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________________ २८०८ भगवती सूत्र-श. १९ उ. ७ देवावास रत्नमय हैं (कोमल) यावत् प्रतिरूप (सुन्दर) हैं। वहां बहुत से जीव और पुद्गल उत्पन्न होते हैं और विनष्ट होते हैं, चवते हैं, उत्पन्न होते हैं । वे भवन द्रव्याथिक रूप से शाश्वत हैं और वर्ण-पर्यायों यावत् स्पर्श-पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत हैं। इस प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना चाहिये । ३ प्रश्न-केवइया णं भंते ! वाणमंतरभोमेजणयरावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? ३ उत्तर-गोयमा ! असंखेजा वोणमंतरभोमेजणयरावाससय. सहस्सा पण्णत्ता। ४ प्रश्न-ते णं भंते ! किंमया पण्णता ? ४ उत्तर-सेसं तं चेव । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों के भूमि के अन्तर्गत कितने लाख नगर कहे गये हैं ? ' ३ उत्तर-हे गौतम ! वाणव्यन्तरों के भूमि के अन्तर्गत असंख्यात लाख नगर कहे गये हैं। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों के वे नगर किमय हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् ! ५ प्रश्न-केवड्या णं भंते ! जोइसियविमाणावाससयसहस्सापुच्छा । ५ उत्तर-गोयमा ! असंखेजा जोइसिय० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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