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भगवती सूत्र - श. १८ उ १० सोमिल प्रतिबोधित हुआ
आत्मा असंख्य प्रदेशात्मक होने से भगवान् ने कहा-' में अक्षय अक्षत हूँ" कुछ भी प्रदेशों का व्यय न होने से मैं 'अव्यय' हूँ, अतएव में अवस्थित अर्थात् नित्य हूँ । आत्मा की असंख्येय प्रदेशिता कदापि नष्ट नहीं होती, अतः आत्मा नित्य है । विविध विषयों का उपयोग वाला होने से मैं 'अनेक भूत-भाव-भविक' भी हूँ अर्थात् भूतकाल और भविष्यत्काल के अनेक परिणामों के योग्य भी हूँ ।
सोमिल प्रतिबोधित हुआ
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१९ - एत्थ णं से सोमिले माहणे संबुदुधे, समणं भगवं महावीरं ० जहा खंदओ जाव से जहेयं तुब्भे वदह, जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर एवं 'जहा रायप्पसेणइज्जे चित्तो जाव' दुवालसविहं सावगधम्मं पडिवज्जह, पडिवजित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ जाव पडिगए । तर णं से सोमिले माहणे समणोवासए जाएं, अभिगयजीवा० जाव विहरइ । 'भंते' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदह णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी
प्रश्न - पभू णं भंते ! सोमिले माहणे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता० जव संखे तहेव णिरवसेसं जाव अंतं काहिह ।
सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरह
|| अट्टारसमे सए दसमो उद्देसो समत्तो ॥
भावार्थ - १९ - भगवान् की वाणी सुन कर सोमिल ब्राह्मण ने प्रतिबोध पाया । उसने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया और
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