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________________ २६६४ भगवती सूत्र - श. १८ उ. १ चरम अचरम कथन आहारक के समान है । सर्वत्र ये चौदह ही दण्डक, एकवचन और बहुवचन से जानना चाहिये । चरम और अचरम के स्वरूप को बतलाने वाली गाथा का अर्थ इस प्रकार है- जो जीव जिस भाव को पुनः प्राप्त करेगा, वह जीव उस भाव की अपेक्षा 'अचरम' कहलाता है और जिस भाव का जिस जीव के साथ सर्वथा वियोग हो जाता है, वह जीव, उस भाव की अपेक्षा 'चरम' कहलाता है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - संयत जीव चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं । जिसको पुनः संयतपन प्राप्त नहीं होता, वह चरम है और उससे भिन्न अचरम है । मनुष्य भी इसी तरह है | असंयत का कथन आहारक के समान चरम और अचरम दोनों प्रकार का है और संयतासंयत ( देश विरत) का कथन भी इसी प्रकार है, परन्तु देशविरति, जीव पंचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्य - इन तीनों में ही होता है । नोसयत-नोअसंयत-नो संयतासंयत ( सिद्ध ) अचरम हैं, क्योंकि सिद्धत्व नित्य होता है । इसलिये वह चरम नहीं होता । सकषायी जीवादि कदाचित् चरम होते हैं और कदाचित् अचरम होते हैं । जो मोक्ष प्राप्त करेंगे, वे चरम हैं और अन्य अचरम हैं । सम्यग्दृष्टि के समान ज्ञानी जीव और सिद्ध अचरम है । क्योंकि यदि जीव ज्ञानावस्था से गिर भी जाय तो वह उसे पुनः अवश्य प्राप्त करता है, अत: अचरम हैं और सिद्ध सदा ज्ञानावस्था में ही रहते हैं, इसलिये अचरम । शेष जिन जीवों को ज्ञान सहित नारकत्वादि की प्राप्ति पुनः असम्भव है, वे चरम है, शेष अचरम है। आभिनिबोधिक ज्ञानी आहारक के समान चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं। जो जीव, आभिनिबोधिक आदि ज्ञान को केवलज्ञान हो जाने के कारण पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम हैं, शेष :: अचरम हैं । केवलज्ञानी अचरम होते हैं । जहाँ-जहाँ आहारक का अतिदेश किया गया है, वहाँ वहाँ 'कदाचित् चरम और कदाचित् अवरम ' - ऐसा कहना चाहिए । ॥ इति अठारहवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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