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________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वी कायिक जीवों की उत्पत्ति ३१०१ असज्ञी जीवों से आते हैं, उनमें अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता, शेष में होता है । इसलिये अज्ञान के विषय में भजना कही गई है । संवेध-जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक दस हजार वर्ष का जो कहा गया है, उसमें पृथ्वीकायिक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और असुरकुमारों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष को मिला कर कहा गया है और इसी प्रकार उत्कृष्ट के विषय में भी समझना चाहिये कि पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट स्थिति बाईस हजार वर्ष और असुरकुमारों की उत्कृष्ट स्थिति सातिरेक सागरोपम है । इन दोनों को मिला कर कहा गया है । इसका संवेध काल भी इतना ही है, क्योंकि असुरकुमारादि से आ कर पृथ्वीकाय में आते हैं, किन्तु पृथ्वी काय से निकल कर असुरकुमारादि में नहीं आते । मध्य के तीन गमकों में असुरकुमारों की स्थिति दस हजार वर्ष और अन्तिम तीन गमकों में सातिरेक सागरोपम समझनी चाहिये । ४९ प्रश्न-जइ वाणमंतरेहितो उववजंति किं पिसायवाणमंतर० जाव गंधव्वषाणमंतर० ? ४९ उत्तर-गोयमा ! पिसायवाणमंतर० जाव गंधव्ववाणमंतर । ४९ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक) जीव वाणव्यन्तरों से आते हों, तो क्या पिशाच वाणव्यन्तरों से या यावत् गंधर्व से ? । • ४९ उत्तर-हे गौतम ! वे पिशाच वाणव्यंतर से यावत् गंधर्व से आते हैं। ५० प्रश्न-चाणमंतरदेवे णं भंते ! जे भविए पुढविक्काइएसु०? - ५० उत्तर-एएसि पि असुरकुमारगमगसरिसा णव गमगा भाणियया । णवरं ठिई कालादेसं च जाणेज्जा । ठिई जहण्णेणं दसवाससहस्साई, उनकोसेणं पलिओवमं, सेसं तहेव। . ५० प्रश्न-हे भगवन् ! वाणव्यन्तर देव, जो कि पृथ्वीकायिकों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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