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भगवती सूत्र-दा. १८ उ. १० आप एक हैं या अनेय ?
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उत्तर-सोमिला ! दबट्टयाए एगे अहं, णाणदंसणट्टयाए दुविहे अहं, पएसट्टयाए अखिए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं, उवयोगट्टयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं, से तेणटेणं जाव भविए वि अहं ।
भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन ! आप एक हैं, दो हैं, अक्षय है, अव्यय हैं, अवस्थित हैं, या अनेक, भूत-भाव-भविक (भतकाल और भविष्यत्काल के अनेक परिणामों के योग्य) हैं ?
१८ उत्तर-हे सोमिल ! में एक भी हूँ यावत् अनेक भूत-भाव-भविक भी हूं।
प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि मैं एक हूं यावत् अनेक भूत, वर्तमान और भावी परिणाम के योग्य भी हूं ?
उत्तर-हे सोमिल ! मैं द्रव्य रूप से एक हं । ज्ञान और दर्शन भेद से में दो हूं। आत्म-प्रदेश से में अक्षय हूँ, अव्यय हूं और अवस्थित भी हूं । उपयोग की अपेक्षा में अनेक भत, वर्तमान और भावी परिणामों के योग्य हूं। इस कारण हे सोमिल ! पूर्वोक्त प्रकार से कहा गया है।
विवेचन-इसके पश्चात् अपमान एवं उपहास आदि भाव छोड़ कर, सोमिल ने वस्तुतत्त्व के ज्ञान की जिज्ञासा से 'आप एक है या दो' इत्यादि प्रश्न पूछे हैं। उसके मन में यह था कि भगवान् इनमें से एक पक्ष ग्रहण कर उत्तर देंगे, तो में दूसरा पक्ष ले कर उनके कथन को दूषित कर दूंगा।' किन्तु भगवान् ने सभी प्रकार के दोषों से रहित स्याद्वाद शैली से उत्तर दिया कि 'मैं जीव द्रव्य की अपेक्षा एक हूँ, प्रदेशों की अपेक्षा नहीं। ज्ञान और दर्शन को अपेक्षा में दो हुँ । एक ही पदार्थ किसो एक स्वभाव की अपेक्षा एक हो सकता है और वही पदार्थ दूसरे दो स्वभावों की अपेक्षा दो हो सकता है । इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है। क्योंकि एक ही देवदत्तादि पुरुष. एक ही समय में उन-उन अपेक्षाओं से पिता, पुत्र, भ्राता, भातृव्य (भतीजा) आदि कहला सकता है । इसलिये भगवान् ने एक अपेक्षा से अपने-आप को एक और दूसरी अपेक्षा से दो कहा । प्रदेशों के सर्वथा क्षय न होने और
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