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________________ ३१६२ भगवती सूत्र-शे. २४ उ. २१ मनुष्य की विविध योनियों से उत्पत्ति १६ उत्तर-एवं जहेव गेविजगदेवाणं । णवरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं एगा रयणी । समदिट्टी, णो मिच्छदिट्टी, णो सम्मामिच्छदिट्ठी । णाणी, णो अपणाणी, णियमं तिण्णाणी, तं जहा-आभिणिवोहियणांणी, सुयणाणी, ओहिणाणी । ठिई जहण्णेणं एकतीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई, सेसं तं चेव । भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं चत्तारि भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहण्णेणं एक्कतीसं सागरोवमाइ वासपुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छावहिँ सागरोवमाइं दोहिं पुटवकोडीहिं अब्भहियाई-एवइयं । एवं सेसा वि अट्ट गमगा भाणियव्वा। णवरं ठिई अणुबंधं संवेहं च जाणेजा, सेसं एवं चेव । भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित्त अनुत्तरोपपातिक देव, मनुष्य में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होते हैं ? १६ उत्तर-हे गौतम ! ग्रेवेयक देव के अनुसार । अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक रत्नि की होती है । वे सम्यग्दृष्टि होते हैं, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते। वे ज्ञानी होते हैं, अज्ञानी नहीं होते। उनके मति, श्रुत और अवधि-ये तीन ज्ञान नियम से होते हैं। स्थिति जघन्य ३१ सागरोपम और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम, शेष पूर्ववत् । भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट चार भव तथा कालादेश से जघन्य वर्ष-पृथक्त्व अधिक ३१ सागरोपम और उत्कृष्ट दो पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम । शेष आठ गमक भी इसी प्रकार । स्थिति, अनुबन्ध और संवेध भिन्न-भिन्न, शेष पूर्ववत् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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