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________________ २६८४ भगवती सूत्र-श. १८ उ ३ संज्ञीभूत असंशीभूत नहीं जानते, नहीं देखते, किन्तु आहार रूप से ग्रहण करते हैं और जो अमायो सम्यग्दृष्टि हैं, वे भी दो प्रकार के है। यथा-अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक । अनन्तरोपपन्नक (प्रथम समयोत्पन्न) नहीं जानते, नहीं देखते, किन्तु आहार रूप से ग्रहण करते हैं। परम्परोपपन्नक भी दो प्रकार के हैं। यथापर्याप्तक और अपर्याप्तक । अपर्याप्तक नहीं जानते, नहीं देखते, किन्तु आहार रूप से ग्रहण करते हैं । पर्याप्तक दो प्रकार के हैं। यथा-उपयुक्त और अनुपयुक्त । जो अनुपयुक्त हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, परन्तु आहार रूप से ग्रहण करते हैं और जो उपयुक्त हैं, वे जानते-देखते हैं और आहार रूप से ग्रहण करते हैं। विवेचन-चौथे प्रश्न का भावितात्मा अनगार 'केवली' है, भवोपग्राही चार कर्मों का वेदन, निर्जरा, आदि करते हुए एवं औदारिक आदि शरीर को छोड़ते हुए और आयुकर्म के समस्त पुद्गलों की अपेक्षा अन्तिम मरण मरते हुए, केवली के सर्वान्तिम निर्जरा पुद्गल सूक्ष्म कहे गये हैं। वे सम्पूर्ण लोक को व्याप्त कर रहते हैं । इसलिये केवली तो उनको जानते ही हैं । अतः छद्मस्थ के जानने आदि विषयक प्रश्न पूछा गया है । जिसके लिये प्रज्ञापना सूत्र के पन्द्रहवें पद के प्रथम उद्देशक का अतिदेश किया गया है। ___जो विशिष्ट अवधिज्ञानादि उपयोग युक्त हैं, वे सूक्ष्म कार्मण पुद्गलों को जानते देखते हैं, परन्तु जो विशिष्ट अवधिज्ञानादि उपयोग रहित हैं, वे सूक्ष्म कार्मण पुद्गलों को नहीं जानते-नहीं देखते हैं। ओज आहार, लोम आहार और प्रक्षेप आहार, इन तीन प्रकार के आहारों में से यहां ओज आहार का ग्रहण समझना चाहिये। क्योंकि कार्मण शरीर द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करना ओज आहार कहलाता है। यही आहार यहाँ सम्भावित है। त्वचा के स्पर्श से लोम आहार होता है और मुख में डालने से प्रक्षेप आहार होता है। मनुष्य सूत्र में 'संज्ञीभूत' शब्द से विशिष्ट अवधिज्ञानी आदि समझना चाहिये, जिन्हें वे निर्जरा के पुद्गल ज्ञानगोचर होते हैं । वैमानिक सूत्र में विशिष्ट' अवधिज्ञानी उपयुक्त अमायी-सम्यग्दृष्टि का ग्रहण है । क्योंकि मायीमिथ्यादृष्टि विपरीत दृष्टा होने से उन पुद्गलों को जानते-देखते नहीं हैं। प्रश्नकार माकन्दिकपुत्र हैं। इसलिये 'गौतम' शब्द से 'माकन्दिक' पुत्र का ही ग्रहण हुआ समझना चाहिये । अथवा यह पाठ प्रज्ञापना सूत्र से उद्धृत किया हुआ है और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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