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________________ ३०४० भगवती सूत्र-श. २४ उ. २ असुरकुमारों का उपपात २ उत्तर-गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सटिईएस, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजहभागट्टिईएसु उववजेजा। भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक जीव, असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? २ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है। ३ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा० ? ३ उत्तर-एवं रयणप्पभागमगसरिसा णव वि गमा भाणियव्वा । णवरं जाहे अप्पणा जहण्णकालट्टिईओ भवइ ताहे अज्झवसाणा पसत्था, णो अप्पसत्था तिसु वि गमएसु । अवसेसं तं चेव ९ । कठिन शब्दार्थ-अज्झवसाणा-अध्यवसाय । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ३ उत्तर-हे गौतम ! यहां रत्नप्रभा पृथ्वी के गमकों के समान सभीनव ही गमक कहने चाहिये। यदि वह स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो, तो तीनों गमकों में अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं, अप्रशस्त : नहीं होते । शेष सब पूर्ववत् । विवेचन-यहाँ पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीव, जो असुरकुमारों में उत्पन्न होता है, उसकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग बतलाई गई है । यह पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग, पूर्वकोटि रूप समझना चाहिये, क्योंकि सम्मूच्छिम लियंच का उत्कृष्ट आयुष्य पूर्वकोटि परिमाण होता है और वह अपने आयुष्य के समान ही उत्कृष्ट देव आयुष्य वांधता है, अधिक नहीं बांधता । चूर्णिकार ने भी यही कहा है । यथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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