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भगवती मूत्र-ग. २२ वर्ग १ उ. १-१० ताल-तमालादि की उत्पत्ति
'कदली' का अर्थ है केले का वृक्ष । केले के भी मूल से ले कर बीज पर्यंत दस उद्देशक कहे गये हैं । इससे यह स्पष्ट है कि केले में बीज होते हैं। एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्नोत्तरों में उन जीवों का उपपात (जन्म), परिमाण, स्थिति, अवगाहना, लेश्या आदि का वर्णन किया गया है । अतः केले (कदली फल ) में बीज होते हैं और वे सचित्त हैं ।
यहां ताल वर्ग में वर्णित वनस्पतियों में फल और बीज की उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल पृथक्त्व बताई गई है। इसलिए यह भ्रम हो सकता है कि यहां पर उन्हीं वनस्पतियों का ग्रहण करना चाहिए कि जिनके फल एवं बीज की अवगाहना समान हो । कदली (केले) की स्थिति ऐसी नहीं होने से उसका यहां पर ग्रहण नहीं करना चाहिए । किन्तु गहराई से विचार करने पर यह भ्रम दूर हो सकता है। यहां पर वलय जाति की अनेक वनस्पतियों का ग्रहण हुआ है, उनमें खजूर पूगीफल (मुपारी) आदि कुछ वनस्पतियों में फल और बीज की अवगाहना समान है तो नारियल, कदला आदि अनेक वनस्पतियों में फल और बीज की अवगाहना समान नहीं है । सब वनस्पतियों की अलग-अलग अवगाहना बताना संभव न होने से आगमकार उस पूरे समूह की सर्व जघन्य एवं सर्व उत्कृष्ट अवगाहना बता देते हैं । फल और बीजों का जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग बताई है और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल पृथक्त्व । यद्यपि अनेक स्थानों पर पृथक्त्व का अर्थ दो मे नव तक किया जाता है, तथापि यहां पर आया हुआ 'पृथक्त्व' शब्द अनेकता । का द्योतक है, मात्र दो से नव अंगुल तक का ही नहीं। आवश्यकतानुसार इससे अधिक अंगुलों का भी इसमें ग्रहण समझना चाहिए । अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना उत्पत्ति के समय होता है । उसके बाद बढ़ते हुए किसी की अवगाहना अंगुल के संख्यातवें भाग आदि हो कर रह जाती है, वे अंगुल पृथक्त्व से अधिक तो होती ही नहीं । इसलिए वलय बनस्पति के सभी भेदों के फल और बीजों की अवगाहना अंगुल पृथक्त्व नहीं समझ कर किसी भेद की समझनी चाहिए। उस में भी प्रथम-द्वितीयादि सभी आरों का ग्रहण है। प्रथमादि आरों में वनस्पतियों की अवगाहना भी बड़ी होती है। स्कंधादि की गव्यूति
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___ + भगवती मूत्र के इस मूल पाठ से केले में भी बीज होना स्पष्ट प्रमाणित हो । रहा है केले के मध्य में जो काली रेखा दिखाई देती है, वह छोटे-छोटे बीजों की पंक्ति है। यह प्रत्यक्ष से भी सिद्ध है। केला पूरा हो, या खण्ड रूर टुकड़े, और भले ही उन टुकड़ों पर शक्कर डाल दो गई हो, बीज तो है हौ
और ज्यों के त्यों सचित्त है। इसलिये साध-माध्वियों के लिए अकल्पनीय है। यही बात इस शतक के अंतिम वर्ग में वणित 'दाख' के विषय में भी लाग होती है। दाख भी बीज यक्त एवं सचित्त है-डोशी।
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