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भगवती सूत्र-श. १८ उ. ५ महाकर्म अल्पकर्म
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दिविउववण्णगा य अमायिसम्मदिहिउववण्णगा य । तत्थ णं जे से मायिमिच्छदिदिउववण्णए णेरइए से णं महाकम्मतराए चेव जाव महावेयणतराए चेव; तत्थ णं जे से अमायिसम्मदिट्ठिउववष्णए णेरइए से णं अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेयणतराए चेव ।
४ प्रश्न-दो भंते ! असुरकुमारा ? ४ उत्तर-एवं चेव । एवं एगिंदिय-विगलिंदियवजं जाव वेमाणिया।
भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन ! दो नैरयिक एक नरकावास में नरयिकपने ..उत्पन्न हुए। उनमें से एक ने रयिक महाकर्म वाला यावत् महावेदना वाला होता है और एक नैरयिक अल्पकर्म वाला यावत् अल्पवेदना वाला होता है, तो हे भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ?
३ उत्तर-हे गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-मायीमिथ्यादृष्टि उत्पन्न और अमायीसमदृष्टि रूप से उत्पन्न । इनमें से जो मायोमिथ्यादृष्टि उपपन्नक नैरयिक है, वे महाकर्म वाले यावत् महावेदना वाले हैं और जो अमायोसमदृष्टि उपपन्नक नैरयिक हैं, वे अल्पकर्म वाले यावत् अल्पवेदना वाले हैं।
.४ प्रश्न-दो असुरकुमारों के विषय महाकर्म आदि विषयक प्रश्न ?
४ उतर-हे गौतम ! पूर्वोक्त भेद से समझना चाहिये । इस प्रकार एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़ कर यावत् वैमानिक तक जानना चाहिये।
विवेचन-महाकर्म आदि चार पद हैं । यथा-महाकर्म, महाक्रिया, महाआश्रव और महावेदना । इन चारों की व्याख्या पहले की जा चुकी है । यहाँ एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय के सिवाय' कहने का कारण यह है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में मिथ्यादष्टि ही होते हैं, सम्यग्दृष्टि नहीं होते । इसलिये उनमें से एक में सम्यग्दर्शन सापेक्ष अल्पकर्मता आदि तथा दूसरे में मिथ्यादर्शन सापेक्ष महाकर्मता आदि घटित नहीं होती, अपितु उन सभी में महाकर्मता आदि ही है।
मिथ्यात्वाभिमुख होने से सास्वादन सम्यग्दृष्टि वाले विकलेन्द्रियों के भी मिथ्यात्व की क्रिया नियमतः मानी है। इस दृष्टि से यहां विकलेन्द्रियों को सम्यग्दृष्टि नहीं बतलाया है।
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