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भगवती सूत्र-श. १८ उ. २ कातिक श्रेष्ठी (सेठ)-श केन्द्र का पूर्वभव
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योग्य यावत् चक्षुरूप था। जिस प्रकार राजप्रश्नीय सूत्र में चित्त सारथि का वर्णन है, उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिये । वह कार्तिक सेठ एक हजार आठ व्यापारियों का और अपने कुटुम्ब का अधिपति पद भोगता हुआ यावत् पालन करता हुआ रहता था। वह जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक था।
३-तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुव्वए अरहा आइगरे जहा सोलसमसए तहेव जाव समोसढे, जाव परिसा पज्जुवासह । तर से कत्तिए सेट्ठी इमीसे कहाए लढे समाणे हट्टतुट्ठ• एवं जहा एकारसमसए सुदंसणे तहेव णिग्गओ, जाव पज्जुवासइ । तएणं मुणिसुब्बए अरहा कत्तियस्स सेट्ठिरस धम्मकहा जाव परिसा पडिगया ।
३-उस काल उस समय में धर्म की आदि करने वाले इत्यादि सोलहवें शतक के पांचवें उद्देशक के वर्णनानुसार श्री मुनिसुव्रत तीर्थकर वहां पधारे यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। कातिक सेठ भगवान् का पधारना सुन कर बहुत प्रसन्न हुआ इत्यादि, ग्यारहवें शतक के ग्यारहवें उद्देशक में कथित सुदर्शन सेठ के समान वन्दन करने के लिये निकला यावत् पर्युपासना करने लगा। भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी ने उस महति परिषद् और कार्तिक सेठ को धर्मकथा कही यावत् परिषद् लौट गई।
विवेचन-कार्तिक सेठ आढय यावत् अपराभूत था। वह एक हजार आठ व्यापारियों के लिये तथा अपने कुटुम्ब के लिये 'मेढ़ी' प्रमाण, आधार, आलम्बन और चक्षुरूप था। जिस प्रकार भूसे में से धान निकालने के लिये खलिहान के बीच में एक स्तम्भ गाड़ा जाता है, जिसके साथ बन्धी हुई बैलों की पंक्ति, धान्य को गाहती है, उसी प्रकार जिसका अवलम्बन ले कर सभी व्यापारी और कुटुम्बीजन, करने योग्य कार्यों के विषय में विचारविमर्श करते हैं, उस आधार को 'मेढ़ी' कहते हैं । प्रत्यक्ष आदि को 'प्रमाण' कहते हैं ।
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