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भगवती सूत्र-श. १८ उ. ७ मद्रुक श्रावक का अन्य तीथियों से वाद
उठेइ, उ० २ उद्वेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता जाव पडिगए। कठिन शब्दार्थ-अण्णायं-अज्ञात, अमयं-अमान्य, अविस्मृत।
भावार्थ-१६-'हे मद्रक ! इस प्रकार सम्बोधित कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने कहा-'हे मद्रुक ! तुमने उन अन्यतीर्थियों को ठीक उत्तर दिया है । हे मद्रुक ! तुमने उन अन्यतीथियों को यथार्थ उत्तर दिया है । हे मद्रक ! जो व्यक्ति बिना जाने, बिना देखे और बिना सुने किसी अदष्ट, अश्रुत, असम्मत, अविज्ञात अर्थ हेतु और प्रश्न का उत्तर बहुत-से मनुष्यों के बीच में कहता है, जतलाता है, यावत् दर्शाता है, वह अरिहन्तों की, अरिहन्त- कथित धर्म की, केवलज्ञानियों की और केवलिप्ररूपित धर्म की आशातना करता है । हे मद्रुक ! तुमने अन्यतीथियों को यथार्थ उत्तर दिया है।'
- भगवान् के कथन को सुन कर मद्रुक श्रमणोपासक हृष्ट-तुष्ट हुआ और श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर के, न अति दूर एवं न अति निकट यावत् पर्युपासना करने लगा । श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने. मद्रुक श्रमणोपासक और उस परिषद् को धर्म-कथा, कही, यावत् परिषद् चली गई। उस मद्रुक श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से यावत् धर्मोपदेश सुना, प्रश्न पूछे, अर्थ जाने और खड़े हो कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार कर के लौट गया।
विवेचन-राजगृह नगर के बाहर गुणशील उद्यान था । उसके समीप कालोदायी, शैलोदायी, शैवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्यपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती नामक अन्यतीथि रहते थे । एक दिन वे सब एक साथ हुए धर्म-चर्चा कर रहे थे कि-ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर, पांच अस्तिकाय की प्ररूपणा करते हैं । यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्ति काय, आकाशास्ति काय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय । इनमें से जीवास्तिकाय सचेतन है. शेष चार अचेतन हैं । इनमें से पुद्गलास्तिकाय रूपी है, शेष चार अरूपी हैं-यह श्रमण भगवान् महावीर का मत है । किन्तु यह अदृश्य एवं असम्भव है । इसे सचेतनाचेतन आदि रूप से कैसे माना जा सकता है ?'
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