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________________ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति ४८ उत्तर-एस चेव वत्तव्वया जाव 'भवादेसो' त्ति । णवरं ठिई जहण्णेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेगं देसूणाई दो पलिओवमाई, एवं अणुबंधो वि । कालादेसेणं जहण्णेणं दसबासमहस्साई अंतो. मुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाई बावीसाए वाससहस्सेहिं अन्भहियाई । एवं णव वि गमगा असुरकुमारगमगसरिसा, णवरं ठिई कालादेसं च जाणेजा, एवं जाव थणियकुमाराणं। ४८ प्रश्न-हे भगवन् ! जो नागकुमार देव, पृथ्वीकायिक में आवे, तो वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वी कायिकों में आते हैं ? ४८ उत्तर-हे गौतम ! यहां असुरकुमार को पूर्वोक्त वक्तव्यता यावत् भवादेश तक जाननी चाहिये । विशेष यह कि स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम होती है । इसी प्रकार अनुबन्ध भी । संवेधकालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष अधिक देशोन दो पल्योपम । इस प्रकार नौ गमक असुरकुमार के गमकों के समान जानना चाहिये, किन्तु स्थिति और कालादेश इनका ही रहे। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक जानना चाहिये। विवेचन-देवों का शरीर छह संहनन में से किसी भी संहनन वाला नहीं होता। उनके इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम (मन के अनुकूल) पुद्गल शरीर-संघात रूप से परिणमते हैं। उत्पत्ति के समय अनाभोग (अनुपयोग) से और कर्म परतन्त्रता से देवों के भवधारणीय शरीर की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग होती है । उत्तरवैक्रिय अवगाहना आभोग (उपयोग) जनित होने के कारण जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग होती है, किन्तु भवधारणीय अवगाहना के समान अंगुल के असंख्यातवें भाग नहीं बना सकते । उत्तरवैक्रिय अपनी इच्छा के अनुसार बनाया जाता है, इसलिये उनका संस्थान नाना प्रकार का होता है। तीन अज्ञान जो भजना से कहे गये हैं, इसका कारण यह है कि जो असुरकुमार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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