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भगवती सूत्र-श. १८ उ. ५ भव्यद्रव्य नैरयिकादि
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२ प्रश्न-हे भगवन् ! भव्यद्रव्य पृथ्वीकायिक, 'भव्यद्रव्य पृथ्वीकायिक' है ? २ उत्तर-हाँ, गौतम है। प्रश्न-हे भगवन् ! वह भव्य द्रव्य पृथ्वीकायिक क्यों है ?
उत्तर-हे गौतम ! जो कोई तिर्यंच मनुष्य या देव, पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने के योग्य है, वह 'भव्यद्रव्य पृथ्वीकायिक' कहलाता है । इस प्रकार अप्कायिक और वनस्पतिकायिक के विषय में भी समझना चाहिये । अग्निकाय, वायुकाय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के विषय में-जो कोई तियंच या मनुष्य, उत्पन्न होने के योग्य हो, वह 'भव्यद्रव्य अग्निकायिकादि' कहलाता है । यदि कोई नैरयिक, तियंच-योनिक, मनुष्य, देव या पञ्चेन्द्रिय तियंच-योनिक, पञ्चेन्द्रिय तिर्यच-योनिकों में उत्पन्न होने के योग्य होता है, वह 'भव्यद्रव्य पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक' कहलाता है । इस प्रकार मनुष्यों के विषय में भी जानना चाहिये । वाणव्यन्तर, ज्योतिषिक और वैमानिक के विषय में नरयिकों के समान जानना चाहिये।
विवेचन-भूतकाल की पर्याय का अथवा भविष्यकाल की पर्याय का जो कारण है, वह 'द्रव्य' कहलाता है। इसलिये भावी नरक-पर्याय का कारण तिर्यच पंचेन्द्रिय अथवा मनुष्य, 'भव्यद्रव्य नैरयिक' कहलाता है। उसके तीन भेद है । एक मविक, बद्धायुष्क और अभिमुख नामगोत्र । १ इनमें जो एक विवक्षित अमुक भव के बाद तुरन्त ही अमुक दूसरे भव में उत्पन्न होंग, वे एकभविक' हैं । २ पूर्वभव की आयु का तीसरा भाग आदि शेष हो, उस समय जिन्होंने अमुक भव का आयुष्य बांधा है, वे 'बद्घायुष्क' हैं । ३ जो पूर्वभव का त्याग करने के बाद अमुक भव का आयुष्य नाम और गोत्र साक्षात् वेदते हैं, वे 'अभिमुख नाम गोत्र' कहलाते हैं।
३ प्रश्न-भवियदव्वणेरइयस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पणत्ता ?
३ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उस्कोसेणं पुव्वकोडी।
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