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भगवती मूत्र-श. १८ उ. ७ मद्रुक थावक का अन्य-तीथियों से वाद
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अम्हं इमा कहा अविपकडा, इमं च णं मदुए ममणोवासए अम्हं अदरसामंतेणं वीइवयइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं मद्यं समणो. वासयं एयमढं पुन्छित्तए' त्ति कटु अण्णमण्णम्स अंतियं एयमझें पडिसुणेति, अण्णमण्णस्त० २ पडिसुणेत्ता जेणेव मद्दुए समणोवासए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता मदुयं समणोवासयं एवं वयासी
कठिन शब्दार्थ-अविपकडा-विशेष तथा अप्रकट-अविदित, अथवा-विद्वत्ता से वञ्चित व्यक्ति द्वारा कथित ।
भावार्थ-१४ उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था, गुणशील नामक उद्यान था (वर्णन) यावत् पृथ्वीशिलापट्ट था । गुणशील उद्यान के समीप बहुत-से अन्यतीथि रहते थे। यथा-कालोदायी, शैलोदायी इत्यादि, सातवें शतक के अन्यतीथिक उद्देशक वत् यावत् 'यह कैसे माना जा सकता है'-तक ।
" उस राजगृह नगर में धनाढय यावत् किसी से भी पराभूत नहीं होने वाला जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता, मद्रुक नाम का श्रमणोपासक रहता था। अन्यदा किसी दिन श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे । परिषद यावत् पर्युपासना करने लगी। श्रमण भगवान महावीर स्वामी का आगमन जान कर मद्रक श्रमणोपासक संतुष्ट हुआ। उसने स्नान किया यावत् अलंकृत हो कर अपने घर से निकला और पैदल चलता हुआ उन अन्यतीथिकों के समीप हो कर जाने लगा। उन अन्यतीथिकों ने मद्रुक श्रमणोपासक को जाता हुआ देखा और परस्पर एक-दूसरे से कहा-'हे देवानुप्रियो ! वह मद्रुक श्रमणोपासक जा रहा है और हमें वह अविदित एवं असंभव तत्त्व पूछना है, तो हे देवानुप्रियो ! हमें मद्रुक श्रमणोपासक से पूछना उचित है'-ऐसा विचार कर तथा परस्पर एक मत हो कर वे अन्यतीथिक मद्रुक श्रमणोपासक के निकट आये और मद्रक श्रमणोपासक से इस प्रकार पूछा
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