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भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ संज्ञीभूत असंजीभूत
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६ उत्तर-एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं । कठिन शब्दार्थ-आणत्तं-अन्यत्व, णाणतं-भिन्नता, विविधता।
भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्य उन निर्जरा पुद्गलों के पारस्परिक पृथक् भाव और अपृथक् भाव (वर्णादि कृत नाना भाव) को जानता-देखता है ?
५ उत्तर-हे माकन्दिक पुत्र ! प्रज्ञापना सूत्र के पन्द्रहवें पद के प्रथम इन्द्रियोद्देशक के अनुसार यावत् इसी प्रकार वैमानिक तक जानना चाहिये । इनमें जो उपयोग युक्त हैं, वे उन पुद्गलों को जानते-देखते हैं और आहार के रूप में प्रहण करते हैं। इस प्रकार समग्र निक्षेप (पाठ) कहना चाहिये यावत् जो उपयोग रहित हैं, वे उन पुद्गलों को जानते-देखते नहीं, परन्तु आहार रूप से ग्रहण करते हैं। .६ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिकों के विषय में पूर्वोक्त प्रश्न ?
६ उत्तर--वे उन निर्जरा पुद्गलों को जानते-देखते नहीं, परन्तु आहार रूप में ग्रहण करते हैं । इस प्रकार यावत् पञ्चेन्द्रिय तिर्यच योनि तक जानना चाहिये।
संज्ञीभूत असंज्ञीभूत
७ प्रश्न-मणुस्सा णं भंते ! णिजरापोग्गले किं जाणंति पासंति आहारेंति, उदाहु ण जाणंति ण पासंति णाहारेंति ? ___७ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइया जाणंति ३, अत्यंगइया ण जाणंति ण पासंति, आहारेति । . प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं बुन्नइ-'अत्यंगइयो जाणंति
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