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________________ भगवती सूत्र-ग. ४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीयों की उत्पति ३०६९ तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेना वा उबवजिज्जा । भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ट भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणणेणं बावीसं वाममहस्माइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छावत्तरिंवाससहस्सुत्तरं सयसहस्सं-एवइय कालं जाव करेजा ३ । भावार्थ-७ यदि वह पृथ्वीकायिक उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष को स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है । शेष अनुबन्ध तक पूर्ववत् । जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात पा असख्यात उत्पन्न होते हैं । भव की अपेक्षा जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव तथा काल को अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक वाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख छिहत्तर हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है ३ । ८- सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्टिईओ जाओ, सो चेव पढमिल्लओ गमओ भाणियव्वो, णवरं लेस्साओ तिण्णि । दिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । अप्पसत्था अज्झवसाणा । अणुवंधो जहा ट्ठिई । सेसं तं चेव ४ । भावार्थ-८ यदि वह स्वयं जघन्य काल को स्थिति वाला हो कर पृथ्वीकायिक में उत्पन्न हो, तो पूर्वोक्त प्रथम गमक के समान । लेश्याएं तीन होती स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त, अध्यवसाय अप्रशस्त और अनुबन्ध, स्थिति के समान होता है। शेष पूर्ववत् ४ । ९-सो चेव जहण्णकालट्टिईरसु उववण्णे सच्चेव चउत्थगमग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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