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________________ २६६८ भगवती सूत्र-श. १८ उ २ कार्तिक श्रेष्ठी (सेठ)-शवेन्द्र का पूर्वभव जिसके परामर्श से किये हुए कार्यों में कहीं विरोध न आवे, जो उचित कार्यों में प्रवृत्ति और अनुचित से निवृत्ति करवाने वाला है, ऐसा वह कार्तिक सेठ उन व्यापारियों और कुटुम्बीजनों के लिये 'प्रमाणभूत' था। . जिस प्रकार आधेय वस्तु के लिये आधार होता है, उसी प्रकार जो सभी लोगों के लिये सभी कार्यों में उपकारी हो, वह आधार' कहलाता है। जिस प्रकार खड्डे आदि में पड़े हुए पुरुष को निकालने में रस्सी आलम्बन होती है। उसी प्रकार आपत्ति रूप खड्डे में पड़े हुए पुरुषों की आपत्ति को दूर करने वाला आलम्बन' कहलाता है। जिस प्रकार आँख से सब दिखाई देता है, उसी प्रकार जो लोगों के लिये विविध प्रकार के कार्यों में प्रवृत्ति निवृत्ति रूप पथ-प्रदर्शक हो, वह 'चक्षु' कहलाता है । कार्तिक सेठ उपर्युक्त गुणों से युक्त था। . ४-तएणं से कत्तिए सेट्ठी मुणिसुव्वए० जाव णिसम्म हट्टतुट्ठ० उट्ठाए उठेइ, उठाए उठेता मुणिसुव्वयं जाव एवं वयासी-'एवमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुम्भे वदह जं, णवरं देवाणुप्पिया ! णेगमट्ट. सहस्सं आपुच्छामि, जेट्टपुत्तं च कुटुंबे ठावेमि, तएणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं पन्वयामि । अहासुहं जाव मा पडिबंधं । भावार्थ-४-कार्तिक सेठ भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सुन कर यावत् अवधारण कर के प्रसन्न और सन्तुष्ट हो कर खड़ा हुआ और विनयपूर्वक बोला-'हे भगवन् ! आपका प्रवचन यथार्थ है। मैं अपने एक हजार आठ मित्रों से पूछ कर और ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप कर, आपके पास प्रवजित होना चाहता हूँ।' “देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा करो, धर्म साधना में विलम्ब मत करो।" तए णं से कत्तिए सेट्टी, जाव पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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