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भगवती सूत्र-श. १८ उ. १० सरिसव भक्ष्य है या अभक्ष्य
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प्रश्न-हे भगवन् ! यह कैसे कहते हैं कि 'सरिसव' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी ?
उत्तर-हे सोमिल ! तुम्हारे ब्राह्मण नयों (शास्त्रों) में दो प्रकार के 'सरिसव' कहे गये हैं। यथा-मित्र-सरिसव (समान वय वाला मित्र) और धान्य-सरिसव । जो मित्र सरिसव है, वह तीन प्रकार का कहा गया है। यथासहजात (एक साथ जन्मे हुए), सहधित (एक साथ बड़े हुए) और सहपांशुक्रीडित (एक साथ धूल में खेले हुए)। ये तीनों प्रकार के सरिसव श्रमणनिग्रन्थों के लिये अभक्ष्य हैं।
धान्य-सरिसव दो प्रकार का कहा गया है। यथा-शस्त्र-परिणत (अचित्त-अग्नि आदि शस्त्र से निर्जीव बने हुए) और अशस्त्र-परिणत (सचित्तअग्नि आदि शस्त्र से निर्जीव नहीं बने हुए)। जो अशस्त्रपरिणत हैं, वह श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य है। जो शस्त्रपरिणत है, वह भी दो प्रकार का है। यथा-एषणीय (निर्दोष) और अनेषणीय (सदोष) । अनेषणीय तो श्रमण-निग्रंथों के लिये अभक्ष्य है। एषणीय सरिसव दो प्रकार का है। यथा-याचित (माँग कर लिया हुआ) और अयाचित (बिना मांगा हुआ) । अयाचित तो श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिये अभक्ष्य है । याचित भी दो प्रकार का है । यया-लब्ध (मिला हुआ) और अलब्ध (नहीं मिला हुआ)। अलब्ध तो श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिये अभक्ष्य है और जो लब्ध है, वह श्रमग-निर्ग्रन्थों के लिये भक्ष्य है। इस कारण हे सोमिल ! ऐसा कहा गया है कि-'सरिसव' मेरे भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है।
विवेचन-उपरोक्त यथार्थ उत्तर सुनने के बाद उसने छल-पूर्वक निग्रह कर के उपहास करने की दृष्टि से 'सरिसव' आदि विषयक प्रश्न पूछे । 'सरिसव' प्राकृत भाषा का श्लिष्ट शब्द है । जिसकी संस्कृत छाया होने पर दो अर्थ निकलते हैं । संस्कृत छाया इस प्रकार है-'सर्षप' और 'सदृशवया' । 'सर्षप' का अर्थ है 'सरसों' और 'सदृशवया' का अर्थ है-'समान उम्र वाला'-मित्र । .
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