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________________ २६७० भगवती सूत्र - श. १८ उ. २ कार्तिकं श्रेष्ठी ( सेठ) - शक्रेन्द्र का पूर्वभव आलम्बन है, कौनसा आधार है और कौनसा बन्धन रह जायेगा ? अतएव हे देवानुप्रिय ! हम भी संसार के भय से उद्विग्न हैं तथा जन्म और मरण से भयभीत हुए है। हम भी आपके साथ अगारवास का त्याग करके मुनिसुव्रतस्वामी के पास मुण्डित हो कर अनगार प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे । ५ - तणं से कत्तिए सेट्ठी तं णेगमट्टसहस्सं एवं वयासी - 'जइ णं देवाणुप्पिया ! संसार भयुब्विग्गा भीया जम्मणमरणाणं मए सधि मुणिसुव्वय० जाव पव्वयह, तं गच्छ्ह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! ससु गिहेसु, विपुलं असणं जाव उवक्खडावेह, मित्तणाई० जाव जेट्ठपुत्तं कुटुंबे ठावेह, जेट्टं० २ ठावेत्ता तं मित्तणाइ० जाव जेट्टपुत्ते आपुच्छह, आपुच्छेत्ता पुरिससहस्तवाहिणीओ सीयाओ दुरूहइ, दुरूहित्ता मित्तगाई• जाव परिजणेणं जेट्ठपुत्तेहि य समणुगम्ममाणमग्गा सव्वड्ढीए जाव खेणं अकालपरिहीणं चेव मम अंतियं पाउन्भवह ।' ० कठिन शब्दार्थ - पाउन्भवह- प्रकट होओ, अकालपरिहीणं विलम्ब नहीं करते । • भावार्थ - ५ - मित्रों का अभिप्राय जान कर कार्तिक सेठ ने उनसे कहा'हे देवानुप्रियो ! यदि तुम भी मेरे साथ ही श्री मुनिसुव्रत स्वामी से प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहते हो तो अपने-अपने घर जाओ यावत् ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप कर तथा उन मित्रादि और ज्येष्ठ को पुत्र फिर पूछ कर, एक हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिविका में बैठ कर और मार्ग में उन मित्रादि द्वारा तथा ज्येष्ठ पुत्र द्वारा अनुसरण किये जाते हुए, सर्व ऋद्धि से युक्त यावत् वाद्यों के घोषपूर्वक विलम्ब रहित मेरे पास आओ ?' तणं ते गमट्टसहस्सं पि कत्तियस्स सेट्ठिस्स "यमट्ठं विणएणं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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