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________________ ३०७२ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति गमक को सम्पूर्ण वक्तव्यता यावत् भवादेश तक जाननी चाहिये । काल की अपेक्षा जघन्य ४४ हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख छिहत्तर हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है ९ । विवेचन-दूसरे प्रश्न में प्रज्ञापना सूत्र के व्युत्क्रांति नामक छठे पद का अतिदेश किया गया है । वहां के पाठ का अर्थ यह है-हे भगवन् ! वे एकेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक से आते हैं, यावत् पञ्चेन्द्रिय तिर्यच से आते हैं ? (उत्तर) हे गौतम ! एकेन्द्रिय यावत् पञ्चेन्द्रिय तियंच-योनिक से आते हैं। तीसरे गमक में जो यह कहा है कि 'जघन्य एक, दो तीन, उत्पन्न होते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि पहले और दूसरे गमक में उत्पन्न होने वाले बहुत होने से असंख्यात ही उत्पन्न होते हैं, किन्तु तीसरे गमक में उत्कृष्ट स्थिति वाले एकादि से ले कर असंख्यात तक उत्पन्न होते हैं। क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले अल्प होने से वे एकादि रूप से भी उत्पन्न हो सकते हैं । तीसरे गमक में उत्कृष्ट आठ भव कहे गये हैं । इस विषय में समझना चाहिये कि जिस संवेध में दोनों पक्षों में अथवा दोनों पक्षों में से किसी एक पक्ष में अर्थात् उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिक जीव की अथवा जिनमें उत्पन्न हुआ जाता है, उन पृथ्वीकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति हो, तो अधिक से अधिक आठ भव की कायस्थिति होती है, इसके अतिरिक्त (जघन्य और मध्यम) असंख्यात भवों की कायस्थिति होती है । अतः यहां उत्पत्ति के विषयभूत (जिनमें उत्पन्न हुआ जाता है) जीवों की उत्कृष्ट स्थिति होने से आठ भव कहे गये हैं। इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिये । एक भव की उत्कृष्ट स्थिति बाईस हजार वर्ष की होती है, उसे आठ से गुणा करने पर आठ भवों की उत्कृष्ट स्थिति एक लाल छिहत्तर हजार (१७६०००) वर्ष होती है । चौथे गमक में तीन लेश्याएँ कही गई हैं, क्योंकि जघन्य स्थिति वाले पृथ्वीकायिक में जीव, देवों से चव कर उत्पन्न नहीं होता, अतः तेजोलेश्या नहीं होती। छठे गमक में चार अन्तर्मुहून अधिक उत्कृष्ट अठासी हजार वर्ष कहे गये हैं, क्योंकि जघन्य स्थिति वाले और उत्कष्ट स्थिति वाले की चार-चार बार उत्पत्ति होने से इतना काल होता है । नौवें गमक में जघन्य चवालीस हजार वर्ष कहे गये हैं, वह बाईस हजार वर्ष रूप उत्कृष्ट स्थिति के दो भव करने से चवालीस हजार वर्ष होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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