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________________ २६७६ भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ पृथिव्यादि से मनुष्य हो, मुक्त हो सकते हैं एवमाइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयळं णो सद्दहंति ३, एयमढें असदहमाणा ३ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति, वंदित्ता শব্দৰবৰ বৰৰে भावार्थ-उस काल उस समय में राजगृह नाम का नगर था। वर्णन । गुणशील नामक उद्यान था। वर्णन । यावत् परिषद् वन्दना कर के चली गई। उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के अन्तेवासी यावत् प्रकृति के भद्र, माकन्दीपुत्र अनगार, तीसरे शतक के तीसरे उद्देशक में कथित मण्डितपुत्र अनगार के समान पर्युपासना करते हुए, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से पूछा १ प्रश्न-हे भगवन् ! कापोतलेशी पृथ्वीकायिक जीव, कापोतलेशी पृथ्वीकायिक जीवों में से मर कर अन्तर रहित मनुष्य शरीर प्राप्त कर केवलज्ञान उपार्जन कर सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? १ उत्तर-हाँ, माकन्दीपुत्र ! कापोतलेशी पृथ्वीकायिक यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। २ प्रश्न-हे भगवन् ! कापोतलेशी अपकायिक जीव, कापोतलेशी अपकायिक जीवों में से मर कर अन्तर रहित मनुष्य शरीर को प्राप्त कर एवं केवलज्ञान उपार्जन कर सिद्ध होता है यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है ? २ उत्तर-हां, माकादीपुत्र ! यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! कापोतलेशी वनस्पतिकायिक जीव, वनस्पतिकायिक जीवों में से मर कर इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? ३ उत्तर-हाँ, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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