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भगवती मूत्र-श. २४ उ. १ संज्ञी तिर्यच का नरकोपपात
तं जहा-वयरोसहणारायसंघयणी जाव खीलियासंघयणी, पंकप्पभाए चउब्बिहसंघयणी, धूमप्पभाए तिविहसंघयणी, तमाए दुविहसंघयणी तं जहा-वयरोसभणारायसंघयणी य १ उसभणारायसंघयणी य २, सेसं तं चेव ।
भावार्थ-७५ प्रश्न-हे भगवन् ! वे एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ?
७५ उत्तर-हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यच की सम्पूर्ण वक्तव्यता भवादेश तक जाननी चाहिये । काल से जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक बारह सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है। (१) इस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के गमक के समान नव गमक जानने चाहिये। विशेषता यह है कि नैरयिक की स्थिति और संबंध में 'सागरोपम' जानना, इसी प्रकार यावत् छठी नरक पर्यत । जिस नरक में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति जितने काल की हो, उस स्थिति को उसी क्रम से चार गुणी करनी चाहिये। जैसे-वालकाप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की है । उसे चार गुणा करने से अट्ठाईस सागरोपम होती है। इसी प्रकार पंकप्रभा में चालीस सागरोपम, धूमप्रभा में अड़सठ सागरोपम और तमःप्रभा में ८८ सागरोपम की स्थिति होती है । संहनन के विषय में वालुकाप्रभा में वज्रऋषभनाराच से कीलिका तक पांच संहनन वाले जाते हैं । पंकप्रभा में प्रथम के चार संहनन वाले, धूमप्रभा में प्रथम के तीन संहनन वाले और तमःप्रभा में प्रथम के दो संहनन वाले नरयिकपने उत्पन्न होते हैं। शेष सब पूर्ववत् ।
७६ प्रश्न-पजत्तसंखेजवासाउय० जाव तिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए अहेसत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उववजित्तए से णं
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