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________________ भगवती सूत्र - १८ उ. १ चरम अचरम भी अन्त नहीं होता, वह 'अचरम' कहलाता है । जीवत्व की अपेक्षा जीव का कभी अन्त नहीं होता, इसलिये वह चरम नहीं अचरम है । २६६१ जो नैरयिक, नरक गति से निकल कर फिर नरक में न जावे और मोक्ष चला जाय, तो वह नैरयिक भाव का सदा के लिये अन्त कर देता है, इसलिये चरम कहलाता है । इससे भिन्न नैरयिक अचरम कहलाता है। इस प्रकार वैमानिक तक जानना चाहिये। सिद्धत्व का कभी अन्त नहीं होता, इसलिये वह अचरम है । आहारक आदि सभी पदों में जीव कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम होता है अर्थात् जो मोक्ष चला जायगा वह चरम है, उससे भिन्न अचरम आहारक है। मोक्ष प्राप्त होने पर भव्यत्व का अन्त हो जाता है, इसलिये भवसिद्धिक चरम है । अभवसिद्धिक का अन्त नहीं होने से वह अचरम है। नो भवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक, सिद्ध होते हैं, वे अभवसिद्धि के समान अचरम होते हैं । सम्यग्दृष्टि, अनाहारक के समान चरम और अचरम होते हैं । अनाहारकपना जाव और सिद्ध दोनों स्थानों में होता है । इसमें से जीव अचरम है, क्योंकि वह सम्यग्दर्शन से गिर कर पुनः सम्यग्दर्शन को अवश्य प्राप्त करता है, किंतु सिद्ध चरम है, क्योंकि वे सम्यग्दर्शन से कभी गिरते ही नहीं । सम्यग्दृष्टि नेरक आदि जो सम्यग्दर्शन को पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम हैं, उनसे भिन्न अचरम हैं। मिथ्यादृष्टि जीव, आहारक की तरह कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम होते हैं । जो मोक्ष में चले जायेंगे वे मिथ्यादृष्टिपन की अपेक्षा चरम हैं और उनसे भिन्न अचरम हैं । मिथ्यादृष्टि नैरयिक आदि जो मिथ्यात्व सहित नैरयिकादिपना पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम हैं और उनसे भिन्न अचरम हैं । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय, मिश्रदृष्टि नहीं होते, इसलिये मिश्रदृष्टि के विषय में नैरयिक आदि दण्डक में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय नहीं कहने चाहिये । सम्यग्दृष्टि के विषय में एकेन्द्रिय नहीं कहने चाहिये । क्योंकि सिद्धान्त के मतानुसार उनमें सास्वादन सम्यक्त्व नहीं होता। इसी प्रकार जिसका जिस विषय में सम्भव नहीं हो, उसका वहां कथन नहीं करना चाहिये। जैसे संज्ञी पद में एकेन्द्रिय आदि का, असंज्ञी पद में ज्योतिषी आदि का कथन नहीं करना चाहिये । Jain Education International २८ - संजय जीवो मणुस्सो य जहा आहारओ, असंजओ वि For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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