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________________ भगवती सूत्र-श. १२. उ. ५ चरम-परम नरयिक के कर्म-त्रियादि २८०१ और अल्पनिर्जरा वाले हैं ? उत्तर-हाँ गौतम ! हैं। इस प्रकार यावत् मनुष्यों तक जानना चाहिये। वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक को असुरकुमार के समान जानना चाहिये। _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'-कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--भवनपति वाणव्यन्तर. ज्योतिषी और वैमानिक देवों में 'महाम्रव, महाक्रिया, अल्पवेदना, अल्पनिर्जरा'- यह चौथा भंग पाया जाता है । इनमें अमातावेदनीय का उदय प्रायः नहीं होने से वेदना भी अल्प है और निर्जरा भी अल्प है । इस प्रकार देवों में यह एक भंग पाया जाता है । शेष पन्द्रह भग इनमें नहीं पाये जाते । एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय तेइंद्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिथंच पचेन्द्रिय और मनुष्य, इन सभी में परिणामानुसार सोलह-सभी-भंग पाये जाते हैं । ॥ उन्नीसवें शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण । शतक १६ उद्देशक ५ चरम-परम नैरयिक के कर्म-क्रियादि १ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! चरिमा वि णेरइया परमा वि णेरड्या ? १ उत्तर-हंता अस्थि । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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