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________________ ३०७८ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति .. वोससहस्साई अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अट्ठावीसुत्तरं वाससय सहस्सं-एवइयं० । एवं संवेहो उवजुंजिऊण भाणियव्वो ९।। . भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे वनस्पतिकायिक जीवों से आते हैं, तो? . १८ उत्तर-इसके भी नौ गमक अप्कायिक के समान हैं । वनस्पतिकाय का संस्थान अनेक प्रकार का होता है। प्रथम के तीन गमक और अन्तिम तीनों गमक में अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट सातिरेक एक हजार योजन की होती है। बीच के तीन गमकों में पृथ्वीकायिक के समान जानना चाहिये। संवेध और स्थिति भी कहनी चाहिये । तीसरे गमक में काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख अट्ठाईस हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है । इसी प्रकार उपयोग पूर्वक संवेध भी कहना चाहिये। __ विवेचन-अप्काय में देवोत्पत्ति होती है, इसलिये चार लेश्याएँ कही गई है । तेउकाय में देवोत्पत्ति नहीं होती, इसलिये तीन लेश्याएँ कही गई हैं । तेउकाय की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट तीन अहोरात्र है । तीसरे गमक में औधिक तेजस्कायिक की उत्पत्ति उत्कृष्ट स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में बतलाई गई है, यहां एक पक्ष उत्कृष्ट स्थिति वाला होने से पृथ्वीकायिक के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति ८८००० वर्ष होती है, तथा तेउकाय की चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति बारह अहोरात्र होती है । संवेध-छठे से नौवें गमक . तक में भव की अपेक्षा आठ भव होते हैं और काल की अपेक्षा उपयोगपूर्वक कहना चाहिये। शेष गमकों में उत्कृष्ट असंख्यात भव होते हैं और काल भी असख्यात होता है । 'वायुकायिक जीवों का संवेध हजारों वर्ष से करना चाहिये'-इस कथन का आशय यह है कि तेजस्काय के अधिकार में तीन अहोरात्र से संवेध किया गया था, क्योंकि उनकी उत्कृष्ट स्थिति तीन अहोरात्र की होती है। वायुकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन हजार वर्ष होती है, इसलिये इनका संवेध तीन हजार वर्षों से करना चाहिये। तीसरे गमक में उत्कृष्ट आठ भव होते हैं। उनमें से पृथ्वीकायिक के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति ८८००० वर्ष होती है और वायुकायिक जीवों के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति १२००० वर्ष होती है । इन दोनों को मिलाने से संवेध एक लाख वर्ष का होता है । इस प्रकार जहाँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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