है। (१) इस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के गमक के समान नव गमक जानने चाहिये। विशेषता यह है कि नैरयिक की स्थिति और संबंध में 'सागरोपम' जानना, इसी प्रकार यावत् छठी नरक पर्यत । जिस नरक में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति जितने काल की हो, उस स्थिति को उसी क्रम से चार गुणी करनी चाहिये। जैसे-वालकाप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की है । उसे चार गुणा करने से अट्ठाईस सागरोपम होती है। इसी प्रकार पंकप्रभा में चालीस सागरोपम, धूमप्रभा में अड़सठ सागरोपम और तमःप्रभा में ८८ सागरोपम की स्थिति होती है । संहनन के विषय में वालुकाप्रभा में वज्रऋषभनाराच से कीलिका तक पांच संहनन वाले जाते हैं । पंकप्रभा में प्रथम के चार संहनन वाले, धूमप्रभा में प्रथम के तीन संहनन वाले और तमःप्रभा में प्रथम के दो संहनन वाले नरयिकपने उत्पन्न होते हैं। शेष सब पूर्ववत् । ७६ प्रश्न-पजत्तसंखेजवासाउय० जाव तिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए अहेसत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उववजित्तए से णं For Personal & Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. २४ उ. १ संज्ञी नियंत्र का नरकोपपात ३०१७ भंते ! केवइकालटिईएमु उववज्जेज्जा ? ७६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं वावीससागरोवाईएसु, उकोसेणं तेत्तीससागगेवमट्टिईएसु उववज्जेज्जा। भावार्थ-७६ प्रश्न-हे भगवन ! पर्याप्त संख्येयवर्षायष्क संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच सातवी नरक पृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? ___७६ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है । ७७ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा० ? ७७ उत्तर-एवं जहेव रयणप्पभाए णव गमगा लद्वी वि सच्चेव । गवरं वयरोसभणारायसंघयणी । इत्थीवेयगा ण उववज्जंति, सेसं तं चेव जाव 'अणुबंधो' त्ति । संवेहो भवादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं सत्त भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं सागरोवमाई दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई चउहिं पुवकोडीहिं अन्भहियाई, एवइयं जाव करेज्जा १। भावार्थ-७७ प्रश्न-हे भगवन् ! एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ७७ उत्तर-हे गौतम ! रत्नप्रभा के समान इसके भी नौ गमक और सम्पूर्ण वक्तव्यता जानो। विशेष यह है कि वहां वज्रऋषभनाराच संहनन वाला संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यच जीव ही उत्पन्न होता है । स्त्रीवेद वाले जीव For Personal & Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१८ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ संज्ञी तिर्यंच का नरकोपपात वहां उत्पन्न नहीं होते, शेष सब यावत् अनुबन्ध तक पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिये । संवेध जघन्य भव की अपेक्षा तीन भव और उत्कृष्ट सात भव तथा काल की अपेक्षा जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है १। ७८-सो चेव जहण्णकालट्टिईएसु उववण्णो० सच्चेव वत्तव्वया जाव 'भवादेसो' त्ति । कालादेसेणं जहणेणं० कालादेसो वि तहेव जाव चउहिं पुवकोडीहिं अभहियाई, एवइयं जाव करेजा २ । __भावार्थ-७८ प्रश्न-हे भगवन् ! वह संज्ञी तिर्यच पंचेंद्रिय जीव, सातवीं नरक में जघन्य स्थिति के नैरयिकों में कितने काल की स्थिति वाला होता है ? ७८ उत्तर-हे गौतम ! भवादेश तक पूर्वोक्त वक्तव्यतानुसार, जघन्य कालादेश भी उसी प्रकार यावत् चार पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है २ । ____७९-सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो० सच्चेव लद्धी जाव 'अणुबंधो' त्ति । भवादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाई दोहि अंतोमुहुत्तेहिं अन्भहियाई, उक्कोसेणं छावष्टुिं सागरो. वमाइं तिहिं पुनकोडीहिं अमहियाई, एवइयं जाव करेजा ३॥ ७९-उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो, इत्यादि वक्तव्यता यावत् अनुबन्ध तक पूर्ववत् । भव की अपेक्षा जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट पांच भव तथा काल की अपेक्षा जघन्य दो अन्तर्मुहर्त अधिक सेतीस सागरोपम और For Personal & Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ संज्ञी तिर्यंच का नरकोपपात उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम काल तक यावत् गमनागमन करता है ३। . ८०-सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ जाओ० सच्चेव रयणप्पभापुढविजहण्णकालट्टिईयवत्तव्वया भाणियवा जाव 'भवा. देसो त्ति, गवरं पढमसंघयणं, णो इत्थिवेयगा। भवादेसेणं जहणेणं तिण्णि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं सत्त भवग्गहणाइं । कालादेसेणं जहणणं वावीसं सागरोवमाइं दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अभहियाई, उक्को-.. सेणं छावहिँ सागगेवमाइं चउहि अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाई, एवइयं जाव करजा ४। ८०-जघन्य स्थिति वाला वह संज्ञी पंचेंद्रिय तियंच, सातवीं नरक पृथ्वी में नरयिकपने उत्पन्न हो, इस विषयक सारी वक्तव्यता रत्नप्रभा में उत्पन्न होने वाले जघन्य स्थिति वाले संज्ञी तियंच पंचेंन्द्रिय के समान यावत् भवादेश पर्यन्त । विशेष यह कि सातवीं नरक पृथ्वी में उत्पन्न होने वाला प्रथम संहननी होता है, वह स्त्रीवेदी नहीं होता । भव की अपेक्षा जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट सात भव तथा काल को अपेक्षा जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक ६६ सागरोपम काल तक यावत् गमनागमन करता है। ८१-सो चेव जहण्णकालट्टिईएसु उववण्णो० एवं सो चेव चउत्थो गमओ गिरवसेसो भाणियव्यो जाव 'कालादेसो' ति ५। ८१-जघन्य स्थिति वाला संज्ञो पंचेन्द्रिय तियंच, सातवीं नरक में For Personal & Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२० भगवती गुत्र-श. २४ उ. १ संज्ञी तिर्यंच का नरकोपपात जघन्य स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न हो, तो चौथा गमक यावत् कालादेश तक सम्पूर्ण जानना चाहिये । ५ । ८२-सो चेव उक्कोसकालदिईएसु उववण्णो० सच्चेव लद्धी जाव 'अणुबंधो' ति । भवादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरो. वमाइं दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावहिँ सागरोवमाइं तिहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई, एवइयं कालं जाव करेजा ६। भावार्थ-८२ जघन्य स्थिति वाला संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, सातवीं नरक में उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो, इस विषय में यावत् अनुबन्ध तक पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिये । भव की अपेक्षा जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट पांच भव तथा काल की अपेक्षा जघन्य दो अन्तर्मुहर्त अधिक तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन अन्तर्मुहूर्त अधिक ६६ सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है । ६ । ८३-सो चेव अप्पणा उक्कोसकालढिईओ जहण्णेणं बावीससागरोवमट्टिईएसु, उक्कोसेणं तेत्तीससागरोवमट्टिईएसु उववज्जेजा। भावार्थ-८३-उत्कृष्ट स्थिति वाला संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच, सातवीं नरक में उत्पन्न हो, तो वह जघन्य बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न होता है। ८४-ते णं भंते !० अवसेसा सच्चेव सत्तमपुढविपढमगमगवत्तव्यया For Personal & Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २४ उ. १ संजी तिथंच का नरकोपपात ६०२१ भाणियब्वा जाव 'भवादेसो ति। णवरं ठिई अणुबंधो य जहण्णेणं पुवकोडी उक्कोसेण वि पुटवकोडी, सेसं तं चेव । कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाई दोहिं पुवकोडीहिं अमहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई चउहि पुवकोडीहिं अब्भहियाई, एवइयं जाव करेजा ७। ___ भावार्थ-८४-वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं, इत्यादि सम्पूर्ण वक्तव्यता सात्वी नरक पृथ्वी के प्रथम गमक के समान यावत् भवादेश पर्यंत । विशेष में स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि, शेष सब पूर्ववत् । संवेध, काल से जघन्य दो पूर्वकोटि अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है । ७ । ८५-सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णो० सच्चेव लद्दी संवेहो वि तहेव सत्तमगमगसरिसो ८ । ___ भावार्थ-८५-उत्कृष्ट स्थिति वाला संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, सातवीं नरक में जघन्य स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न हो, तो पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिये । संवेध सातवें गमक के समान है । ८ ।। ___ ८६-सो चेव उक्कोसकालट्टिईएसु उववण्णो० एस चेव लद्धी जाप 'अणुबंधो' त्ति । भवादेसेणं अहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहणेणं तेत्तीसं सागगे. वमाइं दोहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं For Personal & Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२२ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ मंज्ञी तिर्यंच का नरकोपपात तिहिं पुव्वकोडीहिं अमहियाई, एवइयं कालं सेवेजा जाव करेजा ९ । ८६-उत्कृष्ट स्थिति वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सातवीं नरक में उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिक में उत्पन्न हो, तो पूर्वोक्त वक्तव्यता यावत् अनुबन्ध पर्यंत । संवेध, भव से जघन्य तीन मव और उत्कृष्ट पांच भव तथा काल से जघन्य दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है ९। विवेचन-परिमाण, संहनन आदि की प्राप्ति जो रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होने वाले नै रयिक की कही गई है, वह शर्कराप्रभा के विषय में भी जाननी चाहिये । शर्कराप्रभा में संज्ञी जीव की अपेक्षा जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति बारह सागरोपम कही गई है । क्योंकि शर्कराप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की है। उसे चार से गुणा करने पर बारह सागरोपम होती है । इसी प्रकार मंजी पंचेन्द्रिय तिर्यंच के चार भवों में चार पूर्वकोटि होती है। रत्नप्रभा में जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है । शर्कराप्रभा आदि नरक पृथ्वियों में क्रमशः तोन, सात, दस, सतरह, बाईस और तेतीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है । पूर्व-पूर्व की नरक पृथ्वियों में जो उत्कृष्ट स्थिति होती है, वही आगे-आगे की नरक पृथ्वियों में जघन्य स्थिति होती है । अतः शर्कराप्रभा आदि में स्थिति और संघ के विषय में सागरोपम कहना चाहिये । छठी नरक पृथ्वी तक नव ही गमकों का कथन रत्नप्रभा के गमकों के तुल्य है। जिम नरक की. जितनी उत्कृष्ट स्थिति है. उत्कृष्ट कायसवेध उससे चार गुणा है । जैसे तीसरी वालुकाप्रभा नरक की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम है उसे चार से गुणा करने पर अट्ठाईस सागरोपम से उत्कृष्ट कायसंवेध होता है। इसी प्रकार आगे-आगे की नरक पृथ्वियों में भी समझना चाहिये। . पहली और दूसरी नरक में छहों संहनन वाले जीव जाते हैं। फिर आगे-आगे की नरकों में एक-एक संहनन कम होता जाता है । अत: तीसरी में पांच संहनन वाले, चौथी में चार संहनन वाले, पाँचवीं में तीन संहनन वाले, छठी में दो संहनन वाले और सातवीं में केवल वज्र ऋषभनाराच संहनन वाले ही जाते हैं । सातवीं नरक में स्त्रीवेदी जीव नहीं जाते, क्योंकि स्त्रीवेदी जीवों की उत्पत्ति छठी नरक तक ही होती है। सातवीं नरक में जघन्य तीन भव कहे गये है अर्थात् दो जलचर मत्स्य के भव और एक नरक भव, इस प्रकार जघन्य तीन भव होते हैं और उत्कृष्ट चार मत्स्य भव For Personal & Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ १ मनुष्यों का नरकोपपात और तीन नरक भव, इस प्रकार सात होते हैं । कालादेश से यहां दो अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस सागरोपम कहा गया है, सो सातवीं पृथ्वी के नरक भत्र सम्बन्धी जघन्य स्थिति के बाईस सागरोपम समझने चाहिये और प्रथम तथा तृतीय मत्स्य भत्र सम्बन्धी दो अन्तर्मुहूर्त समझने चाहिये । सातवीं पृथ्वी में बाईस सागरोपम का स्थिति से तीन वार उत्पन्न होता है । इसलिये ६६ सागरोपम की स्थिति कही गई है। नारक भवान्तरित चार मत्स्य भव होते हैं । उनको अपेक्षा चार पूर्वकोटि कही गई है। इससे यह फलितार्थ होता है कि सातवीं नरक पृथ्वी में जन्य स्थिति वाले नैरयिकों में ही उत्कृष्ट तीन वार उत्पन्न होता है, यदि ऐसा न हो, तो ऊपर कहा हुआ काल परिमाण घटित नहीं हो सकता। यहां उत्कृष्ट काल की विवक्षा की गई है, इसलिये जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में तीन बार उत्पन्न होने का कथन किया गया है और चार मत्स्य भवों की अपेक्षा चार पूर्वकोटि का कथन किया गया है । उत्कृष्ट स्थिति वाले नरयिकों में दो बार ही उत्पत्ति होती है । उस अपेक्षा से ६६ सागरोपम का कथन किया गया है और तीन मत्स्य भवों की अपेक्षा तीन पूर्वकोटि का कथन किया गया है। यह पहला गमक है । जघन्य काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने का दूसरा गमक है । उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने सम्बन्धी तीसरा गमक है । इसमें उत्कृष्ट पांच भव ग्रहण का कथन किया गया है । जिनमें तीन मत्स्य भव और दो नारक भव समझने चाहिये । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सातवीं नरक में मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में दो ही बार उत्पन्न होता है । जघन्य स्थिति वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने सम्बन्धी चौथा गमक है। इसकी वक्तव्यता रत्नप्रभा के चौथे गमक के समान है । अन्तर केवल इतना है कि रत्नप्रभा में छह संहनन और तीन वेद कहे गये हैं, किन्तु सातवीं नरक के चौथे गमक में केवल एक वज्र ऋषभनाराच संहनन का कथन करना चाहिये और स्त्रीवेद का निषेध करना चाहिये । शेष गमकों का कथन स्पष्ट ही है । ३०२३ मनुष्यों का नरकोपपात ८७ प्रश्न - जइ मणुस्सेहिंतो उववज्जंति किं सष्णिमणुस्सेहिंतो For Personal & Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२४ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ मनुष्यों का नरकोपपात उववज्जंति, असण्णिमणुस्सेहिंतो उववज्जति ? ८७ उत्तर-गोयमा ! सण्णिमणुस्सेहिंतो उववज्जति, णो असण्णीमणुस्सेहिंतो उववज्जति । ____ . भावार्थ-८७ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वह नैरयिक, मनुष्यों से आता है, तो संज्ञी मनुष्यों से आता है या असंज्ञी मनुष्यों से ? ८७ उत्तर-हे गौतम ! वह संज्ञी मनुष्यों से आता है, असंज्ञी मनुष्यों से नहीं। ८८ प्रश्न-जइ सण्णिमणुस्सेहिंतो उववज्जति किं संखेजवासाउयसण्णिमणुस्सेहिंतो उववज्जंति, असंखेज जाव उववज्जति ? ८८ उत्तर-गोयमा ! संखेजवासाउयसण्णिमणुस्सेहिंतो उववज्जति, णो असंखेजवासाउय० जाव उववज्जति । ___ भावार्थ-८८ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वह संज्ञौ मनुष्यों से आता है, तो संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी मनुष्यों से आता है या असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञो मनुष्यों से ? ८८ उत्तर-हे गौतम ! वह संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी मनुष्यों से आता है, असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञो मनुष्यों से नहीं। ८९ प्रश्न-जइ संखेजवासाउय० जाव उववज्जति किं पजत्तसंखेजवासाउय०, अपजत्तसंखेन्जवासाउय० ? ८९ उत्तर-गोयमा ! पजत्तसंखेजवासाउय०, णो अपजत्तसंखेजवासाउय० जाव उववज्जति । For Personal & Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ मनुष्यों का नरकोपपात ३०२५ ____ भावार्थ-८९ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वह संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संजो मनुष्यों से आता है, तो क्या पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी मनुष्यों से आता है या अपर्याप्त से ? ८९ उत्तर-हे गौतम ! वह पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी मनुष्यों से आता है, अपर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञो मनुष्यों से नहीं। ९० प्रश्न-पजत्तसंखेन्जवासाउयसण्णिमणुस्से गं भंते ! जे भविए णेरइएसु उववजित्तए से णं भंते ! कहसु पुढवीसु उववज्जेजा ? ९० उत्तर-गोयमा ! सत्तसु पुढवीसु उववज्जेजा, तं जहारयणप्पभाए जाव अहेसत्तमाए । भावार्थ-९० प्रश्न-हे भगवन् ! संख्यात वर्ष की आयुष्य वाला पर्याप्त संजो मनुष्य, नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो कितनी नरक पृथ्वियों में उत्पन्न होता है ?.. ९० उत्तर-हे गौतम ! वह सातों ही नरक पृथ्वियों में उत्पन्न होता है । यथा-रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तम नरक-पृथ्वी में । ९१ प्रश्न-पजत्तसंखेजवासाउयसण्णिमणुस्से णं भंते ! जे भविए रयणप्पभाए पुढवीए णेरइएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइकाललिइएसु उववज्जेजा ? ___९१ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्टिईएसु, उक्को. सेणं सागरोवमट्टिईएसु उववज्जेजा। भावार्थ-९१ प्रश्न-हे भगवन् ! संख्यात वर्ष की आयुष्य वाला पर्याप्त संज्ञी For Personal & Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२६ भगवती गूत्र-श. २८ उ. १ मनुष्यों का नरकोपपात मनुष्य, रत्नप्रभा पृथ्वी के नैयिकों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? ९१ उत्तर-हे गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न होता है। । ९२ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति ? .. ९२ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा उववजंति । संघयणा छ, सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलपुहत्तं, उक्कोसेणं पंचधणुसयाई । एवं सेसं जहा सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव 'भवादेसो' ति । णवरं चत्तारि णाणा तिणि अण्णाणा भयणाए । छ समुग्धाया केवलिवजा । ठिई अणुबंधो य जहण्णेणं मासपुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी, सेसं तं चेव । कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई मासपुद्दुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहिं पुब्बकोडीहिं अमहियाईएवइयं जा करेजा १। भावार्थ-९२ प्रश्न-हे भगवन् ! वे संख्येय-वर्षायुष्क पर्याप्त संज्ञी मनुष्य एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ९२ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं । वे छहों संहनन वाले होते हैं । शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुलपृथक्त्व (दो अंगुल से नौ अंगुल तक) और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की होती है । शेष सब संज्ञो पंचेंद्रिय तियंच-योनिक जीव के समान यावत् भवादेश तक । विशेषता यह कि मनुष्यों के चार ज्ञान और तीन अज्ञान विकल्प से For Personal & Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ मनुष्यों का नरकोपपात होते हैं । केवलिसमुद्घात को छोड़ कर शेष छह समुदघात होती है । स्थिति और अनुबन्ध जघन्य मास-पृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि । शेष सब पूर्ववत् । संवेध-काल को अपेक्षा जघन्य मास-पृथक्त्व अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है १ । ९३-सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववष्णो-एस चेव वत्तव्वया। णवरं कालादेमेणं जहण्णेणं दसवासमहस्साइं मासपुहत्तमभहियाई, उकोसेणं चत्तारि पुव्वकोडीओ चत्तालीसाए वाससहरसेहिं अभहियाओ-एवइयं ० २। ९३-यदि वह मनुष्य जघन्य काल की स्थिति वाले रत्नप्रभा नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो पूर्ववत् । विशेषता यह कि काल की अपेक्षा जघन्य मासपृथक्त्व अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चालीस हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है २। ९४-सो चेव उक्कोसकोलट्ठिईएसु उववण्णो-एस चेव वत्तव्वया। णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं सागगेवमं मासपुहुत्तमभहियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहिं पुव्वकोडीहिं अभहियाई-एवइयं जाव करेजा ३। . ९४-यदि वह मनुष्य, उत्कृष्ट स्थिति वाले रत्नप्रभा नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो उसके लिए पूर्वोक्त सभी वर्णन जानना चाहिए। विशेषता यह कि. काल से मास-पृथक्त्व अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है ३। .. ... For Personal & Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ १ मनुष्यों का नरकोपपात ९५ - सो चेव अपणा जहण्णकालट्ठिईओ जाओ - एस चेव वत्तव्वया । णवरं इमाई पंच णाणत्ताई - १ सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलपुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंगुलपुहुत्तं, २ तिष्णि णाणा तिष्णि अण्णाणाई भयणाए, ३ पंच समुग्धाया आदिल्ला, ४ टिई ५ अणुबंधो य जहण्णेणं मासपुहुत्तं, उक्कोसेण वि मासपुहुत्तं, सेसं तं चेव, जाव 'भवादेसी' त्ति । कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई मासपुहुत्त - मन्भहियाई, उकोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहिं मासपुहत्तेहिं अभ हियाई - एवइयं जाव करेजा ४ | ३०२८ भावार्थ - ९५ - यदि वह मनुष्य स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो और रत्नप्रभा के नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो पूर्वोक्त जानना चाहिए । विशेषता यह कि १ - शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुलपृथक्त्व और उत्कृष्ट भी अंगुलपृथक्त्व होती है, २-तीन ज्ञान और तीन अज्ञान विकल्प से होते हैं, ३-प्रथम की पाँच समुद्घात होती हैं, ४-५ स्थिति और अनुबन्ध जघन्य मासपृथक्त्व और उत्कृष्ट भी मासपृथक्त्व होता है । शेष भवादेश तक पूर्ववत् जानना चाहिए । काल की अपेक्षा जघन्य मासपृथक्त्व अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार मासपृथक्त्व अधिक चार सागरोपम काल तक यावत् गमनागमन करता है |४ | ९६ - सो चेव जहण्णकालट्ठिईएस उववण्णो-एस चैव वत्तव्वया त्थगमगसरिसा यव्वा । णवरं कालादेसेणं जहणेणं दसवाससहस्साईं मासपुहुत्तमन्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तालीसं वाससहस्सा ई चउहिं मासपुहुत्तेहिं अन्भहियाई - एवइयं जाव करेज्जा ५ । For Personal & Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २४ उ. १ मनप्यों का नरकोपपति ३०२९ भावार्थ-९६ यदि वह जघन्य स्थिति वाला मनुष्य, जघन्य स्थिति वाले रत्नप्रभा नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो पूर्वोक्त चौथे गमक के समान। विशेषता यह कि काल की अपेक्षा जघन्य मासपथक्त्व अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार मासपृथक्त्व अधिक चालीस हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है ।५। ९७-सो चेव उक्कोसकालट्टिईएसु उववण्णो-एस चेव गमगो। णवरं कालादेमेणं जहण्णेणं सागरोवमं मासपुहत्तमभहियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चाहिं मासपुहुत्तेहिं अब्भहियाई-एवइयं जाव करेजा ६। भावार्थ-९७-यदि वह जघन्य स्थिति वाला मनुष्य उत्कृष्ट स्थिति वाले रत्नप्रभा नेरयिकों में उत्पन्न हो, तो पूर्वोक्त गमकानुसार । विशेषता यह कि काल को अपेक्षा जघन्य मासपृथक्त्व अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार मासपृथक्त्व अधिक चार सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है ।६।। ९८-सो चेव अप्पणा उकोसकालट्ठिईओ जाओ, सो चेव पढमगमओ णेयव्यो । णवरं सरीरोगाहणा जहण्णेणं पंचधणुसयाई, उक्कोसेण वि पंचधणुसयाई, ठिई जहण्णेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुवकोडी, एवं अणुबंधो वि। कालादेसेणं जहण्णेणं पुषकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया, उक्कोसेण चत्तारि सागरोवमाई चाहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाइं-एवइयं काल जाव करेजा ७।। भावार्थ-९८-यदि वह मनुष्य स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और रत्नप्रभा नरयिकों में उत्पन्न हो, तो इसके विषय में प्रथम गमक के समान । विशेषता For Personal & Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३० भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ मनुष्यों का नरकोपपात यह है कि शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की होती है। स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की होती है और इसी प्रकार अनुबन्ध भी होता है । काल से जघन्य पूर्वकोटि अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम तक यावत् गमनागन करता है ७ । ९९-सो चेव जहण्णकालटिईएसु उववष्णो,सच्चेव सत्तमगमगवत्तव्वया । णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अमहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडीओ चत्तालीसाए वाससहस्सेहिं अमहियाओ-एवइयं कालं जाव करेजा ८ । ९९-वह उत्कृष्ट स्थिति वाला मनुष्य, जघन्य स्थिति वाले रत्नप्रभा मेरयिकों में उत्पन्न हो, तो सातवें गमक के अनुसार । विशेषता में काल से जघन्य दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट चालीस हजार वर्ष अधिक चार पूर्वकोटि तक यावत् गमनागमन करता है ८ । १००-सो चेव उक्कोसकालढिईएसु उवषण्णो, स च्चेव सत्तम * गमगवत्तव्वया । णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं एगं सागरोवमं पुव्वकोडीए अब्भहियं, उकोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चरहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई-एवइयं कालं जाव करेजा ९ । १००-वह उत्कृष्ट स्थिति वाला मनुष्य उत्कृष्ट स्थिति वाले रत्नप्रभा नयिकों में उत्पन्न हो, तो पूर्वोक्त सातवें गमक वक्तव्यतावत् । विशेषता यह है कि काल से जघन्य पूर्वकोटि अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है ९ । For Personal & Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता सूत्र-श. २४ उ. ! मनुष्या का नरकोपपात ३०३१ विवेचन-संज्ञी मनुष्य सदा संख्यात ही होते हैं, इसलिये उत्कृष्ट रूप से उनकी उत्पत्ति संख्यात ही होती है । नरक में उत्पन्न होने वाले गर्भज मनुष्य में चार ज्ञान, तीन अज्ञान भनना से कहे गये हैं । इस विषय में चूणिकार का कथन यह है-'ओहिणाणमणपज्जव आहारयसरीराणिलदणं परिसाडिता उववज्जति अर्थात् जो मनुष्य अवधिज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान और आहारक शरीर प्राप्त करके बाद में वहाँ से गिर कर नरक में उत्पन्न होता है (यहां मनःपर्यत्र ज्ञान और आहारक शरीर उसकी पूर्व अवस्था की अपेक्षा समझना चाहिये अवधिज्ञान को तो साथ में लेकर तीसरी नरक तक उत्पन्न हो सकता है ) उस मनुष्य में चार ज्ञान और तीन अज्ञान विकल्प से लिये गये हैं। दो मास से कम की आयुष्य वाला मनुष्य नरक गति में नहीं जाता, इसलिये नरक गति में जाने वाले मनुष्य का जघन्य आयुष्य मास पृथक्त्व होता है । मनुष्य हो कर यदि नरक गति में उत्पन्न हो, तो एक नरक पृथ्वी में चार बार ही उत्पन्न होता है, उसके पश्चात् वह अवश्य तिर्यंच होता है । इसलिये मनुष्य-भव सम्बन्धी चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम सवेध काल कहा गया है। जघन्य स्थिति वाले मनुष्य के नरक में उत्पन्न होने सम्बन्धी चौथे गमक. में पांच नानात्व बतलाये गये हैं। प्रथम गमक में अवगाहना जघन्य अंगुल-पृथक्त्व और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष बतलाई गई है । यहां जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल-पृथक्त्व होती है । प्रथम गमक में चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से बतलाये गये हैं और यहां तीन ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से बतलाये गये हैं, क्योंकि जघन्य स्थिति वाले मनुष्य में इन्हीं का समाव होता है । प्रयम गमक में छह समुद्घात बतलाई गई है और यहां पांच बतलाई गई हैं, क्योंकि जघन्य स्थिति वाले मनुष्य के आहारक समुद्घात नहीं पाई जाती। प्रयम गमक में स्थिति ओर अनुबन्ध जघन्य मास-पृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि बतलाया गया है और यहां जघन्य और उत्कृष्ट मास-पृथक्त्व ही बतलाया गया है । शेष गमकों का कथन स्पष्ट है। ___१०१ प्रश्न-पजत्तसंखेन्जवासाउयसण्णिमणुस्से णं भंते ! जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए णेरइएसु जाव उववजिचए से णं भंते ! केवइ० जाव उववजेजा ? For Personal & Private Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३२ भगवती सूत्र - श. २४ उ १ मनुष्यों का नरकोपपात १०१ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं सागरोवमट्टिईएस, उक्को सेणं तिसागरोवमट्ठिईएस उववजेजा । भावार्थ - १०१ प्रश्न - हे भगवन् ! संख्येक वर्षायुष्क पर्याप्त संज्ञी मनुष्य, शर्कराप्रभा में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति के नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? १०१ उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक सोगरोपम और उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न होता है । १०२ प्रश्न - ते णं भंते !० १०२ उत्तर - सो चेव रयणप्पभापुढ विगमओ नेयव्वो । नवर सरीरोगाहणा जहणेणं स्यणिपुहुत्तं, उक्कोसेणं पंचधणुमयाई । टिई जहणेणं वासपुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी, एवं अणुबंधो वि । सेसं तं चेव, जाव 'भवादेसो त्ति । कालादेसेणं जहणेणं सागरोवमं, वासपुहत्तम भहियं, उक्कोसेणं बारस सागरोवमाई चउहिं पुव्वकोडीहिं अमहियाई - एवइयं जाव करेजा । एवं एसा ओहिएलु तिसु गमएसु मणसस्स लद्वी । णाणत्तं - रइयईि कालादेसेणं संवेहं च जाणेजा १-२ - ३ | भावार्थ - १० - १०२ प्रश्न - हे भगवन् ! वे एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं। १०२ उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभा नैरयिकों में वर्णित गमक जानो । विशेषता यह कि शरीर को अवगाहना जघन्य रत्नि- पृथक्त्व ( दो हाथ से नो हाथ तक) और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष होती है । स्थिति जघन्य वर्ज पृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष, इसी प्रकार अनुबन्ध भी । शेष सब पूर्ववत् यावत् For Personal & Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ. १ मनुष्यों का नरकोपपात भवादेश पर्यन्त । काल से जघन्य वर्ष - पृथक्त्व अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक बारह सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है । इस प्रकार औधिक के तीनों गमकों में ( औधिक का औधिक में उत्पन्न होना, afar की जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होना और औधिक का उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होना) मनुष्य की वक्तव्यता के समान लब्धि कह देनी चाहिए। संवेध नैरयिक की स्थिति और कालादेश से कहना चाहिए १-२-३ | १०३ - सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्टिईओ जाओ, तस्स वि तिसु विगमएस एस चैव लद्धी । णवरं सरीरोगाहणा जहणेण रयणिपुहुत्तं, उक्कोसेण वि रयणिपुहुत्तं, ठिई जहण्णेणं वासपुहुत्तं, उकोमेण वि वासपुहत्तं, एवं अणुबंधो वि । सेसं जहा ओहियाणं । संवेहो सन्चो उवर्जुजिऊण भाणियको ४-५-६ । ३०३३ भावार्थ - १०३ - वह जघन्य स्थिति का संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त मनुष्य, शर्कराप्रमा में उत्पन्न हो, तो तीनों गमकों में पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिये, विशेषता यह है कि उसके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट रत्निपृथक्त्व होती है। स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट वर्ष- पृथक्त्व । इसी प्रकार अनुबन्ध भी होता है । शेष सब औधिक गमक के समान और संवेध भी उपयोग पूर्वक जानना चाहिये ४-५-६ । १०४ - सो चेव अप्पणा उक्कोसका लट्ठिईओ जाओ । तस्स वि तिसु वि गमएस इमं णाणत्तं - सरीरोगाहणा जहणेणं पंचभणुसयाई, उक्कोसेण वि पंचधणुसयाई, ठिई जहणेणं पुव्वकोडी, उकोसेण For Personal & Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३४ भगवती सूत्र - २४ उ १ मनुष्यों का नरकोपपात वि पुव्वकोडी, एवं अणुबंधो वि । सेसं जहा पढमगमए । वरं रइयठिई य कायसंवेहं च जाणेज्जा ७-८ - ९ । एवं जाव छट्टपुढवी । वरं तच्चाए आढवेत्ता एक्केक्कं संघयणं परिहायड़ जहेव तिखिखजोणियाणं । कालादेसो वि तहेव, णवरं मणुस्सट्टिई भाणियव्वा । भावार्थ - १०४ - यदि वह मनुष्य स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और शर्कराप्रभा में उत्पन्न हो, तो तीनों गमकों में विशेषता इस प्रकार है- शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष तथा स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि होती है, इसी प्रकार अनुबन्ध भी । शेष सब प्रथम गमक के समान । विशेषता यह है कि नैरयिक की स्थिति और काय संवेध तदनुकूल जानना चाहिये ( ७ - ८ - ९ ) । इसी प्रकार यावत् छठीं नरक पर्यन्त जानना चाहिये । विशेषता यह है कि तोसरी नरक से ले कर आगे तिर्यंच-योनिक के समान एक-एक संहनन कम होता है । कालादेश भी उसी प्रकार, परंतु स्थिति मनुष्य की कहनी चाहिये । विवेचन - दो रत्नि (हाथ ) से कम को अवगाहना वाले और दी वर्ष की आयुष्य से कम आयुष्य वाले मनुष्य, दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न नहीं होते । यहाँ पर जघन्य गमों में भी मनःपर्याय ज्ञान लिया है। इससे यह ध्वनित होता है कि दूसरी आदि नरक पृथ्वियों में जाने वाले में जघन्य आयुष्य भी चारित्र प्रायोग्य नव वर्ष के लगभग समझना चाहिए । पहले, दूसरे और तीसरे गमक में जो नानात्व कथन किया है, उनमें से प्रथम गमक में तो स्थिति आदि का निर्देश मूल पाठ में कर ही दिया गया है। दूसरे गमक औधिक मनुष्य की जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पत्ति का कथन किया गया है । वहाँ नैरयिक की स्थिति जघन्यं और उत्कृष्ट एक सागरोपम जाननी चाहिये । काल की अपेक्षा सवेधजघन्य वर्ष - पृथक्त्व अधिक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम " होता है । तीसरे गमक में भी इसी प्रकार समझना चाहिये, किन्तु जघन्य तीन सागरोपम और उत्कृष्ट बारह सागरोपम है । जघन्य स्थिति वाले मनुष्य का औधिक नरक में उत्पन्न संवेध काल की अपेक्षा वर्ष - पृथक्त्व अधिक एक सागरोपम For Personal & Private Use Only इस चौथे गमक में चार वर्षं पृथक्त्व Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ. १ मनुष्यों का नरकोपपात अधिक बारह सागरोपम होता है । जघन्य स्थिति वाले मनुष्य का जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने रूप पाँचवें गमक में काय-सवेध -- काल की अपेक्षा जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार वर्ष पृथक्त्व अधिक चार सागरोपम होता है । इसी प्रकार छठा गमक भी उपयोग पूर्वक जानना चाहिये । सातवें, आठवें और नौवें गमक में शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष की है । इसी प्रकार दूसरे नानात्व भी समझ लेना चाहिये । तिर्यंच की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की कही गई थी, किन्तु मनुष्य गमकों में मनुष्य स्थिति का कथन करना चाहिये । शर्कराप्रभा आदि नरकों में जाने वाले मनुष्यों की स्थिति जघन्य वर्ष - पृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की होती है । ३०३५ १०५ प्रश्न - पज्जत्तसंखेज्जवासाज्यसष्णिमणुस्से णं भंते ! जे भविए असत्तमा पुढवि णेरइएस उववज्जित्तए से णं केवइयका लट्ठिईएस उववज्जेज्जा ? भंते ! १०५ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं बावीससागरोवमट्टिईएस, उकोसे तेत्तीससागरोवमट्टिईएस उववज्जेज्जा । भावार्थ - १०५ प्रश्न - हे भगवन् ! संख्येय वर्षायुष्क पर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय मनुष्य, जो अधः सप्तम पृथ्वी में नैरयिकपने उत्पन्न होने के योग्य है, वह feat काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? १०५ उत्तर - हे गौतम ! वह जघन्य बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है । १०६ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा एगसम एणं० ? १०६ उत्तर - अवसेसो सो चेव सकरप्पभापुढ विगमओ णेयव्वो । णवरं पढमं संघयणं, इत्यिवेयगा ण उववज्जंति, सेसं तं चेव, जाव 'अणुबंधो' चि । भवादेसेणं दोभवग्गहणाई । कालादेसेणं जहणणं For Personal & Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३६ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ मनुष्यों का नरकांपपात वावीसं सागरोवमाई वासपुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुब्बकोडीए अब्भहियाई-एवइयं जाव करेजा १ । भावार्थ-१०६ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं? . . . .. १०६ उत्तर-हे गौतम ! इसकी सभी वक्तव्यता शर्कराप्रभा के नैरयिक के समान जाननी चाहिये, विशेषता यह है कि सातवीं नरक में प्रथम संहनन वाले ही उत्पन्न होते हैं और वहाँ स्त्रीवेदो उत्पन्न नहीं होते। शेष सब यावत् अनुबन्ध तक पूर्ववत् । भवादेश से दो भव और कालादेश से जघन्य वर्ष-पृथक्त्व अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है १। १०७-सो चेव जहण्णकालढिईएसु उववण्णो-एस चेव वत्तव्वया । णवरं गेरइयट्टिई संवेहं च जाणेजा २। , १०७-यदि वह मनुष्य जघन्य स्थिति वाले सप्तम नरक पृथ्वी के , नरयिकों में उत्पन्न हो, तो भी पूर्वोक्त वर्णन जानना चाहिये, विशेष में नैरयिक को स्थिति और संवेध स्वयं जानना चाहिये २ । १०८-सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो-एस चेव वत्तव्वया, णवरं संवेहं च जाणेजा ३। ___१०८-यदि वह मनुष्य उत्कृष्ट स्थिति वाले सप्तम नरक पृथ्वी के नरयिकों में उत्पन्न हो, तो भी यही वक्तव्यता है । संवेध स्वयं जानना चाहिये ३ । ___ १०९-सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्टिईओ जाओ, तस्स वि तिसु वि गमएसु एस चेव वतन्वया। णवरं सरीरोगाहणा जहणणं For Personal & Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ मनुष्यों का नरकोपपात ३०३७ रयणिपुहुत्तं, उक्कोसेण वि रयणिपुहुत्तं । ठिई जहण्णेणं वासपुहुत्तं, उक्कोसेण वि वासपुहुत्त, एवं अणुबंधो वि । संवेहो उवजुंजिऊण भाणियब्वो ४-५-६। । १०९-यदि वह संज्ञी मनुष्य स्वयं जघन्य स्थिति वाला हो और अधःसप्तम पृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो तीनों गमकों में यही वक्तव्यता है । शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट रत्निपृथक्त्व होती है । स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट वर्ष-पृथक्त्व होती है । इसी प्रकार अनुबन्ध भी होता है । संवेध का कथन उपयोगपूर्वक जानना चाहिये ४-५-६ । ___ ११०-सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्टिईओ जाओ, तस्स वि तिसु वि गमएसु एस चेव वत्तव्वया । णवरं सरीरोगाहणा जहण्णेणं पंचधणुसयाई, उक्कोसेण वि पंचधणुसयाई । ठिई जहण्णेणं पुव्वकोडी, उक्कोसेण वि पुव्वकोडी, एवं अणुबंधो वि । णवसु वि एएसु गमएसु णेग्इयट्टिई संवेहं च जाणेजा । सव्वत्थ भवग्गहणाई दोणि जाव णवमगमए । कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोक्माई पुन्चकोडीए अभहियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाइं पुब्बकोडीए अब्भहियाई-एवइयं कालं सेवेजा, एवइयं कालं गइरागई करेजा ७-८-९। * 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति जाव विहरइ ॐ ॥ चउवीसइमे सए पढमो उद्देसो समतो ॥ For Personal & Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३८ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ मनुष्यों का नरकोपपात भावार्थ-११०-यदि वह संज्ञो मनुष्य स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और अधःसप्तम नरक पृथ्वी में उत्पन्न हो, तो उसके तीनों गमकों में पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिये । शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष होती है । स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि होती है । इसी प्रकार अनुबन्ध भी जानना चाहिये । उपर्युक्त नव ही गमकों में नरयिक की स्थिति और संवेध विचार कर कहना चाहिये। सर्वत्र दो भव जानने चाहिये, यावत् नौवें गमक में काल की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है ७-८-९ । "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-सातवीं नरक पृथ्वी के प्रथम गमक में काय-संवेध उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम कहा गया है, क्योंकि सातवीं नरक से निकला हुआ जीव, मनुष्य रूप से उत्पन्न नहीं होता। इसलिये प्रथम मनुष्य का भव और दूसरा सातवीं नरक का भव, इन दो भवों में काय-संवेध इतने काल का ही होता है । शेष कथन स्पष्ट ही है। ॥ चौबीसवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥. For Personal & Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४ उद्देशक २ असुरकुमारों का उपपात १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयामी-असुरकुमारा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति-किं गेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरि०, मणु०, देवेहितो उववज्जति ? १ उत्तर-गोयमा ! णो णेरइएहिंतो उववजंति, तिरिवखजोणिएहिंतो उववज्जति, मणुस्सेहिंतो उववज्जति, णो देवेहिंतो उववज्जति । एवं जहेव णेरड्यउद्देसए, जाव भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पछा-'हे भगवन् ! असुरकुमार कहां से आते हैं ? क्या नैरयिकों से आते हैं, तियंचों से, मनुष्यों से, अथवा देवों से आते हैं ?' १ उत्तर-हे गौतम ! वे नैरयिकों से नहीं आते, तिर्यंच-योनिक और मनुष्यों से आते हैं। देवों से भी नहीं आते। इस प्रकार नरयिक उद्देशक के समान, यावत् २ प्रश्न-पजत्तअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइकालदिईएसु उववज्जेजा ? For Personal & Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४० भगवती सूत्र-श. २४ उ. २ असुरकुमारों का उपपात २ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सटिईएस, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजहभागट्टिईएसु उववजेजा। भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक जीव, असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? २ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है। ३ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा० ? ३ उत्तर-एवं रयणप्पभागमगसरिसा णव वि गमा भाणियव्वा । णवरं जाहे अप्पणा जहण्णकालट्टिईओ भवइ ताहे अज्झवसाणा पसत्था, णो अप्पसत्था तिसु वि गमएसु । अवसेसं तं चेव ९ । कठिन शब्दार्थ-अज्झवसाणा-अध्यवसाय । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! यहां रत्नप्रभा पृथ्वी के गमकों के समान सभीनव ही गमक कहने चाहिये। यदि वह स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो, तो तीनों गमकों में अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं, अप्रशस्त : नहीं होते । शेष सब पूर्ववत् । विवेचन-यहाँ पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीव, जो असुरकुमारों में उत्पन्न होता है, उसकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग बतलाई गई है । यह पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग, पूर्वकोटि रूप समझना चाहिये, क्योंकि सम्मूच्छिम लियंच का उत्कृष्ट आयुष्य पूर्वकोटि परिमाण होता है और वह अपने आयुष्य के समान ही उत्कृष्ट देव आयुष्य वांधता है, अधिक नहीं बांधता । चूर्णिकार ने भी यही कहा है । यथा For Personal & Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. भगवती सूत्र-श. २४ उ. २ असुरकुमार का उपपात ३०४१ अ 'उक्कोसेणं स तुल्लपुवकोडी आउयत्तं णिवत्तेइ ण य सम्मुच्छिमो पुष्वकोडीआउयताओ परो अत्थि'। अर्थात्-सम्मूच्छिम तिर्यंच का आयुष्य पूर्वकोटि से अधिक नहीं होता । इसलिये वह देव-भव में भो पूर्वकोटि परिमाण ही आयुप्य वांधता है, अधिक नहीं बांधता । पर्याप्त असंजी पचेंद्रिय तिर्यत्र-योनिक के चौथे, पांचवें और छठे गमक में अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं। ४ प्रश्न-जइ सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं संखेजवासाउयसण्णि० जाव उववजंति असंखेजवासाउय० जाव उववजंति ? ४ उत्तर-गोयमा! संखेजवासाउय० जाव उववजंति, असंखेजवासाउय० जाव उववजंति। भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यच-योनिक जीव, असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो क्या संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी पंचेंद्रिय तियंच-योनिकों से आता है या असंख्यात वर्ष की आयुष्य में से ? . ४ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात वर्ष और असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले दोनों प्रकार के तिर्यचों से आता है। ५ प्रश्न-असंखेजकासाउय-सण्णि-पंचिंदिय-तिरिवखजोणिए णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइयकाल. ट्ठिईएसु उववजेजा ? ५ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्टिईएसु, उक्कोसेणं तिपलिओवमट्टिईएसु उववजेजा। For Personal & Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४२ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २ असुरकुमारों का उपपात भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाला संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच जीव, असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? ५ उत्तर-हे गौतम! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है । ६ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं-पुच्छा। ६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उकोसेणं संखेजा उववज्जति । वयरोसभणारायसंघयणी । ओगाहणा जहणेणं धणुपुहुत्तं, उक्कोसेणं छ गाउयाई । समचउरंससंठाणसंठिया पण्णता। चत्तारि लेस्साओ आदिल्लाओ। णो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्टी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी । णो णाणी, अण्णाणी. णियमं दुअण्णाणी. मइअण्णाणी सुयअण्णाणी य। जोगो तिविहो वि । उवओगो दुविहो वि । चत्तारि सण्णाओ। चत्तारि कसाया। पंच इंदिया। तिण्णि समु. ग्घाया आदिल्लगा। समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति। वेयणा दुविहा वि-सायावेयगा वि असायावेयगा वि । वेदो दुविहो वि-इस्थिवेयगा वि पुरिसवेयगा वि, णो णपुंसगवेयगा । ठिई जहण्णेणं साइ. रेगा पुव्वकोडी, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं । अज्झवसाणा पसत्था वि अप्पसत्था वि । अणुबंधो जहेव ठिई । कायसंवेहो भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं साइरेगा पुव्वकोडी For Personal & Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २ असुरकुमारों का उपपात ३०४३ दसहिं वाससहस्सेहिं अमहिया, उक्कोसेणं छप्पलिओवमाइं-एवड्यं जाव करेजा १ । कठिन शब्दार्थ--साइरेगा--सातिरेक-कुछ अधिक । भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं । वे वज्र ऋषभनाराच संहनन वाले होते हैं। उनके शरीर को अवगाहना जघन्य धनुष पृथक्त्व और उत्कृष्ट छह गाऊ (कोस) की होती है। वे समचतुरस्र संस्थान वाले होते हैं। उनमें प्रथम को चार लेश्याएं होती है । वे सम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि नहीं होते, वे केवल मिथ्यादृष्टि ही होते हैं । वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी होते हैं। उनमें मति अज्ञान और श्रुतअज्ञान-ये दो अज्ञान होते हैं । योग तीनों होते हैं। दो उपयोग, चार संज्ञा, चार कषाय, पांच इन्द्रियां और पहले की तीन संमुद्धात होती हैं। वे समुद्घात करके भी मरते हैं और समुद्घात किये बिना भी मरते हैं । साता और असाता-दोनों प्रकार की वेदना होती है। वे पुरुषवेदी और स्त्रीवेदो होते हैं, नपुंसकवेदी नहीं होते । स्थिति जघन्य सातिरेक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है । अध्यवसाय प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी। स्थिति के तुल्य अनुबन्ध होता है । काय-संवेध भव को अपेक्षा दो भव और काल की अपेक्षा जघन्य सातिरेक पूर्वकोटि अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट छह पल्योपम तक यावत् गमनागमन करते हैं। १ । ___७-सो चेव जहण्णकालदिईएसु उववण्णो-एस चेव वत्तव्वया । णवरं असुरकुमारट्टिई (इं) संवेहं च जाणेजा २ । भावार्थ-७-यदि असख्यात वर्ष की आयुष्य वाला संज्ञो पञ्चेन्द्रिय तियंच, जघन्य काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो पूर्वोक्त For Personal & Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४४ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २ असुरकुमारों का उपपात वक्तव्यतानुसार, स्थिति और संवेध का विचार करना चाहिये ३ । ८-सो चेव उक्कोसकालट्टिईएसु उववण्णो जहण्णेणं तिपलिओ. वमहिईएसु, उक्कोसेण वि तिपलिओवमट्ठिईएसु उववजेजा-एस चेव वत्तव्वया । णवरं ठिई से जहण्णेणं तिण्णि पलिओचमाइं, उकोसेण वि तिण्णि पलिओवमाई । एवं अणुबंधो वि । कालादेसेणं जहण्णेणं छप्पलिओवमाई, उकोमेण वि छप्पलिओवमाइं-एवइयं० सेसं तं चेव ३। . भावार्थ-८-यदि वह उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है, इत्यादि पूर्वोक्त वर्णनवत् । स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम । काल से जघन्य और उत्कृष्ट छह पल्योपम तक यावत् गमना. गमन करता है । शेष सब पूर्ववत् ३। ९-सो चेव- अप्पणा जहण्णकालढिईओ जाओ, जहण्णेणं दसवाससहस्सटिईएसु, उक्कोसेणं साइरेगपुव्वकोडीआउएसु उववजेजा। भावार्थ-९-यदि असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाला संजी पंचेंद्रिय तियंचयोनिक जघन्य काल की स्थिति वाला हो और असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो वह जघन्य दस हजार बर्व और उत्कृष्ट सातिरेक पूर्वकोटि वर्ष आयुष्य वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है। For Personal & Private Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २४ उ. २ असुरकुमारों का उपपात १० प्रश्न-ते णं भंते ! १० उत्तर-अवसेसं तं चेव जाव 'भवादेसो' ति । णवरं ओगाहणा जहण्णेणं धणुहपहुत्तं, उकोमेणं साइरेगं धणुसहस्सं । ठिई जहण्णेणं साइरेगा पुषकोडी, उक्कोसेण वि साइरेगा पुषकोडी। एवं अणुबंधो वि । कालादेसेणं जहण्णेणं साइरेगा पुवकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अमहिया, उक्कोसेणं साइरेगाओ दो पुवकोडीओएवइयं० ४। ___ भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! वे एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? १० उत्तर-हें गौतम ! भवादेश तक पूर्ववत् । अवगाहना जघन्य धनुषपृथक्त्व और उत्कृष्ट सातिरेक एक हजार धनुष, स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट सातिरेक पूर्वकोटि, काल से जघन्य सातिरेक पूर्वकोटि अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट सातिरेक दो पूर्वकोटि तक यावत् गमनागमन करता ११-सो चेव जहण्णकालट्टिईएसु उववण्णो, एस चेव वत्तव्वया । णवरं असुरकुमारट्टिई संवेहं च जाणेजा ५। भावार्थ-११-यदि वह जघन्य काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो पूर्वोक्त वर्णनानुसार । असुरकुमारों की स्थिति और संवेध विचार कर कहना चाहिये ५ । __ १२-सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो, जहण्णेणं साइरेगपुष्वकोडीआउएसु, उकोसेण वि साइरेगपुवकोडीआउएसु उव For Personal & Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ. २ असुरकुमारों का उपपत वज्जेजा, मेसं तं चेव । णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं साइरेगाओ दो पुव्वोडीओ, उक्कोसेण वि साइरेगाओ दो पुव्वकोडीओ - एवइयं काल सेवेज्जा ६ । ३०४६ भावार्थ-१२ यदि वह जीव उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट सातिरेक पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है । शेष पूर्ववत् । काल की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट सातिरेक दो पूर्वकोटि वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है ६ । १३-सो चैव अप्पणा उक्कोसका लट्ठिईओ जाओ, सो चेव पढमगमगो भाणियो । णवरं ठिई जहणेणं तिष्णि पलिओवमाई, उको सेणं वितिष्णि पलिओ माई | एवं अणुबंधो वि । कालादेसेणं जहणणं तिष्णि पलिओ माई दमहिं वाससहस्सेहिं अन्भहियाई, उक्को सेणं छप्पलिओ माई - एवइयं ० ७ । भावार्थ - १३ यदि वह स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और असुरकुमारों. में उत्पन्न हो, तो उसके लिये वही प्रथम गमक कहना चाहिये, स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम का होता है । काल से जघन्य दस हजार वर्ष अधिक तीन पत्योपम और उत्कृष्ट छह पत्योपम तक यावत् गमनागमन करता है ७ । १४ - सो चैव जहण्णकाल ट्टिईएस उववण्णो, एस चैव वत्तव्वया । णवरं असुरकुमारट्टिइं संवेहं च जाणिज्जा ८ । भावार्थ- १४ यदि वह उत्कृष्ट स्थिति वाला पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, जघन्य काल For Personal & Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २ - उ. २ असुरकुमारों का उपपात ३०४७ की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो उसके लिये भी पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिये । यहां असुरकुमारों की स्थिति और संवेध का कथन विचार पूर्वक जानना चाहिये ८। १५-सो चेव उक्कोसकालट्टिईएसु उववण्णो, जहण्णेणं तिपलि. ओवम०, उक्कोसेण वि तिपलिओवम० एस चेव वत्तव्वया । णवरं कालादेसेणं जहणेणं छप्पलिओवमाई, उकोसेण वि छप्पलिओ. वमाइं-एवइयं० ९ । भावार्थ-१५ यदि वह उत्कृष्ट स्थिति वाला पञ्चदेन्द्रिय तिर्यंच, उत्कृष्ट स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो वह जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है, इत्यादि पूर्वोक्त वक्तव्यता। काल से जघन्य और उत्कृष्ट छह पल्योपम तक यावत् गमनागमन करता है ९ । विवेचन-असंख्येय वर्षायुष्क संज्ञी पचेन्द्रिय तिर्यंच के गमकों में जो उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की बतलाई गई है, वह देवकुरु आदि के युगलिक तिर्यञ्चों का अपेक्षा समझनी चाहिये । क्योंकि वे तीन पल्योपम रूप असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले होते हैं और उत्कृष्ट अपनी आयु के समान ही देव आयु का बन्ध करते हैं । वे उत्कृष्ट संख्याता उत्पन्न होते हैं, क्योंकि असंख्यातवर्ष की आयुष्य वाले तिर्यंच, मनुष्य-क्षेत्रवर्ती ही होने से सदा संख्यात ही होते हैं, असंख्यात कभी नहीं होते । उनमें एक वज्र ऋषभनाराच संहनन ही पाया जाता है । अवगाहना में जो धनुष-पृथक्त्व अवगाहना कही गई है, वह पक्षियों की अपेक्षा समझनी चाहिये । उनको आय पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण होने से वे असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले होते हैं । उत्कृष्ट अवगाहना जो छह गाऊ की बतलाई गई है, वह देवकुरु आदि में उत्पन्न हाथी आदि की अपेक्षा समझनी चाहिये । असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले नपुंसक वेदी नहीं होते, वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी ही होते हैं । उत्कृष्ट छह पल्योपम की स्थिति बतलाई गई है, वह तीन पल्योपम तो तिथंच भव सम्बन्धी और तीन For Personal & Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४८ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २ असुरकुमारों का उपपात पल्योपम असुरकुमार भव सम्बन्धी समझनी चाहिये । जीव, देवभव से निकल कर फिर असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले जीवों में उत्पन्न नहीं होते । जघन्य स्थिति रूप चौथा गमक है। उसमें जघन्य स्थिति सातिरेक पूर्वकोटि होती है-ऐसा पक्षी आदि के लिए समझना चाहिये । उत्कृष्ट स्थिति सातिरेक पूवकोटि जो बतलाई गई है, उसका आशय यह है कि असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले पक्षी आदि की स्थिति सातिरेक पूर्वकोटि होती है और वह उत्कृष्ट अपनी आयु के बराबर ही देव आयु का बन्ध करता है । उत्कृष्ट अवगाहना सातिरेक एक हजार धनुष की बतलाई गई है, वह सातवें कुलकर (नाभि) या उससे पहले होने वाले इस्ती आदि की अपेक्षा समझनी चाहिये । क्योंकि यहाँ जघन्य स्थिति वाले असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच का प्रकरण चल रहा है। उसकी आयु सातिरेक पूर्वकोटि होती है । इस प्रकार का हस्ती आदि सातवें कुलकर या उससे पहले ही पाया जाता है । सातवें कुलकर को अवगाहना तो पांच सौ पच्चीस धनुष होती है और उनसे पहले होने वाले कुलकरों की अवगाहना उनसे अधिक होती है और उनके समय में होने वाले हस्ती आदि की अवगाहना उनसे दुगुनी होती है । अतः सातवें कुलकर या उससे पहले होने वाले असंख्यात वर्ष की आयुष्य बाले हस्ती आदि में ही उपर्युक्त अवगाहना-प्रमाण पाया जाता है । चौथे गमक में जो सातिरेक दो पूर्वकोटि की स्थिति बतलाई गई है, उसमें एक सातिरेक पूर्वकोटि तो तिर्यंच भव सम्बन्धी समझनी चाहिये और एक सातिरेक पूर्वकोटि असुरकुमार भव सम्बन्धी समझनी चाहिये । असुरकुमारों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की होती है और उनका संवेध सातिरेक पूर्वकोटि सहित दस हजार वर्ष होता है । शेप गमक स्वतः स्पष्ट ही हैं। १६ प्रश्न-जइ संखेजवासाउयसण्णिपंचिंदिय० जाव उववजति किं जलचर०, एवं जाव पजत्वसंखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववजित्तए, से णं भंते । केवइयकालट्टिईएसु उववज्जेजा ? १६ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सटिईएसु, उक्कोसेणं For Personal & Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २ अमुग्कुमारों का उपपात साइरेगसागरोवमट्टिईएमु उववज्जेजा। ___ भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि असुरकुमार, संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों से आते हैं, तो क्या जलचरों से आते हैं, इत्यादि यावत् हे भगवन् ! पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संजी पञ्चेन्द्रिय तियंच-योनिक जीव, जो असुरकुमारों में उत्पन्न होता है, वह कितने काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? १६ उत्तर-हे गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट सातिरेक एक सागरोपम की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है । १७ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० ? १७ उत्तर-एवं एएसिं रयणप्पभापुढविगमगसरिसा णव गमगा णेयव्वा । णवरं जाहे अप्पणा जहण्णकालट्टिइओ भवइ, ताहे तिसु वि गमएसु इमं णाणत्तं-चत्तारि लेस्साओ, अज्झवसाणा पसत्था, णो अप्पसत्था, सेसं तं चेव । संवेहो साइरेगेण सोगरोवमेण कायवो ९ । . भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगक्न ! वे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? १७ उत्तर-हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी के विषय में वर्णित नौ गमकों के समान जानना चाहिये । जब वह स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला होता है, तब तीनों ही गमकों (४-५-६) में यह भेद है । इनमें लेश्या चार होती हैं । अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं, अप्रशस्त नहीं होते । शेष सब पूर्ववत् । संवेधसातिरेक सागरोपम से कहना चाहिये । ९ । विवेचन-'उत्कृष्ट सातिरेक सागरोपम स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है'-यह कथन वलीन्द्र निकाय की अपेक्षा समझना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५० A जघन्य काल की स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य तिर्यंचों के चौथे, पाँचवे और छठे गमक में कृष्ण, नील, कापोत- ये तीन लेश्याएँ कही गई हैं, किन्तु यहां चार कही गई हैं । क्योंकि असुरकुमारों में तेजोलेश्या वाले जीव भी उत्पन्न होते हैं । रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होने वाले जघन्य स्थिति के तिर्यंचों के अध्यवसाय स्थान अप्रशस्त कहे गये हैं, किन्तु यहां असुरकुमारों में प्रशस्त होते हैं। दीघ स्थिति वालों में तो प्रस्त और अप्रशस्त दोनों अध्यवसाय स्थान होते हैं, किन्तु जघन्य स्थिति वालों में अप्रशस्त नहीं पाये जाते, क्योंकि काल अल्प है । रत्नप्रमा पृथ्वी के गमकों में संवेध एक सागरोपम से बतलाया गया है, किन्तु यहां असुरकुमार गमकों में सातिरेक सागरोपम बतलाया गया है । यह भी बलिन्द्र निकाय की अपेक्षा समझना चाहिये । भगवती सूत्र - २४ उ २ असुरकुमारों का उपपात १८ प्रश्न - जड़ मणुस्सेहिंतो उववज्जंति किं सष्णिमणुस्सेहिंतो ० असण्णिमणुस्से हिंतो • ? 9 १८ उत्तर - गोयमा ! सण्णमणुस्से हिंतो ० णो असष्णिमणुस्सेहिंतो उववज्जति । नहीं । भावार्थ - १८ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि वे असुरकुमार, मनुष्यों से आते हैं, तो संज्ञी मनुष्यों से आते हैं, या असंज्ञी मनुष्यों से ? १८ उत्तर - हे गौतम! वे संज्ञी मनुष्यों से आते हैं, असंज्ञी मनुष्यों से १९ प्रश्न - जड़ सण्णिमणुस्से हिंतो उववजंति किं संखेज्जवासाउपसण्णमणुस्सेहिंतो उववज्जंति, असंखेज्जवासाउयसष्णिमणुस्सेहिंतो उववज्जति ? १९ उत्तर - गोयमा ! संखेज्जवासाज्य० जाव उववजंति, असंखेज्जवासा उ० जाव उववजंति । For Personal & Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २४ उ. २ अमुरकुमारों का उपपात ३०५१ भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन ! यदि वे संज्ञो मनष्यों से आते हैं, तो क्या संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञो मनुष्यों से आते हैं या असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञो मनुष्यों से आते हैं ? १९ उत्तर-हे गौतम ! वे संख्यात वर्ष और असंख्यात वर्ष की आयुष्य ' वाले दोनों से आते हैं। : २० प्रश्न-असंखेजवासाउयसण्णिमणुस्से णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइकालट्ठिईएसु उववजेज्जा ? २० उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्टिईएसु, उक्कोसेणं तिपलिओवमट्टिईएसु उववजेज्जा । एवं असंखेज्जवासाउयतिरिक्खजोणियसरिसा आदिल्ला तिणि गमगाणेयव्वा । णवरं सरीरोगाहणा पढमबिइएसु गमएसु जहण्णेणं साइरेगाइं पंचधणुसयाई, उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई, सेसं तं चेव । तईयगमे ओगाहणा जहण्णेणं तिण्णि गाउयाइं उक्कोसेण वि तिण्णि गाउयाई, सेसं जहेव तिरिक्खजोणियाणं.३। भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! असंख्यात वर्ष की आयष्य वाले संज्ञी मनुष्य जो असुरकुमारों में उत्पन्न होने के योग्य हैं, वे कितने काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होते हैं ? २० उत्तर-हे गौतम ! वे जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यंच-योनिक जीवों के समान प्रथम के तीन गमकों के वर्णनवत् जानना चाहिये । पहले और दूसरे गमक में शरीर की For Personal & Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ. २ असुरकुमारों का उपपात अवगाहना जघन्य सातिरेक पांच सौ धनुष और उत्कृष्ट तीन गाऊ की होती है, शेष सब पूर्ववत् । तीसरे गमक में अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट तीन गाऊ होती है, शेष सब तिर्यंच-योनिक के समान है ( १-२-३ ) | ३०५२ २१ - सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ जाओ. तस्स वि जहणकाल हियतिक्ख जोणियसरिसा तिष्णि गमगा भाणियव्वा । णवरं सरीरोगाहणा तिसु वि गमएसु जहण्णेणं साइरेगाई पंचधणुसयाई, उक्कोसेण वि साइरेगाई पंचधणुसयाई, सेसं तं चैव ६ | भावार्थ - २१ - यदि वह स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो, तो उसके लिये जघन्य काल की स्थिति वाले तियंच-योनिक के तुल्य तीनों गमक जानना चाहिये । तीनों ही गमकों में शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट सातिरेक पांच सौ धनुष होती है । शेष सब पूर्ववत् ( ४ - ५ - ६ ) । २२ - सो चेव अप्पणा उकोसकालट्टिईओ जाओ, तस्स वि ते चैव पच्छिलगा तिणि गमगा भाणियव्वा । णवरं सरीरोगाहणा तिसु वि गमपसु जहण्णेणं तिष्णि गाउयाई, उक्कोसेण वि तिष्ण गाउयाई, अवसेसं तं चेव ९ । भावार्थ - २२ - यदि वह स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो, तो उसके विषय में भी पूर्वोक्त अन्तिम तीन गमक जानने चाहिये । तीनों ही गमकों में शरीर को अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट तीन गाऊ की होती है, शेष पूर्ववत् ( ७-८ - ९ ) । For Personal & Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २ असुरकुमारों का उपपात ३०५३ ____ २३ प्रश्न-जइ संखेजवासाउयसण्णिमणुस्सेहिंतो उववज्जति किं पजत्तसंखेजवासाउय०, अपज्जत्तसंखेजवासाउय० ? २३ उत्तर-गोयमा ! पजत्तसंखेज०, णो अपजत्तसंखेन । ___भावार्थ-२३ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे असुर कुमार, संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञो मनुष्यों से आते हैं, तो पर्याप्त या अपर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी मनुष्यों से आते हैं ? २३ उत्तर-हे गौतम ! वे पर्याप्त संख्यात वर्ष को आयुष्य वाले संज्ञी मनुष्यों से आते हैं, अपर्याप्त संशी मनुष्यों से नहीं आते । २४ प्रश्न-पजत्तसंखेजवासाउयसण्णिमणुस्से णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उवजित्तए से णं भंते ! केवइयकालढ़िईएसु उववज्जेज्जा ? __२४ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्टिईएसु, उक्कोसेणं साइरेगसागरोषमट्टिईएसु उववज्जेजा। भावार्थ-२४ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाला संज्ञी मनुष्य, असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? २४ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य दस हजार वष और उत्कृष्ट सातिरेक सागरोपम की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है। २५ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा० ? २५ उत्तर-एवं जहेव एएसिं रयणप्पभाए उववज्जमाणाणं णव गमगा तहेव इह वि णप गमगा भाणियव्वा । णवरं संवेहो साइरेगेण For Personal & Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५४ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २ असुकुरमारों का उपपात सागरोवमेण कायव्वो, सेसं तं चेव ९। * 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति * ॥ चउवीसइमे सए बीओ उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-२५ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? २५ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभा में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के नव गमक कहे गये हैं, उसी प्रकार यहां भी है । संवेध सातिरेक सागरोपम, शेष पूर्ववत् (१ से ९) । ___'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-'तीन पल्योपम की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होते है यह कथन देवकुरु आदि के युगलिक मनुष्यों की अपेक्षा समझना चाहिये, क्योंकि वे ही अपनी आयु के समान देवायु के उत्कृष्ट बन्धक होते हैं। शरीर अवगाहना के विषय में औधिक मनुष्य का औधिक असुरकुमारों में उत्पन्न होने सम्बन्धी प्रथम गमक है और औधिक मनुष्य का जघन्य स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होने सम्बन्धी दूसरा गमक है । इनमें से औधिक असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाला मनुष्य, जघन्य सातिरेक पांच सौ धनुष प्रमाण होता है । यह सातवें कुलकर या उससे पहले होने वाला युगलिक मनुष्य समझना चाहिये और उसकी उत्कृष्ट अवगाहना तीन गाऊ परिमाण होती है, जैसे कि देवकुरु आदि का युगलिक मनुष्य । यह प्रथम गमक में होता है। दूसरे गमक में भी इसी तरह दोनों प्रकार का होता है और तीसरे गमक में तो तीन गाऊ की अवगाहना वाला होता है । क्योंकि यही तीन पल्योपम रूप उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न होता है और वह उत्कृष्ट अपनी आयुष्य के समान ही देवायु का बन्धक होता है । संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी मनुष्य के नव ही गमकों का कथन पूर्ववत् (रत्नप्रभावत्) जानना चाहिये। ॥ चौबीसवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४ उद्देशक ३ नागकुमारों में उपपात १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-णागकुमारा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति, किं गैरइएहितो उववज्जति, तिरि० मणु० देवेहितो उववज्जति ? १ उत्तर-गोयमा ! णो णेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्वजोणि०, मणुस्सेहिंतो उववज्जंति, णो देवेहितो उववज्जति । ___ भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-हे भगवन् ! नागकुमार कहां से आ कर उत्पन्न होते है ? क्या नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य या देव से आते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! वे नरयिक से या देव से नहीं आते, किन्तु तियंच या मनुष्य से आते हैं। २ प्रश्न-जइ तिरिक्ख० ? २ उत्तर-एवं जहा-असुरकुमाराणं वत्तव्वया तहा एएसिं पि जाव असण्णित्ति' । भावार्थ-२ प्रश्न-यदि वे तियंचों से आते हैं ? २ उत्तर-सभी वर्णन असुरकुमारों के समान यावत् असंज्ञी पर्यन्त । For Personal & Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ. ३ नागकुमार की उपपात ३ प्रश्न - जइ सष्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो० किं संखेज्ज - वासाउय०, असंखेज्जवासाउय० ? ३ उत्तर - गोयमा ! संखेज्जवासाज्य० असंखेज्जवासाउय० जाव उववज्जति । ३०५६ भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक से आते हैं तो क्या संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक से आते हैं या असंख्यात वर्ष की ? ३ उत्तर - हे गौतम! वे संख्यात वर्ष और असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यंच-योनिक से आते हैं । ४ प्रश्न - असंखेज्जवासाज्यसणिपंचिंदियतिरिखखजोणिए गं भंते ! जे भविए णागकुमारेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवइकालट्टिई० ? ४ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं दसवाससहस्सट्टिईएस, उक्कोसेणं देसूणदुपलिओ मट्टिईएस उववज्जेजा । भावार्थ ४ प्रश्न - हे भगवन् ! असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीव, नागकुमारों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाला होता है ? ४ उत्तर - हे गौतम! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोन दो पत्योपम की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होता है । ५ प्रश्न - ते णं भंते! जीवा ० ? For Personal & Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता मूत्र-स. २४ उ. ३ नागकुमारों का उपपात ३०५७ ५ उत्तर-अवसेसो सो चेव असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स गमगो भाणियब्बो जाव 'भवादेसो' त्ति । कालादेसेणं जहण्णेणं साइरेगा पुवकोडी दसहिं वासमहस्सेहिं अमहिया, उक्कोसेणं देसूणाई पंच पलिओवमाइं-एवइय जाव करेजा १ । ___ भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं, इत्यादि ? ५ उत्तर-असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यचों के समान यावत् भवादेश तक समग्र वर्णन जानना चाहिये । काल की अपेक्षा जघन्य सातिरेक पूर्वकोटि सहित दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोन पांच पल्योपम काल तक यावत् गमनागमन करता है १ । ६-सो चेव जहण्णकालटिईएसु उववण्णो, एस चेव वत्तव्वया । णवरं णागकुमारटिइं सवेहं च जाणेजा २।। ___भावार्थ-६-यदि वह जीव जघन्य काल की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न हो, तो इसी प्रकार उत्पन्न होता है । किन्तु यहां नागकुमारों की स्थिति भौर संवेध जानना चाहिये २ । ७-सो चेव उक्कोसकालट्टिईएसु उववण्णो, तस्स वि एस चेव वत्तव्बया । णवरं ठिई जहण्णेणं देसूणाई दो पलिओवमाई, उक्को. सेणं तिण्णि पलिओवमाई, सेसं तं चेव जाव 'भवादेसो ति । कालादेसेणं जहण्णेणं देसूणाई चत्तारि पलिओवमाइं उक्कोसेणं देसूणाई पंच पलिओवमाइं-एवइयं कालं० ३। For Personal & Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५८ भगवती सूत्र-श. २४ उ. ३ नागकुमारी का उपपात भावार्थ-७-यदि वह जीव उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न हो, तो उसके लिये भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिये। स्थिति जघन्य देशोन दो पल्योपम और उत्कृष्ट तीन पल्योपम । शेष पूर्ववत्, यावत् भवादेश तक । काल की अपेक्षा जघन्य देशोन चार पल्योपम और उत्कृष्ट देशोन पांच पल्योपम तक यावत् गमनागमन करता है । ३ । ८-सो चेव अप्पणा जहण्णकालटिईओ जाओ, तस्स वि तिसु. वि गमएसु जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स जहण्णकालट्ठिईयस्स तहेव गिरवसेसं ६। भावार्थ-८-यदि वह जीव स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो, तो उसके भी तीनों गमकों में असुरकुमारों में उत्पन्न, जघन्य काल की स्थिति वाले असंख्यात वर्ष की आयुष्य के तिर्यंच के समान जानना चाहिये ४-५-६ । ___ ९-सो चेव अप्पणा उक्कोसकालढिईओ जाओ, तस्स वि तहेव तिण्णि गमगा जहा असुरकुमारेसु उपवजमाणस्स । णवरं णागकुमारट्ठिई संवेहं च जाणेजा सेसं तं चेव ७-८-९ । भावार्थ-९-यदि वह स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो, तो उसके विषय में भी असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले तिर्यंच योनिक के समान तीनों गमक तथा स्थिति और संवेध नागकुमारों का, शेष पूर्ववत् ७-८-९। १० प्रश्न-जइ संखेज-वासाउय-सण्णि-पांचिंदिय० . जाव किं पजनसंखेजवासाउय०, अपजत्तसंखेज० १ . For Personal & Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवगती सूत्र-श. २४ उ. ३ नागकुमारों का उपपात ३०५९ १० उत्तर-गोयमा ! पजत्तसंखेन्जवासाउय०, णो अपज्जत्तसंखेजवासाउय०। भावार्थ-१०प्रश्न-हे भगवन ! यदि वे नागकुमार, संख्यात वर्ष की आयुष्य के संज्ञो पञ्चेन्द्रिय तिर्यच योनिक से आते हैं, तो वे पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले या अपर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञो पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक से आते हैं ? १० उत्तर-हे गौतम ! वे पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक से आते हैं, अपर्याप्त से नहीं। ११ प्रश्न-पजत्तसंखेन्जवासाउय० जाव जे भविए णागकुमारेसु । उववजित्तए से णं भंते ! केवइयकालट्टिईएसु उववज्जेज्जा ? ___११ उत्तर-जहण्णेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाई । एवं जहेव असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स वत्तव्वया तहेव इह वि णवसु वि गमएसु । णवरं णागकुमारट्ठिई संवेहं च जाणेजा, सेसं तं चेव ९। भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाला संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यच-योनिक जोव, नागकुमारों में उत्पन्न हो, तो कितने का की स्थिति में उत्पन्न होता है ? ११ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होता है, इत्यादि असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच के समान नव गमक जानने चाहिये । स्थिति और संवेध नागकुमारों के योग्य, शेष पूर्ववत् । For Personal & Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६० भगवती सूत्र - श. २४ उ. ३ नागकुमारों का उपपात विवेचन - 'उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम की स्थिति वालों में उत्पन्न होता है' - यह कथन उत्तर दिशा के नागकुमार निकाय की अपेक्षा से समझना चाहिये । क्योंकि उन्हीं में देशोन दो पल्योपम की उत्कृष्ट आयु होती है । उत्कृष्ट संवेध पद में जो देशोन पाँच पल्योपम कहे गये हैं, वे असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यंच सम्बन्धी तीन पल्योपम और नागकुमार सम्बन्धी देशोन दो पल्योपम, इस प्रकार देशोन पांच पत्योपम समझना चाहिये । दूसरे गमक में नागकुमारों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और संवेध काल की अपेक्षा जघन्य सातिरेक पूर्वकोटि सहित दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तीन पल्योपम सहित दस हजार वर्ष समझना चाहिये। तीसरे गमक में देशोन दो पल्योपम की स्थिति वालों में उत्पत्ति समझनी चाहिये । स्थिति जघन्य देशोन दी पल्योपम जो कही है, वह अवसर्पिणी काल के सुपमा नामक दूसरे आरे का कुछ भाग बीत जाने पर असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यंचों की अपेक्षा समझनी चाहिये, क्योंकि उन्हीं में इस प्रमाण की आयुष्य हो सकती है और वे ही अपनी उत्कृष्ट आयु के समान देवायु का बन्ध कर के उत्कृष्ट स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होते हैं । तीन पल्योपम की जो स्थिति कही गई है, वह देवकुरु आदि के असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यंचों की अपेक्षा समझनी चाहिये । तीन पल्योपम की आयुष्य वाले भी नागकुमारों में देशोन दो पल्योपम की आयु बाँधते हैं, क्योंकि वे अपनी आयु के बराबर अथवा उससे कम आयु तो बांध लेते हैं, परन्तु अधिक देवायु नहीं बांधते । १२ प्रश्न - जन् मणुस्सेहिंतो उववजंति किं सष्णिमणु०, असण्णिमणु० ? १२ उत्तर - गोयमा ! सष्णिमणु०, णो असष्णिमणुस्से हिंतो०, जहा असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स जाव भावार्थ - १२ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि वे ( नागकुमार) मनुष्यों से आते हैं, तो संज्ञी मनुष्यों से आते हैं, या असंज्ञी मनुष्यों से ? १२ उत्तर - हे गौतम ! वे संज्ञी मनुष्यों से आते हैं, असंज्ञी मनुष्यों से For Personal & Private Use Only " Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २४ उ ३ नागकुमारों का उपपात नहीं, इत्यादि, असुरकुमारों में उत्पन्न होने के योग्य मनुष्यों के समान जानना चाहिये । यावत् ÷०६१ १३ प्रश्न- असंखेज्जवा साउयस ष्णिमणुस्से णं भंते! जे भविए नागकुमारेसु उववजित्तर से णं भंते ! केवहयकालट्टिईएसु उववज्जइ ? १३ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं दसवाससहरसाई उकोसेणं देसूणाईं दो पलिओमाईं, एवं जहेब असंखेज्जवासाज्याणं तिरिक्खजोणियाणं णागकुमारेसु आदिल्ला तिष्णि गमगा तहेव इमस्स वि । वरं पढमबिएस गमएस सरीरोगाहणा जहण्णेणं साइरेगाई पंचधणुसयाई, उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई, तइयगंमे ओगाहणा जहण्णेणं सूणाई दो गाउयाई, उक्कोसेणं तिष्णिं गाउयाई, सेसं तं चेव ३ | भावार्थ - १३ प्रश्न - हे भगवन् ! असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाला संजी मनुष्य, नागकुमारों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होता है ? १३ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोन दो पत्योपम की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होता है । इस प्रकार असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यचों का नागकुमारों में उत्पन्न होने सम्बन्धी प्रथम के तीन गमक जानना चाहिये । परन्तु पहले और दूसरे गमक में शरीर की अवगाहना जघन्य सातिरेक पाँच सौ धनुष और उत्कृष्ट तीन गाऊ होती है । तीसरे गमक में अवगाहना जघन्य देशोन दो गाऊ और उत्कृष्ट तीन गाऊ की होती है, शेष पूर्ववत् ( १-२-३) । For Personal & Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ. ३ नागकुमारों का उपपात १४ - सो चे अप्पणा जहण्णकालट्टिईओ जाओ, तस्स तिसु वि गमएसु जहा तस्स चेव असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स तहेव णिरवसेसं ६ | ३०६२ भावार्थ - १४ - यदि वह स्वयं जघन्य काल को स्थिति वाला हो, तो उसके भी तीनों गमकों में असुरकुमारों में उत्पन्न होने योग्य असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी मनुष्य के समान सम्पूर्ण वक्तव्यता जाननी चाहिये (४-५-६ ) । १५- सो चेव अप्पणा उक्कोसका लट्ठिईओ जाओ, तस्स तिसु वि गमएस जहा तस्स चेव उक्कोसकालट्ठिइयरस असुरकुमारेसु उववज्ज - माणस्स, णवरं नागकुमारट्टिई संवेहं च जाणेजा, सेसं तं चैव ९ । भावार्थ - १५ - यदि वह स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो, तो तीनों गमकों में असुरकुमारों में उत्पन्न होने योग्य उत्कृष्ट काल की स्थिति और असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी मनुष्य के समान वक्तव्यता जाननी चाहिये । स्थिति और संवेध नागकुमारों के समान, शेष पूर्ववत् ( ७-८ - ९ ) १६ प्रश्न - जइ संखेजवासाज्यसष्णिमणु० किं पज्जत्तसंखेज ०, अपजतसंखेज ० ? १६ उत्तर - गोयमा ! पज्जत्तसंखेज्ज०, णो अपज्जत्तसंखेज्ज० । भावार्थ - १६ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि वे संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी मनुष्यों से आते हैं, तो पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य या अपर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी मनुष्यों से आते हैं ? १६ उत्तर - हे गौतम! वे पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी For Personal & Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. ३ नागकुमारों का उपपात मनुष्यों से आते हैं, अपर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संजो मनुष्यों से नहीं आते। १७ प्रश्न-पजत्तसंखेजवासाउयसण्णिमणुस्से णं भंते ! जे भविए णागकुमारेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइ० ? १७ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवाममहस्सटिइएसु उक्कोसेणं देसूणदोपलिओवमट्टिइएसु उववजंति, एवं जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स सच्चेव लद्दी गिरवसेसा णवसु गमएसु, णवरं णागकुमारटिइं संवेहं च जाणेजा। * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति ® ॥ चउवीसइमे सए तइओ उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-लद्धी-लब्धि प्राप्ति । भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाला संज्ञी मनुष्य, नागकुमारों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होता है ? १७ उत्तर-हे गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम की स्थिति के नागकुमारों में उत्पन्न होता है, इत्यादि असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य की वक्तव्यता के समान सभी गमकों में जानना चाहिये, किंतु स्थिति और संवेध नागकुमारों की जानना चाहिये। _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-नागकुमारों में उत्पन्न होने सम्बन्धी वक्तव्यता प्रायः असुरकुमारों के For Personal & Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६४ भगवती सूत्र-श. २४ उ. ४-११ सुवर्णकुमारादि का उपपात समान है । जहां जहां विशेषता है, वह मूल पाठ में बता दी गई है। . ॥ चौवीसवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ MUNNMARA शतक २४ उद्देशक ४-११ सुवर्णकुमारादि का उपपात १-अवसेसा सुवण्णकुमाराई जाव थणियकुमारा एए अट्ठ वि उद्देसगा जहेव णागकुमारा तहेव गिरवसेसा भाणियन्वा । ® 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति ॥ चउवीसइमे सए चउत्थयाइ उद्देसा समत्ता॥ भावार्थ-१ सुवर्णकुमार से ले कर स्तनितकुमार तक आठ भवनपति देवों के आठ उद्देशक, नागकुमारों के समान ही जानना चाहिये। ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ चौबीसवें शतक के चार से ग्यारह उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४ उद्देशक १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति १ प्रश्न - पुढविकाइया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जंति, किं रइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्ख०, मणुस्से०, देवेहिंतो उववज्जंति ? १ उत्तर - गोयमा ! णो णेरइएहिंतो उववजंति, तिरि०, मणु, देवेहिंतो वि उववजंति | भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं ? क्या नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य या देव से आते हैं ? १ उत्तर - हे गौतम ! वे नैरयिक से नहीं आते, किंतु तिर्यंच, मनुष्य और देव से आते हैं । २ प्रश्न - जड़ तिरिक्खजोणिएहिंतो ० किं एगिंदियतिरिक्खजोणिए० १ २ उत्तर - एवं जहा वक्कंतीए उववाओ जावप्रश्न- जड़ वायरपुढविकाइयए गिंदियतिरिक्ख जोणिए हिंतो उववज्रंति किं पज्जत्तबादर० जाव उववज्जंति, अपजत्तबादरपुढवि० १ उत्तर - गोयमा ! पज्जत्तबादरपुढवि०, अपजत्तवादरपुढवि० जाव उववजंति । For Personal & Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ १२ पृथ्वी कायिक जीवों की उत्पत्ति कठिन शब्दार्थ- वक्कंतीए - व्युत्क्रान्ति - उत्पन्न होने सम्बन्धी प्रज्ञापना सूत्र का भावार्थ - २ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि पृथ्वीकायिक जीव तिर्यंच-योनिक से आते हैं, तो क्या एकेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक से आते हैं, इत्यादि प्रश्न । २ उत्तर - हे गौतम ! जिस प्रकार प्रज्ञापना सूत्र के व्युत्क्रान्ति नामक छठे पद के अनुसार यावत्- प्रश्न - हे भगवन् ! यदि वे बादर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक से आते हैं, तो पर्याप्त या अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक से आते हैं ? उत्तर - हे गौतम! वे पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के बादर पृथ्वीकायिकों में से आते हैं । ३०६६ पद । ३ प्रश्न - पुढविक्काइए णं भंते! जे भविए पुढविकाइएस उववज्जित्तए से णं भंते ! केवइयका लट्ठिईएस उववज्जेज्जा ? ३ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तट्टिइएस, उक्कोसेणं वावीसवाससहस्सट्टिईएस उववज्जेजा । भावार्थ - ३ प्रश्न - हे भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न हो, वह कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? ३ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाला होता है । ४ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा एगसमपणं - पुच्छा | ४ उत्तर - गोयमा ! अणुसमयं अविरहिया असंखेज्जा उववज्जति । छेवसंघयणी | सरीरोगाहणा जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं, For Personal & Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ३०६७ उकोसेण वि अंगुलस्स असंखेजहभागं । मसूरचंदसंठिया । चत्तारि लेस्साओ। णो सम्मदिट्ठो, मिन्छादिट्ठी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी । णो णाणी, अण्णाणी, दो अण्णाणा णियमं । णो मणजोगी, णो वइजोगी, कायजोगी। उवओगो दुविहो वि । चत्तारि सण्णाओ। चत्वारि कसाया। एगे फासिदिए पण्णत्ते । तिण्णि समुग्घाया। वेयणा दुविहा । णो इत्थीवेयगा, णो पुरिसवेयगा, नपुंसगवेयगा । ठिईए जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई । अज्झवसाणा पसत्था वि, अप्पसत्था वि । अणुबंधो जहा ठिई १। भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? .. ४ उत्तर-हे गौतम ! वे प्रति समय निरन्तर असंख्यात उत्पन्न होते हैं। उनमें एक सेवात संहनन होता है । शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है। संस्थान मसूरचन्द्र (मसूर की दाल) के समान होता है । लेश्याएँ चार होती है। वे सम्यग्दृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि नहीं होते, मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी होते हैं। उनमें अवश्य ही मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान होता है । वे मनयोगी और वचनयोगी नहीं होते, काययोगी होते हैं। उनमें साकार और निराकार-दोनों उपयोग होते हैं। चार संज्ञा और चार कषाय होती है और एकमात्र स्पर्शनेन्द्रिय होती हैं । प्रथम की तीन समुद्घात होती हैं। साता और असाता दोनों वेदना होती है। वे स्त्री वेदी और पुरुष वेदी नहीं होते, नपुंसकवेदी ही होते हैं। स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की होती है । अध्यवसाय प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के होते हैं । अनुबन्ध स्थिति के अनुसार होता है। For Personal & Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६८ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ५ प्रश्न-से णं भंते ! पुढविकाइए पुणरवि 'पुढविकाइए' त्ति केवइयं कालं सेवेजा, केवड्यं कालं गइरागइं करेजा ? ५ उत्तर-गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्को. सेणं असंखेन्जाई भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उकोसेणं असंखेनं कालं-एवइयं जाव करेज्जा १ । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! वे पृथ्वीकायिक मर कर पुनः पृथ्वीकाथिक हो, इस प्रकार कितने काल तक सेवन और गमनागमन करते हैं ? __ ५ उत्तर-हे गौतम ! भव की अपेक्षा जघन्य दो भव और उत्कृष्ट असंख्यात भव, काल की अपेक्षा जघन्य दो अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक यावत् गमनागमन करता है १ । ६-सो चेव जहण्णकालट्टिईएसु उववण्णो जहण्णेणं अंतोमुहत्तट्टिईएसु, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तट्टिईएसु-एवं चेव वत्तव्यया णिरवसेसा २। भावार्थ-६ यदि वह पृथ्वीकायिक जघन्य काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्महूर्त की स्थिति वाले पथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है । इस प्रकार सम्पूर्ण वक्तव्यता जाननी चाहिये २। ७-सो चेव उक्कोसकालट्टिईएसु उपवण्णो, जहण्णेणं बावीसवाससहस्सट्टिईएसु, उकोसेण वि बावीसवाससहस्सट्टिईसु, सेसं तं चेव जाव 'अणुबंधो' चि । णवरं जहण्णेणं एको वा दो वा For Personal & Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीयों की उत्पति ३०६९ तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेना वा उबवजिज्जा । भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ट भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणणेणं बावीसं वाममहस्माइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छावत्तरिंवाससहस्सुत्तरं सयसहस्सं-एवइय कालं जाव करेजा ३ । भावार्थ-७ यदि वह पृथ्वीकायिक उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष को स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है । शेष अनुबन्ध तक पूर्ववत् । जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात पा असख्यात उत्पन्न होते हैं । भव की अपेक्षा जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव तथा काल को अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक वाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख छिहत्तर हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है ३ । ८- सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्टिईओ जाओ, सो चेव पढमिल्लओ गमओ भाणियव्वो, णवरं लेस्साओ तिण्णि । दिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । अप्पसत्था अज्झवसाणा । अणुवंधो जहा ट्ठिई । सेसं तं चेव ४ । भावार्थ-८ यदि वह स्वयं जघन्य काल को स्थिति वाला हो कर पृथ्वीकायिक में उत्पन्न हो, तो पूर्वोक्त प्रथम गमक के समान । लेश्याएं तीन होती स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त, अध्यवसाय अप्रशस्त और अनुबन्ध, स्थिति के समान होता है। शेष पूर्ववत् ४ । ९-सो चेव जहण्णकालट्टिईरसु उववण्णे सच्चेव चउत्थगमग For Personal & Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७० भगवती सूत्र श. २४ उ १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति वत्तव्वया भाणियव्वा ५ । भावार्थ - ९ - यदि वह पृथ्वीकायिक जघन्य काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक में उत्पन्न हो, तो पूर्वोक्त चौथे गमकवत् जानना चाहिये । ५ । १० - सो चेव उक्कोसकाल ट्टिईएसु उबवण्णो, एस चैव वत्तव्वया । वरं जहणेणं एक्की वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा, असंखेजा वा जाव भवादेमेणं जहणणेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अ भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासी वाससहस्साइं चउहिं अंतोमुहुतेहिं अमहियाई - एवइयं ० ६ । भावार्थ - १० यदि वह जघन्य स्थिति वाला पृथ्वीकायिक, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो, तो यही वक्तव्यता जाननी चाहिये । विशेष यह कि जघन्य, एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं, यावत् भव की अपेक्षा जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव तथा काल की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक ८८ हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है । ६ । ११ सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्टिइओ जाओ, एवं तइयगमगसरिसो णिरवसेसो भाणियव्वो । णवरं अप्पणा से ट्रिई जहण्णेणं बावीसं वाससहरसाई, उक्कोसेण वि बावीस वाससहस्साई ७ । भावार्थ६- ११ - यदि वह स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो, तो तीसरे गमक के समान सम्पूर्ण गमक जानने चाहिये, विशेष यह है कि उसकी स्वयं For Personal & Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की होती है । ७ । १२- सो चेव जहण्णकाल ट्टिईएस उववष्णो जहण्णेणं अंतोमुहुत्त०, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । एवं जहा सत्तमगमगो जाव 'भवादेसो' कालदेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहरसाई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उकोसेण अट्टासीइं वाससहरसाई चउहिं अंतोमुहुत्ते हिं अमहियाई - एवइयं ० ८ । भावार्थ - १२ - यदि वह उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला पृथ्वोकायिक, जघन्य काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है । इस प्रकार यहाँ सातवें गमक की वक्तव्यता यावत् भवादेश तक जाननी चाहिये । काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक ८८ हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है । ८ । ३०७१ १३ - सो चेव उक्कोसका लट्ठिएसु उववण्णो जहण्णेणं बावीसवाससहस्सट्टिईएस, उकोसेण वि बावीसवाससहस्सट्टिईएस, एस चेव सत्तमगमगवत्तव्वया जाणियव्वा जाव 'भवादेसों' त्ति । कालादेसेणं जहणेणं चोयालीसं बाससहस्साईं, उक्कोसेणं छाबत्तरिवाससहरसुत्तरं सयसहस्सं - एवइयं ९ । भावार्थ - १३ - यदि वह उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला, पृथ्वीकायिक उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है। यहां सातवें For Personal & Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७२ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति गमक को सम्पूर्ण वक्तव्यता यावत् भवादेश तक जाननी चाहिये । काल की अपेक्षा जघन्य ४४ हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख छिहत्तर हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है ९ । विवेचन-दूसरे प्रश्न में प्रज्ञापना सूत्र के व्युत्क्रांति नामक छठे पद का अतिदेश किया गया है । वहां के पाठ का अर्थ यह है-हे भगवन् ! वे एकेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक से आते हैं, यावत् पञ्चेन्द्रिय तिर्यच से आते हैं ? (उत्तर) हे गौतम ! एकेन्द्रिय यावत् पञ्चेन्द्रिय तियंच-योनिक से आते हैं। तीसरे गमक में जो यह कहा है कि 'जघन्य एक, दो तीन, उत्पन्न होते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि पहले और दूसरे गमक में उत्पन्न होने वाले बहुत होने से असंख्यात ही उत्पन्न होते हैं, किन्तु तीसरे गमक में उत्कृष्ट स्थिति वाले एकादि से ले कर असंख्यात तक उत्पन्न होते हैं। क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले अल्प होने से वे एकादि रूप से भी उत्पन्न हो सकते हैं । तीसरे गमक में उत्कृष्ट आठ भव कहे गये हैं । इस विषय में समझना चाहिये कि जिस संवेध में दोनों पक्षों में अथवा दोनों पक्षों में से किसी एक पक्ष में अर्थात् उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिक जीव की अथवा जिनमें उत्पन्न हुआ जाता है, उन पृथ्वीकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति हो, तो अधिक से अधिक आठ भव की कायस्थिति होती है, इसके अतिरिक्त (जघन्य और मध्यम) असंख्यात भवों की कायस्थिति होती है । अतः यहां उत्पत्ति के विषयभूत (जिनमें उत्पन्न हुआ जाता है) जीवों की उत्कृष्ट स्थिति होने से आठ भव कहे गये हैं। इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिये । एक भव की उत्कृष्ट स्थिति बाईस हजार वर्ष की होती है, उसे आठ से गुणा करने पर आठ भवों की उत्कृष्ट स्थिति एक लाल छिहत्तर हजार (१७६०००) वर्ष होती है । चौथे गमक में तीन लेश्याएँ कही गई हैं, क्योंकि जघन्य स्थिति वाले पृथ्वीकायिक में जीव, देवों से चव कर उत्पन्न नहीं होता, अतः तेजोलेश्या नहीं होती। छठे गमक में चार अन्तर्मुहून अधिक उत्कृष्ट अठासी हजार वर्ष कहे गये हैं, क्योंकि जघन्य स्थिति वाले और उत्कष्ट स्थिति वाले की चार-चार बार उत्पत्ति होने से इतना काल होता है । नौवें गमक में जघन्य चवालीस हजार वर्ष कहे गये हैं, वह बाईस हजार वर्ष रूप उत्कृष्ट स्थिति के दो भव करने से चवालीस हजार वर्ष होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ३०७३ इस प्रकार यह पृथ्वीकायिक जीव का पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पत्ति का कथन हुआ । अब आगे अप्कायिक जीव की उत्पत्ति का कथन किया जायगा । १४ प्रश्न - जइ आउक्काइयए गिंदियतिरिक्खजोणिए हिंतो उववज्जंति किं सुहमआउ, बादरआउ० ? १४ उत्तर - एवं चकओ भेदो भाणियव्वो जहा पुढविकाइयाणं । भावार्थ - १४ प्रश्न- यदि वह पृथ्वीकायिक जीव, अपकायिक एकेन्द्रिय तियंच से आता है, तो क्या सूक्ष्म से आता है या बादर अकायिक तिर्यंचयोनिक १४ उत्तर - पृथ्वीकायिक के समान ही यहां भी सूक्ष्म, वादर, पर्याप्त और अपर्याप्त ये चार भेद जानने चाहिये । १५ प्रश्न - आउकाइए णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएस उववज्जित्तए से णं भंते! केवइयका लट्टिईएस उववज्जेज्जा ? १५ उत्तर - गोयभा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तट्टिईएसु, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्सट्टिएस उववजेज्जा । एवं पुढविकाइयगमगसरिसा व गमगा भाणियव्वा ९ । णवरं थिबुगविंदुसंठिए । ठिई जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सत्त वाससहस्साई | एवं अणुबंधो वि । एवं तिसु विगमपसु । ठिई संवेहो तइयछटुसत्तममणवमगमेसु-भवादेसेणं जहणणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई सेसेसु For Personal & Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति चउसु गमएस जहणेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं असंखेज्जाई भवग्गहणाईं । तइयगमए कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं वाससहस्सा इं अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं सोलसुत्तरं वाससयसहस्सं - एवइयं ० । छट्टै गएकाला देसेणं जहणेणं बावीसं वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमव्भहियाई, उक्कोसेणं अट्टासीइं वाससहस्साई चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अन्भहियाई - एवइयं ० | सत्तमे गमए कालादेसेणं जहण्णेणं सत्त वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं सोलसुत्तरं वाससयस हरसंएवइयं । अट्टमे गमए कालादेसेणं जहणेणं सत्त वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठावीसं वाससहस्साइं चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाई - एवइयं ०। नवमे गमए भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ट भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणेणं एगूणतीसं वाससहस्साई, उक्कोसेणं सोलसुत्तरं वासस्य सहरसंएवइयं । एवं वसु वि गमपसु आउकाइयट्टिई जाणियव्वा ९ । ० । ३०७४ कठिन शब्दार्थ - - थिबुर्गाबदु संठिए - - स्तिबुक बिन्दु -- पानी के बुलबुले के समान । भावार्थ - १५ प्रश्न - हे भगवन् ! जो अप्कायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने के योग्य हैं, वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होता है ? १५ उत्तर - हे गौतम! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होता है । इस प्रकार पृथ्वीकायिक के समान अपकायिक के भी नव गमक जानना चाहिये । विशेष में अकायिक के शरीर का संस्थान स्तिबुक ( पानी के परपोटे - बुलबुले ) के For Personal & Private Use Only ! Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति आकार का होता है। स्थिति और अनुबन्ध जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष है । इस प्रकार तीनों गमकों में जानना चाहिये। तीसरे, छठे, सातवें, आठवें और नौवें गमक में संवेध भव को अपेक्षा जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव होते हैं, शेष चार गनकों में जघन्य दो भव और उत्कृष्ट असंख्यात भव होते हैं। तीसरे गमक में काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख सोलह हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है। छठे गमक में काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक अठासी हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है। सातवें गमक में काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक सात हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख सोलह हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है । आठवें गमक में काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक सात हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक अट्ठाईस हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है। नौवें गमक में भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव करता है, काल की अपेक्षा जघन्य उनतीस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख सोलह हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है । इस प्रकार नौ ही गमकों में अपकायिक की स्थिति जाननी चाहिये । ९ । २०७५ विवेचन - अप्काय के चार भेद हैं। यथा-सूक्ष्म के अपर्याप्त औरं पर्याप्त तथा बादर के अपर्याप्त और पर्याप्त । भवादेश से संबेध का कथन इस प्रकार है । संवेध--भव की अपेक्षा सभी गमकों में जघन्य दो भव हैं किन्तु उत्कृष्ट में भिन्नता है । यथा- तीसरे, छठे, सातवें, आठवें, और नौवें गमक में उत्कृष्ट संवेध आठ भव है । क्योंकि तीसरे, छठे, सातवें और आठवें गमक में एक पक्ष में उत्कृष्ट स्थिति है और नौवें गमक में दोनों पक्ष में उत्कृष्ट स्थिति है । शेष पहले, दूसरे, चौथे और पांचवें गमक में उत्कृष्ट असंख्यात भव होते हैं । क्योंकि इन चार गमकों में किसी भी पक्ष में उत्कृष्ट स्थिति नहीं है । तीसरे गमक में काल की अपेक्षा जघन्य बाईस हजार वर्ष कहे गये हैं, क्योंकि उत्पत्ति स्थानभूत पृथ्वी कायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति है और अन्तर्मुहूर्त जो अधिक कहा For Personal & Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७६ भगवती मूत्र-दा. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्तत्ति गया है, वह वहाँ पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले अप्कायिक जघन्य काल स्थिति की विवक्षा से कहा गया है । काल की अपेक्षा उत्कृष्ट एक लाख सोलह हजार वर्ष कहे गये हैं । यहाँ उत्कृष्ट स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों के चार भवों के ८८००० वर्ष होते हैं। इसी प्रकार औधिक में भो उत्कृष्ट स्थिति वाले अपकायिक जीवों के चार भवों के २८००० वर्ष होते हैं । इन दोनों को मिलाने से एक लाख सोलह हजार वर्ष होते हैं। छटे गमक में जघन्य स्थिति वाले पृथ्वीकायिको में उत्पत्ति बतलाई गई है । इसलिये दोनों के चार भवों के चार अन्तर्मुहर्त अधिक ८८००० वर्ष होते हैं । इसी प्रकार सातवें और आठवें गमक का संवेध भी जानना चाहिये, किन्तु नौवें गमक में जघन्य से पृथ्वीकायिक और अप्कायिक का उत्कृष्ट स्थिति मिलाने से २९००० वर्ष होते हैं और उत्कृष्ट पूर्वोक्त रीति से एक लाख सोलह हजार वर्ष होते हैं । १६ प्रश्न-जइ तेउकाइएहितो उववजति छ ? १६ उत्तर-तेउकाइयाण वि एस चेव वत्तव्वया । णवरं णवसु वि गमएसु तिणि लेस्साओ । तेउकाइया णं सुईकलावसंठिया । ठिई जाणियब्वा । तईयगमए कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमभहियाई उक्कोसेणं अट्ठासीई वाससहस्साई वारसहिं राइदिएहिं अब्भहियाई-एवइयं० । एवं संवेहो उवजंजिऊण भाणियव्यो। कठिन शब्दार्थ-उवज़ुजिऊण-उपयोग लगा कर । भावार्थ-१६ प्रश्न-यदि वह तेजस्काय से आता हो, तो ? १६ उत्तर-इस विषय में भी यही वक्तव्यता जाननी चाहिये । यहां नौ ही गमकों में तीन लेश्याएँ होती हैं । ते उकाय का संस्थान सूचीकलाप (सूइयों का समूह) के समान होता है । स्थिति तीन अहोरात्र की होती है। तीसरे गमक में काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट For Personal & Private Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ. १२ पृथ्वोकायिक जीवों की उत्पत्ति बारह अहोरात्र अधिक ८८००० वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है । इसी प्रकार उपयोगपूर्वक संवेध भी कहना चाहिए । १ से ९ । १७ प्रश्न - जइ वाउक्काइए हिंतो० ? १७ उत्तर - वाउक्काइयाण वि एवं चेव णव गमगा जहेव ते काइयाणं । वरं पडागासंठिया पण्णत्ता । संवेहो वाससहस्से हिं काव्वो । तइयगमए कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं वाससहस्सा ई. अंतमुहुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं एगं वाससयसहस्सं । एवं संवेहो उवजुजिऊण भाणियव्वो । ३०७७ भावार्थ - १७ प्रश्न - यदि वे वायुकायिक जीवों से आते हैं, तो ? १७ उत्तर - तेजस्काय के समान नौ ही गमक जानने चाहिये । वायुकाय का संस्थान पताका के आकार का होता है । संवेध हजारों वर्षों से करना चाहिये । तीसरे गमक में काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष । इस प्रकार उपयोगपूर्वक संवेध जानना चाहिये । १८ प्रश्न- जइ वणस्सइकाइएहिंतो उववज्जंति० ? १८ उत्तर - वणस्सइकाइयाणं आउकाइयगमगसरिसा णव गमगा भाणियव्वा । णवरं णाणासंठिया । सरीरोगाहणा- पढमएसु पच्छिल्लएसु यतिसुगमपसु जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्सं, मज्झिल्लएसु तिसु तहेव जहा पुढविकाइयाणं । संदेहो ठिई य जाणियव्वा । तहयगमे कालादेसेणं जहणेणं बाबीसं For Personal & Private Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७८ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति .. वोससहस्साई अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अट्ठावीसुत्तरं वाससय सहस्सं-एवइयं० । एवं संवेहो उवजुंजिऊण भाणियव्वो ९।। . भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे वनस्पतिकायिक जीवों से आते हैं, तो? . १८ उत्तर-इसके भी नौ गमक अप्कायिक के समान हैं । वनस्पतिकाय का संस्थान अनेक प्रकार का होता है। प्रथम के तीन गमक और अन्तिम तीनों गमक में अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट सातिरेक एक हजार योजन की होती है। बीच के तीन गमकों में पृथ्वीकायिक के समान जानना चाहिये। संवेध और स्थिति भी कहनी चाहिये । तीसरे गमक में काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख अट्ठाईस हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है । इसी प्रकार उपयोग पूर्वक संवेध भी कहना चाहिये। __ विवेचन-अप्काय में देवोत्पत्ति होती है, इसलिये चार लेश्याएँ कही गई है । तेउकाय में देवोत्पत्ति नहीं होती, इसलिये तीन लेश्याएँ कही गई हैं । तेउकाय की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट तीन अहोरात्र है । तीसरे गमक में औधिक तेजस्कायिक की उत्पत्ति उत्कृष्ट स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में बतलाई गई है, यहां एक पक्ष उत्कृष्ट स्थिति वाला होने से पृथ्वीकायिक के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति ८८००० वर्ष होती है, तथा तेउकाय की चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति बारह अहोरात्र होती है । संवेध-छठे से नौवें गमक . तक में भव की अपेक्षा आठ भव होते हैं और काल की अपेक्षा उपयोगपूर्वक कहना चाहिये। शेष गमकों में उत्कृष्ट असंख्यात भव होते हैं और काल भी असख्यात होता है । 'वायुकायिक जीवों का संवेध हजारों वर्ष से करना चाहिये'-इस कथन का आशय यह है कि तेजस्काय के अधिकार में तीन अहोरात्र से संवेध किया गया था, क्योंकि उनकी उत्कृष्ट स्थिति तीन अहोरात्र की होती है। वायुकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन हजार वर्ष होती है, इसलिये इनका संवेध तीन हजार वर्षों से करना चाहिये। तीसरे गमक में उत्कृष्ट आठ भव होते हैं। उनमें से पृथ्वीकायिक के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति ८८००० वर्ष होती है और वायुकायिक जीवों के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति १२००० वर्ष होती है । इन दोनों को मिलाने से संवेध एक लाख वर्ष का होता है । इस प्रकार जहाँ For Personal & Private Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीदो की उत्पत्ति ३०७९ उत्कृष्ट स्थिति का गमक हो. वहाँ उत्कृष्ट आठ भव और तदनुसार काल कहना चाहिये । इसके अतिरिक्त दूसरे गमको में असंख्यात भव और तदनुसार असंख्यात काल कहना चाहिये । वनस्पतिकायिक नौ गमकों के लिये अप्कायिक गमकों का अतिदेश किया गया है और जो विशेषता है, वह मूल में बता दी गई है। अप्काय का संस्थान स्तिबुक के आकार का है और वनस्पति काय का सम्यान नाना प्रकार का है । बनस्पतिकाय के प्रथम तीन औधिक गमों में और अन्तिम अर्थात् सातवें, आठवें और नौवें गमक में अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार की होती है। अर्थात जघन्य अंगल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट सातिरेक एक हजार योजन होती है । चौथे, पाँववें और छठे, इन वीच के जघन्य स्थिति के तीन गमकों में अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग ही होती है । वनस्पतिकाय की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की होता है । इसके अनुसार संवेध भी जानना चाहिये। किसी भी पक्ष में उत्कृष्ट स्थिति के गमकों में उत्कृष्ट आठ भव होते हैं। उनमें से पृथ्वी काय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति ८८००० वर्ष होती है और वनस्पतिकाय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति ४००.. वर्ष होती है । दोनों को मिलाने से एक लाख अट्ठाईस हजार (१२८००० ) वर्ष का संबंध काल होता है । १९ प्रश्न-जइ बेइंदिएहिंतो उववज्जति किं पजत्तबेइंदिएहितो उववज्जंति, अपजत्तवेइंदिएहितो० ? १९ उत्तर-गोयमा ! पजत्तबेइंदिरहितो उववजंति, अपज्जत्तबेइंदिएहितो वि उववज्जति । भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि बेइन्द्रिय जीवों से आते हों, तो क्या पर्याप्त या अपर्याप्त बेइन्द्रिय जीवों से आते हैं ? . १९ उत्तर-हे गौतम ! पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के जीवों से आते हैं। २० प्रश्न-इंदिए णं भंते !जे भविए पुढविकाइएसु उववजित्तए For Personal & Private Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८० भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति से णं भंते ! केवइयकाल ? - २० उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तट्टिईएसु, उक्कोसेणं बावीसवाससहस्सट्टिईएसु । भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! जो बेइन्द्रिय जीव, पृथ्वीकायिक जीवों में आने के योग्य है, वे कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक जीवों में आते हैं ? २० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं। २१ प्रश्न ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० ? २१ उत्तर-गोयमा ! जहणणेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा उववजंति । छेवटुसंघयणी । ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, · उकोसेणं बारस जोयणाई । हुंडसंठिया। तिणि लेसाओ। सम्मदिट्टि वि, मिच्छादिट्टि वि, णो सम्मामिच्छादिट्ठि । दो णाणा, दो अण्णाणा णियमं । णो मणजोगी, वयजोगी वि, कायजोगी वि । उवओगो दुविहो वि । चत्तारि सण्णाओ । पत्तारि कसाया। दो इंदिया पण्णत्ता, तंजहाजिभिदिए य फासिदिए य । तिण्णि समुग्घाया । सेसं जहा पुढवि. काइयाणं । णवरं ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बारस संवच्छराई । एवं अणुबंधो वि, सेसं तं चेव । भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं संखेजाइं भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणेणं For Personal & Private Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ग. २४ उ १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति दो अंतोमुहलाई उकोसेणं संखेज्जं कालं - एवइयं ० १ । भावार्थ- २१ प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने आते हैं ? २१ उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, या असंख्यात आते हैं । उनका संहनन सेवार्त्त होता है । अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट बारह योजन की होती है । संस्थान हुण्डक, लेश्या तीन, दृष्टि दो-सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि होते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते। उनमें दो ज्ञान या दो अज्ञान अवश्य होते हैं । वे मनयोगी नहीं होते, वचनयोगी और काययोगी होते हैं । उनमें दो उपयोग, चार संज्ञा और चार कषाय होती हैं । जिव्हेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय ये दो इन्द्रियाँ होती है । तीन समुद्घात होती हैं। शेष सभी पृथ्वी कायिकों के समान जानना चाहिये । स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बारह वर्ष की होती है । इसी प्रकार अनुबन्ध भी होता है । शेष सभी पूर्ववत् । भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट संख्यात भव तथा कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात काल तक यावत् गमनागमन करता है १ । २२- सो चेव जहण्णकालट्टिईएस उववण्णो एस चेव वत्तव्वया सव्वा २ । ३०८१ भावार्थ - २२ प्रश्न - -यदि वह बेइन्द्रिय जघन्य काल की स्थिति वाले पृथ्वी कायिकों में आता हो तो भी पूर्वोक्त सभी वक्तवकता जाननी चाहिये २ । २३ - सो चेव उक्कोसका लट्ठिईएस उववण्णो एस चेव बेंदियरस लद्वी । णवरं भवादेसेणं जहणेणं दो भवग्गहणाई, उकोसेणं अट्ट भवग्गणाई | कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं वासमहस्साई अंतो For Personal & Private Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८२ भवगती सूत्र-श. २४ उ १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति मुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीइं वाससहस्साई अडयालीसाए संवच्छरेहिं अन्भहियाइं-एवइयं० ३ । __ भावार्थ-२३-यदि वह बेइन्द्रिय, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में आता हो, तो उसके विषय में भी उपर्युक्त वर्णनानुसार है । भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव तथा कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक २२००० वर्ष और उत्कृष्ट ४८ वर्ष अधिक ८८००० वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है । ३ । २४-सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्टिईओ जाओ, तस्स वि एस चेव वत्तव्वया तिसु वि गमएसु । णवरं इमाई सत्त णाणत्ताई१ सरीरोगाहणा जहा पुढविकाइयाणं। २ णो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्टी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी । ३ दो अण्णाणा णियम । ४ णो मणजोगी, णो वयजोगी, कायजोगी। ५ ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उकोसेण वि अंतोमुहुत्तं । ६ अज्झवसाणा अप्पसत्था । ७ अणुबंधो जहा ठिई। संवेहो तहेव आदिल्लेसु दोसु गमएसु, तइयगमए भवादेसो तहेव अट्ठ भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं वाससहस्साइं अंतो. मुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अठासीइं वाससहस्साई चाहिं अंतोमुहुत्तेहिं अन्भहियाई ६। भावार्थ-२४-यदि वह बेइन्द्रिय, स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो और वह पृथ्वीकायिक जीवों में आता हो, तो उसके तीनों गमकों में पूर्वोक्त For Personal & Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ३०८३ वक्तव्यता जाननी चाहिये, किन्तु विशेष में यहां सात नानात्व ( भेद ) हैं । यथा१ - शरीर की अवगाहना पृथ्वीकायिकों के समान ( अंगुल के असंख्यातवें भाग ) है, २ - वे सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते, मिथ्यादृष्टि होते हैं, ३ - दो अज्ञान नियम से होते हैं, ४- वे मनयोगी और वचनयोगी नहीं होते, काययोगी होते हैं, ५- स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होती है, ६ अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं, ७-स्थिति के अनुसार अनुबन्ध होता है। दूसरे त्रिक के पहले के दो गमकों में (चौथे और पांचवें गमक में ) संवेध भी इसी प्रकार जानना चाहिये । छठे गमक में भवादेश उसी प्रकार आठ भव । कालादेश से जन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक २२००० वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक ८८००० वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है । ४-५-६ । २५-सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाओ, एयरस वि ओहियगमगसरिसा तिष्णि गमगा भाणियव्वा । णवरं तिसु वि गम ठिई जहणेणं वारस संवच्छराई, उक्कोसेण वि बारस संवच्छराई | एवं अणुबंधो वि । भवादेसेणं जहणणेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई | कालादेसेणं उवजुंजिऊण भाणियव्वं, जाव णवमे गमए जहणेणं बावीसं वाससहस्साई बारसहिं संवच्छ रेहिं अब्भहियाई, उकोसेणं अट्टासीइं वाससहस्साई अडयालीसाए संबन्छ रेहिं अमहियाई - एवइयं ० ९ । 'भावार्थ - २५ - यदि वह बेइन्द्रिय जीव, स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और पृथ्वीकायिक जीवों में आता हो, तो तीनों गमक औधिक गमकों के समान जानना चाहिये। तीनों गमकों में स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट बारह वर्ष की होती है । For Personal & Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८४ भगवती मूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति अनुबन्ध भी इसी प्रकार होता है। भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव तथा कालादेश से संवेध विचार कर कहना चाहिये, यावत् नौवें गमक में जघन्य बारह वर्ष अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट ४८ वर्ष अधिक . ८८००० वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है । ७-८-९ । . विवेचन-बेइन्द्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना जो बारह योजन बताई गई है, वह शंख आदि की अपेक्षा समझनी चाहिये । जैसा कि कहा है-'संखो पुण वारस जोयणाई' । औधिक बेइन्द्रिय का औधिक पृथ्वीकायिकों में उत्पत्ति रूप प्रथम गमक में जो सम्यग्दृष्टिपन कहा गया है, वह सास्वादनसमकित की अपेक्षा समझना चाहिये ।। बेइन्द्रिय के तीसरे गमक में संवेध, भवादेश से उत्कृष्ट आठ भव वताये हैं, क्योंकि यहां एक पक्ष उत्कृष्ट स्थिति वाला है । कालादेश में बेइन्द्रिय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति ४८ वर्ष होती है और पृथ्वो काय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति ८८००० वर्ष होती है। अत: ४० वर्ष अधिक ८८००० वर्ष बताये गये हैं। बेइन्द्रिय के चौथे पाँचवें और छठे गमक में, सात बातों का नानात्व बताया गया है । प्रथम तीन गमकों में उत्कृष्ट अवगाहना बारह योजन बताई गई थी, किन्तु यहां जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग बताई गई है। पहले गमकों में सम्यग्दृष्टिपन बताया गया है, किन्तु इन गमकों में सम्यग्दृष्टिपन का अभाव है, क्योंकि जघन्य स्थिति होने से इनमें सास्वादन सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति नहीं होती। इसी प्रकार दो अज्ञान ही पाये जाते हैं, ज्ञान नहीं । जघन्य स्थिति होने के कारण अपर्याप्तक होने से इनमें वचनयोग भी नहीं पाया जाता । स्थिति अन्तर्मुहूर्त ही होती है। अल्प-स्थिति होने से अध्यवसाय भी अप्रशस्त ही होते हैं । सातवां नानात्व अनुबन्ध है, वह स्थिति के अनुसार होता है । संवेध-चौथे और पांचवें गमक में भवादेश से उत्कृष्ट सख्यात भव होते हैं और कालादेश से संख्यात काल होता है । छठे गमक का संवेध भवादेश से उत्कृष्ट आठ भव, कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक ८८००० वर्ष होता है। सातवें गमक का संवेध भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव । कालादेश से उत्कृष्ट सातवें गमक में ४८ वर्ष अधिक ८८००० वर्ष । आठवें गमक में चार अन्तर्मुहूर्त अधिक ४८ वर्ष । नौवें गमक का संवेध, जघन्य बारह वर्ष अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट ४८ वर्ष अधिक ८८००० वर्ष का होता है । अतः उपयोग पूर्वक जघन्य और उत्कृष्ट संवेध कहना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ३०८५ २६ प्रश्न-जइ तेइंदिएहिंतो उववजंति ? २६ उत्तर-एवं चेव णव गमगा भाणियव्वा, णवरं आदिल्लेसु तिसु वि गमएसु सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उकोसेणं तिण्णि गाउयाई । तिणि इंदियाई । ठिई जहणणेणं अतो. मुहत्तं, उक्कोसेणं एगूणपण्णं राइंदियाइं । तइयगमए कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साई अंतोमुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अट्ठा. सीइं वामसहस्साइं छण्णउइं राइंदियसयमभहियाई-एवइयं०। मज्झिमा तिणि गमगा तहेव, पच्छिमा वि तिण्णि गमगा तहेव । णवरं ठिई जहण्णेणं एगूणपण्णं राइंदियाई, उक्कोसेण वि एगूणपण्णं राइं. दियाई । संवेहो उवजुंजिऊण भाणियव्यो ९। कठिन शब्दार्थ-एगणपण्णं-उनपचास (४९) । भावार्थ-२६ प्रश्न-यदि वह पृथ्वीकायिक तेइन्द्रिय से आता हो, तो? २६ उत्तर-यहां भी इसी प्रकार नौ गमक कहना चाहिये । प्रथम के तीन गमकों में शरीर को अवगाहना जघन्य अंगल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट तीन गाऊ की होती है । इन्द्रियाँ तीन और स्थिति जघन्य अन्तर्महर्त और उत्कृष्ट ४९ रात्रि-दिवस की होती है। तीसरे गमक में काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक २२००० वर्ष और उत्कृष्ट १९६ रात्रि-दिवस अधिक ८८००० वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है। बीच के तीन (चौथे, पांचवें और छठे) गमक का कथन भी उसी प्रकार (बेइन्द्रिय के समान) जानना चाहिये । अन्तिम तीन (सातवें, आठवें और नौवें) गमक का कथन भी उसी प्रकार जानना चाहिये । स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट ४९ रात्रि दिवस की होती है और संवेध उपयोगपूर्वक कहना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८६ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति २७ प्रश्न-जइ चउरिदिएहिंतो उववज्जति ? २७ उत्तर-एवं चेव चउरिंदियाण वि णव गमगा भाणियब्वा । णवरं एएसु चेव ठाणेसु णाणत्ता भाणियव्वा। सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई । ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण य छम्मासा । एवं अणुबंधो वि । चत्तारि इंदियाई, सेसं तं चेक जाव णवमगमए । कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं वाससहस्साई छहिं मासेहिं अभहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीइं वाससहस्साई चउवीसाए मासेहिं अभहियाई-एवइयं० ९ । भावार्थ-२७ प्रश्न-यदि वह पृथ्वीकायिक जीव, चतुरिन्द्रिय जीवों से आते हो, तो? २७ उत्तर-इस विषय में भी इसी प्रकार नौ गमक कहना चाहिये । शरीर को अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट चार गाऊ की होती है । स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट छह मास की होती है । स्थिति के अनुसार अनुबन्ध होता है। इन्द्रियां चार होती हैं। शेष पूर्ववत् यावत् नौवें गमक में कालादेश से जघन्य छह मास अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चौबीस मास अधिक ८८००० वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है। विवेचन-तेइन्द्रिय के तीसरे गमक में उत्कृष्ट आठ भव होते हैं। उनमें से तेइंद्रिय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति १९६ रात्रि-दिवस और पृथ्वीकाय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति ८८.०० वर्ष होती है। दोनों को मिला कर १९६ रात्रि-दिवस अधिक ८८००० वर्ष होते हैं। चौथा, पाँचवा और छठा गमक बेइन्द्रिय के समान है। सातवें, आठवें और नौवें गमक का संवेध भवादेश से प्रत्येक के आठ भव होते हैं । कालादेश से सातवें और नौवें गमक में उत्कृष्ट १९६ रात्रि-दिवस अधिक ८८००० वर्ष होते हैं। आठवें गमक में चार अन्तर्मुहूर्त अधिक १९६ रात्रि-दिवस होते हैं। .. चतुरिन्द्रिय का कथन तेइन्द्रिय के समान है। अवगाहना आदि की विशेषता मूल. For Personal & Private Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २४ उ १२ पृथ्वोकायिक जीवों की उत्पत्ति पाठ में बता दी गई है | संवेध का कथन उपयोगपूर्वक यथायोग्य कहना चाहिये २८ प्रश्न - जह पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जेति किं सष्णिपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति असणिपंचिंदिय तिरिक्ख जोणिए० ? २८ उत्तर - गोयमा ! सणिपंचिंदिय०, असष्णिपंचिंदिय० । भावार्थ-२८ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे पृथ्वीकायिक, पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक से आते हैं, तो क्या संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच-योनिक से आते हैं या असंज्ञी से ? '२८ उत्तर - हे गौतम ! संज्ञी और असंज्ञी दोनों प्रकार के पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक से आते हैं । ३०८७ २९ प्रश्न - जह असणिपंचिंदिय० किं जलचरेहिंतो उववज्जंति . जाव किं पजत्तएहिंतो उववजंति, अपजत्तएहिंतो उववज्जंति ? २९ उत्तर - गोयमा ! जाव पज्जत्तएहिंतो वि उववज्जंति, अपज्ज - तहिंतो वि उववज्र्ज्जति । भावार्थ - २९ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि वे असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक से आते हैं, तो जलचरों से आते हैं यावत् पर्याप्त या अपर्याप्त से आते हैं ? २९ उत्तर - हे गौतम! यावत् सभी के पर्याप्त और अपर्याप्त से आते हैं । ३० प्रश्न - असणिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए पुढविकास उववज्जित से णं भंते ! केवइ० ? ३० उत्तर - गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वासमहस्साईं । For Personal & Private Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति भावार्थ - ३० प्रश्न - हे भगवन् ! असंज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच-योनिक, पृथ्वीकायिक जीवों में आवे, तो वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक में आता है ? ३०८८ ३० उत्तर - हे गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होता है । ३१ प्रश्न - ते णं भंते! जीवा० । 1 ३१ उत्तर - एवं जहेव वेइंदियरस ओहियगमए, लद्धी तहेव । णवरं सरीगेगाहणा जपणेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं । पंचिंदिया | टिई अणुबंधो य जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उको पुत्रकोडी | सेसं तं चैव । भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उकोसेणं अट्ट भवग्गहणाई | कालादेसेणं जहणणेणं दो अंतोमुहुत्ता, उकोसेणं चत्तारि दुव्वकोडीओ अट्टासीईए वाससहर से हिं अमहियाओ - एवइयं ० । णवसु वि गमएसु कायसंवेहो भवादेसेणं जहणेणं दो भवग्गहगाई, उकोसेणं अट्ट भवग्गहणाई । कालादेमेणं उवजुजिऊण भाणियव्वं । णवरं मज्झिमएसु तिसु गमपसु जहेव वेई - दियस्स, पच्छिल्लएसु तिसु गमएसु जहा एयस्स चैव पढमगमएस। वरं ठिई अणुबंधो य जहण्णेणं पुव्वकोडी, उक्कोसेण वि पुव्वकोडी, सेसं तं चैव जाव णवमगमएसु - 'जहण्णेणं पुव्वकोडी बावी - साए वाससहस्सेहिं अब्भहिया, उकोसेणं चत्तारि पुव्वकोडीओ अट्ठासीईए वासमहस्सेहिं अमहियाओ' - एवइयं कालं सेवेज्जा ० ९ । For Personal & Private Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उ पत्ति ३०८९ भावार्थ-३१ प्रश्न-हे भगवन् ! वे असंजी पंचेंद्रिय तिर्यच-योनिक जीव, एक समय में कितने आते हैं, इत्यादि ? । ३१ उत्तर-बेइन्द्रिय के औधिक गमकों के अनुसार । विशेष में शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन होती है। इन्द्रियाँ पाँच । स्थिति और अनुबन्ध जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि, शेष पूर्ववत् । संवेध भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव, कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट ८८००० वर्ष अधिक चार पूर्वकोटि तक यावत् गमनागमन करता है । नौ गमकों में भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव होते हैं। कालादेश से कायसंवेध उपयोगपूर्वक कहना चाहिये, विशेष यह है कि मध्य के (चौथा, पांचवां और छठा) तीन गमकों का कथन बेइन्द्रिय के मध्य के तीन गमकों के समान । पिछले (सातवाँ, आठवाँ, नौवाँ) तीन गमकों का कथन प्रथम के तीन गमकों के अनुसार । स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि, शेष पूर्ववत्, यावत् नौवें गमक में संवेध कालादेश से जघन्य २२००० वर्ष अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट ८८००० वर्ष अधिक चार पूर्वकोटि यावत् गमनागमन करता है १-९। ..... ३२ प्रश्न-जइ सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं संखेजवासाउय०, असंखेजवासाउय० ? ३२ उत्तर-गोयमा ! संखेजवासाउय०, णो असंखेजवासाउय० । भावार्थ-३२ प्रश्न-यदि वे पृथ्वी कायिक, सजी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च-योनिक से आते हैं, तो संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले से आते हैं या असंख्यात वर्ष की ? ३२ उत्तर-वे संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंचयोनिक से आते हैं, असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले से नहीं आते। For Personal & Private Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९० भगवती सूत्र-ग. २४ 3. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ३३ प्रश्न-जइ संखेन्जवासाउय० किं जलचरेहितो० ? ३३ उत्तर-सेसं जहा असण्णीणं जाव भावार्थ-३३ प्रश्न-यदि वे संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच-योनिक से आते हैं, तो ? ३३ उत्तर-सभी वक्तव्यता असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच के समान जाननी चाहिये । यावत् ३४ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजति ? ३४ उत्तर-एवं जहा रयणप्पभाए उववजमाणस्स सण्णिस्स तहेव इह वि, णवरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं, सेसं तहेव जाव कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुव्वकोडीओ अट्ठासीईए वाससहस्सेहिं अब्भहियाओ-एवइयं० । एवं संवेहो णवसु वि गमएसु जहा असण्णीणं तहेव गिरवसेसं । लद्धी से आदिल्लएसु तिसु वि गमएसु एस चेव मज्झिल्लएसु तिसु वि गमएसु एस चेव । णवरं इमाइं णव णाणत्ताइं-१ ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइभागं । तिण्णि लेस्साओ। मिच्छादिट्ठी। दो अण्णाणा । कायजोगी। तिण्णि समुग्घाया । ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं । अप्पसत्था अज्झवसाणा । अणु. बंधो जहा ठिई, सेसं तं चेव । पच्छिल्लएसु तिसु वि गमएसु जहेव For Personal & Private Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वी कायिक जीवों की उत्पत्ति ३०९१ पढमगमए । णवरं ठिई अणुबंधो जहण्णेणं पुव्वकोडी, उक्कोसेण वि पुव्वकोडी, सेसं तं चेव ९। भावार्थ-३४ प्रश्न-हे भगवन ! वे संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी पंचेंन्द्रिय तियंच, पृथ्वीकायिक जीवों में आते हों, तो एक समय में कितने आते हैं ? ३४ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभा में आने वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यच सम्बन्धी वक्तव्यता कही, उसी प्रकार यहां भी जाननी चाहिये । शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन की होती है। शेष इसी प्रकार जानना चाहिये, यावत् कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट ८८००० वर्ष अधिक चार पूर्वकोटि तक यावत् गमनागमन करते हैं । इस प्रकार नौ गमकों में सर्वत्र सवेध-असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच के समान है । प्रथम के तीन गमक और मध्य के तीन गमकों में भी यही वक्तव्यता जाननी चाहिये, परन्तु मध्य के (चौथा, पांचवां और : छठा) तीन गमकों में ये नौ नानात्व है । यथा-१ शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल का असंख्यातवां भाग, २-लेश्या तीन, ३-मिथ्यादृष्टि, ४-दो अज्ञान, ५-काययोगी, ६-तीन समुद्घात, ७-स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त, ८-अध्यवसाय अप्रशस्त और ९-अनुबन्ध स्थिति के अनुसार होता है, शेष पूर्ववत् । अन्तिम (सातवां, आठवां और नौवां) तीन गमकों में प्रथम गमक के समान, स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि का होता है, शेष पूर्ववत् । - विवेचन-पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने वाले संज्ञी और असंज्ञो पंचेन्द्रिय तियंचों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की होती है और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच के प्रथम, द्वितीय और तृतीय गमक का कथन, रत्नप्रभा में उत्पन्न होने वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच के प्रथम, द्वितीय और तृतीय गमक के समान ही है । चौथे, पांचवें और छठे गमक का कथन भी इसी प्रकार है, किन्तु अन्तर नौ विषयों में है, जो मूल में बताया गया है । अन्तिम तीन गमकों का कथन प्रथम तीन गमकों के समान है। स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि का होता है। For Personal & Private Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३०९२ भगवती मूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ३५ प्रश्न-जइ मणुस्सेहिंतो उववज्जति किं सण्णिमणुस्सेहितो उववज्जति, असण्णिमणुस्सेहिंतो० ? '. ३५ उत्तर-गोयमा ! सण्णिमणुस्सेहिंतो उववज्जति, असणि मणुस्सेहितो वि उववति। ___ भावार्थ-३५ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे पृथ्वीकायिक, मनुष्यों से आते हैं, तो संज्ञी मनुष्यों से आते हैं या असंज्ञो मनष्यों से ? ३५ उत्तर-हे गौतम ! संज्ञी और असंज्ञी दोनों प्रकार के मनुष्यों से आते हैं। - ३६ प्रश्न-असण्णिमणुस्से णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु० से णं भंते ! केवइयकाल ? ___३६ उत्तर-एवं जहा असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स जहण्णकालटिईयस्स तिण्णि गमगा तहा एयस्स वि ओहिया तिण्णि गमगा भाणियव्वा तहेव गिरवसेसा, सेसा छ ण भण्णंति १ । भावार्थ-३६ प्रश्न-हे भगवन् ! असंज्ञी मनुष्य, पश्वीकायिक में आते. हो, तो कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक जोकों में आता है ? ३६ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार जघन्य काल की स्थिति वाले असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यच-योनिक के विषय में तीन गमक कहे गये हैं, उसी प्रकार यहां भी औधिक तीन गमक सम्पूर्ण कहने चाहिये । शेष छह गमक नहीं कहने चाहिये। ३७ प्रश्न-जइ सण्णिमणुस्सेहिंतो उववजति किं संखेज. For Personal & Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ३०६३ वासाउय०, असंखेजवामाउय० ? ३७ उत्तर-गोयमा ! संखेजवासाउय०, णो असंखेजवासाउय० । भावार्थ-३७ प्रश्न-यदि वे संज्ञी मनुष्यों से आते हैं, तो क्या संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले या असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञो मनुष्यों से आते हैं ? ३७ उत्तर-हे गौतम ! वे संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञो मनुष्यों से आते हैं, असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी मनुष्यों से नहीं आते । ३८ प्रश्न-जइ संखेजवासाउय० किं पजत्त०, अपजत्त० ? ३८ उत्तर-गोयमा ! पजत्तसंखेज०, अपजत्तसंखेजवासाउय० जाव उववजनि। भावार्थ-३८ प्रश्न-यदि वे संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले मनुष्यों से आते हैं, तो पर्याप्त मनुष्यों से आते हैं या अपर्याप्त से ? ३८ उत्तर-हे गौतम ! पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के संज्ञी . मनुष्यों से आते है। ३९ प्रश्न-सण्णिमणुस्से णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइयकाल ? ३९ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसंवाससहस्सठिईएसु । भावार्थ-३९ प्रश्न-हे भगवन् ! संख्यात वर्ष की आयुष्य वाला संजी मनुष्य, पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने के योग्य हैं, तो वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? For Personal & Private Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९४ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ३९ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है । ४० प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा० ? - ४० उत्तर-एवं जहेव रयणप्पभाए उववजमाणस्स तहेव तिसु वि गमएसु लदी । णवरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइ. भागं, उक्कोलेणं पंचधणुसयाई । ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी, एवं अणुवंधो । संवेहो णवसु गमएसु जहेव सण्णिपंचिंदियस्म । मझिल्लएसु तिसु गमपसु लद्धी जहेव सण्णिपंचिं. दियस्स, सेसं तं चेव गिरवसेसं, पच्छिल्ला तिण्णि गमगा जहा एयस्स चेव ओहिया गमगा। णवरं ओगाहणा जहण्णेणं पंचधणुसयाई, उक्कोसेणं पंचधणुसयाई । ठिई अणुबंधो जहण्णेणं पुव्वकोडी, उको. सेण वि पुवकोडी, सेसं तहेव । * भावार्थ-४० प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव, एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? • ४० उत्तर-हे गौतम ! तीन गमकों में रत्नप्रभा में उत्पन्न होने वाले मनष्य के समान । विशेष यह है कि शरीर की अवगाहना जघन्य अंगल के 'असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष, स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कष्ट पूर्वकोटि । इसी प्रकार अनुबन्ध भी । संवेध-संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच के समान नौ गमकों में जानना चाहिये । बीच के तीन गमकों में संज्ञो पञ्चे. न्द्रिय तियंच को लब्धि (परिमाणादि को प्राप्ति) जाननी चाहिये, शेष पूर्ववत् । अन्तिम तीन गमकों का कथन इसके प्रथम के तीन औधिक गमकों के समान । शरीर को अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष, स्थिति और अनुबन्ध For Personal & Private Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि है, शेष पूर्ववत् । विवेचन - जिस प्रकार जघन्य स्थिति वाले अमंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च के तीन गमक कहे हैं, उसी प्रकार असंज्ञी मनुष्य के भी तीन अधिक गमक होते हैं । शेष छह गमक नहीं होते । रत्नप्रभा में उत्पन्न होने के योग्य संज्ञी मनुष्य के जिस प्रकार गमक कहे, उसी प्रकार इसके छह गमक (पहला, दूसरा, तीसरा तथा सातवाँ, आठवाँ नौवाँ ) जानना चाहिये । विशेषता यह है कि रत्नप्रभा में उत्पन्न होने वाले मनुष्य की अवगाहना जघन्य अंगुल - पृथक्त्व और स्थिति जघन्य मास - पृथक्त्व कही थी, किन्तु यहाँ अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग और स्थिति अन्तर्मुहुर्त है । संवेध - नौ गमकों में पृथ्वीकायिक में आने वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च के समान । क्योंकि पृथ्वीकायिक जीवों में आने वाले संज्ञी मनुष्य और तिर्यञ्च की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि होती है । प्रथम के औधिक गमकों में जो अवगाहना और स्थिति कही गई है, वह अन्तिम गमकों में नहीं होती, किन्तु इनमें अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष तथा स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि का है । ३०९५ ४१ प्रश्न - जइ देवेहिंतो उववज्जंति किं भवणवासि देवेहिंतो उववज्जंति, वाणमंतर०, जोइसियदेवेर्हितो ० वेमाणियदेवेहिंतो उववज्रं ति ? " ४१ उत्तर - गोयमा ! भवणवासिदेवेहिंतो वि उववज्जंति जाव वेमाणियदेवेहिंतो वि उववजंति । भावार्थ - ४१ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि वे पृथ्वीकायिक जीव, देवों से आते हैं, तो क्या भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी या बैमानिक देवों से आते हैं ? ४१ उत्तर - हे गौतम ! वे भवनपति यावत् वैमानिक देवों से भी आते हैं। For Personal & Private Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९६ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ४२ प्रश्न-जइ भवणवासिदेवेहितो उववज्जति किं असुरकुमारभवणवासिदेवेहिंतो उववजंति जाव थणियकुमारभवणवासिदेवेहितो०? ४२ उत्तर-गोयमा ! असुरकुमारभवणवासिदेवेहितो उववज्जति जाव थणियकुमारभवणवासिदेवेहिंतो उववजंति । भावार्थ-४२ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे भवनपति देवों से आते हैं, तो असुरकुमारों से आते हैं या यावत् स्तनितकुमारों से आते हैं ? __ ४२ उत्तर-हे गौतम ! वे असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार देवों से आते हैं। ४३ प्रश्न-असुरकुमारेणं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइ० ? ___४३ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्त०, उक्कोसेणं बावीसंवाससहस्सटिई। भावार्थ-४३ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार भवनपति देव, पृथ्वीकायिक में आते हैं, तो कितने काल की स्थिति में आते हैं ? __४३ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अंतर्मुहर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं। ४४ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा० पुच्छा । ४४ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उकासेणं संखेजा वा असंखेजा वा उववजंति । For Personal & Private Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति भावार्थ - ४४ प्रश्न - हे भगदन् ! वे असुरकुमार, एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ४४ उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते है । ४५ प्रश्न - तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किं संघयणी पण्णत्ता ? ४५ उत्तर - गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी जाव परि णमंति । ३०९७ भावार्थ - ४५ प्रश्न - हे भगवन् ! उन जीवों (पृथ्वीकायिक जीवों में आने वाले भवनपति देवों) के शरीर कितने संहनन वाले हैं ? ४५ उत्तर - हे गौतम ! उनके शरीर छहों प्रकार के संहनन से रहित होते यावत् इष्ट, कान्त और मनोज्ञ पुद्गल शरीर संघात रूप से परिणमते हैं । ४६ प्रश्न - तेसि णं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा ? ४६ उत्तर - गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - भवधारणिजा य उत्तरवेउब्विया य । तत्थ णं जा सा भवधारणिजा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं सत्त रयणीओ तत्थ णं जा सा उत्तरवेउब्विया सा जहणणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं +, उक्कोसेणं जोयणसयसहस्सं । भावार्थ - ४६ प्रश्न - हे भगवन् ! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी होती हैं ? + 'सुतागमे' में यहाँ 'नसंखेज्जइभाग' पाठ दिया, जो अनुपयुक्त लगता है-होशी । For Personal & Private Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६८ भगवती मूत्र-श. २४ उ १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ४६ उत्तर-हे गौतम ! उनके दो प्रकार की अवगाहना कही गई है। यथा-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । भवधारणीय अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट सात हाथ और उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन की होती है। ४७ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरंगा कि संठिया पण्णता ? .. ४७ उत्तर-गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिजा य उत्तरवेउव्विया य। तत्थ णं जे ते भवधारणिजा ते समचउरंससंठाणसंठिया पण्णत्ता। तत्थ णं जे ते उत्तरवेउदिवया ते णाणासंठाणसंठिया पण्णत्ता । लेस्साओ चत्तारि । दिट्ठी तिविहा वि । तिण्णि णाणा णियमं, तिण्णि अण्णाणा भयणाए। जोगो तिविहो वि । उवओगो दुविहो वि । चत्तारि सण्णाओ। चत्तारि कमाया। पंच इंदिया। पंच समुग्घाया। वेयणा दुविहा वि । इत्थिवेयगा वि पुरिसवेयगा वि, णो णपुंसगवेयगा । ठिई जहण्णेणं दसवाससहस्साई, उकोसेणं साइरेगं सागरोवमं अज्झवसाणा असंखेजा पसत्था वि अप्पसत्था वि । अणुबंधो जहा ठिई । भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं साइरेगं सागरोवमं बावीसाए वाससहस्सेहिं अमहियं-एवइयं० । एवं णव वि गमा णेयव्वा । णवरं मज्झिल्लएसु पच्छिल्लएसु तिसु गमएसु असुरकुमाराणं ठिइविसेसो जाणियव्वो, सेसा ओहिया चेव लदी काय. For Personal & Private Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ३०९९ संवेहं च जाणेजा । सव्वत्थ दो भवग्गहणाई जाव णवमगमए काला - देसेणं जहणेणं साइरेगं मागगेवमं बावीसाए वामसहस्सेहिं अभ हियं, उकोसेण वि साइरेगं सागरोवमं वावीमाए वाससहस्सेहिंअमहियं एवइयं ० ९ । भावार्थ - ४७ प्रश्न - हे भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संस्थान कौन-सा है ? ४७ उत्तर - हे गौतम! उनके शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं । यथाभवधारणीय और उत्तर वैक्रिय । भवधारणीय शरीर समचतुरस्र संस्थान वाला होता है, और उत्तरवैक्रिय शरीर अनेक प्रकार के संस्थान वाला होता है । उनके लेश्या चार, दृष्टि तीन, ज्ञान नियमा तौन, अज्ञान भजना से तीन, योग तीन, उपयोग दो, संज्ञा चार, कषाय चार, इन्द्रियां पांव, समुद्वात पांच और वेदना दो प्रकार की होती है । वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी होते हैं, नपुंसकवेदीं नहीं होते । स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट सातिरेक सागरोपम होती है । अध्यवसाय असंख्यात प्रकार के प्रशस्त और अप्रशस्त होते हैं । अनुबन्ध स्थिति के अनुसार होता है । संवेध-भवादेश से दो भव तथा कालादेश से । अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष अधिक सातिरेक एक सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है । इस प्रकार नौ गमक जानने चाहिये । विशेष यह है कि मध्य के तीन गमक और अंतिम तीन गमक इन छह गमकों में असुरकुमारों की स्थिति के विषय में विशेषता है । शेष औधिक वक्तव्यता और कायसंवेध जानना चाहिये । संवेध में सर्वत्र दो भव जानने चाहिये । इस प्रकार यावत् नौवें गमक में कालादेश से जघन्य बाईस हजार वर्ष अधिक सातिरेक सागरोपम काल तक यावत् गमनागमन करता है (१-९) । ४८ प्रश्न - नागकुमारे णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु ? For Personal & Private Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ४८ उत्तर-एस चेव वत्तव्वया जाव 'भवादेसो' त्ति । णवरं ठिई जहण्णेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेगं देसूणाई दो पलिओवमाई, एवं अणुबंधो वि । कालादेसेणं जहण्णेणं दसबासमहस्साई अंतो. मुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाई बावीसाए वाससहस्सेहिं अन्भहियाई । एवं णव वि गमगा असुरकुमारगमगसरिसा, णवरं ठिई कालादेसं च जाणेजा, एवं जाव थणियकुमाराणं। ४८ प्रश्न-हे भगवन् ! जो नागकुमार देव, पृथ्वीकायिक में आवे, तो वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वी कायिकों में आते हैं ? ४८ उत्तर-हे गौतम ! यहां असुरकुमार को पूर्वोक्त वक्तव्यता यावत् भवादेश तक जाननी चाहिये । विशेष यह कि स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम होती है । इसी प्रकार अनुबन्ध भी । संवेधकालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष अधिक देशोन दो पल्योपम । इस प्रकार नौ गमक असुरकुमार के गमकों के समान जानना चाहिये, किन्तु स्थिति और कालादेश इनका ही रहे। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक जानना चाहिये। विवेचन-देवों का शरीर छह संहनन में से किसी भी संहनन वाला नहीं होता। उनके इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम (मन के अनुकूल) पुद्गल शरीर-संघात रूप से परिणमते हैं। उत्पत्ति के समय अनाभोग (अनुपयोग) से और कर्म परतन्त्रता से देवों के भवधारणीय शरीर की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग होती है । उत्तरवैक्रिय अवगाहना आभोग (उपयोग) जनित होने के कारण जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग होती है, किन्तु भवधारणीय अवगाहना के समान अंगुल के असंख्यातवें भाग नहीं बना सकते । उत्तरवैक्रिय अपनी इच्छा के अनुसार बनाया जाता है, इसलिये उनका संस्थान नाना प्रकार का होता है। तीन अज्ञान जो भजना से कहे गये हैं, इसका कारण यह है कि जो असुरकुमार For Personal & Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वी कायिक जीवों की उत्पत्ति ३१०१ असज्ञी जीवों से आते हैं, उनमें अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता, शेष में होता है । इसलिये अज्ञान के विषय में भजना कही गई है । संवेध-जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक दस हजार वर्ष का जो कहा गया है, उसमें पृथ्वीकायिक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और असुरकुमारों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष को मिला कर कहा गया है और इसी प्रकार उत्कृष्ट के विषय में भी समझना चाहिये कि पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट स्थिति बाईस हजार वर्ष और असुरकुमारों की उत्कृष्ट स्थिति सातिरेक सागरोपम है । इन दोनों को मिला कर कहा गया है । इसका संवेध काल भी इतना ही है, क्योंकि असुरकुमारादि से आ कर पृथ्वीकाय में आते हैं, किन्तु पृथ्वी काय से निकल कर असुरकुमारादि में नहीं आते । मध्य के तीन गमकों में असुरकुमारों की स्थिति दस हजार वर्ष और अन्तिम तीन गमकों में सातिरेक सागरोपम समझनी चाहिये । ४९ प्रश्न-जइ वाणमंतरेहितो उववजंति किं पिसायवाणमंतर० जाव गंधव्वषाणमंतर० ? ४९ उत्तर-गोयमा ! पिसायवाणमंतर० जाव गंधव्ववाणमंतर । ४९ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक) जीव वाणव्यन्तरों से आते हों, तो क्या पिशाच वाणव्यन्तरों से या यावत् गंधर्व से ? । • ४९ उत्तर-हे गौतम ! वे पिशाच वाणव्यंतर से यावत् गंधर्व से आते हैं। ५० प्रश्न-चाणमंतरदेवे णं भंते ! जे भविए पुढविक्काइएसु०? - ५० उत्तर-एएसि पि असुरकुमारगमगसरिसा णव गमगा भाणियया । णवरं ठिई कालादेसं च जाणेज्जा । ठिई जहण्णेणं दसवाससहस्साई, उनकोसेणं पलिओवमं, सेसं तहेव। . ५० प्रश्न-हे भगवन् ! वाणव्यन्तर देव, जो कि पृथ्वीकायिकों में For Personal & Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१०२ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति आवें, तो वे कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में आते हैं ? ५० उत्तर-हे गौतम ! यहां भी असुरकुमार के समान नौ गमक हैं, परन्तु स्थिति और कालादेश उनसे मित्र है। स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट पल्योपम, शेष पूर्ववत् । ५१ प्रश्न-जइ जोइसियदेवेहितो उववनंति किं चंदविमाणजोइसियदेवेहितो उववजंति जाव ताराविमाणजोइसिय० ? ५१ उत्तर-गोयमा ! चंदविमाण० जाव ताराविमाण । भावार्थ-५१ प्रश्न-हे भगवन ! यदि वे (पृथ्वीकायिक) ज्योतिषी देवों से आते हैं, तो चन्द्र-विमान यावत् तारा-विमान से आते हैं ? ५१ उत्तर-हे गौतम ! वे चन्द्र-विमान से यावत् तारा-विमान से आते है। ५२ प्रश्न-जोइसियदेवे णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु० ? ५२ उत्तर-लद्धी जहा असुरकुमाराणं । णवरं एगा तेउलेस्सा पण्णत्ता । तिण्णि णाणा, तिण्णि अण्णाणा णियमं । ठिई जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमं, उकोसेण पलिओवमं वाससयसहस्सअमहियं । एवं अणुबंधो वि । कालादेसेणं जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमं अंतो. मुहुत्तमब्भहियं, उक्कोसेणं पलिओवमं वाससयसहस्से णं बावीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं, एवड्यं० । एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणि. यव्वा, णवरं ठिई कालादेसं च जाणेजा। भावार्थ-५२ प्रश्न-हे भगवन्! जो ज्योतिषी देव, पृथ्वीकायिक जीवों में आवें, For Personal & Private Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. ५२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ३१०३ तो, कितने काल की स्थिति वाले पथ्वीकायिक में आते हैं ? ___ ५२ उत्तर-हे गौतम ! यहां भी असुरकुमारों की वक्तव्यता के समान है । विशेषता यह है कि इनमें एकमात्र तेजोलेश्या होती है । तीन ज्ञान अथवा तीन अज्ञान नियम से होते हैं। स्थिति जघन्य पल्योपम का आठवां भाग और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम होती है, इसी प्रकार अनुबन्ध भी होता है । संवेध-कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक पल्योपम का आठवां भाग और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम तथा एक लाख वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है । इसी प्रकार शेष आठ गमक भी है, परन्तु स्थिति और कालादेश जानना चाहिये। विवेचन-ज्योतिषी देवों में तीन ज्ञान और तीन अज्ञान नियम से कहे गये हैं। इसका कारण यह है कि ज्योतिषी देवों में असंज्ञी नहीं आते । जो सम्यग्दृष्टि संज्ञी आते हैं. तो उनके उत्पत्ति के समय ही मत्यादि तीन ज्ञान होते हैं और मिथ्यादृष्टि संज्ञी आते हैं तो उनके मत्यादि तीन अज्ञान होते हैं। पल्योपम के आठवें भाग की जो जघन्य स्थिति कही गई है, वह तारा-विमानवासो देव और देवी की अपेक्षा समझनी चाहिये और एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम को जो उत्कृष्ट स्थिति कही गई हैं, वह चन्द्र-विमानवासी देवों की अपेक्षा समझनी चाहिये । ५३ प्रश्न-जइ वेमाणियदेवेहितो उववनंति किं कप्पोवगवेमा. णिय०, कप्पाईयवेमाणिय ? ५३ उत्तर-गोयमा ! कप्पोवगवेमाणिय०, णो कप्पाईयवेमाणिय०। भावार्थ-५३ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक) वैमानिक देवों से आते हैं, तो कल्पोपपन्नक वैमानिक देवों से आते हैं, या कल्पातीत से ? ५३ उत्तर-हे गौतम ! वे कल्पोपपन्नक वैमानिक देवों से आते हैं, कल्पातीत से नहीं। For Personal & Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१०४ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति __५४ प्रश्न-जइ कप्पोवगवेमाणिय० किं सोहम्मकप्पोवगवेमाणिय० जाव अच्चुयकप्पोवगवेमाणिय ? ५४ उत्तर-गोयमा ! सोहम्मकप्पोवगवेमाणिय०, ईसाणकप्पोवगवेमाणिय०, णो सणंकुमार० जाव णो अच्चुयकप्पोवगवेमाणिय० । ___भावार्थ-५४ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे कल्पोपपन्नक वैमानिक देवों से आते हैं, तो क्या सौधर्मकल्पोपपत्रक यावत् अच्युतकल्पोपपन्नक से आते हैं ? ५४ उत्तर-हे गौतम ! सौधर्म और ईशानकल्पोपपन्नक वैमानिक देवों से आते है, सनत्कुमार यावत् अच्युत कल्पोपपन्नक से नहीं आते । . ५५ प्रश्न-सोहम्मदेवे णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उववजित्तए, से णं भंते ! केवइय० ? ५५ उत्तर-एवं जहा जोइसियस्स गमगो। णवरं ठिई अणुबंधो य जहण्णेणं पलिओवमं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं। कालादेसेणं जहण्णेणं पलिओवमं अंतोमुहुत्तमभहियं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाई बावीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियाई-एवइयं कालं०, एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियव्वा, णवरं ठिई कालादेसं च जाणेजा। भावार्थ-५५ प्रश्न-हे भगवन् ! सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमानिक देव, जो पृथ्वीकायिक में आता है, तो वह कितने काल की स्थिति में आता है ? ५५ उत्तर-हे गौतम ! ज्योतिषी देवों के गमक के समान, स्थिति और अनुबन्ध जघन्य एक पल्योपम और उत्कृष्ट दो सागरोपम । संवेध-कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक एक पल्योपम और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष अधिक दो सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है । इसी प्रकार शेष आठ For Personal & Private Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ३१०५ गमक भी हैं। स्थिति और कालादेश पहले से भिन्न जानना चाहिये । ५६ प्रश्न-ईसाणदेवे णं भंते ! जे भविए० ? ५६ उत्तर-एवं ईसाणदेवेण वि णव गमगा भाणियव्वा । णवरं ठिई अणुबंधो जहण्णेणं साइरेगं पलिओवमं, उक्कोसेणं साइरेगाई दो सागरोवमाई, सेसं तं चेव । 8 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति जाव विहरइ8 ॥ चवीसइमे सए दुवालसमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-५६ प्रश्न-ईशानकल्पोपपन्नक देव जो पृथ्वीकायिकों में आवें, तो? ५६ उत्तर-इस विषय में भी पूर्ववत् नौ गमक हैं, स्थिति और अनुबन्ध जघन्य सातिरेक पल्योपम और उत्कृष्ट सातिरेक दो सागरोपम, शेष पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। • विवेचन-सौधर्म देवलोक से बारहवें अच्युत देवलोक तक के देव 'कल्पोपपन्नक' कहलाते हैं । इससे आगे के देव 'कल्पातीत' कहलाते हैं । सौधर्म और ईशानं देवलोक से चव कर जीव पृथ्वीकाय में उत्पन्न हो सकता है । इससे आगे के देवलोकों से चव कर आया हुआ जीव, पृथ्वीकायादि में उत्पन्न नहीं होता। इसके गमकों की व्याख्या पूर्ववत् जाननी चाहिये। ॥ चौबीसवें शतक का बारहवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४ उद्देशक १३ अपकायिक जीवों की उत्पत्ति १ प्रश्न - आउकाइया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति ? १ उत्तर - एवं जव पुढविकाइय उद्देस जावप्रश्न - पुढ विकाइए णं भंते ! जे भविए आउकाइएसु उववज्जि तर से णं भंते ! केवइ० ? उत्तर- गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्त०, उक्कोसेणं सत्तवाससहसडिएस उववज्जेज्जा एवं पुढविकाइय उद्देसगसरिसो भाणियव्वो । णवरं टिडं संवेहं च जाणेज्जा. सेसं तहेव । * 'सेवं भंते सवं भंते !' त्ति ॥ चवीसहमे सए तेरसमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! अप्कायिक जीव कहाँ से आते हैं, इत्यादि ? १ उत्तर- सभी वक्तव्यता पृथ्वीकायिक उद्देशक के अनुसार जाननी चाहिये, यावत् प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, जो अप्कायिक में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले अपकायिक में होता है ? उत्तर - हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की For Personal & Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १४ तेउकायिक जीवों की उत्पत्ति ३१०७ स्थिति वाले अपकायिक में उत्पन्न होता है। यह सम्पूर्ण उद्देशक पृथ्वीकायिक उद्देशक के समान है । स्थिति और संवेध यथायोग्य, शेष पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है 'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ चौबीसवें शतक का तेरहवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ‘शतक २४ उहेशक १४ तेउकायिक जीवों की उत्पत्ति - MIRRRRRR१ प्रश्न-तेउकाइया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जंति ? १ उत्तर-एवं जहेव पुढविक्काइयउद्देसगसरिसो उद्देसो भाणियव्वो। णवरं ठिई संवेहं च जाणेजा, देवेहितोण उववज्जंति, सेसं तं चेव । ___ सेवं भंते ! सेवं भंते' !त्ति जवि विहरइ ® .. ॥ चउवीसइमे सए चोइसमो उद्देसो समत्तो ॥ For Personal & Private Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ. १५ वायुकायिक जीवों की उत्पत्ति भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! तेजस्कायिक जीव कहां से आ कर उत्पन्न होते है, इत्यादि ? ३१०८ १ उत्तर-इनकी उत्पत्ति भी पृथ्वीकायिक उद्देशक के समान है । स्थिति और संवेध पूर्व से भिन्न है । तेजस्कायिक जीव, देवों से नहीं आते, शेष पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते है । विवेचन - कोई भी देव चव कर तेजस्काय में उत्पन्न नहीं होता । तेजस्काय की आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट तीन अहोरात्रि है । ॥ चौबीसवें शतक का चौदहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ च जाणेजा । शतक २४ उद्देशक २५ -mi ijr वायुकायिक जीवों की उत्पत्ति १ प्रश्न - वाउकाइया णं भंते ! कओहिंतो उवषज्जंति ? १ उत्तर - एवं जहेब तेउकाइयउद्देसओ तहेव । णवरं ठिहं संवेहं * 'सेवं भंते! सेवं भंते' । त्ति ॥ चवीसहमे सर पण्णरसमो उद्देसो समतो | For Personal & Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ. १६ वनस्पतिकायिक जीवों की उत्पत्ति ३१०९ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! वायुकायिक जीव कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं, इत्यादि ? १ उत्तर - तेजस्कायिक उद्देशक के अनुसार । स्थिति और संबंध तेजस्कायिक से भिन्न समझना चाहिये । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - देवों से चव कर आया हुआ जीव, वायुकायिक जीवों में उत्पन्न नहीं होता । वायुकाय की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की है । शेष पूर्ववत् । || चौबीसवें शतक का पन्द्रहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २४ उद्देशक १६ वनस्पतिकायिक जीवों की उत्पत्ति १ प्रश्न - वणस्सइकाइया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जंति ? १ उत्तर - एवं पुढविकाइयसरिसो उद्देसो | णवरं जाहे वणस्सहकाहओ वणस्सइकाइएस उववज्जह ताहे पढम - बिहय चउत्थ- पंचमेसु गमपसु परिमाणं अणुसमयं अविरहियं अनंता उववज्र्जति । भवा For Personal & Private Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११० भगवती सूत्र-श. २४ उ. १६ वनस्पतिकायिक जीवों की उत्पत्ति देसेणं जहणणेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अणंताई भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं अणंतं कालंएवइयं० । सेसा पंच गमा अट्ठभवग्गहणिया तहेव। णवरं ठिई संवेहं च जाणेजा। __® 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति * ॥ चउवीसइमे सए सोलसमो उद्देसो समत्तो ॥ . भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं, इत्यादि ? १ उत्तर-पृथ्वीकायिक उद्देशक के समान, विशेष यह कि जब वनस्पतिकायिक जीव, वनस्पतिकायिक जीवों में उत्पन्न होते हैं, तब पहले, दूसरे, चौथे और पांचवें गमक में प्रतिसमय निरन्तर अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं।' भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट अनन्त भव तथा कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक यावत् गमनागमन करते हैं। शेष पांच गमकों में उसी प्रकार आठ भव जानने चाहिये । स्थिति और संवेध पहले से भिन्न जानना चाहिये। _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-वनस्पतिकाय के जीवों का वनस्पतिकाय में उद्वर्तन और उत्पाद अनन्त है, दूसरी कायों का नहीं। क्योंकि दूसरी सभी कार्यों के जीव असंख्यात ही हैं । इसलिये उनका उद्वर्तन और उत्पाद असंख्यात का ही होता है, अनन्त का नहीं । वनस्पति के पहले दूसरे, चौथे और पांचवें गमक की स्थिति उत्कृष्ट नहीं होने से अनन्त उत्पन्न होते हैं। शेष पांच गमकों की उत्कृष्ट स्थिति होने से उनमें एक, दो या तीन इत्यादि रूप से भी उत्पन्न होते हैं । पहले, दूसरे, चौथे और पांचवें गमक की स्थिति उत्कृष्ट नहीं होने के For Personal & Private Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १७ बेइन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति ३१११ कारण ही उनमें भवादेश से उत्कृष्ट अनन्त भव और कालादेश से अनन्त काल है । शेष पाँच गमकों में उत्कृष्ट स्थिति होने से भवादेश से उत्कृष्ट आठ भव और कालादेश से उत्कृष्ट ८०००० वर्ष होते हैं। सर्व गमकों में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति प्रतीत ही है अर्थात् जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट १०००० वर्ष है । संवेध-तीसरे और सातवें गमक में जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट आठ भव की अपेक्षा ८०.०० वर्ष है । छठे और आठवें गमक में जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक १०००० वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक ४०००० वर्ष है । नौवें गमक में जवन्य २०००० वर्ष और उत्कृष्ट ८०००० वर्ष होता है। . ॥ चौबीसवें शतक का सोलहवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २४ उद्देशक १७ बेइन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति १ प्रश्न-बेइंदिया णं भंते ! कओहिंतो उववनंति ? जाव पुढवि. काइए णं भंते ! जे भविए बेइंदिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवइ०? १ उत्तर-सञ्चैव पुढविकाइयस्स लद्धी जाव भवादेसेनं जह- . ण्णेणं दो भवग्गहणाई उकोसेणं संखेबाई भवग्गहणाई, काला. देसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उकोसेणं संखेज कालं-एवइयं० । एवं तेसु चेव चउसु गमएसु संवेहो, सेसेसु पंचसु तहेव अट्ठ भवा । For Personal & Private Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११२ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १७ वेइन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति एवं जाव चरिदिएणं समं चउसु संखेजा भवा, पंचसु अट्ठ भवा । पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्सेसु समं तहेव अट्ठ भवा । देवेसु ण चेव ज्ववजंति, ठिई संवेहं च जाणेजा। * 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति ॐ ॥ चउवीसइमे सए सत्तरसमो उद्देसो समत्तो ॥ . भावार्थ-१प्रश्न-हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीव कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं, इत्यादि यावत् हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव यदि बेइन्द्रिय में उत्पन्न हों, तो कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त (पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने योग्य) पृथ्वीकायिक की वक्तव्यता के समान, यावत् भवादेश से जघन्य दो भव, उत्कृष्ट संख्यात भव कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात काल तक यावत् गमनागमन करते हैं । जिस प्रकार पृथ्वीकायिक के साथ में बेइन्द्रिय का संवेध कहा गया है, उसी प्रकार पहला, दूसरा, चौथा और पाँचवा, इन चार गमकों में संवेध जानना चाहिये । शेष पाँच गमकों में उसी प्रकार आठ भव होते हैं। इसी प्रकार अपकायिक से ले कर यावत् चतुरिन्द्रियों के साथ चार गमकों में संख्यात भव और शेष पाँच गमकों में आठ भव जानने चाहिये । तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों के साथ सभी गमकों में आठ भव जानने चाहिए। देवों से चव कर आया हआ जीव, बेइन्द्रिय जीवों में उत्पन्न नहीं होता। स्थिति और संवेध पहले से भिन्न है। ___'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-पृथ्वीकायिक जीव के पृथ्वीकायिक जीव में ही उत्पन्न होने की वक्तव्यता के समान बेइन्द्रिय में उत्पन्न होने के विषय में भी जानना चाहिये तथा पृथ्वीकायिक जीव का बेइन्द्रिय के साथ जो संवेध कहा गया है, वही अप्काय, तेउकाय, For Personal & Private Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १८ तेइन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति ३११३ वायुकाय, वनस्पतिकाय, वेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय के साथ जानना चाहिये । अर्थात् पहले, दूसरे, चौथे और पाँचवें गमक में उत्कृष्ट संख्यात भव और शेष पाँच गमकों में उत्कृष्ट आठ भत्र जानने चाहिये । कालादेश में पथ्वीकायिकादि की जो स्थिति हो, उसे बेइन्द्रिय की स्थिति के साथ जोड़ कर संवेध जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्यों के साथ बेइन्द्रिय के पूर्ववत् सभी गमकों में उत्कृष्ट आठ-आठ भव होते हैं। ॥ चौबीसवें शतक का सतरहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २४ उद्देशक १८ तेइन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति १ प्रश्न तेइंदिया णं भंते ! कओहिंतो उववनंति ? १ उत्तर-एवं तेइंदियाणं जहेव वेइंदियाणं उद्देसो । णवरं ठिई संवेहं च जाणेजा । तेउकाइएसु समं तइयगमे उकोसेणं अठुत्तराई वेराइंदियसयाई, बेइंदिएहिं समं तइयगमे उक्कोसेणं अडयालीसं संवच्छराई छण्णउयराइंदियसयमभहियाई, तेइंदिएहिं समं तहयगमे उक्को. सेणं बाणउयाई तिण्णि राइंदियसयाई । एवं सव्वत्थ जाणेजा जाव For Personal & Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११४ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १८ तेइन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति 'सणिणमणुस्स' ति। * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति के ॥ चउवीसइमे सए अट्ठारसमो उद्देसो समत्तो ।। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! तेइन्द्रिय जीव कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तर-बेइन्द्रिय उद्देशक के समान । विशेष में स्थिति और संवेध बेइन्द्रिय से भिन्न समझना चाहिये। तेजस्कायिकों के साथ तेइन्द्रियों का संवेध तीसरे गमक में उत्कृष्ट २०८ रात्रि-दिवस का और बेइन्द्रियों के साथ तीसरे गमक में उत्कृष्ट १९६ रात्रि-दिवस अधिक ४८ वर्ष होता है । तेइन्द्रियों के साथ तीसरे गमक में उत्कृष्ट ३९२ रात्रि दिवस होता है । इस प्रकार यावत् संज्ञी मनुष्य तक सर्वत्र जानना चाहिये। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-तेइन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होने वाले जीवों की स्थिति और तेइन्द्रिय जीवों की स्थिति को मिला कर संवेध कहना चाहिये । तेजस्कायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन रात्रि-दिवस है। उसे चार भवों के साथ गुणा करने पर बारह रात्रि दिवस होते हैं । तेइन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति ४९ रात्रि-दिवस है । उनको चार भवों के साथ गुणा करने से १६६ रात्रि-दिवस होते हैं । इन दोनों राशि को जोड़ने से २०८ रात्रि-दिवस होते हैं । यह तेजस्कायिक का ते इन्द्रिय के साथ तीसरे गमक का संवेध काल है । बेइन्द्रिय का संवेध चार भव की अपेक्षा ४८ वर्ष होते हैं और तेइन्द्रिय के चार भव का संवेध १९६ रात्रि-दिवस होता है। दोनों को मिलाने से १९६ रात्रि-दिवस अधिक ४८ वर्ष, बेइन्द्रिय के साथ तेइन्द्रिय का तीसरे गमक का संवेध काल होता है । तेइन्द्रिय का तेइन्द्रिय के साथ संवेध काल आठ भव का ३९२ रात्रि-दिवस होता है । इस प्रकार चतुरिन्द्रिय, असंनी तियंत्र, संज्ञी तिर्यंच, असंज्ञी मनुष्य और संज्ञी मनुष्य के साथ तीसरे गमक का संवेध काल जानना चाहिये । तीसरे गमक के संवेध काल के अनुसार छठे आदि For Personal & Private Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ."१९ चोरिन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति ३११५ गमकों का संवेध काल सूचित किया हुआ समझना चाहिये, क्योंकि उनमें भी आठ भव होते हैं। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों के साथ प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और पंचम-इन चार गमकों का संवेध भवादेश से संख्यात भव और कालादेश से संख्यात काल जानना चाहिये। ॥ चौबोमवें शतक का अठारहवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ MARRIAL शतक २४ उद्देशक १६ चौरिन्द्रय जीवों की उत्पत्ति १ प्रश्न-चरिंदिया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति ? १ उत्तर-जहा तेइंदियाणं उद्देसओ तहेव चरिंदियाण वि । णवरं ठिई संवेहं च जाणेजा। * 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति ® ॥ चउवीसइमे सए एगूणवीसइमो उद्देसो ममत्तो ॥ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! चौरिन्द्रिय जीव कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं? . १ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार तेइन्द्रिय का उद्देशक कहा, उसी For Personal & Private Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११६ भगवती सूत्र - श. २४ उ २० पंचेन्द्रिय तिर्यचों की उत्पत्ति प्रकार चौरिन्द्रियों के विषय में भी है, स्थिति और संवेध तेइन्द्रियों से भिन्न है । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । - || चौबीसवें शतक का उन्नीसवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २४ उद्देशक २० पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति १ प्रश्न - पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते! कओहिंतो उववज्जंति ? किं णेरइए हिंतो०, तिरिक्ख० मणुस्सेहिंतो देवेहिंतो " उववज्जति ? १ उत्तर - गोयमा ! रइए हिंतो उववज्जंति, तिरिक्ख०, मणुस्सेहिंतो वि०, देवेहिंतो वि उववजंति । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक जीव, कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? क्या नैरयिक, तियंच, मनुष्य या देव से आ कर उत्पन्न For Personal & Private Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंवेन्द्रिय तिर्यवों की उत्पत्ति ३११७ होते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! वे नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य और देव से भी आ कर उत्पन्न होते हैं। २ प्रश्न-जइ णेरइएहिंतो उववजति किं रयणप्पभापुढविणेरइएहिंतो उववजंति जाव अहेसत्तमपुढविणेरइएहिंतो उववजति ? २ उत्तर-गोयमा ! रयणपभापुढविणेरइएहिंतो उववजति जाव अहेसत्तमपुढविणेरइएहितो। .. भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे नरयिक से आते हैं, तो क्या रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक से यावत् अधःसप्तम पृथ्वी के नैरयिक से आते हैं ? २ उत्तर-हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक यावत् अधःसप्तम पृथ्वी के नैरयिक से आते हैं। ३ प्रश्न-रयणप्पभापुढविणेरइए णं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइयकालदिईएसु उववजेजा ? ३ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तट्टिईएसु, उक्कोसेणं पुवकोडीआउएसु उववजेजा। भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! रत्नप्रभा पथ्वी के नैरयिक, जो पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होते है, वह कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि को For Personal & Private Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११८ - भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होता हैं । ४ प्रश्न ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवड्या उववज्जति ? ___४ उत्तर-एवं जहा असुरकुमाराणं वत्तव्वया । णवरं संघयणे पोग्गला अणिट्ठा अकंता जाव परिणमंति।ओगाहणा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा उत्तरवेउध्विया य । तत्थ णं जा सा भवधारणिजा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं सत्त धणूई तिण्णि रयणिओ छच्चंगुलाई । तत्थ णं जा सा उत्तरवेउब्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजइभाग, उपकोसेणं पण्णरस धणूई अड्ढाइजाओ रयणीओ। भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमार की वक्तव्यतानुसार । किन्तु रत्नप्रभा के नैरयिकों के संहनन में अनिष्ट, अकान्त यावत् पुद्गल परिणमन होता है । अवगाहना दो प्रकार को-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । भवधारणीय शरीर को अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाव और उत्कृष्ट सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल की होती है। उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट पन्द्रह धनुष ढ़ाई हाथ की होती है। ५ प्रश्न-तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किं संठिया पण्णता? ५ उत्तर-गोयमा ! दुविहा पण्णता, तं जहा-भवधारणिजा य उत्तरवेउब्विया य । तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते हंडसंठिया For Personal & Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ र २० पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति 44.. . पणता । तत्थ णं जे ते उत्तरवेउव्विया ते वि डंडसंठिया पण्णत्ता । एगा काउलेरसा पण्णत्ता । समुग्घाया चत्तारि । णो इस्थिवेयगा, णो पुरिसवेयगा, णपुंसगवेयगा । ठिई जहाणेणं दसवाममहस्साई, उकोसेणं सागशेवमं । एवं अणुबंधो वि, सेमं तहेव । भवादेसेणं जहणेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाइं । कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहत्तमहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहि पुवकोडीहिं अब्भहियाइं-एवड्यं० । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! उन जीवों के शरीर किस संस्थान वाले होते हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! उनके शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं-१ भवधारणीय शरीर और २ उत्तरवैक्रिय । दोनों प्रकार के शरीर केवल हुण्डक संस्थान वाले होते हैं । लेश्या एक कापोत और समुद्घात चार होती हैं । वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी नहीं होते, मात्र नपुंसकवेदी होते हैं। स्थिति और अनुबन्ध जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक सागरोपम होता है। शेष पूर्ववत् । भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव तथा कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम तक यावत् गमनागमन करते हैं १ । ६-सो चेव जहण्णकालटिईएसु उववण्णो, जहण्णेणं अंतो. मुहुत्तट्टिईएसु०, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तट्टिईएसु०, अवसेसं तहेव । णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं तहेव, उकोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहिं अंतोमुहत्तेहिं अब्भहियाई-एवइय कालं० २ । एवं सेसा वि For Personal & Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२० भगवती सूत्र-शः २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यों की उत्पत्ति सत्त गमगा भाणियव्वा जहेव णेरड्यउद्देसए मण्णिपंचिंदिएहिं समं । णेरइयाणं मज्झिमएसु य तिसु वि गमएसु पच्छिमएसु तिसु वि गमएसु ठिणाणत्तं भवइ, सेसं तं चेव । सव्वत्थ ठिई संवेहं च जाबा ९। भावार्थ-६-यदि वह रत्नप्रभा नैरयिक, जघन्य काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यचों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यचों में उत्पन्न होता है, शेष पूर्ववत् । विशेष यह कि कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है २ । इसी प्रकार शेष सात गमक, नैरयिक उद्देशक में संज्ञा पञ्चेन्द्रिय के साथ बतलाये, उसी प्रकार यहां भी जानने चाहिये। मध्य के तीन गमक और अन्तिम तीन गमकों में स्थिति और अनुबंध की विशेषता है, शेष पूर्ववत् । सर्वत्र स्थिति और संवेध उपयोग पूर्वक जानना चाहिये ३-९ । ७ प्रश्न-सकरप्पभापुढविणेरइए णं भंते ! जे भविए० ? ७ उत्तर-एवं जहा रयणप्पभाए णव गमगा तहेव सकरप्पभाए वि । णवरं सरीरोगाहणा जहा ओगाहणसंठाणे । तिण्णि णाणा तिणि अण्णाणा णियमं । ठिई अणुबंधा पुवभणिया । एवं णव वि गमगा उवजुजिऊण भाणियव्वा, एवं जाव छट्टपुढवी । णवरं ओगा. हणा लेस्सा ठिई अणुबंधो संवेहो य जाणियव्वा ।। भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! शर्कराप्रभा का नरयिक, जो पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में आता है, इत्यादि ? ७ उत्तर-रत्नप्रभा के नौ गमकवत् । शरीर को अवगाहना प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें 'अवगाहना संस्थान पद' के अनुसार । तीन ज्ञान और तीन For Personal & Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय लियंचों की उत्पत्ति . ३१२१ अज्ञान नियम से। स्थिति और अनबन्ध पूर्ववत । इस प्रकार नौ गमक उपयोगपूर्वक जानना चाहिये, इसी प्रकार यावत् छठी नरक पृथ्वी तक जानना चाहिये, परन्तु अवगाहना, लेश्या, स्थिति, अनुबन्ध और संवेध यथायोग्य भिन्नभिन्न जानना चाहिये। ८ प्रश्न-असत्तमपुढविणेरइए णं भंते ! जे भविए० ? ८८ उत्तर-एवं चेव णव गमगा। णवरं ओगाहणा-लेस्सा-ठिई. अणुवंधा जाणियव्वा । संवेहो भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, : उकोसेणं छन्भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाइं अंततेमुहुत्तममहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं तिहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाइं-एवइयं० । आदिल्लएसु छसु वि गमएसु जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं छ भवग्गहणाई, पच्छिल्लएसु तिसु गमएसु जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उकोसेणं चत्तारि भवग्गहणाई । लद्धी णवसु वि गमएसु जहा पढमगमए । णवरं ठिईविसेमो कोलादेसो य विइयगमएसु जहण्णेणं बावीसं सागगेवमाइं अंतोमुहुत्तमन्भहियाई, उकोसेणं छावहिँ सागरोवमाइं तिहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई-एवइयं कालं । तइयगमए जहण्णेणं वावीसं मागरोवमाई पुवकोडीए अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावहिँ सागरोवमाइं तिहिं पुव्वकोडीहिं अमहियाई। चउत्थगमे जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छावहिँ सागरोवमाइं तिहिं पुव्व For Personal & Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२२ भगवती सूत्र-श. ४ उ. २० पंचेन्द्रिय तियंचों की उत्पत्ति कोडीहिं अब्भहियाई। पंचमगमए जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छावडिं सागरोवमाई तिहिं अंतोमुहुः तेहिं अन्भहियाई । छट्टगमए जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाइं पुव्व. कोडीहिं अमहियाई, उक्कोसेणं छावहिँ सागरोवमाई तिहिं पुव्व कोडीहिं अभहियाइं। सत्तमगमए जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतो. मुहुमत्तम्भहियाई, उक्कोसेणं छावहिँ सागरोवमाइं दोहिं पुव्वकोडीहिं अमहियाई । अट्ठमगमए जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमन्महियाई, उक्कोसेणं छावहिँ सागरोवमाइं दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई। णवमगमए जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं पुष्वकोडीहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावहिँ सागरोवमाई दोहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाइं-एवइयं० ९। भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! अधःसप्तम नरक पृथ्वी का नरयिक, पञ्चेन्द्रिय तियंच में आवे, तो कितने काल की स्थिति में आता है ? ८ उत्तर-हे मौतम ! पूर्ववत् नौ गमक जानने चाहिये, विशेष यह है कि अवगाहना, लेश्या, स्थिति और अनुबन्ध विचार कर कहना चाहिये । संवेधभवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट छह भव तथा कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है। प्रथम के छह गमकों में जघन्य दो भव और उत्कृष्ट छह भव तथा अन्तिम तीन गमकों में जघन्य दो भव और उत्कृष्ट चार भव जानना चाहिये। नौ गमकों में लब्धि प्रथम गमक के समान । दूसरे गमक में स्थिति की विशेषता है तथा कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहर्त For Personal & Private Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन अन्तर्मुहर्त अधिक ६६ सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है । तीसरे गमक में जघन्य पूर्वकोटि अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम, चौथे गमक में जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम । पंचम गमक में जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन अन्तर्महर्त अधिक ६६ सागरोपम । छठे गमक में जघन्य पूर्वकोटि अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम । सातवें गमक में जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट दो पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम । आठवें गमक में जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट दो अन्तर्मुहूर्त अधिक ६६ सागरोपम । नौवें गमक में जघन्य पूर्वकोटि तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट दो पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम काल तक यावत् गमनागमन करता है। विवेचन-नरक से निकले हुए जीव असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यच आदि में नहीं आते, वे पूर्वकोटि तक की आयु वाले में आते हैं। पृथ्वीकायिक जीवों में आने वाले असुरकुमार के परिमाण आदि की जो वक्तव्यता ' कही है, वही पंचेन्द्रिय तियंच में आने वाले नरयिक के विषय में जाननी चाहिये । उत्पत्ति के समय नैरयिक की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग होती है। प्रथम नरक में उत्कृष्ट अवगाहना सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल कही, वह तेरहवें प्रस्तट (पाथड़ा) की अपेक्षा समझनी चाहिये । प्रथम प्रस्तटादि में तो अवगाहना का क्रम इस प्रकार है "रयणाइ पढमपयरे, हत्थतियं देहउस्सयं मणियं। छप्पन्नंगुलसड्ढा पयरे पयरे य वुड्ढीओ।।" अर्थात् रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम प्रस्तट में तीन हाथ की अवगाहना होती है और आगे के प्रत्येक प्रस्तट में क्रमशः साढे छप्पन अंगुल की वृद्धि होती जाती है । इस क्रम से तेरहवें प्रस्तट के नैरयिक की अवगाहना सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल होती है। यह भवधारणीय अवगाहना है। नैरयिक में जितनी भवधारणीय अवगाहना होती है, उससे. दुगुनी उत्तरवैक्रिय अवगाहना होती है। यहां मूल में दो गमकों में स्थिति आदि का कथन किया गया है। इससे आगे सात For Personal & Private Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२४ भगवंती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति गमकों में स्थिति आदि का कथन इसी शतक के प्रथम उद्देशक में संज्ञी पंचेंद्रिय तियंच के साथ नरयिक जीवों के समान है। सात नरकों को अवगाहना का कथन प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें पद में इस प्रकार __सत्त धणु तिणि रयणी, छच्चेव य अंगुलाई उच्चत्तं । ___पढमाए पुढवीए बिउणा विउणं च सेसासु ।। अर्थात्-प्रथम नरक में अवगाहना सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल होती है । आगे दूसरी आदि नरकों में क्रमशः दुगुनी-दुगुनी अवगाहना होती है। दूसरी आदि नरकों में संज्ञी जीव हो उत्पन्न होते हैं । इसलिये उन में तीन ज्ञान या तीन अज्ञान नियम से होते हैं। उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम का जो कथन किया गया है, वह भव और काल की बहुलता की विवक्षा से किया गया है । यह संवेध जघन्य स्थिति वाले सप्तम पृथ्वी के नैरयिक में पाया जाता है, क्योंकि सातवीं नरक में तीन भवों की जघन्य स्थिति ६६ सागरोपम होती है और पंचेंद्रिय तिर्यंच के तीन भवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पूर्वकोटि होती है । यदि उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की आयु वाला नैरयिक हो और पूर्वकोटि के आयु वाले पंचेंद्रिय तिर्यंच में आवे, तो इस प्रकार दो बार ही उत्पत्ति होती है। इससे दो पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम ही स्थिति होती है, तिर्यंच-भव सम्बन्धी तीसरे पूर्वभव की कोटि नहीं होती । इस प्रकार भत्र और काल की उत्कृष्टता नहीं होती। ९ प्रश्न-जइ तिरिक्खजोणिएहिंतो उववनंति किं एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो? ९ उत्तर-एवं उववाओ जहा पुढविकाइयउद्देसए जाव भावार्थ-९ प्रश्न-यदि वह संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच, तियंच-योनिक से आता है, तो क्या एकेन्द्रिय तियंच-योनिक से आता है, इत्यादि ? ९ उत्तर-पृथ्वीकायिक उद्देशक के अनुसार यहाँ उपपात जानना चाहिये। यावत् For Personal & Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यचों की उत्पत्ति १० प्रश्न-पुढविकाइए णं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्ख. जोणिएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइ० ? १० उत्तर-गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तट्टिईएसु, उक्कोसेणं पुवकोडीआउएसु उपवनंति। भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, जो पञ्चेन्द्रिय तियंच में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? १० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक में उत्पन्न होता है। ११ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा० ? ११ उत्तर-एवं परिमाणाइया अणुबंधपज्जवसाणा जच्चेव अप्पणो सट्टाणे वत्तव्वया सच्चेव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु वि उववजमाणस्स भाणियब्वा । णवरं णवसु वि गमएसु परिमाणे जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उकोसेणं संखेजा वा असंखेना वा उववजंति । भवादेसेण वि णवसु वि गमएसु जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई, सेसं तं चेव । कालादेसेणं उभओ ठिईए करेजा। भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! वे पृथ्वीकायिक जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं, इत्यादि ? . ११ उत्तर-परिमाण से ले कर अनुबन्ध तक स्वयं के स्व स्थान की वक्तव्यता के अनुसार जाननी चाहिये । परन्तु नौ गमकों में परिमाण जघन्य For Personal & Private Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२६ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यचों की उत्पत्ति एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात आते हैं । संवेध-भवादेश से नौ गमक में जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव, शेष पूर्ववत् । कालादेश से दोनों की स्थिति को जोड़ कर संवेध-जानना चाहिये। १२ प्रश्न-जइ आउकाइएहिंतो उववज्जति० ? १२ उत्तर-एवं आउकाइयाण वि। एवं जाव चउरिंदिया उव. वाएयब्बा। णवरं सव्वत्थ अप्पणो लद्धी भाणियव्वा । णवसु वि गम. एसु भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उकोसेणं अट्ठ भवग्गहणाइं । कालादेसेणं उभओ ठिई करेजा सव्वेसि सव्वगमएसु । जहेव पुढविकाइएसु उववजमाणाणं लद्धी तहेव सव्वस्थ ठिई संवेहं च जाणेजा। ____ भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वह पञ्चेन्द्रिय तियंच अप्कायिक जीवों से आता है, इत्यादि पूर्ववत् ? १२ उत्तर-इसी प्रकार यावत् चौरिन्द्रिय पयंत उपपात जानना चाहिये, परंतु वक्तव्यता सर्वत्र अपनी-अपनी कहनी चाहिये । नौ गमकों में भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव, कालादेश से दोनों की स्थिति को जोड़ना चाहिये। पृथ्वीकायिक में आने वाले जीव की वक्तव्यता के अनुसार सभी गमकों में सभी जीवों के विषय में जानना चाहिये और स्थिति और संवेध सर्वत्र भिन्न-भिन्न यथायोग्य जानना चाहिये। १३ प्रश्न-जइ पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति, असण्णिपंचिंदिया For Personal & Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिपंचों की उत्पत्ति ३१२७ तिरिक्ख जोणिएहितो उववज्जति ? १३ उत्तर-गोयमा ! सण्णिपंचिंदिय०, भेओ जहेव पुढविक्काइ. एसु उववजमाणस जाव भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वह पञ्चेन्द्रिय तिर्यच, पञ्चेन्द्रिय . तियं च योनिक से ही आता है, तो क्या संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच से आता है या असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच से ? १३ उत्तर-हे गौतम ! वह दोनों प्रकार के पञ्चेन्द्रिय तिथंच से आता है, इत्यादि पृथ्वीकायिक में आने वाले तियंच के भेद के अनुसार यावत् १४ प्रश्न-असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए • पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइयकाल० ? । १४ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं०, उक्कोसेणं पलिओ. वमस्स असंखेजहभागट्टिईएसु उववज्जति । भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच, पञ्चेन्द्रिय तियंच में आता है, तो कितने काल की स्थिति में आता है ? १४ उत्तर-हे गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग को स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यच-योनिक में आता है। १५ प्रश्न-ते णं भंते !० ? १५ उत्तर-अवसेसं जहेव पुढविकाइएसु उववजमाणस्स असण्णिस्स तहेव गिरवसेसं जाव 'भवादेसो' ति कालादेसेणं For Personal & Private Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२८ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यचों की उत्पत्ति जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं पलिओवमरस असंखेज्जइभागं पुवकोडि हुत्तमभहियं एवइयं० १ । बिइयगमए एस चेव लद्धी । णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुत्वकोडिओ चउहि अंतोमुहुत्तेहिं अमहिया-एवइयं० २ । भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! वे असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच एक समय में कितने आते हैं ? १५ उत्तर--पृथ्वीकायिक में आने वाले असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच की वक्तव्यता के समान यावत् भवादेश पर्यंत । कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग तक यावत् गमनागमन करता है १ । दूसरे गमक में भी इसी प्रकार, परन्तु कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहुर्त अधिक चार पूर्वकोटि काल तक यावत् गमनागमन करता है २ । १६-सो चेव उकोसकालढिईएसु उववण्णो जहण्णेणं पलिओ. वमस्स असंखेजहभागट्टिईएसु उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेजइ. भागट्टिईएसु उववति । प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा० ? उत्तर-एवं जहा रयणप्पभाए उववज्जमाणस्स अप्णिस्स तहेव गिरवसेसं जाव 'कालादेसो' ति । णवरं परिमाणं जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा उववजंति, सेसं तं चेव ३। भावार्थ-१६-यदि वह असंज्ञी पंचेंद्रिय तिथंच उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तियंच-योनिक में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट पस्योपम For Personal & Private Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यचों की उत्पत्ति ३१२९ के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यचों में आता है। भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते उत्तर-रत्नप्रभा पृथ्वी में आने वाले असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच के अनुसार यावत् कालादेश पर्यत । परिमाण-जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, शेष पूर्ववत् ३ । १७-सो चेव अप्पणा जहण्णकालटिईओ जाओ जहण्णेणं अंतोमुहुत्तट्टिईएसु, उक्कोसेणं पुव्वकोडिआउएसु उववनंति । प्रश्न-ते णं भंते ! उत्तर-अवसेसं · जहा एयस्म पुढविक्काइएसु उववजमाणस्स मज्झिमेसु तिसु गमएसु तहा इह वि मज्झिमेसु तिसु गमएसु जाव 'अणुबंधो ति । भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुव्वकोडीओ चाहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाओ ४ । भावार्थ-१७-यदि वह स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो, तो जघन्य अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाले पंचेंद्रिय तियंच में आता है। प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने आते हैं, इत्यादि ? उत्तर-जिस प्रकार पृथ्वीकायिक में आने वाले जघन्य स्थिति वाले असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच के मध्य के तीन गमकों का कथन किया है, उसी प्रकार यहां भी तीनों ही गमकों में यावत् अनुबन्ध तक जानना चाहिये । भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कष्ट आठ भव तथा कालादेश से जघन्य दो For Personal & Private Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३० भगवती सूत्र - श. २४ उ २० पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्पति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटि वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है ४ । १८ - सो चैव जहण्णका लट्टिईएस उववण्णो एस चैव वत्तब्वया । णवरं कालादेसेणं जहणेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं अट्ट अंतोमुहुंत्ता - एवइयं ० ५ । भावार्थ - १८ यदि वह असंज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच, जघन्य काल की स्थिति वाले पंचेंद्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हो, तो इसी प्रकार है । कालादेश से जघन्य दो अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आठ अंतर्मुहूर्त तक यावत् गमनागमन करता है । १९ - सो चेव उक्कोसका लट्टिईएस उववण्णो जहण्णेणं पुव्वकोडिआरएस, उक्कोसेण वि पुव्वकोडिआरएस उववज्जइ - एस चैव वत्तव्वया । णवरं कालादेसेणं जाणेज्जा ६ । भावार्थ - १९ यदि वह उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले संज्ञी पंचेंद्रिय तिचयोनिक में आता हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति में आता है। यहां भी पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिये । कालादेश इस से भिन्न जानना चाहिये ६ । २० - सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्टिईओ जाओ सच्चेव पढमगमगवत्तत्व्वया । णवरं ठिई जहणेणं पुब्वकोडी उक्कोसेण वि पुव्वकोडी, सेसं तं चैव । कालादेसेणं जहण्णेणं पुव्वकोडी असो For Personal & Private Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तियं चों की उत्पत्ति ३१३१ मुहुत्तममहिया, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजहभागं पुव्वकोडिपुहुत्तमभहियं-एवइयं० ७। भावार्थ-२० यदि वह स्वयं उत्कष्ट स्थिति वाला हो, तो प्रथम गमक के अनुसार । स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि, शेष पूर्ववत् । कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग तक यावत् गमनागमन करता है । २१-सो चेव जहण्णकालट्टिईएसु उववण्णो, एस चेव वत्तव्वया जहा सत्तमगमे । णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं पुव्वकोडी अंतोमुहुत्तमभहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुव्वकोडीओ चाहिं अंतोमुहत्तेहिं अभहियाओ-एवइयं० ८। ___ भावार्थ-१९ यदि वह स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला, जघन्य काल की स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हो, तो भी सातवें गमक की वक्तव्यता के समान है। कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटि ८ । २२-सो चेव उक्कोसकालट्टिईएसु उववण्णो, जहण्णेणं पलिओवमस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेजहभागं, एवं जहा रयणप्पभाए उववजमाणस्स असण्णिस्स णवमगमए तहेव गिरवसेसं जाव 'कालादेसो' त्ति । णवरं परिमाणं जहा एयस्सेव For Personal & Private Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३२ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तियंचों की उत्पत्ति तइयगमे, सेसं तं चेव ९॥ भावार्थ-२२-यदि वह उत्कृष्ट स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यच में आता हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले संजी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होता है, इत्यादि रत्नप्रभा में उत्पन्न होने वाले असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय सम्बन्धी नौवें गमक की वक्तव्यता के समान, यावत् कालादेश पर्यन्त । परिमाण तीसरे गमक के अनुसार, शेष पूर्ववत् ९ । २३ प्रश्न-जइ सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिपहिंतो उववज्जति कि संखेजवासाउय० असंखेजवासाउय० ? २३ उत्तर-गोयमा ! संखेज०, णो असंखेजः । भावार्थ-२३ प्रश्न-यदि वह संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच जीव, संज्ञो पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच से आ कर पंचेन्द्रिय तियंच में उत्पन्न हो, तो संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले या असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यंच से उत्पन्न होता है ? २३ उत्तर-हे गौतम ! वह संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यंच से आ कर उत्पन्न होता है, असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यंच में से नहीं। .. २४ प्रश्न-जइ संखेन० जाप किं पजत्तसंखेज०, अपजत्तसंखेज ? २४ उत्तर-दोसु वि। भावार्थ-२४ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच में से आ कर उत्पन्न होते हैं, तो पर्याप्त या अपर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच से आ कर उत्पन्न होते हैं? For Personal & Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति २४ उत्तर-हे गौतम ! वे दोनों में से आ कर उत्पन्न होते हैं। २५ प्रश्न-मंखेजवासाउयसष्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए जे भविए पंचिंदियतिरिक्ख जोणिएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइ०? २५ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं०, उक्कोसेणं तिपलिओवमट्टिइएसु उववजेजा। भावार्थ-२५ प्रश्न-हे भगवन् ! संख्यात वर्ष की आयुष्य वाला संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच जीव, पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? . २५ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम को स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यच में उत्पन्न होता है। २६ प्रश्न-ते णं भंते !? २६ उत्तर-अवसेसं जहा एयस्स चेव सण्णिस्स रयणप्पभाए उववंजमाणस्स पढमगमए । णवरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं, सेसं तं चेव जाव 'भवा. देसो' ति । कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुव्वकोडीपुहुत्तमब्भहियाई-एवइयं० १ । भावार्थ-२६ प्रश्न-हे भगवन् ! वे संज्ञी पंचेन्द्रिय नियंच एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं, इत्यादि ? २६ उत्तर-रत्नप्रभा में उत्पन्न होने वाले इस संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच के For Personal & Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३४ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति प्रथम गमक के समान । अवगाहना जघन्य अंगल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन, शेष पूर्ववत्, यावत् भवादेश पर्यन्त । कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम काल तक यावत् गमनागमन करता है १।। २७-सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया। णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुषकोडीओ चाहिं अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाओ २ । ____ भावार्थ-२७-यदि वही जीव जघन्य काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हो, तो भी पूर्वोक्त वक्तव्यतानुसार । कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटि २ । २८-सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो जहण्णेणं तिपलिओ. वमट्टिईएसु, उक्कोसेण वि तिपलिओवमट्टिईएसु उववजा-एस चेव वत्तव्बया । णवरं परिमाणं जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा उववज्जति । ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं, सेसं तं चेव जाव 'अणुवंधो' त्ति । भवादेसेणं दो भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं तिण्णि पलि. ओवमाइं पुव्वकोडीए अब्भहियाई ३। __ भावार्थ-२८-यदि वही जीव उत्कृष्ट काल को स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यच में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले For Personal & Private Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ २० पंचेन्द्रिय तिर्थचों की उत्पत्ति संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होता है, इत्यादि पूर्वोक्त वक्तव्यतानुसार । परिमाण जघन्य एक, दो और तीन, उत्कृष्ट संख्यात जीव उत्पन्न होते हैं । अवगाना जघन्य अंगुल के असख्यातवें भाग, उत्कृष्ट एक हजार योजन, शेष पूर्ववत्, यावत् अनुबन्ध पर्यन्त भवादेश से दो भव और कालादेश से जघन्य अन्तमुहूर्त अधिक तीन पत्योपम और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तीन पत्योपम ३ | २९ - सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्टिईओ जाओ, जहणेणं अतोमुहुत्त०, उक्कोसेणं पुव्वकोडी आउएस उववज्जइ । लदी से जहा एयरस चेव सणि चिंदियस्स पुढविकाइएस उववज्जमा णस्स मज्झिल्लएसु तिसुगमएस सच्चेव इह वि मज्झिमेसु तिसुगमपसु कायव्वा । संवेहो जहेव एत्थ चेव असण्णिस्स मज्झिमेसु तिसु गमएसु ६ । • भावार्थ - २९ - यदि वह संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच स्वयं जघन्य स्थिति वाला हौ (और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हो ) तो जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होता है। इस विषय में पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले इसी संज्ञी पञ्चेन्द्रिय को वक्तव्यता के अनुसार यहाँ मध्य के तीन (चौथा, पाँचवाँ छठा) गमक जानना चाहिये और पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होने वाले असंज्ञी पंचेन्द्रिय के बीच के तीन गमक में जो संवेध कहा है, उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिये ६ । ३१३५ ३० - सो वेव अप्पणा उक्कोसकालट्टिईओ जाओ जहा पढमगमओ । णवरं ठिई अणुबंधो जहण्णेणं पुव्त्रकोडी, उक्कोसेण वि पुव्वकोडी । कालादेसेणं जहण्णेणं पुबकोडी अंतोमुहुत्तमन्भहिया, For Personal & Private Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ २० पंचेंद्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति उकोसेणं तिष्णि पलिओ माई पुव्वकोडी पुहुत्तमव्भहियाई ७ । भावार्थ - ३० यदि वह स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो, तो प्रथम गमक के समान । स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि । कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम ७ । ३१३६ ३१ - सो चेव जहण्णकालट्टिईएस उववण्णो एस चैव वत्तव्वया । वरं कालादेसेणं जहणेणं पुव्वकोडी अंत्तोमुहुत्तमन्भहिया, उको सेणं चत्तारि पुव्वकोडीओ चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाओ ८ । भावार्थ - ३१ यदि वही उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच, जघन्य स्थिति वाले पंचेंद्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हो, तो भी पूर्वोक्त वक्तव्यतानुसार । कालादेश से जघन्य अंतर्मुहूर्त अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट चार अंतर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटि ८ । ३२- सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो जहण्णेणं तिपलिओवमट्टिईएस, उक्कोसेण वि तिपलि ओवमट्टिईएस, अघसेसं तं चेव । णवरं परिमाणं ओगाहणा य जहा एयस्सेव तयगमए । भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणेणं तिष्णि पलिओ माई पुव्वकोडीए अमहियाई, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओ माई पुव्वकोडीए अमहिया - एवइयं ९ । भावार्थ - ३२ यदि वह उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पंचेंन्द्रिय तियंच में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट तीन पत्योपम की स्थिति में उत्पन्न होता For Personal & Private Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यचों की उत्पत्ति के है, शेष पूर्ववत् । परिमाण और अवगाहना तीसरे गमक से दो भव तथा कालादेश से जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पम तक यावत् गमनागमन करता है ९ । ३१३७ विवेचन - पृथ्वी कायिक जीव, पृथ्वीकायिक में उत्पन्न हो, तो प्रति-समय असंख्यात उत्पन्न होते हैं, किन्तु पृथ्वीकायिक यदि पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हो, तो जघन्य एक, दो ! । संवेध - नौ गमकों में उत्कृष्ट . या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते आठ भव होते हैं । सर्वत्र अकायिक से ले कर चौरिन्द्रिय तक से निकल कर पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होने में परिमाणादि का कथन अपना-अपना करना चाहिये । असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच से निकल कर असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच जीवों में उत्पन्न हो सकता है । जिस प्रकार परिमाणादि का कथन पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने वाले असंज्ञी के पृथ्वीकायिक उद्देशक में किया, उसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यच में उत्पन्न होने वाले असंज्ञी का भी करना चाहिये । इसका उत्कृरका पूर्व पृथक्त्व अधिक पत्योपम का असंख्यातवां भाग कहा है क्योंकि पूर्वकोटि की स्थिति वाला असंज्ञी पूर्वकोटि की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच में सात बार उत्पन्न हुआ और आठवें भव में पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले युगलिकों में उत्पन्न हुआ, इस प्रकार पूर्वोक्त कालादेश बनता है । असंख्यात वर्ष को स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच संख्यात ही हैं, इसलिये वे उत्कृष्ट रूप से भी संख्यात ही उत्पन्न होते हैं, असंख्यात नही । जघन्य स्थिति वाला असंज्ञी, संख्यात वर्ष की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच में ही उत्पन्न होता है । इसलिये चौथे गमक कहा है कि- 'उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच में ही उत्पन्न होता है,' इत्यादि नौ गमक विचारपूर्वक कहना चाहिये । संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच से आता हो, तो भी पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिये, किन्तु वह तीन पल्योपम की स्थिति तक में उत्पन्न हो सकता है । पहले और सातवें गमक में उत्कृष्ट कालादेश सात पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम होता है। तीसरे और नौवें गमक में उत्कृष्ट संख्यात ही उत्पन्न होते हैं और भव दो ही होते हैं । अतः दो भव का ही कालादेश कहना चाहिये । शेष गमक में युगलिक नहीं होते । अतः समझपूर्वक स्थिति जाननी चाहिये । For Personal & Private Use Only अनुसार । भवादेश अधिक तीन पत्यो Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति ३३ प्रश्न - जइ मणुस्सेहिंतो उववज्जंति किं सष्णिमणु०, असष्णिमणु० ? ३१३८ ३३ उत्तर - गोयमा ! सष्णिमणुस्सेहिंतो वि, अरुणिमणुस्सेहिंतो वि उबवज्जति । भावार्थ - ३३ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्यों से आ कर उत्पन्न होते हैं, तो क्या संज्ञी मनुष्य से या असंज्ञी मनुष्य से आ कर उत्पन्न होते हैं ? ३३ उत्तर - हे गौतम ! वे संज्ञी और असंज्ञी दोनों प्रकार के मनुष्य से आकर उत्पन्न होते हैं । ३४ प्रश्न - असणिमणुस्से णं भंते! जे भविए पंचिदियतिरिखखजोणिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवइयकाल० ? ३४ उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्त०, उक्कोसेणं पुव्बकोडिआरएस उवक्जइ । लद्धी से तिसु वि गमएसु जहेव पुढवि काइएसु उववज्जमाणस्स । संवेहो जहा एत्थ चेव असणिपंचिंदियस्स मज्झिमे तिसुगमसु तव णिरवसेसो भाणियव्वो । भावार्थ-३४ प्रश्न-हे भगवन् ! असंज्ञी मनुष्य, पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? ३४ उत्तर - हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होता है । पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने वाले असंज्ञी मनुष्य के प्रथम तीन गमक के अनुसार यहां भी प्रथम के तीन गमक जानना चाहिये। संवेध, असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच के मध्य For Personal & Private Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यचों की उत्पत्ति ३१३९ के तीन गमक के अनुसार । ३५ प्रश्न-जइ सण्णिमणुस्सेहितो० किं संखेजवासाउयसष्णिमणुस्सेहितो०, असंखेजवासाउयसण्णिमणुस्सेहिंतो ? ३५ उत्तर-गोयमा ! संखेजवासाउय०, णो असंखेजवासाउय०। भावार्थ-३५ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि पंचेन्द्रिय तियंच, संज्ञो मनुष्य से आ कर उत्पन्न होता है, तो क्या संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले मनुष्य से आता है, या असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले मनुष्य से आ कर उत्पन्न होता है ? ३५ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संज्ञो मनुष्य से आ कर उत्पन्न होता है, असंख्यात वर्ष की आयुष्य के संज्ञो मनुष्य से नहीं । ३६ प्रश्न-जह संखेजवासाउय० किं पजत्त०, अपजत्त ? ३६ उत्तर-गोयमा ! पजत्तसंखेजवासाउय०, अपजत्तसंखेन्जवासाउयः। भावार्थ-३६ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि पंचेन्द्रिय तियंच, संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले मनुष्य से आ कर उत्पन्न होता है, तो क्या पर्याप्त मनुष्य से आ कर उत्पन्न होता है या अपर्याप्त मनुष्य से ? ३६ उत्तर-हे गौतम ! पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के मनुष्य से आ कर उत्पन्न होता है । ३७ प्रश्न-सण्णिमणुस्से णं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जिचए से णं भंते ! केवह-० १ . For Personal & Private Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४० भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति ३७ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्त०, उक्कोसेणं तिपलिओवमट्टिईएसु उववजह । भावार्थ-३७ प्रश्न-हे भगवन् ! संख्यात वर्ष की आयुष्य वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य, संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? ___३७ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति में उत्पन्न होता है। ३८ प्रश्न-ते गं भंते !? ३८ उत्तर-लद्धी से जहा एयस्सेव सण्णिमणुस्सस्स पुढविकाइएसु उक्वजमाणस्स पढमगमए जाव 'भवादेसो' ति । कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुवकोडि. पुहुत्तमभहियाइं १। भावार्थ-३८ प्रश्न-हे भगवन् ! वे संज्ञो मनुष्य एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं, इत्यादि ? ३८ उत्तर-पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने वाले संज्ञी मनुष्य के प्रथम गमक के समान, यावत् भवादेश पर्यन्त । कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम १ । ३९-सो चेव जहण्णकालट्टिईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया । णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुव्व कोडीओ चाहिं अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाओ २ । For Personal & Private Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तियंचों को उत्पत्ति भावार्थ - ३९ - यदि वह संज्ञी मनुष्य जघन्य काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हो, तो भी पूर्वोक्त वक्तव्यतानुसार । कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटि वर्ष २ । ३१४१ ४० - सो चैव उक्कोसका लट्ठिएस उबवण्णो जहण्णेणं तिपलिओवमट्टिईएस, उक्कोसेण वि तिपलिओचमट्टिईएसु - सच्चेव वत्तव्वया । वरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलपुहुत्तं, उक्कोसेणं पंच धणुसयाई । ठिई जहण्णेणं मासपुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी | एवं अणुबंधो वि । भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणेणं तिष्णि पलिओ माई मासपुहुत्तमम्भहियाई, उक्को सेणं तिष्णि पलिओ - माई पुव्वकोडीए अन्भहियाई - एवइयं ० ३ । भावार्थ - ४० - यदि वही मनुष्य उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले तिर्यंच में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तियंच में उत्पन्न होता है। यहाँ भी पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिये । अवगाना जघन्य अंगुल - पृथक्त्व और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष । स्थिति जघन्य मासपृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि । इस प्रकार अनुबन्ध भी जानना चाहिए । भवादेश से दो भव तथा कालादेश - जघन्य मास-पृथक्त्व अधिक तीन पत्योपम और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम ३ । ४१ - सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ जाओ, जहा सण - पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जमाणस्स For Personal & Private Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४२ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यचों की उत्पत्ति मज्झिमेसु तिसु गमएसु वत्तव्वया भाणिया एस चेव एयस्स वि मज्झिमेसु तिसु गमएसु णिरवसेसा भाणियव्वा । णवरं परिमाणं उक्को. सेणं संखेजा उववजंति, सेसं तं चेव ६।। भावार्थ-४१ यदि वह मनुष्य स्वयं जघन्य स्थिति वाला हो, तो पंचेंद्रिय तियंच में उत्पन्न होने वाले पंचेंद्रिय तियंच के मध्य के तीन गमक के अनुसार। परिमाण में उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं, शेष पूर्ववत् ४, ५, ६ । ४२-सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्टिईओ जाओ सच्चेव पढमगमगवत्तव्वया । णवरं ओगाहणा जहण्णेणं पंच धणुसयाई । उकोसेण वि पंच.धणुसयाइं । ठिई अणुबंधो जहण्णेणं पुव्वकोडी, उक्कोसेण वि पुबकोडी, सेसं तहेव जाव भवादेसो त्ति, कालादेसेणं जहण्णेणं पुवकोडी अंतोमुहुत्तमभहिया, उकोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुवकोडिपुडुत्तमब्भहियाई-एवइयं ७ । भावार्थ-४२ यदि वह मनुष्य स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो, तो इसके प्रथम गमक की वक्तव्यता जाननी चाहिये, किन्तु अवगाहना नवन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष होती है । स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि, शेष भवादेश पर्यंत उसी प्रकार । कालादेश से जघन्य अंतर्मुहूर्त अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम । . ४३-सो चेव जहण्णकालटिईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया। णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं पुवकोडी अंतोमुत्तमम्भहिया, उक्को For Personal & Private Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेंद्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति ३१४३ सेणं चतारि पुब्बकोडी ओ चउहिं अंतोमुहत्तेहिं अमहियाओ ८ । भावार्थ-४३ यदि वही मनष्य, जघन्य स्थिति वाले पंचेंद्रिय तिर्यच में उत्पन्न हो, तो भी इसी प्रकार । कालादेश से जघन्य अतर्महर्त अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट चार अतर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटि ८ । ___ ४४-सो चेव उक्कोसकालट्टिईएसु उववण्णो, जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाई, उक्कोसेण वि तिण्णि पलिओवमाई, एस चेव लद्धी जहेव सत्तमगमे । भवादेसेणं दो भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुवकोडीए अमहियाई, उक्कोसेण वि तिण्णि पलिओवमाइं पुष्वकोडीए अभहियाई-एवइयं ९ । भावार्थ-४४ यदि वही मनुष्य उत्कृष्ट काल को स्थिति वाले पंचेंद्रिय तियंच में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले संज्ञी पंचेंद्रिय तियंच में उत्पन्न होता है, सातवें गमकवत् । भवादेश से दो भव तथा कालादेश से जघन्य और उत्कृष्ट पूवकोटि अधिक तीन पल्योपम काल तक यावत् गमनागमन करता है ९ । विवेचन-असंज्ञी मनुष्य के विषय में केवल पहला, दूसरा और तीसरा-ये तीन गमक ही कहे हैं, इसका कारण यह है कि असंज्ञी मनुष्य की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होने से, तीन गमक ही बनते हैं । शेष छह गमक नहीं बनते । .. असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले मनुष्य देव में ही उत्पन्न होते हैं, तिथंच आदि में नहीं। तियंच के तीसरे गमक में अवगाहना और स्थिति के विषय में जो विशेषता बताई गई है, इससे यह स्पष्टता होती है कि अंगुल-पृथक्त्व (दो अंगुल से नौ अंगुल तक) से कम अवगाहना वाला और मास-पृथक्त्व (दो मास से नौ मास तक) से कम स्थिति For Personal & Private Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४४ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यचों की उत्पत्ति वाला मनुष्य, उत्कृष्ट स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न नहीं होता। संज्ञी मनुष्य के मध्य के तीन गमक के परिमाण में उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं । क्योंकि संज्ञी मनुष्य संख्यात ही हैं, इसलिये वे उत्कृष्ट रूप से भी संख्यात ही उत्पन्न होते हैं। ४५ प्रश्न-जइ देवेहितो उववज्जति किं भवणवासिदेवेहितो उववज्जति, वाणमंतर०, जोइसिय०, वेमाणियदेवेहितो० ? ४५ उत्तर-गोयमा ! भवणवासिदेवेहितो वि० जाव वेमाणिय. देवेहितो वि०। भावार्थ-४५ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वह पञ्चेन्द्रिय तिर्यच, देव से आ कर उत्पन्न होता है, तो भवनपति देव से, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, या वैमानिक देव से आ कर उत्पन्न होता है ? ___ ४५ उत्तर-हे गौतम ! वह भवनपति देव यावत् वैमानिक देव से आ कर उत्पन्न होता है। .४६ प्रश्न-जइ भवणवासि० किं असुरकुमारभवण० जाव थणियकुमारभवण० ? ४६ उत्तर-गोयमा ! असुरकुमार० जाव थणियकुमारभवण । ___ भावार्थ-४६ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वह भवनपति देव से आ कर उत्पन्न होता है, तो असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार भवनपति देव से आ कर उत्पन्न होता है ? ___ ४६ उत्तर-हे गौतम ! वह असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार भवनपति देव से आ कर उत्पन्न होता है। For Personal & Private Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ २० पंचेन्द्रिय तिर्यत्रों की उत्पत्ति ३१४५ ४७ प्रश्न - असुरकुमारे णं भंते! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोगिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवड़० ? ४७ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तट्टिईपसु, उक्कोसेणं पुव्वकोडी आउसु उववज्जइ । असुरकुमाराणं लद्धी णवसु वि गमपसु जहा पुढविकाइएस उववज्जमाणस्स, एवं जाव ईसाणदेवस्स तहेव . लद्धी । भवादेसेणं सव्वत्थ अट्ट भवग्गहणाई, उक्कोसेणं जहणेणं दोणि भवग्गणा । टिई संवेहं च सव्वत्थ जाणेज्जा ९ । भावार्थ - ४७ प्रश्न - हे भगवन् ! असुरकुमार जो पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? ४७ उत्तर - हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होता है । उसके नौ गमक में, पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले असुरकुमार की वक्तव्यतानुसार यावत् ईशान देवलोक पर्यन्त । भवादेश से सर्वत्र जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव होते हैं। स्थिति और संवेध सर्वत्र भिन्न-भिन्न है १ से. ९ । ४८ प्रश्न - नागकुमारे णं भंते ! जे भविए ? ४८ उत्तर - एस चैव वत्तव्वया । णवरं ठिहं संवेहं च जाणेज्जा । एवं जाव थणियकुमारे ९ । भावार्थ - ४८ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि नागकुमार देव, पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले तिर्यंच में उत्पन्न होता है ? ४८ उत्तर - हे गौतम! यहाँ भी पूर्वोक्त बक्तव्यतानुसार है । स्थिति और सवेध भिन्न है । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त । For Personal & Private Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४६ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तियंचों की उत्पत्ति ४९ प्रश्न-जइ वाणमंतरेहितो० किं पिसाय० ? ४९ उत्तर-तहेव । जाव भावार्थ-४९ प्रश्न-यदि वह पंचेंद्रिय तियंच, वाणव्यन्तर से आ कर उत्पन्न होता है, तो क्या पिशाच वाणव्यन्तर से आ कर उत्पन्न होता है, इत्यादि ? ४९ उत्तर-पूर्ववत् । ५० प्रश्न-वाणमंतरे णं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्ख ०? ५० उत्तर-एवं चेव, गवरं ठिई संवेहं च जाणेजा ९ । भावार्थ-५० प्रश्न-हे भगवन् ! वाणव्यन्तर देव, पंचेंद्रियतिथंच में उत्पन्न हो, तो वह कितने काल की स्थिति वाले पंचेंद्रिय तियंच में उत्पन्न होता है ? ५. उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । स्थिति और संवेध उससे भिन्न जानना चाहिये। ५१ प्रश्न-जइ जोइसिय० ? ५१ उत्तर-उववाओ तहेव, जाव भावार्थ-५१ प्रश्न-यदि वह पंचेंद्रिय तिर्यंच, ज्योतिषी देव से आ कर उत्पन्न हो ? ५१ उत्तर-उपपात पूर्ववत् (पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले पंचेंद्रिय तियंच के अनुसार) । ५२ प्रश्न-जोइसिए णं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्ख० ? ५२ उत्तर-एस चेव वत्तव्वया । जहा पुढविक्काइयउद्देसए For Personal & Private Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तियंत्रों की उत्पत्ति ३१४७ भवग्गहणाई णवसु वि गमएसु अट्ट जाव कालादेसेणं जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तमभहियं, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओ. वमाई चउहि पुव्वकोडीहिं चरहिं य वाससयसहस्सेहिं अब्भहियाईएवइयं० । एवं णवसु वि गमएसु, णवरं ठिई संवेहं च जाणेज्जा ९ । ___ भावार्थ-५२ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्योतिषी देव, पंचेंद्रिय तियंच में उत्पन्न हो, तो ? ५२ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त पृथ्वीकायिक उद्देशक के अनुसार । नौ गमक में आठ भव होते हैं, यावत् कालादेश से जघन्य अंतर्मुहूर्त अधिक पल्योपम का आठवाँ भाग और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार पल्योपम और चार लाख वर्ष तक यावत गमनागमन करता है । इसी प्रकार नौ गमक जानना चाहिये । स्थिति और संवेध भिन्न-भिन्न जानना चाहिये १ से ९ । ५३ प्रश्न-जइ वेमाणियदेवेहितो० किं कप्पोवगवेमाणिय०, कापाईयवेमाणिय ? ५३ उत्तर-गोयमा ! कप्पोक्सवेमाणिय०, णो कप्पाईयवेमाणिय। जइ कप्पोवग० जाव सहस्सारकप्पोवगवेमाणियदेवेहितो वि उव. वजंति, णो आणय० जाव णो अच्चुयकप्पोवगवेमाणिय० । भावार्थ-५३ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वह वैमानिक देव से आ कर उत्पन्न होता है, तो कल्पोपपन्नक या कल्पातीत वैमानिक देव से आ कर उत्पन्न होता है ? . ५३ उत्तर-हे गौतम ! वह कल्पोपपन्नक वैमानिक देव से आ कर उत्पन्न होता है, कल्पातीत वैमानिक देव से नहीं । यदि कल्पोपपन्नक वैमानिक देव से आ कर उत्पन्न होता है, तो यावत् सहस्रार कल्पोपपन्नक वैमानिक देव से आ कर उत्पन्न होता है, किन्तु आणत यावत् अच्युत कल्पोपपन्नक वैमानिक देव से आ कर उत्पन्न नहीं होता। For Personal & Private Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४८ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति . ५४ प्रश्न-सोहम्मदेवे णं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिवखजोणिएसु उववजित्तए, से णं भंते ! केवइ० ? ५४ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्त०, उक्कोसेणं पुव्वकोडीआउपसु, सेसं जहेव पुढविकाइयउद्देसए णवसु वि गमएसु । णवरं णवसु वि गमएसु जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई । ठिई कालादेसं च जाणिज्जा, एवं ईसाणदेवे वि । एवं एएणं कमेणं अवसेमा वि जाव सहस्सारदेवेसु उववाएयव्वा । णवरं ओगाहणा जहा ओगाहणसंठाणे, लेस्सा-सणंकुमार-माहिंद-बंभलोएसु एगा पम्हलेस्सा, सेसाणं एगा सुकलेस्सा । वेए णो इत्थिवेयगा, पुरिसवेयगा, णो णपुंसगवेयगा। आउ-अणुबंधा जहा ठिई. पए, मेसं जहेव ईसाणगाणं कायसंवेहं च जाणेजा। ___® 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । ॐ ॥ चउवीसइमे सए वीसइमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-५४ प्रश्न-हे भगवन् ! सौधर्म देव, पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? ५४ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तियंच में उत्पन्न होता है। शेष नौ गमक में पृथ्वीकायिक उद्देशक के अनुसार जानना चाहिये, परन्तु नौ गमक में संवेध-भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव होते हैं। स्थिति और कालादेश भिन्न-भिन्न जानना चाहिये। इसी प्रकार ईशान देव के विषय में भी जानना चाहिये-इसी क्रम से सहस्रार देव पर्यंत । अवगाहना प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें For Personal & Private Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २० पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्पत्ति ३१४९ 'अवगाहना संस्थान' पद के अनुसार । लेश्या सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्म लोक में एक पद्म लेश्या और लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार में एक शुक्ललेश्या होती है । स्त्रीवेदी और नपुंसक वेदी नहीं होते, एक पुरुष वेदी ही होते हैं । प्रज्ञापना सूत्र के चौथे स्थिति पद के अनुसार स्थिति और अनुबन्ध जानना चाहिये । शेष ईशान देव के समान । काय संवेध भिन्न-भिन्न जानना चाहिये। .. 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होने वाले असुरकुमारादि देव के लिये पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले देव यावत् ईशान देवलोक तक के देव का अतिदेश किया गया है । इसका कारण यह है कि ईशान देवलोक तक के देव ही पृथ्वीकायादि में उत्पन्न होते हैं, किन्तु यहाँ आठवें स्वर्ग तक से आ कर उत्पन्न होते हैं। इसके परिमाण, संहनन आदि का कथन पहले किया जा चुका है। भवादेश आदि के लिये भी पूर्ववत् अतिदेश किया गया है । अवगाहना के लिये प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें पद का अतिदेश किया गया है । वह इस प्रकार है-- भवणवणजोइसोहम्मीसाणे सत्त हुंति रयणीओ। एककेक्क हाणि सेसे दुदुगे य दुगे चउक्के य ॥ अर्थात्-भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, सौधर्म और ईशान देवलोक में भवधारणीय अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट सात रत्नि (हाथ) है। सनत्कुमार और माहेन्द्र में छह रत्नि, ब्रह्मलोक और लान्तक में पांच रत्नि, महाशुक्र और सहस्रार में चार रत्नि, आणत, प्राणत, आरण और अच्युत देवलोक में तीन रनि की अवगाहना होती है। उत्तर-वैक्रिय अवगाहना सभी देवलोकों में जघन्य अंगुल का संख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन की होती है । स्थिति समी में भिन्न-भिन्न है । जिसका निर्देश अन्यत्र कर दिया गया है। स्थिति के अनुसार उपयोगपूर्वक संवेध कहना चाहिये । ... ॥ चौबीसवें शतक का बीसवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ .. For Personal & Private Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४ उद्देशक २१ MARRARमनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति १ प्रश्न-मणुस्सा णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? किं णेरइएहिंतो उववजंति, जाप देवेहितो उववजंति ? १ उत्तर-गोयमा ! णेरइएहितो वि उववनंति जाव देवेहितो वि उववज्जति-एवं उवषाओ जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियउद्देसए जाव 'तमापुढविणेरइएहितो वि उववजंति, णो अहेसत्तमपुढविणेरहए. हिंतो उववजंति।' भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! मनुष्य कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं, क्या नैरयिक से यावत् देव से आ कर उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक यावत् देव से भी आ कर उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार पञ्चेन्द्रिय तियंव-योनिक उद्देशक के अनुसार उपपात जानना चाहिये, यावत् तमःप्रभा नाम की छठी पृथ्वी के नैरयिक से आ कर उत्पन्न होते हैं। अधःसप्तम पृथ्वी के नैरयिक से आ कर उत्पन्न नहीं होते। २ प्रश्न-रयणप्पभापुढविणेरइए णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइयकाल० ? २ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं मासपुहुत्तट्टिईएसु, उक्कोसेणं For Personal & Private Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. २४ उ. २१ मनुष्यों की विविध योनियों से उत्पत्ति ३१५१ पुन्चकोडीआउएसु, अवसेसा वत्तव्बया जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजंतस्स तहेव । णवरं परिमाणे जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उकोसेणं संखेजा उववजंति । जहा तहिं अंतोमुहुत्तेहिं तहा इहं मासपुहुत्तेहिं संवेहं करेजा, सेसं तं चेव ९ । जहा रयणप्प. भाए वत्तव्वया तहा सक्करप्पभाए वि, णवरं जहण्णेणं वास हुत्तट्टिई. एसु, उक्कोसेणं पुव्वकोडी० । ओगाहणा-लेस्सा-णाण-ट्टिइ-अणुबंधसंवेहं णाणतं च जाणेजा जहेव तिरिक्खजोणियउद्देसए । एवं जाव तमापुढविणेरइए १ । भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी का नैरयिक, मनुष्यों में उत्पन्न हो, तो वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होता है ? २ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य मास-पृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होता है। शेष वक्तव्यता पञ्चेन्द्रिय तिर्यच-योनिक में उत्पन्न होने वाले रत्नप्रभा नैरयिकवत् । परिमाण-जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। वहां तो अन्तर्मुहूर्त के साथ संवेध किया था, किन्तु यहां मास-पृथक्त्व के साथ संवेध करना चाहिये । शेष पूर्ववत् । रत्नप्रभा पृथ्वी को वक्तव्यता के समान शर्कराप्रभा की भी है। स्थिति जघन्य वर्ष-पृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि । अवगाहना लेश्या, ज्ञान, स्थिति, अनुबन्ध और संवेध का नानात्व (विशेषता) तिथंच उद्देशक के अनुसार । इस प्रकार यावत् तमःप्रभा पृथ्वी के नरयिक पर्यन्त । - विवेचन-रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक, यदि मनुष्याय का बंध करते हैं, तो मास-पृथक्त्व (२ महीने से ९ महीने तक) से कम आयु का बन्ध नहीं करते । क्योंकि तथाविध परिणाम का अभाव होता है। इसी प्रकार आगे की नरकों के विषय में भी समझना चाहिये । नैरयिक For Personal & Private Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५२ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २१ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति सम्मूच्छिम मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते, वे गर्भज मनुष्य में ही आते हैं और संख्यात ही होते हैं, असंख्यात नहीं। रत्नप्रभा पृथ्वी से निकल कर पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होने वालों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है । इसलिये वहाँ अन्तर्मुहूर्त के साथ संवेध किया गया था, किन्तु मनुष्य प्रकरण में जघन्य स्थिति मास-पृथक्त्व होती है, अतः मास-पृथक्त्व के साथ संवेध करना चाहिये। ___ शर्कराप्रभा आदि की वक्तव्यता पंचेन्द्रिय तिर्यंच उद्देशक के अनुसार जाननी चाहिये। वह भावार्थ में कही है। ३ प्रश्न-जइ तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं एगिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जंति ? ३ उत्तर-गोयमा ! एगिदियतिरिक्खजोणिए० भेदो जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियउद्देसए, णवरं तेउवाऊ पडिसेहेयव्वा, सेसं तं चेव । जाव कठिन शब्दार्थ-पडिसेहेयव्वा-निषेध करना चाहिये । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि जीव, तिर्यंच-योनिक से आ कर मनुष्य में उत्पन्न होता है, तो एकेन्द्रिय यावत् पञ्चेन्द्रिय तिथंच से आता है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! एकेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक इत्यादि पञ्चेन्द्रिय तिथंच उद्देशक के अनुसार, किंतु तेउकाय और वायुकाय का निषेध करना चाहिये (क्योंकि इनसे आ कर मनुष्य में उत्पन्न नहीं होता) शेष पूर्ववत् । ४ प्रश्न-पुढविक्काइए णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइ० ? For Personal & Private Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २१ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति ३१५३ - ४ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तट्टिईएसु, उक्कोसेणं पुवकोडीआउएसु उववज्जेजा। कठिन शब्दार्थ-भविए-उत्पन्न होने के योग्य । भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक, मनुष्य में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होता है ? । ४ उत्तर-हे गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि को स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होता है । ५ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा ? ५ उत्तर-एवं जहेव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजमाणस्स पुढविक्काइयस्स वत्तव्वया सा चेव इह वि उववजमाणस्स भाणियव्वा णवसु वि गमएसु । णवरं तइय-छ?-णवमेसु गमएसु परिमाणं जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा उव. वज्जति । जाहे अप्पणा जहण्णकालट्ठिइओ भवइ ताहे पढमगमए, अज्झवसाणा पसत्था वि अप्पसत्था वि, बिइयगमए अप्पसत्था, तइयगमए पसत्था भवंति, सेसं तं चेव णिरवसेसं ९ । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! वे पृथ्वीकायिक जीव, एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ५ उत्तर-पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक में उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिक के समान यहां.मनुष्य में उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिक के नौ गमक जानना चाहिये, किन्तु तीसरे, छठे और नौवें गमक में परिमाण जघन्य एक, दो या तीन For Personal & Private Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५४ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २१ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं । जब पृथ्वीकायिक स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो, तब मध्य के तीन गमक में के प्रथम (चौथे) गमक में अध्यवसाय प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के होते हैं। दूसरे (पांचवां) गमक में अप्रशस्त और तीसरे (छठे) गमक में प्रशस्त होते हैं । शेष पूर्ववत् । ६ प्रश्न-जइ आउकाइए? ६ उत्तर-एवं आउकाइयाण वि । पूर्व वणस्सइकाइयाण वि । एवं जाव चरिंदियाण वि । असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिय सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिय-असण्णिमणुस्स-सण्णिमणुस्सा य एए सव्वे वि जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियउद्देसए तहेव भाणियव्वा । णवरं एयाणि. चेव परिमाण-अज्झवसाण-णाणत्ताणि जाणिजा पुढविकाइयस्स एत्थ चेव उद्देसए भणियाणि । सेसं तहेव गिरवसेसं । भावार्थ-६ प्रश्न- हे भगवन् ! यदि वे मनुष्य अप्कायिक से आ कर उत्पन्न हो तो? ६ उत्तर-अप्कायिक और वनस्पतिकायिक भी इसी प्रकार जानना चाहिए और इसी प्रकार चौरिन्द्रिय पर्यन्त । असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, संजी पञ्चेन्द्रिय तियंच, असंज्ञी मनुष्य और संज्ञो मनुष्य, इन सभी के विषय में, पञ्चेन्द्रिय तिर्यच उद्देशक के अनुसार, परन्तु सभी के परिमाण और अध्यवसायों की भिन्नता, पृथ्वीकायिक के इसी उद्देशक के अनुसार है, शेष पूर्ववत् । विवेचन-जब तियंच से आ कर मनुष्य में उत्पन्न होता है, उसके लिये पृथ्वीकाय से निकल कर पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उसन्न होने वाले का जो निरूपण किया, वही पृथ्वीकाय से निकल कर मनुष्य में उत्पन्न होने वाले के लिए जानना चाहिये । किन्तु तीसरे गमक में औधिक पृथ्वीकायिक से निकल कर जब उत्कृष्ट स्थिति वाले मनुष्य में जो उत्पन्न होते हैं, For Personal & Private Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २१ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति ३१५५ वे उत्कृष्ट संख्यात ही होते हैं । यद्यपि यहाँ सामान्य रूप से मनुष्य का ग्रहण होने से सम्मूच्छिम मनुष्यों का भी ग्रहण हो जाता है और वे असंख्यात हैं, तथापि उत्कृष्ट स्थिति के पूर्चकोटि वर्ष की आयु वाले मनुष्य संख्यात ही होते हैं, जब कि पंचेन्द्रिय तिर्यंच तो असंख्यात हो जाते हैं । यही समाधान छठे और नौवें गमक के लिये भी समझना चाहिये। ___ मध्य के त्रिक के प्रथम (अर्थात् चौथे) गमक में जघन्य स्थिति वाले पृथ्वीकायिक का मनुष्य में औधिक उत्पाद होता है । उस समय उस पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट स्थिति वाले मनुष्य में उत्पत्ति होती है, तब उसके अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं और जब उसी गमक में जघन्य स्थिति वाले मनुष्य में उत्पत्ति होती है, तब अध्यवसाय अप्रशस्त हाते हैं, अतः चौथे गमक में दोनों प्रकार के अध्यवसाय होते हैं। मध्य के त्रिक के दूसरे (अर्थात् पाँचवें) गमक में जघन्य स्थिति वाला पृथ्वीकायिक जघन्य स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होता है, तब उसके अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं, क्योंकि प्रशस्त अध्यवसायों से जघन्य स्थिति में उत्पत्ति नही होती । मध्य के त्रिक के तीसरे (छठे) गमक में जब जघन्य स्थिति वाला पृथ्वीकायिक, उत्कृष्ट स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होता है तब अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं। ७ प्रश्न-जड़ देवेहितो उबवज्जति किं भवणवासिदेवेहितो उववज्जति, वाणमंतर०, जोइसिय०, वेमाणियदेवेहितो उववजंति ? ____७ उत्तर-गोयमा ! भवणवासिदेवेहितो वि० जाव वेमाणियदेवे. हिंतो वि उववज्जति । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे मनुष्य, देव से आ कर उत्पन्न होते हैं, तो भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी या वैमानिक से आ कर उत्पन्न होते हैं ? ७ उत्तर-हे गौतम ! वे भवनपति यावत् वैमानिक देव से भी आ कर उत्पन्न होते हैं। ८ प्रश्न-जइ भवणवासि० किं असुर० जाव थणिय० ? ८ उत्तर-गोयमा ! असुरकुमार० जाव थणिय०। . : For Personal & Private Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५६ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २१ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति ८ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे भवनपति देव से आ कर उत्पन्न होते हैं, तो क्या असुरकुमार से यावत् स्तनितकुमार से आ कर उत्पन्न होते हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! वे असुरकुमार से यावत् स्तनितकुमार से भी आ कर उत्पन्न होते हैं। ९ प्रश्न-असुरकुमारे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइ० ? ९ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं मासपुहुत्तट्टिईएंसु, उक्कोसेणं पुवकोडिआउएसु उववजेज्जा । एवं जच्चेव पंचिंदियतिरिक्खजोणियउद्देसए वत्तव्वया सच्चेव एत्थ वि भाणियव्वा । णवरं जहा तहिं जहण्णगं अंतोमुहुत्तट्टिईएसु तहा इहं मासपुहुत्तट्टिईएसु । परिमाणं जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं, संखेजा उववजंति, सेसं तं चेव । एवं जाव 'ईसाणदेवो' त्ति । एयाणि चेव णाणत्ताणि । सणंकुमारादीया जाव 'सहस्सारों' त्ति जहेव पंचिंदियतिरिक्खजोणियउद्देसए । णवरं परिमाणं जहण्णेणं एको वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा उववजंति । उववाओ जहण्णेणं वासपुहुत्तट्टिईएसु, उक्कोसेणं पुव्वकोडीआउएसु उववजंति, सेसं तं चेव । संवेहं वासपुहुत्तं पुत्वकोडीसु करेजा । सणंकुमारे ठिई चउगुणिया अट्ठावीसं सागरोवमा भवंति, माहिंदे ताणि चेव साइरेगाणि, बम्हलोए चत्तालीसं, लंतए छप्पण्णं, महासुक्के अट्ठसटिं, सहस्सारे For Personal & Private Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ २१ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति ३१५७ वावतारं सागरोवमाई | एसा उकोसा टिई भणिया । जहण्णट्टिई पि चउ गुणेज्जा ९ । भावार्थ - ९ प्रश्न - हे भगवन् ! असुरकुमार देव, मनुष्य में उत्पन्न हो,. तो कितने काल की स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होता है ? ९ उत्तर - हे गौतम ! वह जघन्य मास - पृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होता है। इस प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक के उद्देशक के अनुसार । वहां तो अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले तियंच में उत्पन्न होने का कहा है, किंतु यहां मास - पृथक्त्व की स्थिति वालों में उत्पन्न होते है । परिमाण - जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। शेष पूर्ववत् । इस प्रकार यावत् ईशान देव पर्यंत तथा उपरोक्त विशेषता भी जाननी चाहिये । सनत्कुमार से ले कर सहस्रार तक के देव के विषय में पंचेंद्रिय तिर्यंच उद्देशक के अनुसार । परिमाण - जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं । वे जघन्य वर्ष - पृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होते हैं। शेष पूर्ववत् । संवेध - जघन्य वर्ष-पृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि । सनत्कुमार में स्वयं की उत्कृष्ट स्थिति को चार गुणा करने से अट्ठाईस सागरोपम होते हैं और माहेन्द्र में सातिरेक अट्ठाईस सागरोपम होते हैं । इसी प्रकार स्वयं की उत्कृष्ट स्थिति को चार गुणा करने से ब्रह्मलोक में चालीस सागरोपम, लान्तक में छप्पन सागरोपम, महाशुक्र में अड़सठ सागरोपम और सहस्रार में बहत्तर सागरोपम होते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति है और जघन्य स्थिति को भी चार गुणा करना चाहिये । ( इस प्रकार कायसंवेध जानना चाहिये ) १ से ९ । १० प्रश्न- आणयदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवइ० ? For Personal & Private Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५८ भगवती सूत्र-१. २४ उ. २१ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति १० उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं वासपहुट्टिईएसु, उकोसेणं पुवकोडीठिईएसु०। भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! आणत देव, मनुष्य में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होता है। - १० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य वर्ष-पृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होता है । ११ प्रश्न-ते णं भंते ! ११ उत्तर-एवं जहेव सहस्सारदेवाणं वत्तव्वया । णवरं ओगा. हणा-ठिई-अणुबंधे य जाणेजा, सेसं तं चेव। भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं छ भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं अट्ठारस सागरोवमाइं वास हुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं सत्तावण्णं सागरोवमाइं तिहिं पुवकोडिहिं अमहियाइं-एवइयं कालं० । एवं णव वि गमा, णवरं ठिई अणुबंध संवेहं च जाणेजा, एवं जाव अच्चुयदेवो, णवरं ठिई अणुबंधं संवेहं च जाणेजा। पाणयदेवस्स ठिई तिगुणिया सहिँ सागरोवमाई, आरणगस्स तेवढ़ि सागरोवमाई, अच्चुयदेवस्स छावहिँ सागरोवमाइं । भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! वे मनुष्य एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ११ उत्तर-सहस्रार देव की वक्तव्यता के अनुसार। अवगाहना, स्थिति और अनबन्ध की विशेषता जाननी चाहिये, शेष पूर्ववत् । भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट छह भव तथा कालादेश से जघन्य वर्ष-पृथक्त्व अधिक For Personal & Private Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २१ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति ३१५९ अठारह सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक सत्तावन सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है। इस प्रकार नौ गमक जानना चाहिये, किंतु स्थिति, अनुबन्ध और सवेध उससे भिन्न है। इस प्रकार यावत् अच्युत देवलोक पर्यन्त । स्थिति, अनुबन्ध और संवेध उससे भिन्न है। प्राणत देवलोक की स्थिति को तीन गुणा करने पर साठ सागरोपम, आरण की स्थिति को तीन गुणा करने पर त्रेसठ सागरोपम और अच्युत की स्थिति को तीन गुणा करने पर छासठ सागरोपम होते हैं। १२ प्रश्न-जइ कप्पाईयवेमाणियदेवेहितो उववज्जति किं गेविजगकप्पाईय०, अणुत्तरोववाइयकप्पाईय० ? १२ उत्तर-गोयमा ! गेविजगकप्पाईय०, अणुत्तरोववाइय० । भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे मनुष्य, कल्पातीत वैमानिक देव से आ कर उत्पन्न होते हैं, तो ग्रैवेयक कल्पातीत वैमानिक देव से आ कर उत्पन्न होते हैं या अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव से ? १२ उत्तर-हे गौतम ! वे ग्रेवेयक और अनुत्तरोपपातिक-दोनों प्रकार के कल्पातीत वैमानिक देव से आ कर उत्पन्न होते हैं। - १३ प्रश्न-जइ गेविजग किं हेट्ठिम हेट्ठिम गेविजगकप्पाईय० जाव उवरिम उवरिम गेविजग० ? १३ उत्तर-गोयमा ! हेट्ठिम हेट्ठिम गेविजग० जाव उवरिम २० । ___ भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे मनुष्य, प्रैवेयक कल्पातीत वैमानिक देव से आ कर उत्पन्न होते हैं, तो अधस्तन-अधस्तन (सब से नीचे के) प्रेवेयक से यावत् उपरितन-उपरितन (सब से ऊपर के) ग्रेवेयक से आ कर उत्पन्न होते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २० उ. २१ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति १३ उत्तर - हे गौतम ! वे अधस्तन - अधस्तन यावत् उपरितन- उपरितन ग्रवेयक से भी आकर उत्पन्न होते हैं । भ ३१६० १४ प्रश्न - गेविज्जगदेवे णं भंते! जे भविए मणुस्तेसु उववजित्तए से णं भंते! केवहयकाल० १ १४ उत्तर - गोयमा ! जहण्णेणं वासपुहुत्तटिईएसु, उक्कोसेणं पुव्वकोडी ०, अवसेसं जहा आणयदेवस्स वत्तव्वया । णवरं ओगाहणा - गोयमा ! एगे भवधारणिज्जे सरीरए से जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं दो रयणीओ । संठाणं- एगे भवधारणिज्जे सरीरे, से समचउरंससंठिए पण्णत्ते । पंच समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहावेदणासमुग्धाए जाव तेयगसमुग्धाए, णो चेव णं वेडव्वियतेयगसमुग्धा एहिं समोहासु वा, समोहति वा, समोहणिस्संति वा । ठिई अणुबंधो जहणणेणं बावीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं एक्कतीसं सागरोवमाई, सेसं तं चैव । कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं सागरो· वमाई वासपुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं तेणउतिं सागरोवमाई तिहिं पुष्वकोडीहिं अन्भहियाई - एवइयं ० । एवं सेसेसु वि अट्टगम एसु । णवरं ठिझं संवेहं च जाणेज्जा ९ । भावार्थ - १४ प्रश्न - हे भगवन् ! ग्रैवेयक देव, मनुष्य में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होता है ? १४ उत्तर - हे गौतम! जघन्य वर्ष - पृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि For Personal & Private Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २१ मनुप्य की विविध योनियों से उत्पत्ति. ३१६१ की स्थिति वाले मनष्य में उत्पन्न होता है, शेष आणत देववत् । परन्तु उस देव के केवल भवधारणीय शरीर होता है और उसकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भांग और उत्कृष्ट दो रत्नि होती है । एक भवधारणीय शरीर, समचतुरस्र संस्थान और पांच समुदंघात होती हैं, यथा-वेदना समुद्घात यावत् तेजस् समुद्घात । परन्तु उन्होंने वैक्रिय समुद्घात और तेजस् समुद्घात कभी की नहीं, करते भी नहीं और करेंगें भी नहीं । स्थिति और अनुबन्ध जघन्य बाईस सागरोपम उत्कृष्ट इकत्तीत सागरोपम, शेष पूर्ववत् । कालादेश से जघन्य वर्ष-पृथक्त्व अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक तिरानवें सागरोपम । शेष आठों ही गमक में इसी प्रकार । स्थिति और संवेध भिन्न जानना चाहिये। १५ प्रश्न-जइ अणुत्तरोववाइयकप्पाईयवेमाणिय० किं विजय अणुत्तरोववाइय०, वेजयंतअणुत्तरोववाइय० जाव सव्वट्ठसिद्ध० ? १५ उत्तर-गोयमा ! विजयअणुत्तरोववाइय० जाव सव्वट्ठसिद्धअणुचरोववाइय० । ..भावार्थ-१५ प्रश्न-यदि मनुष्य, अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव से आ कर उत्पन्न होते हैं, तो क्या विजय, वैजयन्त यावत् सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक देव से आ कर उत्पन्न होते हैं ? ___ १५ उत्तर-हे गौतम ! वे विजय यावत् सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक वैमानिक देव से आ कर उत्पन्न होते हैं। १६ प्रश्न-विजय चेजयंत-जयंत-अपराजियदेवे गं भंते ! जे. भविए मणुस्सेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइ० ? For Personal & Private Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६२ भगवती सूत्र-शे. २४ उ. २१ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति १६ उत्तर-एवं जहेव गेविजगदेवाणं । णवरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं एगा रयणी । समदिट्टी, णो मिच्छदिट्टी, णो सम्मामिच्छदिट्ठी । णाणी, णो अपणाणी, णियमं तिण्णाणी, तं जहा-आभिणिवोहियणांणी, सुयणाणी, ओहिणाणी । ठिई जहण्णेणं एकतीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई, सेसं तं चेव । भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं चत्तारि भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहण्णेणं एक्कतीसं सागरोवमाइ वासपुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छावहिँ सागरोवमाइं दोहिं पुटवकोडीहिं अब्भहियाई-एवइयं । एवं सेसा वि अट्ट गमगा भाणियव्वा। णवरं ठिई अणुबंधं संवेहं च जाणेजा, सेसं एवं चेव । भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित्त अनुत्तरोपपातिक देव, मनुष्य में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होते हैं ? १६ उत्तर-हे गौतम ! ग्रेवेयक देव के अनुसार । अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक रत्नि की होती है । वे सम्यग्दृष्टि होते हैं, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते। वे ज्ञानी होते हैं, अज्ञानी नहीं होते। उनके मति, श्रुत और अवधि-ये तीन ज्ञान नियम से होते हैं। स्थिति जघन्य ३१ सागरोपम और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम, शेष पूर्ववत् । भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट चार भव तथा कालादेश से जघन्य वर्ष-पृथक्त्व अधिक ३१ सागरोपम और उत्कृष्ट दो पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम । शेष आठ गमक भी इसी प्रकार । स्थिति, अनुबन्ध और संवेध भिन्न-भिन्न, शेष पूर्ववत् । For Personal & Private Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २१ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति ३१६३ १७ प्रश्न-सव्वट्ठसिद्धगदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उव. वजित्तए ? १७ उत्तर-सा चेव विजयादिदेववत्तव्वया भाणियव्वा । णवरं ढिई अनहण्णमणुकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई एवं अणुबंधो वि, सेसं तं चेव । भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं वासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुव्वकोडीए अन्भहियाई-एवइयं० १ । भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक देव, मनुष्य में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होता है ? १७ उत्तर-हे गौतम ! विजयादि देववत् । स्थिति अजघन्यानत्कृष्ट तेतीस सागरोपम । अनुबन्ध भी इसी प्रकार। भवादेश से दो भव तथा काला देश से जघन्य वर्ष-पृथक्त्व अधिक तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम १। १८-सो चेव जहण्णकालदिईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया। णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं वास हुत्तमभहियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाइं वासपुहत्तमभहियाई-एवइयं २ । भावार्थ-१८ यदि वह सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक देव जघन्य काल की स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होता है, तो उसके विषय में भी यही दक्तव्यता कहनी चाहिये । कालादेश से जघन्य और उत्कृष्ट वर्ष पृथक्त्व अधिक तेतीस सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है २ । For Personal & Private Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६४ भगवती सूत्र-२४ उ. २१ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति १९-सो चेव उक्कोसकालढिईएसु उववष्णो एस चेव वत्तव्वया । णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुवकोडीए अभहियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाइं पुव्वकोडीए अमहियाईएवइयं० ३ । एए चेव तिण्णि गमगा, सेसा ण भण्णंति। " * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' तिॐ ॥ चउवीसइमे सए एकवीसइमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-१९-यदि वह सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक देव, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न हो, तो उसके लिये भी यही वक्तव्यता है । कालादेश से जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम ३ । यहां ये तीन गमक कहने चाहिये । शेष छह गमक नहीं बनते हैं। , 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-मनुष्य में उत्पन्न होने वाले असुरकुमार देव से ले कर ईशान देव तक की वक्तव्यता के लिये पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच उद्देशक का अतिदेश किया है, क्योंकि दोनों की वक्तव्यता समान है। सनत्कुमार आदि की वक्तव्यता में विशेषता है । अतः उनका कथन पथक किया है। जब औधिक या उत्कृष्ट स्थिति के देव, औधिक आदि मनुष्य में उत्पन्न होते हैं, तब उत्कृष्ट स्थिति और संवैध का कथन करने के लिये चार मनुष्य भव . और चार देव भव की स्थिति को जोड़ना चाहिये । आनत आदि देवों में उत्कृष्ट छह भव होते हैं । इसलिये वहाँ तीन मनुष्य भव और तीन देवभवों की स्थिति को जोड़ कर संवेध करना चाहिये। कल्पातीत देव में लब्धि की अपेक्षा पाँच समुद्घात होती है, किन्तु वैक्रिय और तेजस् समुद्घात उन्होंने कभी की नहीं, करते भी नहीं और करेंगे भी नहीं, क्योंकि इनका उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २१ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति ३१६५ प्रथम ग्रैवेयक में जघन्य स्थिति बाईस सागरोपम की होती है और उत्कृष्ट तेईम सागरोपम की । आगे क्रमश: प्रत्येक ग्रेवेयक में एक-एक सागरोपम की वृद्धि होती जाती है । नौवें ग्रेवेयक में उत्कृष्ट स्थिति ३१ सागरोपम है । वहाँ भवादेश से उत्कृष्ट छह भव होते हैं । इसलिये तीन मनुष्य भव की उत्कृष्ट स्थिति तीन पूर्वकोटि और तीन ग्रेवेयक भव की उत्कृष्ट स्थिति तिरानवें सागरोपम होता है । यह कालादेश से उत्कृष्ट संवेध है। ___ सर्वार्थसिद्ध देव के अधिकार में प्रथम के तीन गमक होते हैं, क्योंकि उनकी स्थिति अजघन्यानुत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की होती है । जघन्य स्थिति न होने से चौथा, पाँचवाँ और छठा-ये तीन गमक नहीं बनते और उत्कृष्ट स्थिति न होने से सातवाँ, आठवाँ और नौवाँ-ये तीन अन्तिम गमक नहीं बनते । ___अनुत्तरौपपातिक देव में मिथ्यादृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि को वजित किया है और एक सम्यग्दृष्टि ही बतलाई गई है, परन्तु नवग्रैवेयक के वर्णन में कोई भी दृष्टि वर्जित नहीं की है। इससे यह स्पष्ट होता है कि नवग्रैवेयक में तीनों दृष्टियाँ पाई जाती हैं। ॥ चौबीसवें शतक का इक्कीसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४ उद्देशक २२ वाणव्यंतर देवा का उपपात १ प्रश्न-वाणमंतरा णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? किं णेरइएहिंतो उववज्जति, तिरिक्ख० ? १ उत्तर-एवं जहेव णागकुमारउद्देसए असण्णी तहेव गिरवसेसं । जइ सण्णिपंचिंदिय० जाव असंखेजवासाउय० । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! वाणव्यंतर देव कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? नैरयिक, तिर्यच योनिक, मनुष्य से या देव से आ कर उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! नागकुमार देव के उद्देशकानुसार यावत् असंज्ञो तक । यदि वाणव्यन्तर देव-संज्ञो पञ्चेन्द्रिय तियंच से आ कर उत्पन्न होते हैं, इत्यादि यावत् असंख्यात वर्ष की आयु तक पूर्ववत् जानना चाहिये। २ प्रश्न-सण्णिपंचिंदिय० जे भविए वाणमंतरेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवइ० ? २ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सठिईएसु, उक्कोसेणं पलिओवमठिईएसु, सेसं तं चेव जहा णागकुमारउद्देसए जाव कालादेसेणं जहण्णेणं साइरेगा पुत्वकोटी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया, उकोसेणं चत्तारि पलिओवमाई-एवइयं १ । For Personal & Private Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २२ वाणव्यंतर देवों का उपपात ३१६७ भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! असंख्यात वर्ष की स्थिति वाला संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच, वाणव्यन्तर में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? २ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक पल्योपम की स्थिति वाले वाणव्यन्तर में उत्पन्न होता है। शेष नागकुमार उद्देशक के अनुसार, यावत् कालादेश से जघन्य सातिरेक पूर्वकोटि अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार पल्योपम तक यावत् गमनागमन करता है १।। ३-सो चेव जहण्णकालटिईएसु उववण्णो जहेव णागकुमाराणं बिइयगमे वत्तव्वया २। भावार्थ-३-यदि वह जघन्य काल की स्थिति वाले वाणव्यन्तर में उत्पन्न होता है, तो नागकुमार के दूसरे गमक में कही हुई वक्तव्यता जाननी चाहिये २। ४-सो चेव उक्कोसकालटिईएसु उववण्णो जहण्णेणं पलिओवमट्टिईएसु, उक्कोसेण वि पलिओवमट्टिईएसु एस चेव वत्तव्वया । णवरं ठिई से जहण्णेणं पलिओवमं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओ. वमाइं । संवेहो जहण्णेणं दो पलिओवमाई, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओ. वमाइं-एवइयं० ३ । मज्झिमगमगा तिण्णि वि जहेव णागकुमारेसु पच्छिमेसु तिसु गमएसु तं चेव जहा णागकुमारुहेसए । णवरं ठिई संवेहं च जाणेजा । संखेजावासाउय० तहेव, णवरं ठिई अणुवंधो संवेहं च उभओ ठिईए जाणेजा। For Personal & Private Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६८ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २२ वाणव्यंतर देवों का उपपात भावार्थ-४ यदि वह उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले वाणव्यन्तर में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम की स्थिति वाले वाणव्यन्तरं में उत्पन्न होता है, इत्यादि पूर्वोक्त वक्तव्यतानुसार । स्थिति जघन्य पल्योफ्म और उत्कृष्ट तीन पल्योपम को जाननी चाहिये । संवेध-जघन्य दो पल्योपम और उत्कृष्ट चार पल्योपम ३ । मध्य के तीन गमक और अन्तिम तीन गमक नागकुमार उद्देशक के अनुसार । स्थिति और संवेध उससे भिन्न जानना चाहिये। संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच के विषय में भी उसी प्रकार जानना चाहिये, किंतु स्थिति और अनुबन्ध भिन्न है। संवेध, दोनों की स्थिति को मिला कर जानना चाहिये। ५-जइ मणुस्स० असंखेजवासाउयाणं जहेच णागकुमाराणं उद्देसे तहेव वत्तव्वया । णवरं तइयगमए ठिई जहण्णेणं पलिओवमं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं । ओगाहणा जहण्णेणं गाउयं, उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई, सेसं तहेव । संवेहो से जहा एत्थ चेव उद्देसए असंखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियाणं । संखेजवासाउयसण्णिमणुस्से जहेब णागकुमारुद्देसए । णवरं वाणमंतरे ठिई संवेहं च जाणेजा। 8 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति ® ॥ चउवीसइमे सए बावीसइमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-५ यदि वे वाणव्यन्तर देव, मनुष्य से आ कर उत्पन्न होते हैं, तो नागकुमार उद्देशक के असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य के समान । तीसरे गमक में स्थिति जघन्य पल्योफ्म और उत्कृष्ट तीन पल्योपम । अवगाहना For Personal & Private Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ नं. २२ वाणव्यंतर देवों का उपपात जघन्य एक गाऊ और उत्कृष्ट तौन गाऊ, शेष पूर्ववत् । संवेध इसी उद्देशक में असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच के समान । संख्यात वर्ष के आयु वाले संज्ञो मनुष्य के विषय में नागकुमार उद्देशक के अनुसार, परन्तु वाणव्यन्तर की स्थिति और संवेध उससे भिन्न जानना चाहिये । भगवन् ! यह इसी प्रकार है 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । ३१६९ विवेचन-वाणव्यन्तर देवों के प्रकरण में असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेंद्रियों के अधिकार में उत्कृष्ट चार पल्योपम का जो कथन किया है, वहां संज्ञी पञ्चेंद्रिय तिर्यंच/ की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम और वाणव्यन्तर देव को एक पल्योपम, इस प्रकार दोनों स्थिति को मिलाकर चार पल्योपम का संबंध जानना चाहिये । नागकुमार के दूसरे गमक को वक्तव्यता प्रथम गमक के समान है, परन्तु यहां जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति दस हजार वर्ष की जाननी चाहिये । संवेध - कालादेश से जघन्य दस हजार वर्षं अधिक सातिरेक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष अधिक तीन पत्योपम का जानना चाहिये । तीसरे गमक में जघन्य स्थिति पल्योपम की होती है । यद्यपि असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों की जघन्य स्थिति सातिरेक पूर्वकोटि वर्ष की होती है, तथापि यहां पत्योपम की कही है, इसका कारण यह है कि वह पल्योपम की आयु वाले वाणव्यन्तर देवों में उत्पन्न होने वाला है और असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच अपनी आयु से अधिक आयु वाले देवों में उत्पन्न नहीं होते, यह बात पहले कही जा चुकी हैं । ॥ चौबीसवें शतक का बाईसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४ उद्देशक २३ ज्योतिषी देवों का उपपात स । १ प्रश्न-जोइसिया णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति ? किं णेग्इए ? १ उत्तर-भेदो जाव सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उव. . वजंति, णो असण्णिपंचिंदियतिरिक्ख० । भावार्थ-१ प्रश्न-ज्योतिषौ देव कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं ? नैरयिक, इत्यादि से ? १ उत्तर-भेद यावत् वे संज्ञो पञ्चेन्द्रिय तिर्यच से आ कर उत्पन्न होते हैं, असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच से आ कर उत्पन्न नहीं होते। २ प्रश्न-जइ सण्णि० किं संखेज०, असंखेज ? २ उत्तर-गोयमा ! संखेजवासाउय०, असंखेजवासाउय० । भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यच से आ कर उत्पन्न होते हैं, तो क्या संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच से आ कर उत्पन्न होते हैं या असंख्यात वर्ष की आयु वाले से ? २ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात वर्ष और असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच से आ कर उत्पन्न होते हैं। ३ प्रश्न-असंखेज-वासाउय-सण्णिपंचिंदिय-तिरिक्खजोणिए णं For Personal & Private Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ 3 ३२ ज्योतिषी देवों का उपपात ३१७१ भंते ! जे भविए जोइसिएसु उवजित्तए से णं भंते ! केवइ० ? ____३ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमट्टिईएसु, उकोसेणं पलिओवमवाससयसहस्सट्टिईएसु उववजइ, अवसेसं जहा असुरकुमारुद्देसए । णवरं ठिई जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं । एवं अणुबंधो वि, सेसं तहेव । णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं दो अट्ठभागपलिओवमाई, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाइं वाससयसहस्समभहियाइं-एवइयं ० १ । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! असंख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक ज्योतिषी में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले ज्योतिषी में उत्पन्न होता है ? .. ३ उत्तर-हे गौतम ! वह जघन्य पल्योपम के आठवें भाग और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की स्थिति वाले ज्योतिषी में उत्पन्न होता है, शेष असुरकुमार उद्देशक के अनुसार । स्थिति जघन्य पल्योपम के आठवें भाग और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है और इसी प्रकार अनुबन्ध भी होता है, शेष पूर्ववत् । कालादेश से जघन्य पल्योपम के दो आठवें भाग और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक चार पल्योपम तक यावत् गमनागमन करता है ।। ४-सो चेव जहण्णकालटिईएसु उववण्णो, जहण्णेणं अटुभागपलिओवमट्टिईएसु, उक्कोसेण वि अट्ठभागपलिओवमट्टिईएसु एस चेव वत्तव्वया । णवरं कालादेसेणं जाणेजा २। भावार्थ-४ यदि वह संज्ञी पंचेंद्रिय तियंच जघन्य काल की स्थिति वाले For Personal & Private Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ २३ ज्योतिपी देवों का उपपात ज्योतिषी में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट पत्योपम के आठवें भाग की स्थिति वाले ज्योतिषी में उत्पन्न होता है, इत्यादि पूर्वानुसार । कालादेश इससे भिन्न है २ । ३१७२ ५- सो चैव उक्कोसका लट्टिईएसु उववण्णो, एम चैव वत्तव्वया । णवरं ठिई जहणेणं पलिओवमं वाससयसहस्समम्भहियं, उक्कोसेणं तिष्णि पलिओ माई | एवं अणुबंधो वि । कालादेसेणं जहणेणं दो पलिओ माई दोहिं वासस्यसहस्सेहिं अमहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओ माई वासस्यसहस्समम्भहियाई ३ । भावार्थ - ५ - यदि वह संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, उत्कृष्ट स्थिति वाले ज्योतिषी में उत्पन्न हो, तो भी यही वक्तव्यता । स्थिति और अनुबन्ध जघन्य एक लाख वर्ष अधिक पत्योपम और उत्कृष्ट तीन पत्योपम । कालादेश से जघन्य दो लाख वर्ष अधिक दो पत्योपम और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक चार पत्योपम ३ । ६ - सो चेव अप्पणा जहणकालट्ठिईओ जाओ, जहण्णेणं अट्टभागपलिओवमट्टिईएस, उक्कोसेण वि अट्टभागपलिओवमट्टिईएसु उबवज्जिज्जा ४ । भावार्थ - ६ - यदि वह संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो और ज्योतिषी में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट पत्योपम के आठवें भाग की स्थिति वाले ज्योतिषी में उत्पन्न होता है ४ । ७ प्रश्न - ते णं भंते ! जीवा० ? For Personal & Private Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ २३ ज्योतिषी देवों का उपपात ७ उत्तर - एस चैव वत्तव्वया । णवरं ओगाहणा जहण्णेणं धणुपुहुत्तं, उक्कोसेणं साइरेगाईं अट्ठारसधणुसयाई । टिई जहणेणं अनुभागपलिओवमं, उक्कोसेण वि अट्ठभागपलिओवमं । एवं अणुबंधोऽवि, सेसं तहेव । कालादेसेणं जहणेणं दो अट्टभागपलिओ वमाई, उक्कोसेण वि दो अनुभागपलिओ माई - एवइयं ० । जहण्णकालईस्स एस चेव एको गमो ६ । ३१७३ भावार्थ - ७ प्रश्न - हे भगवन् ! वे असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ७ उत्तर - हे गौतम! पूर्वोक्त वक्तव्यतानुसार । अवगाहना जघन्य धनुष पृथक्त्व और उत्कृष्ट सातिरेक अठारह सौ धनुष । स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम के आठवें भाग, शेष पूर्ववत् । कालादेश से जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम के दो आठवें भाग । जघन्य काल की स्थिति वाले के लिये यह एक ही गमक होता है ६ । . ८ - सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाओ, सा चेक ओहिया बत्तव्वया । णवरं ठिई जहण्णेणं तिष्णि पलिओ माई, कोसे व तिष्ण पलिओमाई । एवं अणुबंधो वि. सेसं तं चैव । एवं पच्छिमा तिष्णि गमगा णेयव्वा । णवरं ठिडं संवेहं च जाणेजा। एए सत्त गमगा । भावार्थ - ८ - यदि वह असंख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच, स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो और ज्योतिषों में उत्पन्न हो, तो For Personal & Private Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७४ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २३ ज्योतिपी देवों का उपपात औधिक गमक के समान । परन्तु स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम, शेष पूर्ववत् । इस प्रकार अन्तिम तीन गमक जानने चाहिये । स्थिति और संवेध भिन्न है । ये सात गमक हुए ७। ९ प्रश्न-जइ संखेजवासाउयसण्णिपंचिंदिय० ? ९ उत्तर-संखेजवासाउयाणं जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणाणं तहेव णव वि गमा भाणियव्वा । णवरं जोइसियठिइं संवेहं च जाणेजा, सेसं तहेव गिरवसेसं भाणियव्वं ९ । भावार्थ-९ प्रश्न-यदि वह संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिथंच से आ कर उत्पन्न हो, तो ? ९ उत्तर-असुरकुमार में उत्पन्न होने वाले संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञो पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच के समान नौ गमक जानना चाहिये । स्थिति और संवेध उनसे भिन्न है । शेष पूर्ववत् १ से ९। १० प्रश्न-जइ मणुस्सेहिंतो उववज्जति ? १० उत्तर-भेदो तहेव । जावभावार्थ-१० प्रश्न-यदि वे मनुष्य से आ कर उत्पन्न होते हैं, तो ? १० उत्तर-पूर्वोक्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच के समान । ११ प्रश्न-असंखेजवासाउयसण्णिमणुस्से णं भंते ! जे भविए जोइसिएसु उववजित्तए से णं भंते !० ? ११ उत्तर-एवं जहा असंखेन्जवासाउयसण्णिपंचिंदियस्स जोइ. For Personal & Private Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ २४ ज्योतिपी देवों का उपपात ३१७५ सिएसु चेव उववजमाणस्म सत्त गमगा तहेव मणुस्साण वि । णवरं ओगाहणाविसेसो । पढमेसु तिसु गमएसु ओगाहणा जहण्णेणं साइ. रेगाइं णव धणुसयाई, उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई। मज्झिमगमए जहण्णेणं साइरेगाई णव धणुसयाई, उक्कोसेण वि साइरेगाई णव धणुसयाई । पच्छिमेसु तिसु गमएसु जहणेणं तिणि गाउयाई उक्कोसेण वि तिण्णि गाउयाई । सेसं तहेव गिरवसेसं जाव 'संवेहो' त्ति । । भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन ! असंख्य वर्ष की आय वाला संज्ञी मनुष्य, ज्योतिषी में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? । ११ उत्तर-हे गौतम ! ज्योतिषी में उत्पन्न होने वाले असंख्य वर्ष की आयु वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच के सात गमक के समान, मनुष्य के विषय में भी सात गमक जानना चाहिये, परन्तु अवगाहना में विशेषता है। प्रथम के तीन गमक में अवगाहना जघन्य सातिरेक नौ सौ धनुष और उत्कृष्ट तीन गाऊ की होती है । मध्य के तीन गमक में जघन्य और उत्कृष्ट सातिरेक नौ सौ धनुष होती है । अन्तिम के तीन गमक में जघन्य और उत्कृष्ट तीन गाऊ है । शेष यावत् संवेध तक उसी प्रकार है। . १२ प्रश्न-जइ संखेजवासाउयसण्णिमणुस्से ० ? १२ उत्तर-संखेजवासाउयाणं जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणाणं तहेव णव गमगा भाणियव्वा । णवरं जोइसियठिई संवेहं च जाणेजा, सेसं तं चेव गिरवसेसं । ® 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति ®. ॥ चउवीसइमे सए तेवीसइमो उद्देसो समत्तो ॥ For Personal & Private Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र - दा. २४ उ. २३ ज्योतिपी देवों का उपपात १२ प्रश्न - यदि वह संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य से आ कर उत्पन्न होता हूँ, तो ? ३१७६ १२ उत्तर-असुरकुमार में उत्पन्न होने वाले संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य के समान नौ गमक जानना चाहिये, किंतु ज्योतिषी को स्थिति और संवेध भिन्न है, शेष पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - पल्योपम के दो आठवें भाग जो कहा है, उसमें से एक तो असंख्यात वर्षायु सम्बन्धी और दूसरा तारा ज्योतिषी सम्बन्धी है और उत्कृष्ट जो एक लाख वर्ष अधिक चार पल्योपम कहे हैं, उनमें से तीन पल्योपम तो असंख्यात वर्ष की आयु सम्बन्धी हैं और सातिरेक एक पल्योपमं चन्द्र विमानवासी ज्योतिषी सम्बन्धी है। तीसरे गमक में स्थिति जघन्य एक लाख वर्ष अधिक पत्योपम की कही है, सो यद्यपि असंख्यात वर्ष की आयु वालों की जघन्य स्थिति सातिरेक पूर्वकोटि होती है, तथापि यहां एक लाख वर्ष अधिक - पत्योपम कहा है, इसका कारण यह है कि वह इतनी ही स्थिति वाले ज्योतिषौ में उत्पन्न होने वाला है, क्योंकि असंख्यात वर्ष की आयु वाले जीव, अपनी आयु से अधिक आयु वाले देव में उत्पन्न नहीं होते हैं। यह पहले बताया जा चुका है। चौथे गमक में जघन्य काल की स्थिति वाले की उत्पत्ति औधिक ज्योतिषी में बताई है, सो असंख्यात वर्ष की आयु वाला तो पल्योपम के आठवें भाग से कम जघन्य आयु वाला हो सकता है, किन्तु ज्योतिषी में इससे कम आयु नहीं है । असंख्येय वर्षायुष्क अपनी आयु के तुल्य उत्कृष्ट देवायु बन्धक होते हैं । इसलिये जघन्य स्थिति वाले वे पल्योपम के आठवें भाग आयु वाले होते हैं । प्रथम कुलकर विमलवाहन के पूर्व काल में होने वाले हस्ती आदि की यह स्थिति थी । इसी प्रकार के औधिक ज्योतिषी भी उस उत्पत्ति स्थान को प्राप्त होते हैं । यहाँ जो जघन्य अवगाहना धनुष-पृथक्त्व कही है, वह विमलवाहन कुलकर से पहले होने वाले पल्योपम के आठवें भाग की स्थिति वाले हस्त्यादि से भिन्न क्षुद्रकाय चतुष्पदों की अपेक्षा समझनी चाहिये और उत्कृष्ट अवगाहना सातिरेक अठारह सौ धनुष की कही है, वह विमलवाहन कुलकर से पूर्व होने वाले हस्त्यादि की अपेक्षा समझनी चाहिये। क्योंकि विमलवाहन कुलकर की अवगाहना नो सो धनुष थी और उस समय में होने वाले हस्ती आदि की अवगाहना For Personal & Private Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ २३ ज्योतिपी देवों का उपपात ३१७७ उससे दुगुनी थी, तथा उससे पहले समय में होने वाले हस्ती आदि की अवगाहना सातिरेक अठारह सौ धनुष थी। चौथे गमक का जो कथन किया गया है, उसी में पांचवें और छठे गमक का अन्तर्भाव कर दिया गया है। क्योंकि पत्योपम के आठवें भाग की आय वाले युगलिक तिर्यचों की पाँचवें और छठे गमक में भी पल्योपम के आठवें भाग की ही आयु होती है । सप्तमादि गमकों में तिर्यंच की तीन पल्योपम की स्थिति उत्कृष्ट ही है और ज्योतिषी देव की तो सातवें गमक में जघन्य और उत्कृष्ट यह दो प्रकार की स्थिति होती है । आठवें गमक में स्थिति पल्योपम के आठवें भाग और नौवें गमक में सातिरेक पल्योपम होती है । इसी के अनुसार सवेध करना चाहिये । इस प्रकार पहला, दूसरा और तीसराये प्रथम तीन गमक, मध्य के तीन गमकों के स्थान में एक ही गमक और अन्तिम तीन गमक, इस प्रकार ये सात गमक होते हैं । असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य के अधिकार में अवगाहना जो सातिरेक नौ सौ धनुष की बताई गई है, वह विमलवाहन कुलकर के पूर्वकालीन मनुष्यों की अपेक्षा समझनी चाहिये और तीन गाऊ की अवगाहना सुषमसुषमा नामक प्रथम आरे में होने वाले युगलिक मनुष्यों की या देवकुरु आदि की अपेक्षा समझनी चाहिये । पूर्वोक्त रीति से मनुष्य के विषय में भी यहां सात ही गमक बताये गये हैं। ॥ चौबीसवें शतक का तेईसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४ उद्देशक २४ AWARRIME वैमानिक देवों का उपपात १ प्रश्न-सोहम्मदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति ? किं णेरइएहिंतो उववज्जति ? १ उत्तर-भेदो जहा जोइसियउद्देसए । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन ! सौधर्म देव, किस गति से आ कर उत्पन्न होते हैं ? नरयिक से, तियंच, मनुष्ये या देव से आ कर उत्पन्न होते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! पूर्वोक्त ज्योतिषी उद्देशक के अनुसार भेद जानना चाहिये। २ प्रश्न-असंखेज-यासाउय-सण्णिपंचिंदिय-तिरिक्खजोणिए णं भंते!जे भविए सोहम्मगदेवेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइयकाल ? .. २ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमट्टिईएसु, उक्कोसेणं तिपलिओवमट्टिईएसु उववज्जेजा। ___ भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! असंख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञो पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? २ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य पल्योपम भौर उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले सौधर्म देव में उत्पन्न होता है। For Personal & Private Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २४ वैमानिक देवों का उपपात ३ प्रश्न-ते णं भंते ! ३ उत्तर-अवसेसं जहा जोइसिएसु उववजमाणस्स । णवरं सम्मदिट्ठी वि, मिच्छादिट्ठी वि, णो सम्मामिच्छादिट्टी । णाणी वि, अण्णाणी वि, दो णाणा दो. अण्णाणा णियमं । ठिई जहणेणं पलिओवमं, उक्कोसेणं तिष्णि पलिओमाई । एवं अणुबंधो वि, सेसं तहेव । कालादेसेणं जहण्णेणं दो पलिओवमाई, उक्कोसेणं छप्पलिओ. वमाइं-एवइयं० १। ___ भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते है ? ३ उत्तर-ज्योतिषी में उत्पन्न होने वाले असंख्यात वर्ष की आय वाले संज्ञी तिर्यंचों के समान । वे समदृष्टि और मिथ्यादृष्टि भी होते हैं, परन्तु सम्यमिथ्यादृष्टि नहीं होते । ज्ञानी और अज्ञानी भी होते हैं। उनमें दो ज्ञान या दो अज्ञान नियम से होते हैं। उनकी स्थिति जघन्य एक पल्योपम और उत्कृष्ट तीन पल्योपम होती है। इसी प्रकार अनुबन्ध भी, शेष पूर्ववत् । कालादेश से जघन्य दो पल्योपम और उत्कृष्ट छह पल्योपम १।। ४-सो चेव जहण्णकालट्टिईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया । णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं दो पलिओवमाई, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाइं-एवइयं० २। ___ भावार्थ-४-यदि वह असंख्येय वर्षायुष्क संज्ञो पंचेन्द्रिय तिर्यच, जघन्य काल को स्थिति वाले सौधर्म देव में उत्पन्न हो, तो उसके लिये यही वक्तव्यता है। कालादेश से जघन्य दो पल्योपम और उत्कृष्ट चार पल्योपम तक यावत् गमनागमन करता है २। , For Personal & Private Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८० भगवती सूत्र-स. २४ उ. २४ वैमानिक देवों का उपपात ५-सो चेव उक्कोसकालट्टिईएसु उववरणो जहणेणं तिपलि. ओवम०, उक्कोसेण वि तिपलिओवम०-एस चेव वत्तव्वया । णवरं ठिई जहणेणं तिण्णि पलिओवमाई, उक्कोसेण वि तिण्णि पलिओ. वमाइं, सेसं तहेव । कालादेसेणं जहण्णेणं छप्पलिओवमाई, उकोसेण वि छप्पलिओवमाइं-एवइयं० ३। भावार्थ-५ यदि वही जीव, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले सौधर्म देव में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले सौधर्म देव में उत्पन्न होता है, इत्यादि पूर्वोक्त वक्तव्यतानुसार । परन्तु स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम, शेष पूर्ववत् । कालादेश से जघन्य और उत्कृष्ट छह पल्योपम काल तक यावत् गमनागमन करता है ३ । ६-सो चेव अप्पणा जहण्णकालटिईओ जाओ, जहण्णेणं पलिओवमट्टिईएसु, उक्कोसेण वि पलिओवमट्टिईएसु०, एस चेव वत्तव्वया । णवर ओगाहणा जहण्णेणं धणुपहत्तं, उक्कोसेणं दो गाउयाई । ठिई जहण्णेणं पलिओवमं, उक्कोसेण वि पलिओवम, सेसं तहेव । कालादेसेणं जहण्णेणं दो पलिओवमाइं, उकोसेण वि दो पलिओवमाइं-एवइयं०६। __ भावार्थ-६ यदि वह स्वयं जघन्य स्थिति वाला हो और सौधर्म देव में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम की स्थिति वाले सौधर्म देव में उत्पन्न होता है । उसके लिये भी पूर्वोक्त वक्तव्यतानुसार जानो। किन्तु अव. गाहना जघन्य धनुष-पृथक्त्व और उत्कृष्ट दो गाऊ होती है। स्थिति जघन्य और For Personal & Private Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २८ वैमानिक देवों का उपपात ३१८१ उत्कृष्ट दो पल्योपम, शेष पूर्ववत् । कालादेश से जघन्य और उत्कृष्ट दो पल्योपम तक यावत् गमनागमन करता है ४ । ___-सो चेव अप्पणा उक्कोसकालढिईओ जाओ, आदिल्लगमगसरिसा तिण्णि गमगा णेयव्वा । णवरं ठिई कालादेसं च जाणेजा ९ । भावार्थ-७ यदि वह स्वयं उत्कट स्थिति वाला हो, तो उसके अन्तिम तीन गमक का कथन प्रथम के तीन गमक के समान जानना चाहिये, विशेष में स्थिति और कालादेश जानना चाहिये ७-८-९ । ८ प्रश्न-जइ संखेजवासाउयसण्णिपंचिंदिय० ? ८ उत्तर-संखेजवासाउयस्स जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स तहेव णव वि गमा । णवरं ठिइं संवेहं च जाणेजा। जाहे य अप्पणा जहण्णकालढिईओ भवइ ताहे तिसु वि गमएसु सम्मदिट्ठी वि, मिच्छादिट्ठी वि णो समामिच्छादिट्ठी । दो णाणा दो अण्णाणा णियमं, सेसं तं चेव । भावार्थ-८ प्रश्न-यदि वह सौधर्म देव, संख्यात वर्ष की आयु वाले संजी पंचेंद्रिय तिर्यंच से आ कर उत्पन्न हो, तो ? ८ उत्तर-असुरकुमार में उत्पन्न होने वाले संख्यात वर्ष की आयु वाले तिथंच के समान नौ गमक जानने चाहिये, किन्तु यहां स्थिति और संवेध जानना चाहिये । जब वह स्वयं जघन्य स्थिति वाला हो, तो तीनों गमक में सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि होता है, सम्यमिथ्यादृष्टि नहीं होता । दो. ज्ञान या दो अज्ञान नियम से होते हैं । शेष पूर्ववत् । For Personal & Private Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८२ भगवती मूत्र-श. २४ उ. २४ वैमानिक देवों का उपपात ९ प्रश्न-जइ मणुस्सेहिंतो उववज्जति ? ९ उत्तर-भेदो जहेव जोइसिपसु उववजमाणस्स । जाव भावार्थ-९ प्रश्न-यदि वह सौधर्म देव, मनुष्य से आ कर उत्पन्न होता है, तो? ९ उत्तर-ज्योतिषी में उत्पन्न होने वाले संज्ञी मनुष्य के समान वक्तव्यता जाननी चाहिए । यावत् १० प्रश्न-असंखेजवासाउयसणिमणुस्से णं भंते ! जे भविए सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववजित्तए० ? . १० उत्तर-एवं जहेव असंखेजवासाउयस्स सण्णिपंचिंदियतिरिक्ख जोणियस्स सोहम्मे कप्पे उववजमाणस्स तहेव सत्त गमगा। णवरं आदिल्लएसु दोसु गमएसु ओगाहणा जहण्णेणं गाउयं, उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई । तइयगमे जहण्णेणं तिण्णि गाउयाई, उक्को. सेण वि तिण्णि गाउयाइं । चउत्थगमए जहण्णेणं गाउयं, उक्कोसेण वि गाउयं । पच्छिमएसु तिसु गमएसु जहण्णेणं तिण्णि गाउयाई, उक्को. सेण वि तिण्णि गाउयाई । सेसं तहेव गिरवसेसं ९। ___ भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! असंख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञी मनुष्य सौधर्म देव में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? १० उत्तर-हे गौतम ! सौधर्मकल्प में उत्पन्न होने वाले असंख्य वर्ष की आयु वाले संज्ञो पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च के समान सातों गमक जानना चाहिये, परन्तु प्रथम के दो गमक में अवगाहना जघन्य एक गाऊ और उत्कृष्ट तीन गाऊ होती है। तीसरे गमक में जघन्य और उत्कृष्ट तीन गाऊ, चौथे गमक में जघन्य For Personal & Private Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ २४ वैमानिक देवों का उपपात ३१८३ . . . . . और उत्कृष्ट एक गाऊ और अन्तिम तीम गमक में जघन्य और उत्कृष्ट तीन गाऊ होती है । शेष पूर्ववत् । . ११ प्रश्न-जइ संखेजवासाउयसण्णिमणुस्से हितो. ? ११ उत्तर-एवं संखेजवामाउयसण्णिमणुस्साणं जहव असुरकुमारेसु उववज्जमाणाणं तहेव णव गमगा भाणियव्वा । णवरं सोहम्मदेवट्टिई संवेहं च जाणेजा, सेसं तं चेव ९ । ___ भावार्थ-११ प्रश्न-यदि वह सौधर्म देव, संख्यात वर्ष के आयु वाले संज्ञो मनुष्य से आ कर उत्पन्न होता है ? . ११ उत्तर-असुरकुमार में उत्पन्न होने वाले संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य के समान नौ गमक जानना चाहिये। विशेष यह है कि यहां सौधर्म देव की स्थिति और संवेध उससे भिन्न है, शेष पूर्ववत् । १ से ९। . १२ प्रश्न-ईसाणदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति ? १२ उत्तर-ईसाणदेवाणं एस चेव सोहम्मगदेवसरिसा वत्तब्धया । णवरं असंखेनवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स जेसु ठाणेसु सोहम्मे उववजमाणस्स पलिओवमठिई तेसु ठाणेसु इह साइरेगं पलिओवमं कायव्वं । चउत्थगमे ओगाहणा-जहण्णेणं धणुपहत्तं, उकोसेणं साइरेगाइं दो गाउयाई, सेसं तहेव ९ । भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! ईशान देव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? १२ उत्तर-हे गौतम ! ईशान देव की वक्तब्धता, सौधर्म देव के समान है। जिन स्थानों में असंख्यात वर्ष के आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच की स्थिति For Personal & Private Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८४ भगवती मूत्र-श. २४ उ. २४ वैमानिक रेवों का उपपात पल्योपम कही है, वहां सातिरेक पल्योपम जानना चाहिये । चौथे गमक में अवगाहना जघन्य धनुष पृथक्त्व और उत्कृष्ट सातिरेक दो गाऊ होती है । शेष पूर्ववत् । __ १३-असंखेजवासाउयसण्णिमणुस्स वि तहेव टिई जहा पंचिं. दियतिरिक्खजोणियस्स असंखेजवासाउयस्स । ओगाहणा वि जेसु ठाणेसु गाउयं तेसु ठाणेसु इहं साइरेगं गाउयं, सेसं तहेव ९ । .. भावार्थ-१३-असंख्य वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य की स्थिति, असंख्य वर्ष की आयु वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच के समान । जघन्य अवगाहना सातिरेक गाऊ जाननी चाहिये । शेष पूर्ववत् । १४-संखेन्जवासाउयाणं तिरिक्खजोणियाणं मणुस्साण य जहेव सोहम्मेसु उववजमाणाणं तहेव गिरवसेसं णव वि गमगा । णवरं ईसाणठिइं संवेहं च जाणेजा १ । भावार्थ-१४-सौधर्म देव में उत्पन्न होने वाले संख्याल वर्ष की आय वाले तिर्यंच और मनुष्य के विषय में जो नौ गमक कहे हैं, वे ही ईशान देव के विषय में भी हैं, स्थिति और संवेध ईशान देव का जानना चाहिये। विवेचन-सौधर्म देवलोक में जघन्य स्थिति पल्योपम से कम की नहीं होती, इसलिये वहाँ उत्पन्न होने वाला जीव, जघन्य पल्योपम की स्थिति में उत्पन्न होता है तथा उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति में उत्पन्न होता है, यद्यपि सौधर्म देवलोक में इसमे भी बहुत अधिक स्थिति है, तथापि युगलिक तिर्यच उत्कृष्ट तीन पल्योपम की आयु वाले ही होते हैं । अतः वे इससे अधिक देवायु का बन्ध नहीं करते । दो पल्योपम का जो कथन किया है, उनमें से एक पल्योपम तिर्यंच-भव सम्बन्धी और एक पल्योपम देव-भव सम्बन्धी समझना चाहिये तथा उत्कृष्ट छह पल्योपम का जो कथन है उसमें तीन पल्योपम तिर्यंचभव के और तीन पल्योपम देव-भव के समझना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २४ वैमानिक देवों का उपपात ३१८५ जघन्य अवगाहना जो धनुप-पृथक्त्व कही, वह क्षुद्रकाय चतुष्पद (छोटे शरीर वाले चौपाये) की अपेक्षा समझनी चाहिये और उत्कृष्ट दो गाऊ की कही है, सो जिस काल में और जिस क्षेत्र में एक गाऊ के मनुष्य होते हैं, उस क्षेत्र के हस्ती आदि की अपेक्षा समझनी चाहिये । संख्येय वर्षायुष्क पञ्चन्द्रिय तिर्यंच के अधिकार में मिश्रदृष्टि का निषेध किया है, क्योंकि जघन्य स्थिति वाले में मिश्रदृष्टि नहीं होता । उत्कृष्ट स्थिति वालों में तीनों दृष्टि होती हैं। यही बात ज्ञान और अज्ञान के विषय में भी समझनी चाहिये। पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच के अधिकार में प्रथम के दो गमक में सर्वत्र जघन्य अवगाहना धनुष-पृथक्त्व और उत्कृष्ट छह गाऊ की कही है, किन्तु यहां मनुष्य के प्रकरण में, पहले दूसरे गमक में जघन्य एक गाऊ और उत्कृष्ट तीन गाऊ की कही है । तिर्यंच के तीसरे गमक में जघन्य धनुः-पृथक्त्व और उत्कृष्ट छह गाऊ की, कही है । यहां जघन्य और उत्कृष्ट तीन गाऊ की कही है । चौथे गमक में तिर्यंच में जघन्य धनुष-पृथक्त्व और उत्कृष्ट दो गाऊ कही हैं, किन्तु यहां तो जघन्य और उत्कृष्ट एक गाऊ की कही है । इसी प्रकार दूसरे गमकों में भी समझना चाहिये । ईशान देव के अधिकार में जघन्य स्थिति सातिरेक पल्योपम कही है, क्योंकि वहां यही जघन्य स्थिति है । इस स्थिति वाले सुषमा आरा में उत्पन्न क्षुद्रतर काय वाले तिर्यच को अपेक्षा अवगाहना जघन्य धनुष-पृथक्त्व कही है। जिस काल और क्षेत्र में मनुष्य की अवगाहना सातिरेक गाऊ होती है, उस काल के हस्ती आदि को अवगाहना सातिरेक दो गाऊ होती है । इस प्रकार सौधर्म-देव के अधिकार में जिन स्थानों में अवगाहना एक गाऊ कही है, वहां ईशान-देवाधिकार में सातिरेक गाऊ जाननी चाहिये, क्योंकि उनकी सातिरेक पल्योपम की जघन्य स्थिति के अनुसार ही अवगाहना भी होती है। सौधर्म-देवलोक में उत्पन्न होने वाले असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच और मनुष्य में अर्थात् युगलिक तिर्यंच और मनुष्य में सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि ये दो दृष्टियां बताई हैं । इससे पूर्व अर्थात् भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी में उत्पन्न होने वाले युगलिक मनुष्य और तिर्यंच में एक मिथ्यादृष्टि ही बताई है। इससे यह स्पष्ट होता है कि युगलिक में दृष्टि का परिवर्तन नहीं होता, तथा सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिर्यंच एकमात्र वैमानिक देव का ही आयु बांधते हैं । अतः ज्योतिषी तक मिथ्यादृष्टि युगलिक ही उत्पन्न होते हैं और पहले-दूसरे देवलोक में उत्पन्न होने वाले युगलिकों में दोनों (मिथ्या और सम्यग्) दृष्टियाँ होती है। For Personal & Private Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८६ भगवती सूत्र-श २४ उ. २४ वैमानिक देवों का उपपात १५ प्रश्न-सणंकुमारदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति ? १५ उत्तर-उववाओ जहा सकरप्पभापुढविणेरइयाणं । जावभावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! सनत्कुमार देव कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? १५ उत्तर-हे गौतम ! उपपात शर्कराप्रभा के नैरयिक के समान है। यावत् १६ प्रश्न-पज्जत्तसंखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए सणंकुमारदेवेसु उववजित्तए० ? १६ उत्तर-अवसेसा परिमाणादीया भवादेसपज्जवसाणा सच्चेव वत्तव्वया भाणियव्वा जहा सोहम्मे उववजमाणस्स । णवरं सणंकुमारद्विइं संवेहं च जाणेजा । जाहे य अप्पणा जहण्णकालट्टिईओ भवइ ताहे तिसु वि गमएसु पंच लेस्साओ आदिल्लाओ कायवाओ, सेसं तं चेव ९। भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! संख्यात वर्ष की आय वाला पर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तियंच, सनत्कुमार देव में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले सनत्कुमार देव में उत्पन्न होता है ? १६ उत्तर-परिमाण से ले कर भवादेश तक की सभी वक्तव्यता, सौधर्मकल्प में उत्पन्न होने वाले संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी तिथंच के समान जाननी चाहिये, परन्तु सनत्कुमार को स्थिति और संवेध उससे भिन्न जानना चाहिये । जब वह जघन्य स्थिति वाला होता है, तब तीनों ही गमक में प्रथम को पांच लेश्याएं होती हैं । शेष पूर्ववत् १ से ९ । १७ प्रश्न-जइ मणुस्सेहिंतो उववज्जंति ? For Personal & Private Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २४ वैमानिक देवों का उपपात ३१८७ १७ उत्तर-मणुस्माणं जहेव सकरप्पभाए उववजमाणाणं तहेव णव वि गभा भाणियव्वा। णवरं सणंकुमारढ़िई संवेहं च जाणेजा ९। भावार्थ-१७ प्रश्न-यदि सनत्कुमार देव, मनुष्य से आ कर उत्पन्न हो, तो? १७ उत्तर-शर्कराप्रभा में उत्पन्न होने वाले मनुष्य के समान नौ गमक जानना चाहिये, किन्तु सनत्कुमार की स्थिति और संवेध उससे भिन्न जानना चाहिये १ से ९ । १८ प्रश्न-माहिंदगदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति ? १८ उत्तर-जहा सणंकुमारगदेवाणं वत्तव्वया तहा माहिंदगदेवाण वि भाणियव्वा 1 णवरं माहिंदगदेवाणं ठिई साइरेगा भाणियव्वा सच्चेव । एवं बंभलोगदेवाण वि वत्तव्वया। णवरं बंभलोगट्टिई संवेहं च जाणेजा । एवं जाव सहस्मारो । णवरं ठिई संवेहं च जाणेजा लंतगादीणं जहण्णकालटिईयस्स तिरिक्ख जोणियस्स तिसु वि गमएसु छप्पि लेस्साओ कायवाओ । संघयणाई बंभलोग-लंतएसु पंच आदिल्लगाणि, महासुक्कसहस्सारेसु चत्तारि । तिरिक्खजोणियाण वि मणुस्साण वि, सेसं तं चेव ९। भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! माहेन्द्र देव कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं ? . १८ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार सनत्कुमार देव को वक्तव्यता कही. उसी प्रकार माहेन्द्र देव की भी जाननी चाहिये, किन्तु माहेन्द्र देव की स्थिति, सनत्कुमार देव से सातिरेक जाननी चाहिये । इसी प्रकार ब्रह्मलोक के देव की वक्तव्यता है । स्थिति और संवेध ब्रह्मलोक का जानना चाहिये । इसी प्रकार यावत् सहस्रार देवलोक पर्यन्त । स्थिति और संवेध अपना-अपनाजानना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८८ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २४ वैमानिक देवों का उपपात लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार देवलोक में उत्पन्न होने वाले जघन्य स्थिति वाले तियंच के तीनों गमक में छहों लेश्याएं होती है। ब्रह्मलोक और लान्तक में जाने वाले में प्रथम के पांच संहनन होते हैं । महाशुक्र और सहस्रार में जाने वाले में प्रथम के चार संहनन होते हैं । तियंच और मनुष्य दोनों के लिए भी यही जानना चाहिये, शेष पूर्ववत् १ से ९ । १९ प्रश्न-आणयदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? १९ उत्तर-उववाओ जहा सहस्सारदेवाणं । णवरं तिरिक्खजोणिया खोडेयव्वा जाव कठिन शब्दार्थ-खोडेयन्वा-निषेध करना चाहिये। भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! आणत देव कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं ? १९ उत्तर-हे गौतम ! उपपात सहस्रार देव के समान । परन्तु यहां तियंच का निषेध करना चाहिये (यहां तिर्यच उत्पन्न नहीं होते) । यावत् २० प्रश्न-पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्से णं भंते ! जे, भविए आणयदेवेसु उववजित्तए ? २० उत्तर-मणुस्साण य वत्तव्धया जहेव सहस्सारेसु उववजमाणाणं । णवरं तिण्णि संघयणाणि, सेसं तहेव जाव अणुबंधो । भवादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं सत्त भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं अट्ठारस सागशेवमाइं दोहिं वासपहुत्तेहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं सत्ताधण्णं सागरोवमाई चाहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई-एवइयं० । एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियव्वा। णवरं ठिइं For Personal & Private Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. २४ वैमानिक देवों का उपणात ३१८९ संवेहं च जाणेजा, सेसं तं चेव ९ । एवं जाव अच्चुयदेवा, णवरं ठिई संवेहं च जाणेजा ९ । चउसु वि संघयणा तिणि आणयादीसु। भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! संख्यात वर्ष की आय वाला पर्याप्त संज्ञी मनुष्य आनत देव में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? २० उत्तर-हे गौतम ! सहस्रार देव में उत्पन्न होने वाले मनुष्य के समान । विशेष में--यहां प्रथम के तीन संहनन वाले उत्पन्न होते है, शेष पूर्ववत् यावत् अनुबन्ध पर्यन्त । भवादेश से जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट सात भव तथा कालादेश से जघन्य दो वर्ष-पृथक्त्व अधिक अठारह सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक सत्तावन सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है। इसी प्रकार शेष आठ गमक भी जानने चाहिये । विशेष में स्थिति और संवेध जानना चाहिये, शेष पूर्ववत् १ से ९ । इसी प्रकार यावत अच्युत देव पर्यन्त । स्थिति और संवेध अपना-अपना । आणतादि चारों देवलोकों में प्रथम के तीन संहनन वाले उत्पन्न होते हैं। २१ प्रश्न-गेविज्जगदेवा गं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? २१ उत्तर-एस चेव वत्तव्वया । णवरं दो संघयणा । ठिई संवेहं च जाणेजा। भावार्थ-२१ प्रश्न-हे भगवन् ! ग्रेवेयक देव कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं ? ____२१ उत्तर-पूर्वोक्त वक्तव्यतानुसार । विशेष में यहां प्रयम के दो संहनन वाले उत्पन्न होते हैं तथा स्थिति और संघेध इनका अपना है । २२ प्रश्न-विजत-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवा णं भंते ! कआ. For Personal & Private Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९० भगवती सूत्र-श. २४ उ. २४ वैमानिक देव का उपपात हिंतो उववज्जति ? ___ २२ उत्तर-एस चेव वत्तव्वया णिरवसेसा जाव 'अणुबंधो' त्ति । णवरं पढमं संघयणं, सेसं तहेव । भवादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहण्णेणं एकतीसं सागरोवमाइं दोहिं वासपहुत्तेहिं अभहियाई, उक्कोसेणं छावहिं सागरोवमाइं तिहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाई-एवइयं० । एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियव्वा । णवरं ठिई संवेहं च जाणेजा। मणूसे लद्धी णवसु वि गमएसु जहा गेवेज्जेसु उववजमाणस्स । णवरं पढमं संघयणं । ___भावार्थ-२२ प्रश्न-हे भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देव कहां से आ कर उत्पन्न होते हैं ? २२ उत्तर-पूर्वोक्त वक्तव्यता यावत् अनुबन्ध पर्यन्त । यहाँ केवल प्रथम संहनन वाला ही उत्पन्न होता है, शेष पूर्ववत् । भवादेश से जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट पांच भव, कालादेश से जघन्य दो वर्ष पृथक्त्व अधिक इक्कतीस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है। शेष आठ गमक भी इसी प्रकार । स्थिति और संवैध इनका अपना जानना चाहिये। मनुष्य के नौ गमक में ग्रेवेयक में उत्पन्न होने वाले मनुष्य के समान । विशेषता यह कि विजय आदि में प्रथम संहनन वाला ही उत्पन्न होता है। २३ प्रश्न-सव्वट्टसिद्धगदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति ? २३ उत्तर-उववाओ जहेव विजयादीणं । जाव For Personal & Private Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ मानिक देवों का उपपात ३११ भावार्थ-२३ प्रश्न-हे भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध का देव कहाँ से आ कर उत्पन्न होता है। ___ २३ उत्तर-हे गौतम ! उपपात विजयादि के समान । यावत् २४ प्रश्न-से णं भंते ! केवइयकालट्टिईएसु उववज्जेजा ? २४ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमट्टिईएसु, उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमट्टिईएसु उववजंति, अवसेसा जहा विजयाईसु उववज्जंताणं । णवरं भवादेसेणं तिण्णि भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं दोहिं वासपहुत्तेहिं अमहियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाई दोहिं पुवकोडीहिं अमहियाइंएवइयं० १ । भावार्थ-२४ प्रश्न-हे भगवन् ! संजो मनुष्य, सर्वार्थसिद्ध देव में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति में उत्पन्न होता है ? .. २४ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले सर्वार्थसिद्ध देव में उत्पन्न होता है। शेष वक्तव्यता विजयादि में उत्पन्न होने वाले मनुष्य के समान है। भवादेश से तीन भव तथा कालादेश से जघन्य दो वर्ष-पृथक्त्व अधिक तेतीस सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है । २५-सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्टिईओ जाओ एस चेव वत्तव्वया । णवरं ओगाहणाठिईओ रयणिपुहुत्त-वासपुहुत्ताणि, सेसं तहेव, संवेहं च जाणेजा २। For Personal & Private Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९२. भगवती सूत्र-श. २४ उ. २४ वैमानिक देवों का उपपात भावार्थ-२५ यदि वह संज्ञो मनुष्य स्वयं जघन्य काल को स्थिति वाला हो, तो भी यही पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिये । अवगाहना रनि-पृथक्त्व और स्थिति वर्ष-पृथक्त्व शेष पूर्ववत् । स्थिति और संवेध इसका अपना है २ । २६-सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्टिईओ जाओ, एस चेव वत्तव्वया । णवरं ओगाहणा जहण्णेणं पंच धणुसयाई, उक्कोसेण वि पंचधणुसयाई । ठिई जहण्णेणं पुत्वकोडी, उक्कोसेण वि पुवकोडी, सेसं तहेव जाव 'भवादेसो' त्ति । कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोधमाई दोहिं पुव्वकोडीहिं अभहियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाइं दोहिं पुवकोडीहिं अमहियाई, एवढ्यं कालं सेवेजा, एवइयं काल गइरागई करेजा ३। एए तिण्णि गमगा सव्वट्ठ सिद्धगदेवाणं । ® 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति भगवं गोयमे जाव विहरइ ® ॥ चवीसइमे सए चउवीसइमो उद्देसो समत्तो ॥ ॥ चउवीसइमं सयं समत्तं ॥ भावार्थ-२६ यदि वह संज्ञी मनुष्य, स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो, तो पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिये । अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष तथा स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि । शेष पूर्ववत, यावत् भवादेश पर्यंत । कालादेश से जघन्य और उत्कृष्ट दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है ३ । सर्वार्थसिद्ध के देव में ये तीन गमक ही होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. २४ उ. २४ वैमानिक देवों का उपपात कह कर गौतम स्वामी यावत विचरते हैं । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है' विवेचन - सनत्कुमार देवलोक में उत्पन्न होने वाले जघन्य स्थिति वाले संजी पंचेन्द्रियतियंच में प्रथम की पांच लेश्याएँ कही हैं, क्योंकि सनत्कुमार देवलोक में उत्पन्न होने वाला जघन्य स्थिति का तिर्यंच अपनी जघन्य स्थिति के कारण कृष्णादि चार लेश्याओं में से किसी एक लेश्या में परिणत हो कर मरण के समय में पद्मलेश्या को प्राप्त कर मरता क्योंकि अगले भव की लेश्या में परिणत होने पर नियम है । इस प्रकार इसके पांच लेश्या होती हैं । इसी प्रकार माहेन्द्र ब्रह्मलोक के विषय में भी समझना चाहिये । देवलोक में उत्पन्न होने वाले के संहननों के विषय में यह नियम है है, तब उस देवलोक में उत्पन्न होता है, जीव परभव जाता है - ऐसा सैद्धान्तिक छेवट्टेण उगम्मइ चत्तारि उ जाव आइमा कप्पा | वड्ढेज्ज कप्पज्यलं संघयणे कीलियाईए । ३१९३ अर्थात्-छह संहनन वाला प्रथम के चार देवलोक में जाता है। पांचवें और छठे में पांच संहनन वाला, सातवें, आठवें में चार संहनन वाला, नौवें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें में तीन संहनन वाला, नवग्रैवेयक में दो संहनन वाला और अनुत्तरविमान में एक प्रथम संहनन वाला जाता है । आणतादि देव, मनुष्य से आ कर ही उत्पन्न होता है और वहां से चव कर मनुष्य में जाता है । इस प्रकार जघन्य तीन भव होते हैं और उत्कृष्ट इसी क्रम से सात भव होते हैं । आणतादि का संवेध - मनुष्य के चार भव सम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति चार पूर्वकोटि और आनत देवलोक की तीन भव सम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति सत्तावन सागरोपम होती है । अतः आणत देव का उत्कृष्ट संवेध चार पूर्व कोटि अधिक सत्तावन सागरोपम का होता है । इसी प्रकार आगे के देवलोक की स्थिति का विचार कर संवेध जानना चाहिये । ॥ चौवीसवें शतक का चौबीसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ॥ चौबीसवाँ शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र के MARRRRRE प्रथम भाग मेंशतक १-२ पृ. १ से ५३२ तक । द्वितीय भाग मेंशतक ३-४-५-६ पृ. ५३३ से १०७६ तक । . तृतीय भाग मेंशतक ७-८ पृ. १०७७ से १५७० तक। चतुर्थ भाग मेंशतक ९-१०-११-१२ पृ. १५७१ से २१३४ तक । पंचम भाग मेंशतक १३-१४-१५-१६-१७ पृ. २१३५ से २६४६ तक । षष्ठ भाग मेंशतक १८ से २४ पृ. २६४७ से ३१९४ तक । - + For Personal & Private Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HU I GOT Okay 2 of ICO) R Large (elut: For Personal & Private Use Only