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भगवती सूत्र-श. १८ उ. ७ मद्रुक धावक का अन्य-तोथियों से वाद
विवेचन-मन, वचन और काय योग को किसी एक पदार्थ में स्थिर करना-'प्रणिधान' कहलाता है। मन, वचन, काया को सुप्रवृत्ति को 'सुप्रणिधान' कहते हैं और दुष्ट प्रवृत्ति को दुष्प्रणिधान कहते हैं । दुप्प्रणिधान चौवीस ही दण्डक में पाया जाता है और सुप्रणिधान केवल मनुष्य (संयत-साधु) में ही होता है ।
मदुक श्रावक का अन्य-तार्थियों से वाद
१४-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे । गुणसिलए चेहए । वण्णओ । जाव पुढविसिलापट्टओ । तस्स णं गुणसिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते वहवे अण्णउत्थिया परिवसंति, तं जहाकालोदायी, सेलोदायी, एवं जहा सत्तमसए अण्णउत्थिउद्देसए जाव से कहमेयं मण्णे एवं ? तत्थ णं रायगिहे णयरे मद्दुए णामं समणो. वासए परिवसइ, अड्ढे जाव अपरिभूए अभिगय० जाव विहरइ । तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे जाव समोसढे, परिसा जाव पज्जुवासइ। तए णं मद्दुए समणोवासए इमीसे कहाए लद्धठे समाणे हट्टतुट्ट० जाव हियए, पहाए जाव सरीरे, सयाओ गिहाओ पडिणिस्खमइ, स०२ पडिमिक्खमित्ता पादविहारचारेणं रायगिहं णयरं जाव णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता तेसिं अण्णउत्थियाणं अदूरसामंतेणं वीइवयइ । तए णं ते अण्णउत्थिया मददुयं समणोवासयं अदूरसामंतेणं वीइवयमाणं पासंति, पासित्ता अण्णमण्णं सदाति, अण्णमण्णं सद्दावेत्ता एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया !
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