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भगवती सूत्र-श. २४ उ. १६ वनस्पतिकायिक जीवों की उत्पत्ति
देसेणं जहणणेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अणंताई भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं अणंतं कालंएवइयं० । सेसा पंच गमा अट्ठभवग्गहणिया तहेव। णवरं ठिई संवेहं च जाणेजा।
__® 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! ति *
॥ चउवीसइमे सए सोलसमो उद्देसो समत्तो ॥ . भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं, इत्यादि ?
१ उत्तर-पृथ्वीकायिक उद्देशक के समान, विशेष यह कि जब वनस्पतिकायिक जीव, वनस्पतिकायिक जीवों में उत्पन्न होते हैं, तब पहले, दूसरे, चौथे
और पांचवें गमक में प्रतिसमय निरन्तर अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं।' भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट अनन्त भव तथा कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक यावत् गमनागमन करते हैं। शेष पांच गमकों में उसी प्रकार आठ भव जानने चाहिये । स्थिति और संवेध पहले से भिन्न जानना चाहिये।
_ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन-वनस्पतिकाय के जीवों का वनस्पतिकाय में उद्वर्तन और उत्पाद अनन्त है, दूसरी कायों का नहीं। क्योंकि दूसरी सभी कार्यों के जीव असंख्यात ही हैं । इसलिये उनका उद्वर्तन और उत्पाद असंख्यात का ही होता है, अनन्त का नहीं । वनस्पति के पहले दूसरे, चौथे और पांचवें गमक की स्थिति उत्कृष्ट नहीं होने से अनन्त उत्पन्न होते हैं। शेष पांच गमकों की उत्कृष्ट स्थिति होने से उनमें एक, दो या तीन इत्यादि रूप से भी उत्पन्न होते हैं । पहले, दूसरे, चौथे और पांचवें गमक की स्थिति उत्कृष्ट नहीं होने के
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