________________
भगवती सूत्र - श. १८ उ ७ मद्रुक श्रावक का अन्य तीर्थियों से वाद
१५-' एवं खलु मद्दुया ! तव धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे णायते पंच अस्थिकाये पण्णवेड़ जहा सत्तमे सए अण्णउत्थिय उद्देसए जाव से कहमेयं मदुया ! एवं ' तए णं से मदुए समणोवासए ते अण्णउत्थिए एवं वयासी - 'जड़ कर्ज कज्जइ जाणामो पासामो, अहे कजण कज्जण जाणामो ण पासामो ।' तए णं ते अण्णउत्थिया मदुयं समणोवासयं एवं वयासी- 'केस णं तुमं मददुया ! समणोवासगाणं भवसि जे गं तुमं एयमट्ठे ण जाणसि ण पाससि ?
२७२२
कठिन शब्दार्थ - कज्जं कज्जइ - कार्य करते ।
भावार्थ - १५ - हे मद्रुक ! तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र, पाँच अस्तिकायों की प्ररूपणा करते हैं इत्यादि, सातवें शतक के अन्य - तीर्थिक (दसवें ) उद्देशक वत् यावत् हे मद्रुक ! यह कैसे माना जाय ?
मद्रुक श्रमणोपासक ने उन अन्यतीर्थिकों से कहा- 'वस्तु के कार्य से उसका अस्तित्व जाना और देखा जा सकता है। बिना कार्य के कारण दिखाई नहीं देता ।'
अन्यतfर्थकों ने मद्रुक श्रमणोपासक को आक्षेपपूर्वक कहा - 'हे मद्रुक ! तू कैसा श्रमणोपासक है कि जो तू पंचास्तिकाय को जानता देखता नहीं है, फिर भी मानता है ? '
तणं से मदुसमणोवासए ते अण्णउत्थिए एवं क्यासी'अत्थि णं आउसो ! वाउयाए वाइ ?' हंता अस्थि, तुब्भे णं आउसो ! 'वाउयायस्स वायमाणस्स रूवं पासह ?' णो इणट्ठे समट्ठे । 'अत्थि णं आउसो ! घाणसहगया पोग्गला ?' हंता अस्थि,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org