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भगवती सूत्र-श. १८ उ. ७ देवासुर संग्राम और उनके शस्त्र
२३ प्रश्न-देवासुरेसु णं भंते ! संगामेसु वट्टमाणेसु किणं तेसिं देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमइ ?
२३ उत्तर-गोयमा ! जणं ते देवा तणं वा कटं वा पत्तं वा सस्करं वा परामुसति तं णं तेसिं देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमइ ।
२४ प्रश्न-जहेव देवाणं तहेव असुरकुमाराणं ?
२४ उत्तर-णो इणठे समठे, असुरकुमाराणं देवाणं णिच्चं विउविया पहरणरयणा पण्णत्ता ।
कठिन शब्दार्थ-पहरणरयणत्ताए-प्रहरण-शस्त्र-रत्न के रूप में। भावार्थ-२२ प्रश्न-हे भगवन् ! देव और असुरों में संग्राम होता है ? २२ उत्तर-हाँ, गौतम ! होता है।
२३ प्रश्न-हे भगवन् ! जब देव और असुरों में संग्राम होता है, तब उन देवों के कौनसी वस्तु शस्त्र रूप से परिणत होती है ?
२३ उत्तर-हे गौतम ! तिनका, लकड़ी, पत्ता या कंकर आदि जिस वस्तु को वे स्पर्श करते हैं, वह उन देवों के शस्त्र रूप में परिणत हो जाती है।
२४ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस प्रकार देवों के लिए कोई भी वस्तु स्पर्श मात्र से शस्त्र रूप में परिणत हो जाती है, उसी प्रकार असुरों के भी होती है ?
___ २४ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। असुरकुमार देवों के तो सदा बैंक्रिय किये हुए शस्त्र-रत्न होते हैं।
विवेचन-यहाँ देव शब्द से ज्योतिषी और वैमानिक देवों का ग्रहण है और असुर शब्द से भवनपति और वाणव्यन्तर देवों का ग्रहण है । देव और असुरों के संग्राम में देवों के लिये तण आदि भी प्रहरण (शस्त्र) रूप हो जाते हैं । यह उनके अतिशय पुण्य का प्रभाव है । असुरकुमार उन देवों की अपेक्षा अल्प पुण्य वाले हैं । इसलिये उनके शस्त्र तो नित्य विकुक्ति ही होते हैं ।
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